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Study Material



लोकसभा

लोकसभा का गठन

  • भारत की आजादी के बाद प्रथम लोकसभा का गठन 17 अप्रैल, 1952 में हुआ तथा इसकी प्रथम बैठक 13 मई, 1952 को हुई थी।
  • लोकसभा के गठन के सम्बन्ध में संविधान के दो अनुच्छेदों, यथा 81 तथा 331 में प्रावधान किया गया है। मूल संविधान में लोकसभा की सदस्य संख्या 500 निर्धारित की गयी थी, परंतु बाद में इसमें वृद्वि की गयी। 31वें संविधान संशोधन, 1974 के द्वारा लोकसभा में अधिकतम सदस्य संख्या 547 निश्चित की गयी ।
  • वर्तमान में गोवा, दमन और दीव पुनर्गमन अधिनियम, 1987 द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि लोकसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 552 हो सकती है।
  • अनुच्छेद 81(1) क तथा ख के अनुसार लोकसभा का गठन राज्यों में प्रदेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने गए 530 से अधिक न होने वाले सदस्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले 20 से अधिक न होने वाले सदस्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले 20 से अधिक न होने वाले सदस्यों द्वारा किया जाएगा। इस प्रकार लोकसभा में भारत की जनसंख्या द्वारा निर्वाचित 550 सदस्य हो सकते है।
  • अनुच्छेद 331 उक्त दोनों कार्य ऐसे प्राधिकारी द्वारा ऐसी रीति से, जिसे संसद विधि द्वारा निश्चित करे, प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर प्रकाशित सुसंगत आकड़ों के आधार पर किये जाते हैं। लेकिन 42वे संविधान संशोधन, 1976 द्वारा यह प्रावधान कर दिया गया कि जब तक 2001 की जनगणना के आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते, तब तक लोकसभा की सदस्य संख्या 545 ही रहेगी  91वां संविधान संशेधन अधिनियम 2001 अब तक व्यवस्था 2026 तक यथावत बनी रहेगी।
  • लोकसभा में राज्यों के स्थानों के आवंटन तथा राज्यों को प्रादेशिक क्षेत्रों में विभाजित करने के लिए संसद द्वारा परिसीमन अधिनियम, 1952 पारित किया गया है। परिसीमन अधिनियम 1952 में प्रावधान किया गया है कि संसद प्रत्येक जनगणना के सुसंगत आंकड़ों के प्रकाशन के बाद परिसीमन आयोग का गठन करेगी । इस परिसीमन अधिनियम के अधीन त्रिसदस्यीय परिसीमन आयोग का गठन किया जाता है, जिसे नवीनतम जनगणना के आंकड़ों के आधार पर लोकसभा में विभिन्न राज्यों को स्थानों के आवंटन का, प्रत्येक राज्य की विधानसभाओं  के कुल स्थानों का तथा लोकसभा और राज्य की विधान सभा के निर्वाचनों के प्रयोजन के लिए प्रत्येक राज्य को प्रदेशिक, निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का पुनः समायोजन करने का कर्तव्य सौंपा जाता है। इस प्रकार गठित आयोग ने 1974 में लोकसभा में राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों के स्थानों का आवंटन किया था, जिसके अनुसार 530 स्थान राज्यों के लिए तथा 13 स्थान संघ राज्यक्षेत्रों के लिए आवंटित किये गये थे।
  • सरकार ने लोकसभा व विधानसभाओं के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करने के लिए न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में एक परिसीमन आयोग का गठन किया है। प्रारंभ में परिसीमन का कार्य 1991 की जनगणना के आधार पर किया जाना था परंतु 23 अप्रैल 2002 को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने इससे संबंधित एक संशोधन विधेयक को अनुमोदित करते हुए यह निर्धरित किया है कि निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन अब 2001 की जनगणना के आधार पर किया जाएगा। निर्वाचन क्षेत्रों का यह परिसीमन 30 वर्षों के पश्चात हो रहा है।

 

निर्वाचन

लोकसभा के सदस्य भारत के उन नागरिकों द्वारा चुने जाते है, जो वयस्क हो गये हैं। 61 वे संविधान संशोधन के पूर्व उन नागरिकों को वयस्क माना जाता था, जो 21 वर्ष की आयु पूरी कर लेते थे, लेकिन इस संशोधन  के द्वारा यह व्यवस्था कर दी गयी है कि 18 वर्ष पूरी करने वाला नागरिक लोकसभा या राज्य विधानसभा के सदस्यों को चुनने के लिए वयस्क माना जाएगा। लोकसभा के सदस्यों का चुनाव वयस्क मतदान के आधार पर होता है। भारत में 1952 से लेकर अब तक की अवधि में 14 लोकसभा चुनाव हुये हैं।

 

अवधि

  • लोकसभा का गठन अपने प्रथम अधिवेशन की तिथि से पांच वर्ष के लिए होता है लेकिन प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा का विघटन राष्ट्रपति द्वारा 5 वर्ष के पहले भी किया जा सकता है।
  • प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा का विघटन जब कर दिया जाता है, तब लोकसभा का मध्यावधि चुनाव होता है क्योंकि संविधान के अनुसार लोकसभा विघटन की स्थिति में 6 मास से अधिक नहीं रह सकती। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि लोकसभा के दो बैठकों  के बीच का समयांतराल 6 मास से अधिक नहीं होना चाहिए।
  • अब तक लोकसभा का उसके गठन के बाद 5 वर्ष के भीतर 4 बार अर्थात 1970 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चरण सिंह की सलाह पर, 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की सलाह पर, 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल की सलाह पर और 1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की सलाह पर विघटन हुआ और इस प्रकार मध्यावधि चुनाव कराये गये।
  • विशेष परिस्थिति में लोकसभा की अवधि 1 वर्ष के लिए बढ़ायी जा सकती है। परन्तु लोकसभा की अवधि एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं बढ़ायी जा सकती और किसी भी स्थिति में आपातकाल की उदघोषणा की समाप्ति के बाद लोकसभा की अवधि  6 माह से अधिक नहीं बढ़ायी जा सकती है अर्थात आपात उद्घोषणा की समाप्ति के बाद 6 माह के अन्दर लोकसभा का सामान्य चुनाव कराकर उसका गठन आवश्यक है।

 

लोकसभा का अधिवेशन

लोकसभा का अधिवेशन एक वर्ष में कम से कम दो बार होना चाहिए लेकिन लोकसभा के पिछले अधिवेशन की अन्तिम बैठक की तिथि तथा आगामी अधिवेशन की प्रथम बैठक की तिथि के बीच 6 मास से अधिक का अन्तराल नहीं होना चाहिए लेकिन यह अंतराल 6 माह से अधिक का तब हो सकता है, जब आगामी अधिवेशन के पहले ही लोकसभा का विघटन कर दिया जाय। 

 

विशेष अधिवेशन

राष्ट्रीय आपात काल की घोषणा को नांमंजूर करने करने के लिए लोकसभा का विशेष अधिवेशन तब बुलाया जा सकता है, जब लोकसभा के अधिवेशन में न रहने की स्थिति में कम से कम 110 सदस्य राष्ट्रपति को अधिवेशन बुलाने के लिए लिखित सूचना दे या जब अधिवेशन चल रहा हो, तब लोकसभा अध्यक्ष को इस आशय से लिखित सूचना दे । ऐसी लिखित सूचना अधिवेशन बुलाने की तिथि के 14 दिन पूर्व देनी पड़ती है ऐसी सूचना पर राष्ट्रपति या लोकसभा अध्यक्ष अधिवेशन बुलाने के लिए बाध्य है ।

 

पदाधिकारी

लोकसभा के निम्नलिखित दो पदाधिकारी होते हैं-

लोकसभा अध्यक्ष

लोकसभा का अध्यक्ष लोकसभा का प्रमुख पदाधिकारी होता है और लोकसभा की सभी कार्यवाहियों का संचालन करता है-

लोकसभा अध्यक्ष का निर्वाचन

लोकसभा अध्यक्ष का निर्वाचन लोकसभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है। निर्वाचन किस तिथि को होगा, इसे राष्ट्रपति निश्चित करता है और राष्ट्रपति द्वारा निश्चित की गयी तिथि की सूचना लोकसभा का महासचिव सदस्यों को देता है। राष्ट्रपति द्वारा निश्चित की गयी तिथि के पूर्व दि के मध्यान्ह से पहले कोई भी सदस्य किसी अन्य सदस्य को अध्यक्ष चुने जाने का प्रस्ताव महासचिव को लिखित रूप में देता है तथा इस प्रस्ताव का अनुमोदन तीसरे सदस्य द्वारा किया जाता है। इस प्रस्ताव के साथ उस सदस्य, जिसे अध्यक्ष चुने जाने का प्रस्ताव किया जाता है,  का यह कथन संलग्र होता है कि वह अध्यक्ष के रूप में  कार्य करने के लिए तैयार है। इस तरह से एक या कई प्रस्ताव पेश किये जाते हैं। यदि एक ही प्रस्ताव पेश किया जाता है, तो चुनाव सर्वसम्मत होता है और यदि एक से अधिक प्रस्ताव पेश किये जाते है, तो चुनाव मतदान द्वारा होता है।

लोकसभा अध्यक्ष का शपथ ग्रहण

लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा के अध्यक्ष के रूप में शपथ नहीं लेता बल्कि वह सामान्य सदस्य के रूप में शपथ लेता है। उसे लोकसभा का कार्यकारी अध्यक्ष लोकसभा के सदस्य के रूप में शपथ ग्रहण कराता है। कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में उस व्यक्ति को नामजद किया जाता है, जो लोकसभा में सबसे अधिक उम्र का होता है।

वेतन एवं भत्ते

लोकसभा के अध्यक्ष को राज्यसभा के सभापति (उपराष्ट्रपति) के समान वेतन एवं अन्य भत्ते मिलते है । 14 मई 2002 को संसद द्वारा पारित एक संशोधन विधेयक के अनुसार यदि लोकसभा के अध्यक्ष की मृत्यु उसके पद पर बने रहने के अवधि में हो जाती है तो उसके परिवार यानी पति या पत्नी को पेंशन, आवास और स्वास्थ्य सुविधाएं मिला करेंगी । ध्यातब्य है कि यह सुविधा अब तक सिर्फ राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति पदों के लिए थी। साथ ही लोकसभा अध्यक्ष को केंद्रीय मंत्री के समान भत्ता देने का भी प्रावधान किया गया है ।

पदावधि

लोकसभा अध्यक्ष एक बार अध्यक्ष चुने जाने के बाद आगामी लोकसभा के गठन के बाद उसके प्रथम अधिवेशन की प्रथम बैठक तक अपने पद पर बना रहता है। लेकिन वह निम्नलिखित स्थितियों में अध्यक्ष पद से मुक्त हो सकता है-

  • यदि वह किसी कारण लोकसभा का सदस्य नहीं रह जाता,
  • यदि वह उपाध्यक्ष को अपना त्यागपत्र नहीं दे देता,
  • यदि वह लोकसभा के सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से नहीं हटा दिया जाता । ऐसा कोई संकल्प लोकसभा में पेश करने  की आशय की सूचना 14 दिन पूर्व दी जानी चाहिए जब लोक सभा में ऐसे किसी संकल्प पर बहस होती है, तो लोकसभा की अध्यक्षता उपाध्यक्ष या उसकी अनुपस्थिति में अन्य व्यक्ति, जिसे लोकसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियम द्वारा निर्धारित किया जाता है, द्वारा की जाती है।

18 दिसंबर, 1954 को प्रथम बार लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर के विरूद्ध उन्हें पद से हटाने के लिए एक प्रस्ताव लाया गया था। हालांकि यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका था।

कार्य एवं शक्तियां

लोकसभा अध्यक्ष का कार्य एवं शक्तियां लोकसभा के सम्बन्ध में काफी अधिक हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है-

(1) व्यवस्थापिका संबन्धी शक्तियां- लोकसभा अध्यक्ष को लोकसभा में व्यवस्था बनाये रखने के सम्बन्ध में निम्नलिखित शक्तियां प्रदान की गयी है-

  • कार्यवाही संचालित करने के लिए सदन में व्यवस्था व मर्यादा बनाये रखना
  • सदन की कार्यवाही के लिए समय का निर्धारण करना,
  • संविधान और सदन की प्रक्रिया संबंधी नियमों की व्याख्या करना,
  • विवादास्पद विषयों पर मतदान कराना और निर्णय की घोषणा करना,
  • मतदान में पक्ष तथा विपक्ष में बराबर मत पड़ने की स्थिति में निर्णायक मत देना,
  • प्रस्ताव, प्रतिवेदन और व्यवस्था के प्रश्नों को स्वीकार करना,
  • मंत्रिपरिषद के किसी सदस्य को पद त्याग करने की स्थिति में उसे सदन के समक्ष अपना वक्तब्य देने की अनुमति देना,
  • सदस्यों को जानकारी प्रदान करने के लिए विचाराधीन महत्वपूर्ण विषयों की घोषणा करना,
  • संविधान संबंधी मामलों पर अपनी सम्मति देना,
  • गणपूर्ति के अभाव में सदन की बैठक स्थगित करना,
  • किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में बोलने की अनुमति देना तथा उसके भाषण के हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद की व्यवस्था करना,
  • सदन के नेता के अनुरोध पर सदन की गुप्त बैठकों को आयोजित करने की स्वीकृति देना

 

(2) निरीक्षण तथा भर्त्सना सम्बंधी शक्तियाँ-अध्यक्ष की निरीक्षण तथा भर्त्सना सम्बंधी शक्तियां निम्नलिखित है-

  • संसदीय समितियों की अध्यक्षता करना,
  • संसदीय समितियों के अध्यक्षों को निर्देश देना,
  • सार्वजनिक हित में सदन या समिति को आवश्यक जानकारी प्रदान करने के लिए सरकार को निर्देश देना,
  • सदन में असंसदीय तथा अनावश्यक विचार-विमर्श को रोकना,
  • सदन में बोले गये असंसदीय तथा अश्लील संदर्भो को सदन की कार्यवाही से निकालना,
  • सदन के सीमा क्षेत्र के अन्तर्गत सदन के किसी सदस्य की गिरफ्तारी या उसके विरूद्ध कार्यवाही करने की अनुमति देना,
  • सदन में पेश किये गये विशेषाधिकार प्रस्ताव को स्वीकार करना तथा उसके ऊपर विशेषाधिकार हनन का आरोप लगाया गया है, उसके विरूद्ध गिरफ्तारी का आदेश जारी करना ,
  • किसी व्यक्ति को सदन की अवमानना करने या उसके विशेषाधिकार का उलंघन करने पर सदन द्वारा किये गये निर्णय को लागू करना।

 

(3) प्रशासन संबन्धी शक्तियां- अध्यक्ष को सदन के प्रशासन के सम्बन्ध में निम्नलिखित शक्तियां प्रदान की गयी हैं-

  • लोकसभा के सचिवालय का नियंत्रण रखना,
  • लोकसभा की दर्शक दीर्घा और प्रेस दीर्घा पर नियंत्रण रखना,
  • लोकसभा के सदस्यों के लिए आवास तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था करना,
  • लोकसभा तथा अन्य समितियों की बैठकों की व्याख्या करना,
  • संसदीय कार्यवाही के अभिलेखों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था करना,
  • लोकसभा के सदस्यों तथा कर्मचारियों के जीवन और सदन के सम्पत्ति की सुरक्षा की उपयुक्त व्यवस्था करना,
  • लोकसभा के सदस्यों का त्यागपत्र स्वीकार करना अथवा उसे इस आधार पर अस्वीकार करना कि त्यागपत्र विवशता के कारण दिया गया है।

(4) विधायी तथा अन्य कार्य- विधायी तथा अन्यकार्यो के सम्बन्ध में अध्यक्ष को निम्नलिखित शक्तियां प्राप्त है-

  • लोकसभा द्वारा पारित विधेयक को प्रमाणित करना,
  • कोई विधेयक धन विधेयक है कि नही, इसका निर्णय करना,
  • लोकसभा तथा राज्यसभा की सयुक्त बैठक की अध्यक्षता करना, 
  • राष्ट्रपति तथा लोकसभा के बीच सम्पर्क सूत्र के रूप में कार्य करना,
  • अर्द्ध संसदीय संघ में भारतीय संसदीय दल के नेता के रूप में कार्य करना,
  • भारत में विधायिकाओं के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन की अध्यक्षता करना,
  • विदेश जाने वाले संसदीय शिष्टमंडल  के लिए सदस्यों को मनोनीत करना ,
  • लोकसभा द्वारा पारित विधेयक की स्पष्ट त्रुटियों को दूर करना,
  • दल बदल कानून का उलंघन करने वाले लोकसभा के सदस्यों को सदन की सदस्यता के अयोग्य निर्णीत करना।

 

लोकसभा उपाध्यक्ष

लोकसभा के सदस्य सदन के उपाध्यक्ष का चुनाव करते है। उपाध्यक्ष के चुनाव में वही प्रक्रिया अपनायी जाती है, जो अध्यक्ष के चुनाव में अपनायी जाती है, उपाध्यक्ष तब तक अपने पद पर बना रह सकता है, जब तक वह सदन का सदस्य रहता है। वह लोकसभा अध्यक्ष को त्यागपत्र देकर अपना पद छोड़ सकता है, अपने पद से लोकसभा के सदस्यों द्वारा पारित संकल्प के आधार पर हटाया जा सकता है। उपाध्यक्ष को उसके पद से हटाने के लिए कोई संकल्प लोकसभा में पेश करने के 14 दिन पूर्व उसकी सूचना उसे दी जानी चाहिए।

 

लोकसभा की शक्तियां

लोकसभा को निम्नलिखित शक्तियां प्रदान की गयी है, जो राज्यसभा के अतिरिक्त है-

(1) लोक सभा अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का निर्वाचन तथा उन्हें पद से हटाना- लोकसभा अध्यक्ष तथा उसके उपाध्यक्ष को निर्वाचित करने तथा उन्हे पदमुक्त करने का अधिकार केवल लोकसभा के सदस्यों को प्रदान किया गया है । अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष को संकल्प पारित करके पदमुक्त किया जा सकता है, अभी तक लोकसभा के किसी भी अध्यक्ष को संकल्प पारित करके पदमुक्त नहीं किया गया है लेकिन 18 दिसम्बर 1954 को तत्कालिक लोकसभा अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर, 1966 में तत्कालीन अध्यक्ष हुकुम सिंह और 1988 में लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड़ को पदमुक्त करने के लिए लोकसभा में संकल्प पेश किया गया था।

(2) मंत्रिपरिषद पर नियंत्रण- मंत्रिपरिषद सयुक्त रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है और लोकसभा मंत्रिपरिषद पर पर्याप्त नियंत्रण रखती है। यदि लोकसभा मंत्रिपरिषद के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दे, तो मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़ता है या राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद को बर्खास्त कर देता है। अभी तक लोकसभा में केवल तीन बार मंत्रिपरिषद के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हो सका है, हालाकि इस तरह का प्रस्ताव कई बार पेश किया गया है । 1979 में श्री मोरार जी देसाई मंत्रिपरिषद के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित किये जाने की प्रबल संभावना थी, लेकिन मोरारजी देसाई ने अविश्वास प्रस्ताव के पारित होने की सम्भावना के कारण त्यागपत्र दे दिया था । 1979 में चौधरी चरण सिंह मंत्रिपरिषद के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित होने की संभावना थी, लेकिन चरण सिंह ने त्यागपत्र देकर  लोकसभा को भंग करने की सिफारिश कर दी थी प्रथम बार 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार, जिसके प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह थे के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हुआ था और मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़ा था। इसी प्रकार 1997 में एच.डी. देवगौड़ा के नेतृत्व वाली सयुक्त मोर्चा की सरकार को कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद में संयुक्त मोर्चा सरकार के ही इंद्र कुमार गुजराल ने कांग्रेस द्वारा समर्थन वापसी के मुद्दे प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देते हुए लोकसभा भंग करने की सिफारिश की थी इसी प्रकार अप्रैल 1999 में भारतीय जनता पार्टी गठबंधन सरकार, जिसके प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, द्वारा मात्र एक मत के अंतर से लोकसभा का विश्वास प्राप्त करने में असफल रहने के कारण मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़ा।

यदि लोकसभा सरकार द्वारा पेश किये गये बजट को नामंजूर कर दे या राष्ट्रपति  के अभिभाषण के लिए उसके धन्यवाद प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दे, तो भी मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़ता है।

(3) वित्त पर नियंत्रण- लोकसभा का वित्त पर पूर्ण नियंत्रण रहता है तथा राज्यसभा को इस संबन्ध में बहुत सीमित अधिकार है। वित्त विधेयक लोकसभा में ही पेश किये जाते है, लोकसभा में पारित होने पर जब वह राज्यसभा में पेश किया जाता है, तब राज्यसभा केवल उसे 14 दिन तक अपने पास रोक सकती है, और यदि राज्यपाल वित्त विधेयक को पारित करके 14 दिन के अन्दर लोकसभा को नही भेजती, तो विधेयक को पारित माना जाता है। यदि राज्यसभा वित्त विधेयक में कोई संशोधन करती है, तो लोकसभा के विवेक पर निर्भर है, कि विधेयक को स्वीकार करे या अस्वीकार करे।

(4) सदन में स्थान रिक्त घोषित करना-यदि लोकसभा का कोई सदस्य लोकसभा की अनुमति के बिना सदन से 60 दिन तक अनुपस्थित रहे, तो लोकसभा उस स्थान को रिक्त घोषित कर सकती है, लेकिन इस 60 दिन की अवधि की गणना करते समय उस अवधि को शामिल नही किया जाता, जब सदन का सत्र लगातार 4 दिन तक स्थगित रहे या सदन का सत्रावसान रहे।

(5) राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा- लोकसभा अनुच्छेद 352 के आधीन राष्ट्रपति द्वारा जारी राष्ट्रीय आपात की घोषणा को भी नामंजूर कर सकती है। ऐसी नामंजूरी लोकसभा का विशेष अधिवेशन बुलाकर की जाती है। सदन का विशेष अधिवेशन लोकसभा अध्यक्ष, जब सदन का अधिवेशन चल रहा हो, या राष्ट्रपति, जब लोकसभा का अधिवेशन न चल रहा हो, को सदन के 10 प्रतिशत सदस्यों द्वारा 14 दिन पूर्व लिखित सूचना देकर बुलाया जा सकता है। ऐसी सूचना की प्राप्ति पर लोकसभा अध्यक्ष या राष्ट्रपति विशेष अधिवेशन बुलाने के लिए बाध्य है।

(6) सदन के सदस्य को निष्कासित करना तथा सदस्य के निष्कासन को रद्द करना- यदि लोकसभा का कोई सदस्य अपने कार्यो से सदन की गरिमा का उलंघन करता है या सदन के विशेषाधिकारों का उलंघन करता है, तो लोकसभा उस सदस्य को सदन से निष्कासित कर सकती है। 1993 तक लोकसभा ने अब तक इस अधिकार का केवल दो बार प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ, 1954 में एच.जी. बुद्ग, जिन पर रिश्वत लेकर लोकसभा में प्रश्न पूछने का आरोप था, के निष्कासन का प्रस्ताव तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किया गया था लेकिन निष्कासन की कार्यवाही पूरा होने के पहले ही उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया । लोकसभा ने दूसरी बार इस अधिकार का प्रयोग श्रीमती इन्दिरा गांधी के विरूद्ध किया था और उन्हें लोकसभा की सदस्यता से इसलिए निष्कासित कर दिया गया था कि उन्होंने मारूति उद्योग के सम्बन्ध में सूचना एकत्रित करने के कार्य में व्यवधान उपस्थित किया था ।

लोकसभा के सदस्य के निष्कासन को रद्द करने का भी अधिकार है। 1980 में लोकसभा ने श्रीमती इन्दिरा गांधी, जिन्हे 1978 में निस्कासित किया गया था, का निष्कासन रद्द किया था।

(7) जेल भेजने की शक्ति - जो व्यक्ति लोकसभा के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करता है, उसे लोकसभा द्वारा जेल भेजा जा सकता है। इस अधिकार का प्रयोग सबसे पहले 1977 में किया गया था, जब इन्द्रदेव सिंह को लोकसभा में पर्चे फेंकने के कारण तिहाड़ जेल भेजा गया था। जब श्रीमती इन्दिरा गांधी को 1978 में लोकसभा की सदस्यता से निष्कासित किया गया था, तब उन्हे भी संसद के अधिवेशन, जिसमें उन्हे निष्कासित किया गया था, तक के लिए जेल भेजा गया था।

(8) नियम बनाने तथा निलंबित करने की शक्ति- लोकसभा को सदन की कार्यवाही संचालित करने के लिए प्रक्रिया सम्बन्धी नियम बनाने की शक्ति प्राप्त है साथ ही वह इन नियमों को निलंबित भी कर सकती है।

 

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