संवैधानिक विकास
भारत के नये गणराज्य के संविधान का शुभारम्भ 26 जनवरी, 1950 को हुआ और भारत अपने लम्बे इतिहास में प्रथम बार एक आधुनिक संस्थागत ढांचे के साथ पूर्ण संसदीय लोकतंत्र बना । लोकतंत्र एवं प्रतिनिधि संस्थाएं भारत के लिए पूर्णतः नयी नही है । कुछ प्रतिनिधि निकाय तथा लोकतंत्रात्मक स्वशासी संस्थाएं वैदिक काल में भी विद्यमान थी । ऋग्वेद में सभा तथा ’समिति’ नामक दो संस्थाओं का उल्लेख है । उल्लेखनीय है कि ऋग्वैदिक काल में आर्यो का प्रशासन तंत्र कबीले के प्रधान के हाथों चलता था, क्योंकि वही युद्ध का सफल नेतृत्व करता था। वह राजा कहलाता था । प्रतीत होता है कि ऋग्वैदिक काल में राजा का पद आनुवंशिक हो चुका था । फिर भी प्रधान या राजा के हाथ में असीमित अधिकार नही रहता था, क्योंकि उसे कबायली संगठनों से परामर्स लेना पड़ता था। कबीले की आम सभा को समिति कहते थे और ’सभा’ अपेक्षतया छोटा और चयनित वरिष्ठ लोगों का निकाय था, जो मोटे तौर पर आधुनिक विधानमंडलों में उच्च सदन के समान था वही से आधुनिक संसद की शुरूआत मानी जा सकती है। आधुनिक अर्थो में संसदीय शासन प्रणाली एवं विधायी संस्थाओं का उदभव एवं विकास दो शताब्दियों तक ब्रिट्रेन के साथ भारत के संबन्धों से जुड़ा हुआ है। परंतु यह मान लेना गलत होगा कि बिल्कुल बिटेन जैसी संस्थाएं किसी समय भारत में प्रतिस्थापित हो गई। जिस रूप में भारत की संसद और संसदीय संस्थाओं को आज हम जानते हैं उनका विकास भारत में ही हुआ। इनका विकास विदेशी शासन से मुक्ति के लिए और स्वतंत्र लोकतंत्रात्मक संस्थाओं की स्थापना के लिए किए गए अनेक संघर्षो और ब्रिटिश शासकों द्वारा रूक-रूक कर, धीरे-धीरे और छोटे-छोटे टुकड़ों में दिए गए संवैधानिक सुधारों के द्वारा हुआ।
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