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Study Material



प्रमुख नहर सिंचाई परियोजना

इंदिरा गांधी नहर परियोजना

  • यह विश्व की विशालतम् सिंचाई परियोजना है । 
  • इसकी नींव 30 मार्च, 1958 को तत्कालीन गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत द्वारा रखी गई थी ।
  • यह राजस्थान के शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों को सिंचाई की सुविधा प्रदान करती है ।
  • यह गंगानगर, बीकानेर, जैसलमेर तथा बाड़मेर जिलों को सिंचित करती है ।
  • यह सतलुज एवं व्यास के संगम पर अवस्थित 'हरिके बैराज' से  निकाली गई है ।

पश्चिमी यमुना नहर

इस नहर का निर्माण तुगलक वंश के शासक 'फिरोजशाह तुगलक' ने करवाया   था । यह यमुना नदी के दाहिने किनारे पर ताजेवाला (हरियाणा) से निकाली गई है ।

सरहिंद नहर

यह नहर पंजाब के रोपड़ से सतलुज नदी के बायें किनारे से निकाली गई है ।

ऊपरी गंगा नहर

इस नहर को हरिद्वार के समीप गंगा नदी से निकाला गया है । इस नहर का प्रवाह बहुत ही उबड़-खाबड़ क्षेत्रों से होता है । इस नहर के जल से उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों की भूमि सिंचित होती है ।

निचली गंगा नहर  

यह नहर बुलंदशहर के नरौरा से गंगा नदी से निकलती है । यह नहर कासगंज के समीप ऊपरी गंगा नहर में मिल जाती है । इससे उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, एटा, मैनपुरी, इटावा, कानपुर आदि क्षेत्रों में सिंचाई की जाती है ।

शारदा नहर 

इसे उत्तराखंड के नैनीताल (बनबासा) के निकट शारदा नदी से निकाला गया है । इस नहर के माध्यम से उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर, पीलीभीत, लखनऊ, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, जौनपुर आदि जिलों में सिंचाई की जाती है । इसी नहर पर 'खातिमा' शक्ति केंद्र भी स्थापित है ।

 

भारत के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न प्रकार की पारंपरिक जल संरक्षण संरचना एवं सिंचाई की पध्द्तियां

जैव भौतिक क्षेत्र

संरचना

व्याख्या

राज्य / क्षेत्र

ट्रांस हिमालय

जिंग

बर्फ से जल इकट्ठा करने का टैंक

लद्दाख

पश्चिमी हिमालय

  • कुल
  • नीला

 

 

 

  • कुह्ल

 

 

 

 

 

  • खत्री  

लद्दाख पर्वतीय क्षेत्रों में जल के नाले ।

छोटे तालाब ( ये चारों तरफ से छायादार पेड़ों से घिरे रहते हैं ताकि पानी  वाष्पिकृत न हो सके)

प्राकृतिक बांध या कंदरा के पास एक अस्थायी मंडारण क्षेत्र बनाया जाता है , जिसमें पानी को संगृहीत करके नहरों के माध्यम से खेतों में सिंचाई की जाती है

पत्थरों को तराश कर बनाए गए टैंक

  • जम्मू कश्मीर
  • उत्तराखंड

 

 

 

 

  • हिमांचल प्रदेश

 

 

 

 

 

  • हिमाचल प्रदेश 

 

 

पूर्वी हिमालय

  • अपातानी

सोढ़ीनुमा क्षेत्र जहाँ पानी के आने और निकलने के रास्ते होते हैं । इस तरह अरुणाचल से पानी का प्रबंधन लोअर सुबनश्री के क्षेत्र में अपातानी जनजाति द्वारा चावल की खेती और मछली पालन के लिये किया जाता है ।

  • अरुणांचल प्रदेश

उत्तरी-पूर्वी हिमालय

  • जाबो

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  • बास बूंद सिंचाई

रन ऑफ ( बहते पानी का संग्रहण ) , यह नागालैंड के किकरुमा क्षेत्र में प्रचलित तकनीक है , जहाँ पर अत्यधिक वर्षा होती  है । पहाडी क्षेत्रों से बहते जल को विभिन्न सीढ़ीनुमा ढलानों के माध्यम से तालाब बनाकर संगृहीत कर लिया जाता है । इस जल का उपयोग पशुपालन व चावल की खेती में किया जाता है ।

पहाडी क्षेत्रों में प्राकृतिक जल धाराओं से बॉस की नलियों द्वारा पानी लाकर बूंद सिंचाई करना ।

  • नागालैंड

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  • मेघालय

 

ब्रम्हापुत्र घाटी

  • डोग

 

 

  • डुंग/ झंपोस

तालाब , इसका निर्माण बोडो जनजाति द्वारा सिंचाई हेतु किया जाता है ।

डुंग/ झंपोस कम दूरी के सिंचाई माध्यम हैं जो धान के खेतों को बांध से जोड़ते हैं । यह पद्धति जलपाईगुड़ी क्षेत्र में अपनाई जाती है ।

  • असम

 

 

  • पश्चिम बंगाल

गंगा-सिंधु मैदान

  • अहर-पाइन

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

दिघी

 

 

 

 

  • बावली

 

अहर एक प्रकार के तालाब / हौज होते हैं जिनके तीन ओर तटबंध बना होता है, चौथी तरफ भूमि का प्राकृतिक ढाल / प्रवणता होती है । पाइन कृत्रिम | चैनल हैं जिनके माध्यम से नदी के पानी का उपयोग कृषि क्षेत्र में किया जाता है ।

छोटे चौकोर या गोल जलाशय जिन्हें नदी के पानी से भरा जाता था ।

 

सीढ़ीदार कुएँ ।

  • दक्षिण बिहार, पश्चिम बंगाल

 

 

 

 

 

 

 

  • दिल्ली एवं आसपास का क्षेत्र
  • दिल्ली एवं आसपास का क्षेत्र

 

पश्चिमी भारत (मरुस्थलीय क्षेत्र)

  • कुंडा/कुंडी

 

 

 

 

 

 

 

  • कुई/बेरी

 

 

 

 

 

  • झालर

 

 

  • टंका

 

  • खादिन

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  • विरदास

कुंडा / कुंडी एक प्रकार के तस्तरीनुमा हौज / तालाब होते हैं । इनका ढलान केंद्र ( जहाँ पर कुआँ होता है ) की ओर होता है । इनमें वर्षा के जल का संग्रहण पीने हेतु किया जाता है ।

टैंकों के पास गहरे कुएँ का निर्माण कर दिया जाता है ताकि टैंक से पानी रिस कर इसमें इकट्ठा होता रहे । इसमें वर्षा के पानी का संचयन भी किया जाता है ।

टैंक , इनका आकार आयताकार होता है जोकि सीढ़ीनुमा होता है ।

 

जमीन के अन्दर टैंक

 

खादिन की मुख्य विशेषता यह है कि निचले पहाडी ढलानों पर 100 से 300 मीटर लंबे तटबंध बनाये जाते हैं , जिनमें वर्षा का पानी संचित कर लिया जाता है , जिसका प्रयोग सिंचाई हेतु किया जाता है ।

 

 

 

कम गहरे कुए

  • पश्चिम राजस्थान

 

 

 

 

 

 

 

  • पश्चिमी राजस्थान

 

 

 

 

 

  • राजस्थान / गुजरात

 

 

 

  • बीकानेर 

 

  • जैसलमेर, पश्चिमी राजस्थान

 

 

 

 

 

 

  • कच्छ

मध्यवर्ती उच्च भूमि

  • तालाब/बंधिस

जलाशय

  • बुंदेलखंड
  • साझा कुआं

खुले कुएं

  • मेवाड़, पूर्वी राजस्थान
  • जोहड़

मिट्टी के चेक डैम

  • अलवर
  • नाडा  / बांध

पत्थर के चेक डैम

  • मेवाड़
  • पत

नदियों के बीच में डाईवर्जन बांध

  • झाबुआ (मध्य प्रदेश
  • रापत

वर्षा जलसंयंत्र टैंक जैसी संरचना

  • राजस्थान

पूर्वी ऊँची जमीन

मुंड

पानी के रास्ते में मिट्टी के बांध बनाना

ओडिशा

दक्कन का पठार

  • चेरबु

वर्षा जल संग्रहण जलाशय

  • चितूर, कुडप्पा
  • भण्डार

चेक डैम या पानी का बहाव परिवर्तन हेतु नदी पर बांध बनाना

  • उत्तर-पश्चिम महाराष्ट्र
  • रामटेक माडल

भूगर्भीय जल स्रोत एवं सतही जल स्रोतों का नेटवर्क जो भूगर्भीय व सतही नहरों द्वारा जुड़ा होता है

  • रामटेक (महाराष्ट्र)

पश्चिमी घाट

  • सुरन्गम

क्षैतिज कुँए-इन कुओं का पानी टनल के माध्यम से बाहर निकाल कर एक गहरे गढ्ढे में इकट्ठा किया जाता है

  • कासारगोड (केरल)

पूर्वीघाट

  • कोराम्बू

घास एवं अन्य पौधा तथा कीचड़ से बने तात्कालिक बांध

  • केरल

पूर्वी तटीय मैदान

  • उरानी

तालाब

  • तमिलनाडु

 

तालाब सिंचाई

  • भारत में प्राकृतिक तथा कृत्रिम दोनों प्रकार के तालाबों का उपयोग सिंचाई कार्य में किया जाता है ।
  • भारत में कुल सिंचित भूमि के लगभग 2.97 प्रतिशत भाग की सिंचाई तालाबों के द्वारा होती है ।
  • तालाबों द्वारा सर्वाधिक सिंचाई प्रायद्वीपीय भारत के तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना तथा आंध्र प्रदेश राज्यों में की जाती है । इसके अलावा बिहार, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में भी तालाबों द्वारा सिंचाई की जाती है ।
  • भारत में तालाबों द्वारा सर्वाधिक सिंचाई तमिलनाडु में होती है ।

तालाब सिंचाई के लाभ

  • तालाब सिंचाई में अन्य संसाधनों की अपेक्षा न्यूनतम खर्च आता है, क्योंकि दक्षिण भारत के अधिकांश तालाब प्राकृतिक हैं । कृत्रिम तालाबों के निर्माण में भी कम खर्च आता है ।
  • तालाबों का प्रयोग सिंचाई के साथ-साथ मत्स्य उत्पादन के लिये भी किया जाता है ।

तालाब सिंचाई से समस्याएँ

  • इसके द्वारा पूरे वर्ष सिंचाई नहीं की जा सकती है, क्योंकि अधिकतर तालाब ग्रीष्म ऋतु में सूख जाते हैं ।
  • तालाबों में प्रतिवर्ष वर्षा जल के साथ अवसादों का निक्षेपण हो जाता है, जिससे तालाबों की गहराई कम होने से तालाबों के जल ग्रहण की क्षमता भी घट जाती है । अत: प्रतिवर्ष अवसादों की सफाई की समस्या मौजूद रहती है ।
  • कुओं एवं नलकूपों की तरह ही तालाबों के द्वारा भी सीमित क्षेत्रों में ही सिंचाई संभव होती है ।

 

भारत में सिंचाई की आधुनिक विधियाँ

ड्रिप सिंचाई

  • इस सिंचाई पद्धति के द्वारा पानी को पौधों की जड़ों पर बूंद-बूंद करके टपकाया जाता है, इसलिये इसे 'टपक सिंचाई' या 'बूंद सिंचाई' के नाम से भी जाना जाता है । सिंचाई की इस विधि की खोज 'इजराइल ' से मानी जाती है ।
  • इस विधि के तहत फसल को पानी धीमी गति से एवं रोजाना या एक दिन छोड़कर दिया जाता है ।
  • परंपरागत सतही सिंचाई की तुलना में 'ड्रिप सिंचाई ' के द्वारा कम जल में ही अधिक भूमि की सिंचाई होती है , क्योंकि इस विधि में जल को पाइपों के जाल के द्वारा सीधे पौधों की जड़ों तक पहुँचाया जाता है ।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (AIBP ) 1996-1997 में आरंभ किया गया ।
  •  कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम 1974-75 में आरंभ किया गया ।
  • जल गुणवत्ता मूल्यांकन प्राधिकरण का गठन 2001 में किया गया ।
  •  अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम 1956 में पारित किया गया ।
  •  पाकिस्तान से सिंधु नदी जल समझौता 19 सितंबर , 1960 किया गया था ।
  •  2003 में आरंभ की गई हरियाली योजना का संबंध 'जल प्रबंधन' से है ।
  • सिंचाई की यह विधि ऊसर, रेतीली मृदा, विषम उच्चावच वाले क्षेत्रों के लिये अत्यंत उपयोगी मानी जाती है । इस विधि का उपयोग प्रायः सब्जियाँ उगाने में तथा अंगूर, नींबू व अन्य फलों की खेती में किया जाता है ।

ड्रिप सिंचाई के लाभ

  • ड्रिप सिंचाई में पेड़-पौधों को नियमित ज़रूरी मात्रा में पानी मिलता रहता है तथा पानी की बचत होती है ।
  • इस पद्धति से सिंचाई के कारण मृदा में लवणीकरण एवं खरपतवार की समस्या उत्पन्न नहीं होती है तथा मृदा अपरदन में भी कमी आती है ।
  • इस विधि के द्वारा असमतल जमीन पर भी फसलों की आसानी से सिंचाई की जा सकती है ।
  • आवश्यक रासायनिक पदार्थों एवं उर्वरकों को सीधे पौधों की जड़ों तक पहुँचाया जाता है ।
  • उर्वरक, अंतर संवर्द्धन और श्रम का मूल्य कम हो जाता है । डिप सिंचाई पद्धति अपनाने से कृषि उत्पादकता में वृद्धि देखी जा रही है ।

ड्रिप सिंचाई की सीमाएँ

  • ड्रिप सिंचाई हेतु प्रयोग किये जा रहे ट्यूबों को सूर्य के प्रकाश से हानि पहुँचती है , अतः वे जल्दी खराब हो सकते हैं ।
  • ड्रिप सिंचाई विधि में आरंभिक लागत अधिक होती है ।

फव्वारा सिंचाई

  •  इसे ' बौछारी सिंचाई ' के नाम से भी जाना जाता है । इसमें सिंचाई जल को पंप करके पाइपों की सहायता से सिंचाई स्थल तक ले । जाया जाता है ।
  • इसमें दबाव पद्धति द्वारा फहारों या वर्षा की बूंदों के समान जल सीधे फसल पर छिडका जाता है । इस प्रकार छिड़काव द्वारा पानी खेतों के चारों तरफ फैलता है ।

फव्वारा सिंचाई के लाभ

  • परंपरागत सिंचाई की तुलना में फव्वारा सिंचाई से जल की बचत होती है ।
  • पानी के साथ घुलनशील उर्वरक , कीटनाशक तथा खरपतवारनाशी दवाओं का प्रयोग भी छिड़काव के साथ ही आसानी से किया जा सकता है ।
  • पाला पड़ने से पहले बौछारी सिंचाई करने पर तापमान बढ़ जाने से फसल को पाले से नुकसान नहीं होता है ।
  • सिंचाई के लिये नाली, मेड़ बनाने तथा उनके रख-रखाव की आवश्कता नहीं पड़ती है, जिससे श्रम की बचत होती है ।

 

फव्वारा सिंचाई की सीमाएँ

  • तेज हवा में सिंचाई करने पर पानी का वितरण असमान हो जाता है ।
  • पानी साफ होना चाहिये, उसमें रेत, कूड़ा आदि नहीं होना चाहिये अन्यथा कूड़ा फव्वारों वाली पाइपों में फँस जाता है ।

 

सतही सिंचाई

  • भारत में अधिकतर कृषि योग्य क्षेत्रों में सतही सिंचाई होती है । इसमें प्रमुख हैं- नहरों, नलकपों, तालाबों, कुओं द्वारा खेत में जल का वितरण किया जाना तथा एक किनारे से खेत में जल को फैलाया जाना । 

सतही सिंचाई के लाभ

  • फसलों की पैदावार में बढ़ोतरी । 
  • उर्वरक उपयोग की दक्षता में वृद्धि ।

सतही सिंचाई से समस्याएँ

  • इस प्रणाली में खेत के उपयुक्त रूप से तैयार न होने पर जल का अत्यधिक नुकसान होता है एवं अधिकतर जल का जमीन में रिसकर व वाष्पीकरण द्वारा नुकसान हो जाता है ।
  • मृदा लवणीकरण की समस्या बढ़ती है ।

रेनगन तकनीक

 इस तकनीक के द्वारा 20 से 60 मी . की दूरी तक प्राकृतिक बरसात की तरह सिंचाई की जाती है । इसमें कम पानी से अधिक क्षेत्रफल को सींचा जा सकता है । सिंचाई के अन्य साधनों की अपेक्षा इसके माध्यम से आधे से भी कम समय एवं पानी से खेत की सिंचाई संभव है ।

फर्टिगेशन        

इस विधि के द्वारा जल के साथ उर्वरकों को भी मिलाकर सिंचाई की क्रिया संपन्न की जाती है । इस सिंचाई की आधुनिक खोज 'इजराइल ' से हुई । इस विधि से सिंचाई होने से जल व उर्वरकों दोनों का इष्टतम उपयोग होता है । इसमें वैसे उर्वरकों को उपयोग में लाया जाता है जो पूर्ण घुलनशील तथा जल से अभिक्रिया विहीन होते हैं ।

 

कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम

  • केंद्र द्वारा प्रायोजित कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम योजना के प्रारंभिक वर्ष 1974-75 में प्रारंभ किया गया था ।
  • इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य सिंचाई साधनों का दक्षतापूर्ण उपयोग करना, सिंचित भूमि क्षेत्र में कृषि उत्पादन बढ़ाना था ।
  • इसके अंतर्गत खेतों में नालियों तथा अतिरिक्त पानी के निकास के लिये नाले बनाने का काम, भूमि का उचित आकार के भूखंडों में विभाजन, खेतों के लिये सड़क बनाना, चकबंदी की व्यवस्था करना, जोतों की सीमा का पुनर्निर्धारण, बारी-बारी पानी देने की बाड़ाबंदी प्रणाली लागू करना, मंडियों एवं गोदामों का निर्माण तथा कृषि संबंधित कार्यों के लिये भूमिगत जल के विकास के कार्यों को सम्मिलित किया जाता है ।
  • सन् 2004 से कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम को पुनर्गठित करके इसका नामकरण 'कमान क्षेत्र विकास तथा जल प्रबंधन कार्यक्रम' कर दिया गया है ।

 

 

 

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