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संसद के विपक्षी दल

संसदीय लोकतंत्र के विपक्ष का विशिष्ट महत्व है। वह सरकार की जन विरोधी नीतियों की आलोचना कर वैकल्पिक नीति प्रस्तुत करता है तथा जनतंत्र को सुरक्षित रखता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले ही भारत में कई दल थे जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सत्ताधारी दल (कांग्रेस) तथा विपक्षी दल (अन्य दल) के रूप में विभाजित हो गये। प्रथम आम चुनाव (1952) के पहले कुछ नये दलों का गठन हुआ जिनमें कुछ तो कांग्रेस से ही अलग होकर गठित किये गये थे जबकि एक नये दल के रूप में जनसंघ अस्तित्व में आया था। लेकिन चुनाव में विपक्षी दल नगण्य ही रहे और 1969 से पहले किसी भी नेता को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता नहीं मिली।

संसद में विपक्ष का नेता

संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष के नेता की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए दोनों सदनोंराज्यसभा और लोकसभा में विपक्ष के नेताओं को बैधानिक मान्यता दी गयी है 1 नवम्बर 1977 से लागू एक पृथक कानून के अन्तर्गत उन्हे वेतन तथा कुछ उपयुक्त सुविधाएं प्रदान की जाती है। विपक्ष के नेता के रूप में उस दल के नेता को मान्यता मिलती है, जिस दल की सदस्य संख्या सदन के कुल सदस्यों के दसवें भाग के बराबर या उससे अधिक होती है। सबसे पहले 1969 में संगठन कांग्रेस के राम सुभग सिंह  को लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता मिली और इसके बाद 1977 में कांग्रेस के यशवंत राव बलवंत राव चव्हाण को लोकसभा में तथा कमलापति त्रिपाठी को राज्यसभा में विपक्ष नेता के रूप में मान्यता दी गयी।

 

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