भारतीयों सम्राज्य के हितों की संरक्षा के लिए अधिनियम
1853 के चार्टर के बाद कम्पनी के व्यापार संचालन के कार्यो में ध्यान देने की अपेक्षा साम्राज्य विस्तार पर अधिक ध्यान देने लगी । परिणामस्वरूप छोटे-छोटे तथा बिखरे हुए भारतीय राजवंशों में इसकी गम्भीर प्रतिक्रिया हुई और भारत की सामान्य जनता भी इस प्रक्रिया से अछूती न रही । फलस्वरूप 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारम्भ हुआ और अंग्रेजों ने विजय प्राप्त करके सम्पूर्ण भारत पर अपने सम्राज्य का विस्तार कर लिया। साम्राज्य स्थापना के बाद ब्रिटिश संसद ने कम्पनी के हाथों से शासन संचालन के अधिकार को ले लिया तथा साम्राज्य की सुरक्षा के लिए अनेक कानूनों को पारित किया, जो भारतीय संविधान के आधार बनें । साम्राज्य के हितों की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश संसद ने कई अधिनियम पारित किये, जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
भारत सरकार अधिनियम 1858
- प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दमन के बाद ब्रिटिश संसद की निम्न सदन हाउस ऑफ काॅमंस सभा ने 30 अप्रेल 1858 को दो प्रस्ताव स्वीकृत किया, जिनके आधार पर भारत में उत्तरदायित्व शासन की स्थापना के लिए विधेयक तैयार किया गया । ब्रिटिश संसद द्वारा पारित विधेयक अधिनियम बनकर प्रबृत्त हुआ । इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान किये गये थे-
- भारत में कम्पनी के शासन को समाप्त कर दिया गया तथा शासन का उत्तरदायित्व ब्रिटिश सरकार (संसद) को सौप दिया गया ।
- कम्पनी के निदेशक मण्डल, नियंत्रक मंडल तथा गुप्त समिति को समाप्त करके इनके अधिकारों तथा शक्तियों के प्रयोग का अधिकार साम्राज्ञी की ओर से एक मुख्य राज्य सचिव जिसे भारत राज्य सचिव का पद नाम दिया गया, को सौप दिया गया।
- कम्पनी की सेनाओं को ब्रिटिश शासन के आधीन कर दिया गया ।
- भारत राज्य सचिव के कार्यो में सहायता देने के लिए 15 सदस्यों की एक "भारत परिषद’’ की स्थापना की गयी, जिसमें 8 सदस्य ब्रिटिश सरकार (सम्राट) द्वारा तथा 7 सदस्य कम्पनी के निदेशक मण्डल द्वारा नियुक्त किये जाते थे।
- भारत परिषद के बैठकों की अध्यक्षता भारत राज्य सचिव करता था तथा उसे सामान्य मत के अतरिक्त निर्णायक मत देने का अधिकार प्राप्त था
- भारत परिषद की भूमिका को केवल परामर्शदात्री बनाया गया जबकि प्रायः समस्त मामलों में राज्य सचिव ही पहल कर सकता था अथवा निर्णय ले सकता था।
- भारत राज्य सचिव को भारत के वायसराय के साथ गुप्त पत्र व्यवहार का अधिकार दिया गया ।
- भारत के गवर्नर-जनरल का नाम वायसराय कर दिया गया ।
- इस अधिनियम को 2 अगस्त 1858 को राजकीय स्वीकृत प्राप्त हुई और उसी दिन लागू हो गया ।
1 नवम्बर 1858 की घोषणा
- 1 नवम्बर 1858 को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने भारत के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण नीतिगत घोषणा की, जिसे कुछ हद तक भारतीय संविधान का आधार माना जा सकता है । इस घोषणा की महत्वपूर्ण बाते अग्रलिखित है -
- भारतीय प्रजा को साम्राज्य के अन्य भागों में रहने वाली ब्रिटिश प्रजा के समान माना जायेगा ।
- भारत के लोंगो को लोग सेवाओं में अपनी शिक्षा, योग्यता तथा विश्वसनीयता के आधार पर स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष भर्ती में मूलवंश, लिंग, धर्म तथा निवास स्थान के आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा।
- भारत के लोगों की भौतिक तथा नैतिक उन्नति के उपाय लागू किये जायेंगे ।
- महारानी की इस घोषणा का व्यापक स्वागत किया गया तथा भारत के शिक्षित वर्ग द्वारा इसे अपने अधिकारों का ’’मैग्ना कार्टा’’ कहा गया।
भारतीय परिषद अधिनियम, 1861
- शासन तथा विधायन में भारतीयों को प्रतिनिधित्व देने, तत्समय प्रबृत्त कानून निर्माण प्रणाली के दोषों को दूर करने, ब्रिटेन में चार्टिस्ट आन्दोलन द्वारा उत्पन्न की गयी चेतना तथा तत्कालीन वायसराय लार्ड कैनिंग द्वारा शासन में सुधार के लिए भारत मंत्री को दी गयी रिपोर्ट के कारण 1861 में भारतीय परिषद अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया, इस नियम में निम्नलिखित व्यवस्था की गयी थी-
- गवर्नर-जनरल को विधायी कार्यो हेतु नये प्रान्त के निर्माण का तथा नव निर्मित प्रान्त में गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर को नियुक्ति करने का अधिकार दिया गया । गवर्नर जनरल को यह अधिकार भी दिया गया कि वह किसी प्रान्त, प्रसीडेन्सी या किसी क्षेत्र को विभाजित कर सकता है, अथवा उसकी सीमा में परिवर्तन कर सकता है।
- अधिनियम द्वारा केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों की संख्या 4 से बढ़ाकर 5 कर दी गयी। पाँचवे सदस्य को विधिवेत्ता होना अनिवार्य कर दिया गया ।
- केन्द्रीय सरकार को सार्वजनिक ऋण, वित्त, मुद्रा, डाक एवं तार, धर्म और स्वत्वाधिकार के सम्बन्ध में प्रान्तीय सरकार से अधिक अधिकार दिया गया।
- भारत परिषद को विधायी संस्था बनाया गया तथा उसे भारत में रहने वाले सभी ब्रिटिश तथा भारतीय प्रजा, भारत सरकार के कर्मचारियों भारतीय रियासतों तथा सम्राट के राज्यक्षेत्रों के आधीन रहने वाले व्यक्तियों में स्थित सभी स्थानों एवं वस्तुओं के सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार दिया गया।
- गवर्नर जनरल को नियम बनाने का अधिकार प्रदान किया गया। फलस्वरूप गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग ने सर्वप्रथम "विभाग प्रणाली’’ की शुरूआत की ।
- गवर्नर जनरल भारत की शान्ति, शुरक्षा व ब्रिटिश हितों के लिए परिषद के बहुमत की उपेक्षा कर सकता था ।
- गवर्नर जनरल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया । अध्यादेश का प्रभाव विधान परिषद द्वारा पारित कानून के समान होता था जो 6 माह तक प्रवृत रह सकता था । अध्यादेश जारी करते समय उसके कारणों का उल्लेख आवश्यक था ।
- मद्रास एवं बम्बई की सरकारों को भी व्यवस्थापिका का अधिकार दिया गया ।
- गवर्नर जनरल की परिषद सप्ताह में एक बार बैठक करती थी जिसकी अध्यक्षता वायसराय करता था।
- इस अधिनियम द्वारा प्रान्तीय विधायिका का तथा देश के शासन के विकेन्द्रीकरण का प्रारम्भ हुआ।
1865 का अधिनियम
- 1865 के अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल के विधायी अधिकार में वृद्वि की गयी । गवर्नर जनरल को प्रेसीडेन्सियों तथा प्रान्तों की सीमाओं को उद्घोषणा द्वारा नियत करने तथा उसमें परिवर्तन करने का अधिकार दिया गया।
- 1869 का अधिनियम-इस अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल को विदेश में रहने वाले भारतीयों के सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार दिया गया।
- 1873 का अधिनियम- इस अधिनियम द्वारा यह प्रावधान किया गया कि किसी भी समय ईस्ट इंडिया कंपनी को भंग किया जा सकता है । इस अधिनियम के अनुसरण में 1 जनवरी 1974 को ईस्ट इंडिया कम्पनी को औपचारिक रूप से भंग कर दिया गया ।
शाही उपाधि अधिनियम 1876
- इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार निम्नलिखित कार्य किये गये-
- औपचारिक रूप से भारत सरकार का ब्रिटिश सरकार को अन्तरण मान्य किया गया।
- गवर्नर जनरल की परिषद में छठे सदस्य की नियुक्ति की गयी, जिसे लोक निर्माण विभाग का कार्य सौपा गया।
- 28 अप्रैल1876 को एक घोषणा द्वारा महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया ।
1892 का अधिनियम
- 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद कांग्रेस के सदस्यों द्वारा नौकरशाही कार्यो के विरूद्ध संसदीय संरक्षण को सुनिश्चत करने की मांग की गयी । कांग्रेस की मांग को ध्यान में रखते हुए तथा शासन प्रणाली में और अधिक सुधार करने हेतु 1892 का अधिनियम पारित किया गया जिसमें निम्नलिखित व्यवस्था की गयी थी।
- केन्द्रीय विधान परिषद में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या में बृद्धि की गयी । इस परिषद में कम से कम 10 तथा अधिक से अधिक 16 सदस्यों की संख्या नियत की गयी।
- मद्रास एवं बम्बई प्रेसीडेन्सियों में कम से कम 8 तथा अधिक से अधिक 20 सदस्यों, बंगाल के लिए अधिकतम् 20 तथा उत्तर पश्चिमी प्रांत और अवध के लिए 15 सदस्यों की संख्या नियत की गयी।
- केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान परिषद के दो तिहाई सदस्यों को निर्वाचन द्वारा नियुक्त किये जाने की व्यवस्था की गयी।
- निर्वाचन का सिद्धान्त स्वीकार किये जाने के बावजूद निर्वाचित सदस्यों को केवल शासन द्वारा नाम निर्दिष्ट किये जाने की अवस्था में ही अधिवेशन में भाग लेने की अनुमति प्रदान की गयी
- केन्द्रीय तथा विधान परिषदों के अधिकार क्षेत्र में बृद्वि की गयी । इनके सदस्यों को सार्वजनिक हित के विषयों पर प्रश्न पूछने तथा बजट एवं वार्षिक बित्तीय वक्तब्य पर बहस करने का अधिकार दिया गया, लेकिन मतदान का अधिकार नही दिया गया।
- इस अधिनियम द्वारा कुछ हद तक भारत में संसदीय व्यवस्था का प्रचलन प्रारम्भ हुआ।
भारतीय परिषद अधिनियम 1909
1892 के अधिनियम के बाद ब्रिटिश शासकों ने फूट डालो और राज्य करा की नीति का अनुसरण किये। इस सन्दर्भ में 1905 में तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन किया गया कर्जन के इस कदम के फलस्वरूप भारतीय जनमानस पूर्णतः ब्रिटिश शासन के विरूद्ध हो गया 1905 में ब्रिटेन में सम्पन्न आम चुनाव के बाद उदावादी सरकार का गठन हुआ और लार्ड मार्ले भारत मंत्री तथा लार्ड मिंटो भारत के वायसराय बनें। ब्रिटिश सरकार के असन्तोष को कम करना चाहती थी । अतः उसने इस सम्बन्ध में सिफारिश करने का कार्य मार्ले और मिंटो को सौपा । मार्ले और मिंटो की सिफारिस के आधार पर 1909 का अधिनियम जिसे मार्ले मिंटो सुधार भी कहा जाता है, पारित किया गया इस अधिनियम के द्वारा केन्दीय तथा प्रान्तीय विधानमण्डलों के आकार तथा शक्तियों में बृद्वि की गयी । इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे-
- केन्द्रीय विधान परिषद में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 तक की बृद्वि कर दी गयी।
- केन्द्रीय विधान परिषद की कुल सदस्य संख्या 69 हो गयी जिनमें 37 सरकारी (शासकीय) सदस्य थे। सरकारी सदस्यों में से 9 पदेन (अर्थात गवर्नर जनरल तथा उसके 7 कार्यकारी पार्षद और 1 साधारण सदस्य) तथा 28 गवर्नर जनरल द्वारा मोनोनीत होते थे । 32 गैर सरकारी सदस्यों में 5 गवर्नर जनरल द्वारा मोनोनीत और शेष 27 निर्वाचित (13 साधारण निर्वाचन मंडल से तथा 14 में से 12 विशेष श्रेणी निर्वाचन मंडल से और 2 बम्बई तथा बंगाल के वाणिज्य मंडलों से) होते थे।
- प्रान्तीय विधान परिषदों की संख्या में भी वृद्वि की गयी । बंगाल में, 55 मद्रास, बम्बई तथा सयुक्त प्रांत में 47-47 पंजाब में 25 और बर्मा में 16 सदस्यों की संख्या नियत की गयी ।
- सर्वप्रथम पहली बार पृथक निर्वाचन व्यवस्था का प्रारम्भ किया गया तथा विभिन्न समुदायों, जातियों एवं धार्मिक वर्गो को विधान परिषदों में प्रतिनिधित्व दिया गया ।
- विधान परिषद के कार्यो में बृद्वि की गयी तथा बजट पर विचार-विमर्श के लिए विस्तृत नियम बनाये गये।
- विधान परिषद के सदस्यों को वित्तीय विवरण की विवेचना करने का अधिकार प्रदान किया गया परंतु सरकार की निंदा करने तथा अविस्वास प्रस्ताव पेश करने की अनुमति प्रदान नही की गयी ।
- विधान परिषद में किसी भी विषय पर विस्तृत जानकारी के लिए प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया ।
- विधान परिषदों में सामान्य तथा सार्वजनिक हित के मामलों पर बहस करने के लिए नियम बनाये गये ।
भारत सरकार अधिनियम 1919
भारत सरकार अधिनियम 1919 भारतीयों के स्वशासन की मांग को पूर्ण करने में असमर्थ रहा तथा साम्प्रदायिक आधार पर मतदान प्रणाली ने राष्ट्रवादियों को स्वतंत्रता आन्दोलन को और अधिक उग्र करने के लिए प्रेरित किया । ब्रिटिश सरकार ने 1909 में भारतीय विकेन्द्रीकरण आयोग की स्थापना किया, जिसने अपने प्रतिवेदन में केन्द्रीय, प्रान्तीय एवं स्थानीय निकायों के सम्बन्धों का विवेचन करते हुए उच्च अधिकारियों के प्रशासनिक नियंत्रण को कम करने की सिफारिस की । 1911 में लार्ड हार्डिग भारत के गवर्नर जनरल बने। उन्होंने भारत के सम्बन्ध में कुछ प्रगतिवादी नीतियों को अंगीकृत किया जैसे 1911 में बंगाल विभाजन की समाप्ति तथा भारत की राजधानी का कलकत्ता से दिल्ली स्थानान्तरण 1913 में श्रीमती एनी बेसेन्ट के भारत आगमन से भारत में होमरूल लीग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ । 1914 में शुरू हुए प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीति को काफी आघात लगा । 1916 में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के मध्य हुए समझौते के कारण ब्रिटिश सरकार की फूट डालो और राज्य करो की नीति को काफी धक्का लगा । 1916-17 में में प्रकाशित मोसोपोटामियां आयोग के प्रतिवेदन में भारत में शासन करने के लिए अंग्रेजों को अक्षम बताया गया था । पूर्व वायसरायों की असफलता के कारण 1917 में चेम्सफोर्ड को भारत का वायसराय नियुक्त किया गया । भारत मंत्री मांटेग्यू के साथ चेम्सफोर्ड ने भारत की यात्रा की तथा जुलाई 1918 में दोनों ने एक सयुक्त रिपोर्ट प्रस्तुत किया, जिसके आधार पर 1919 का भारत सरकार अधिनियम पारित किया गया इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित थी-
- केन्द्र में द्विसदनात्मक विधायिका की स्थापना की गयी- प्रथम राज्य परिषद तथा द्वितीय केन्द्रीय विधानसभा । राज्य परिषद के सदस्यों की संख्या 60 (26 गवर्नर जनरल द्वारा मोनोनीत जिनमें 19 सरकारी तथा 7 गैर सरकारी तथा 34 निर्वाचित, जिसमें 20 साधारण चुनाव क्षेत्र से, 10 मुस्लिम क्षेत्रों से, 3 यूरोपिये द्वारा और 1 सिख्खों द्वारा) तथा केन्द्रीय विधानसभा (निम्न सदन) के सदस्यों की संख्या 145 नियत की गयी ।
- केन्द्रीय विधानसभा के 145 सदस्यों में 41 मोनोनीत (26 सरकारी और 15 गैर सरकारी) तथा 104 निर्वाचित (52 साधारण निर्वाचन क्षेत्रों से, 32 साम्प्रदायिक क्षेत्रों से (30 मुसलमान और 2 सिख्ख) से, और 20 विशेष निर्वाचन क्षेत्रों, जिसमें 7 भूमिपतियों द्वारा, 9 यूरोपियों द्वारा तथा 4 भारतीय व्यापार समुदायों द्वारा) होने थे।
- राज्य परिषद के सदस्यों का चुनाव उन व्यक्तियों द्वारा किया जाता था, जो सरकार को निश्चित धनराशि कर के रूप में देते थे। इस सदन में मुसलमानों तथा सिखों को साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिधित्व दिया गया । इस सदन का कार्यकाल 5 वर्ष नियत किया गया लेकिन गवर्नर जनरल इसे पहले भी विघटित कर सकता था ।
- केन्द्रीय विधानसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा किया गया । जमीदारों तथा प्रान्तीय उद्योगपतियों के लिए विशेष निर्वाचन क्षेत्र का गठन किया गया । साथ ही मुसलमानों, सिखों तथा यूरोपियनों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था की गयी । इस सभा में दलित वर्ग, एग्लो-इंडियन तथा श्रमिकों के प्रतिनिधियों को मोनोनीत किया जाता था । सभा का कार्यकाल तीन वर्ष था लेकिन गवर्नर जनरल इसे पहले भी विघटित कर सकता था ।
- केन्द्रीय व्यवस्थापिक ब्रिटिश भारत के समस्त लोगों ब्रिटिश भारत के समस्त लोगों, न्यायालयों स्थानों तथा वस्तुओं के सम्बन्ध में कानून बना सकती है ।
- भारत राज्य सचिव का वेतन अंग्रेजी राजस्व से देना निर्धारित किया गया । इससे पूर्व 1973 से यह वेतन भारतीय राजस्व से मिलते थे ।
- इस अधिनियम द्वारा भारत के 8 प्रान्तों में विधान परिषदों का गठन किया गया । प्रान्त तथा उसके परिषद में सदस्यों की संख्या बम्बई -11 मद्रास -127, बंगाल 239, संयुक्त प्रान्त-123, पंजाब-93 विहार और उड़ीसा-103, मध्य प्रान्त एवं बरार-70, और आसाम-53 थी।
- प्रान्तीय विधान परिषदों का गठन प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली द्वारा किया जाता था। मतदान का अधिकार केवल उन्हे दिया गया था 1. जो उस क्षेत्र के रहने वाले हों, या 2. निश्चित मात्रा में लगान देते हों या 3. स्थानीय संस्थाओं द्वारा लगाया गया भू-राजस्व देते हों ।
- प्रान्तीय विधान परिषदों का कार्यकाल 3 वर्ष था, लेकिन गवर्नर जनरल इसे बढ़ा या घटा सकता था । विघटन की स्थिति में 6 माह के अन्दर नया निर्वाचन आवश्यक था।
नेहरू समिति के सदस्य
सदस्य
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संबंधित दल
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1.मोती लाल नेहरू (अध्यक्ष)
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कांग्रेस
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2.सुभाष चन्द्र बोस
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कांग्रेस
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3.जवाहरलाल नेहरू (सचिव) कांग्रेस
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4.सर अली इमाम
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मुस्लिम लीग
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5.शुआब कुरैशी
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मुस्लिम लीग
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6.एम.एस. अणे
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हिन्दू महासभा
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7.एम.आर.जयकर
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हिन्दू महासभा
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8.जी.आर. प्रधान
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हरिजन
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9.सरदार मंगल सिंह
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सिख
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10.तेज बहादुर सप्रू
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उदारवादी
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11.एम.एन जोशी
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श्रमिक संघ
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- प्रान्तीय विधान परिषदों को अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत कानून बनाने तथा बजट पारित करने का अधिकार था ।
- प्रान्तीय मंत्रीमंण्डल को अत्यन्त सीमित अधिकार प्रदान किये गया।
- प्रान्तीय अधिकारिता के विषयों को दोे भागों में विभाजित कर द्धेध शासन का प्रारम्भ किया गया । ये विषय थे आरक्षित विषय तथा हस्तानान्तरित विषय ।
- अधिनियम के प्रारम्भ में 10 वर्ष बाद द्वैध शासन प्रणाली तथा सवैधानिक सुधारों के व्यौहारिक रूप की जाँच के लिए और उत्तरदायी सरकार की प्रगति से सम्बन्धित मामलों पर सिफारिस करने के लिए ब्रिटिश संसद द्वारा एक आयोग का गठन किया जाएगा।
भारत सरकार के अधिनियम 1935
- 1919 के अधिनियम द्वारा स्थापित दोहरी शासन प्रणाली पूर्णतः असफल रही क्योंकि वह भारत में एक उत्तरदायित्व-पूर्ण सरकार की स्थापना न कर सका। फलस्वरूप, सुधारों की निरन्तर माँग और असहयोग आन्दोलन से उत्पन्न स्थिति के कारण ब्रिटिश सरकार ने 1927 में साइमन आयोग की नियुक्ति की ।
- आयोग की रिपोर्ट से यह स्पष्ट था कि वह भारत में उत्तरदायी केन्द्रीय सरकार की स्थापना के विरूद्ध था । जिसके आधार पर ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की कि भारतीय राजनैतिक विकास का उदेश्य डोमिनियन प्रस्थिति है।
- सन् 1930-32 में लंदन में हुए गोल मेज सम्मेलनों ने भारत में प्रस्तावित संवैधानिक सुधारों के सम्बन्ध में कई संस्तुतियाँ की । 1935 का भारतीय शासन अधिनियम इन्ही संस्तुतियों का परिणाम था ।
- मुख्य प्रावधान:-
- इसने प्रान्तों में द्वैध शासन व्यवस्था प्राप्त कर, उनमें स्वायत्तता प्रांरम्भ की । राज्यों को अपने दायरे में रहकर स्वायत्त तरीके से शासन का अधिकार था। इसके अतिरिक्त अधिनियम ने राज्यों में जिम्मेंदार सरकार की व्यवस्था लागू की । यानि गवर्नर को राज्य विधानपरिषदों के लिए उत्तरदायी मंत्रियों की सलाह पर काम करना आवश्यक था । यह व्यवस्था 1937 में शूरू की गयी और 1939 में इसे समाप्त कर दिया गया ।
- इसने अखिल भारतीय संघ की स्थापना की, जिसमें राज्य और रियासतों को एक इकाई की तरह माना गया । अधिनियम ने केंद्र और इकाईयों के बीच में 59 बिषयों वाली संघीय सूची या केन्द्रीय सूची या केन्द्रीय सूची, 54 विषयों वाली राज्रू सूची और 36 विषयों वाली समवर्ती सूची के अनुसार शक्तियों का बंटवारा कर दिया, अवशिष्ट शक्तियाँ वायसराय को दे दी गयी । हालाकि प्रस्तावित संघीय व्यवस्था कभी अस्तित्व में नही आ सकी क्योंकि रियासतों ने इन्हे मानने से इनकार कर दिया था ।
- इसने केन्द्र में द्वैध प्रणाली का शुभारम्भ किया परिणामतः संघीय विषयों को स्थानांतरित और आरक्षित विषयों में विभक्त करना पड़ा । हालाकि यह प्रावधान कभी लागू न हो सका ।
- इसके अनुसार 11 राज्यों में से छह में द्विसदनीय व्यवस्था अपनायी गयी । इस प्रकार बंगाल, बंम्बई, मद्रास, बिहार, सयुक्त प्रांत और असम में द्विसदनीय विधान प्रणाली अपनायी गयी । हालाकि इन पर बहुत सारे प्रतिबंध थे।
- इसने दलित जातियों, महिलाओं और मजदूर वर्ग के लिए अलग से निर्वाचन व्यवस्था कर सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था का विस्तार किया ।
- इसने भारत शासन अधिनियम 1858 द्वारा स्थापित कौंसिल आॅफ इंडिया को समाप्त कर दिया गया । इंगलैंड को राज्य सचिव को सलाहकारों की टीम मिल गई।
- इसने मताधिकार का विस्तार किया। लगभग 10 प्रतिशत जनसंख्या को मत का अधिकार मिल गया ।
- देश की मुद्रा और लेन देन के लिए भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गयी ।
- इसके तहत संघीय सेवा आयोग ही स्थापित नही किया गया बल्कि राज्य सेवा आयोग और दो राज्यों के लिए सयुक्त सेवा आयोग भी बनाया गया।
- इसके तहत 1937 में संघीय अदालत की स्थापना हुई।