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राज्यसभा

भारतीय संविधान के प्रर्वतन के बाद काउंसिल ऑफ स्टेट्स (राज्यसभा) का गठन सर्वप्रथम 3 अप्रैल 1952 को किया गया था। इसकी पहली बैठक 13 मई, 1952 को हुई थी। इसकी अध्यक्षता तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा की गई थी । 23 अगस्त 1954 को सभापति ने सदन में घोषणा की कि 'काउंसिल ऑफ स्टेट्स' को अब राज्यसभा के नाम से जाना जाएगा। संविधान के अनुच्छेद 80 के अनुसार, राज्यसभा का गठन 250 सदस्यों द्वारा होगा, इनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नाम निर्देशित किये जाते है, तथा शेष 238 का चुनाव राज्य तथा संघ राज्यक्षेत्रों की विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है। राज्यसभा में राज्यों तथा संघ राज्यक्षेत्रों की विधान सभाओं के लिए आबंटित स्थान को संविधान की चौथी अनुसूची में अन्तर्विष्ट किया गया है। इस अनुसूची में केवल 233 स्थानों के सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है। जिससे स्पष्ट होता है, कि वर्तमान समय में राज्यसभा की प्रभावी संख्या 245 (राष्ट्रपति द्वारा नामित सदस्यों सहित) है। वे 12 सदस्य जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा के लिए नामनिर्देशित किये जाते हैं, उन्हें साहित्य,  विज्ञान, कला तथा समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान व्यावहारिक अनुभव होना चाहिए।

अप्रत्यक्ष चुनाव

राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है। राज्यों के प्रतिनिधियों का चुनाव राज्यों की विधानसभा के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाता है तथा संघ राज्य क्षेत्रों  के प्रतिनिधियों का चुनाव उस ढंग से किया जाता है, जिसे संसद विधि बनाकर विहित करे। राज्यसभा में केवल दो संघ राज्यक्षेत्रों यथा राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र दिल्ली तथा पाण्डिचेरी, के लिए स्थानों का आबंटन किया गया है इन राज्यक्षेत्रों को आबंटन में राज्यसभा के स्थानों को भरने के लिए निर्वाचकगणों को गठित करने के सम्बन्ध में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 की धारा 27-क में संसद द्वारा उस ढंग से विहित किया गया है, जिसके द्वारा राज्यसभा के सदस्यों को निर्वाचित किया जाएगा। इस धारा के अनुसार पाण्डिचेरी संघ राज्य क्षेत्र के लिए आबंटित स्थान को इस संघ राज्य क्षेत्र के विधान सभा के सदस्यों द्वारा चुने गये व्यक्ति से भरा जाएगा तथा दिल्ली के सम्बन्ध में इस धारा में कहा गया था कि दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र के राज्यसभा सदस्य का चुनाव महानगर के परिषद के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाएगा। लेकिन दिल्ली में विधानसभा के गठन के बाद स्थिति में परिवर्तन हो गया है।

अवधि

राज्यसभा का कभी विघटन नहीं होता । इसके सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। इसके सदस्यों में से एक तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष पदमुक्त हो जाते हैं तथा पदमुक्त होने वाले सदस्यों के स्थानों को भरने के लिए प्रत्येक दूसरे वर्ष चुनावा होता है। यदि कोई सदस्य त्यागपत्र दे देता है या उसकी आकस्मिक मृत्यु के कारण कोई स्थान रिक्त होता है, तो इस रिक्त स्थान के लिए उपचुनाव होता है। उपचुनाव में चुना गया सदस्य केवल उस समय तक राज्यसभा का सदस्य बना रहता है, जिस समय तक, यदि उपचुनाव न होता। राज्य सभा के सदस्य राज्यसभा के सभापति को अपना त्यागपत्र किसी समय देकर सदस्यता से मुक्त हो सकते है।

अधिवेशन

राज्यसभा का एक वर्ष में दो अधिवेशन होता है लेकिन इसके अधिवेशन की अंतिम बैठक तथा आगामी अधिवेशन की प्रथम बैठक के लिए नियत तिथि के बीच 6 माह का अंतर नहीं होना चाहिए। सामान्यतया राज्यसभा का अधिवेशन तभी बुलाया जाता है, जब लोकसभा का अधिवेशन बुलाया जाता है, परंतु संविधान के अनुच्छेद 352,356 तथा 360 के अधीन आपात काल की घोषणा के बाद तब राज्य सभा का विशेष अधिवेशन बुलाया जा सकता है, जब लोकसभा का विघटन हो गया हो। उदाहरणार्थ 1977 में लोकसभा के विघटन के कारण तमिलनाडु तथा नागालैण्ड में राष्ट्रपति शासन को बढ़ाने के लिए, राज्यसभा का विशेष अधिवेशन बुलाया गया था। राज्यसभा के इतिहास का 200वां सत्र 11 दिसम्बर 2003 को प्रारंभ हुआ था इसकी अध्यक्षता उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत के द्वारा की गई।

 

पदाधिकारी

राज्यसभा के निम्नलिखित पदाधिकारी होते हैं- 

सभापति- भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। यह राज्यसभा की कार्यवाही के संचालन तथा सदन में अनुशासन बनाये रखने के लिए उत्तरदायी होता है। सभापति राज्यसभा के नये सदस्यों को पद का शपथ दिलाता है। उपराष्ट्रपति द्वारा कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान राज्य सभा के सभापति के रूप में उपसभापति द्वारा दायित्वों का निर्वहन किया जाता है।

उपसभापति- राज्यसभा अपने सदस्यों में से किसी को अपना उपसभापति चुनेगी और जब उपसभापति का पद रिक्त होता है, तब राज्यसभा किसी अन्य सदस्य को अपना उपसभापति चुनेगी। इस प्रकार चुना गया उपसभापति सभापति की अनुपस्थिति में उसके कार्यो का निर्वाह करता है। 14 मई, 2002 के संसद द्वारा पारित विधेयक के अनुसार उपसभापति को केन्द्रीय राज्य मंत्री के समान भत्ता देने का प्रावधान किया गया है। उप सभापति निम्नलिखित स्थिति में अपना पद रिक्त कर सकता है-

(क)  जब वह राज्यसभा का सदस्य न रह जाय,

(ख)  जब वह सभापति को अपना त्यागपत्र दे दे,

(ग)  जब तक वह राज्यसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से न हटा दिया जाय, लेकिन ऐसा कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जा सकता, जब तक कि इस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम 14 दिन पूर्व सूचना न दे दी गई हो।

अन्य व्यक्ति- जब सभापति तथा उपसभापति दोनों अनुपस्थित हों, तो राज्यसभा के सभापति के कार्यो का निर्वहन राज्यसभा का वह सदस्य करेगा, जिसे राष्ट्रपति नाम निर्देशित करे और राज्यसभा की बैठक में वह व्यक्ति सभापति के कार्यो का निर्वाह करेगा, जिसे राज्यसभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा या राज्यसभा द्वारा अवधारित किया जाय। 

कार्य तथा शक्तियाँ  

संविधान द्वारा राज्यसभा तथा लोकसभा को अधिकतर मामलों के समान कार्य तथा समान शक्तियां प्रदान की गयी हैं (जिनका उल्लेख संसद के कार्य तथा शक्तियों में किया जाएगा), लेकिन कुछ मामलों में राज्यसभा तथा कुछ मामलों में लोकसभा को अधिक शक्तियां प्रदान की गयी हैं। निम्नलिखित मामलों में राज्यसभा को कुछ अधिक शक्तियां प्रदान की गयी हैं-

1.सदस्यों के स्थान को रिक्त करना- राज्यसभा का अधिवेशन चल रहा हो, तब राज्यसभा अपने सदस्यों को अधिवेशन से अनुपस्थित होने की आज्ञा देती है लेकिन यदि राज्यसभा का कोई सदस्य सदन की आज्ञा के बिना साठ दिन तक उसके सभी अधिवेशनों में अनुपस्थित रहे, तो राज्यसभा उसके स्थान को रिक्त घोषित करती है परन्तु साठ दिन की अवधि की संगणना करने में किसी ऐसी अवधि को शामिल नहीं किया जाएगा, जिसके दौरान सत्र का अधिवेशन न हो रहा हो या अधिवेशन लगातार चार से अधिक दिनों के लिए स्थगित रहा हो । उदाहरण के लिए 1976 में सुब्रामण्यम स्वामी का स्थान रिक्त घोषित कर दिया गया था क्योंकि वे राज्यसभा की आज्ञा के बिना कई दिन तक इसकी सभी बैठकों में अनुपस्थित रहे थे।

2.राज्य सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार- संविधान के अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्यसभा उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से यह संकल्प पारित कर दे |  राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक है कि संसद राज्य सूची में वर्णित किसी विषय के सम्बन्ध में कानून  बनाये, तो संसद को उस विषय के सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है। इस प्रकार बनाया गया कानून केवल एक वर्ष तक प्रवर्तन में रहता है परन्तु राज्यसभा पुनः संकल्प पारित करके एक वर्ष के समय को और एक वर्ष तक के लिए बढ़ा सकती है तथा बारबार संकल्प पारित करके इस अवधि को असीमित कर सकती है। राज्यसभा ने इस अधिकार का अब तक दो बार प्रयोग किया है-

(क)  1952 में- राज्यसभा ने संकल्प पारित करके संसद को व्यापार, वाणिज्य, उत्पादन, वस्तुओं की उपलब्धि तथा वितरण के सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार दिया था

(ख) 1986 में-1986 में राज्यसभा ने संकल्प पारित करके संसद को अंतरराष्ट्रीय सीमा के साथ सुरक्षा क्षेत्र की व्यवस्था  करने के सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार दिया था।

3.अखिल भारतीय सेवाओं की व्यवस्था- संविधान के अनुच्छेद 312 (1) के अधीन यह प्रावधान किया गया है कि राज्यसभा अपने उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से यह संकल्प पारित कर दे कि राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक है कि संघ और राज्यों के लिए सम्मिलित एक या अधिक अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन किया जाय तो संसद को ऐसा अधिकार मिल जाता है। इस शक्ति का प्रयोग करके राज्यसभा ने निम्नलिखित अखिल भारतीय सेवा का सृजन किया है-

(क) 1961 में- भारतीय इन्जीनियर्स सेवा, भारतीय वन सेवा, भारतीय चिकित्सा सेवा,

(ख) 1965 में- भारतीय कृषि सेवा, भारतीय शिक्षा सेवा।

 

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