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भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत

दक्षिण भारत के प्रमुख संत

शंकराचार्य

  • भक्ति आंदोलन के प्रथम प्रचारक और संत शंकराचार्य थे। केरल में आठवीं शताब्दी में जन्मे संत शंकराचार्य द्वारा भारत में व्यापक स्तर पर भक्ति मत को ज्ञानवादी रूप में प्रसारित किया गया।
  • शंकराचार्य के दर्शन का आधार वेदांत अथवा उपनिषद था। उनका सिद्धांत ‘अद्वैतवाद’ कहलाया। 'अद्वैतवाद' विचारधारा की नीव गौड़पादाचार्य ने 215 कारीकायों (श्लोकों) से की थी। इनके शिष्य गोविन्दाचार्य हुए और उनके शिष्य दक्षिण भारत में जन्मे स्वामी शंकराचार्य हुए, जिन्होंने इन कारीकायों का भाष्य रचा था। 
  • शंकराचार्य ने भारत में धर्म की एकता के लिए भारत के चार भागों में चार मठ स्थापित किये-
  1. वेदांत मठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)
  2. गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)
  3. शारदा मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)
  4. ज्योतिर्मठ, बद्रीकाश्रम (उत्तर भारत)
  • दार्शनिक संतों में सबसे अधिक प्रसिद्धि शंकराचार्य को मिली, परंतु शंकराचार्य का निर्गुण ज्ञानवादी दर्शन मन में उत्पन्न निराशा के विषाद को खत्म न कर सका और न ही सामान्य लोगों  को सुग्राह्य हो सका। परिणामतः कालांतर में संतों द्वारा अद्वैतवाद की आलोचना की गई तथा वैष्णव संतों द्वारा शंकर के अद्वैतवाद के विरोध में दक्षिण में मतों की स्थापना की गई, जो इस प्रकार है-
  1. विशिष्टाद्वैतवाद - रामानुजाचार्य
  2. द्वैतवाद - मध्वाचार्य
  3. शुद्धाद्वैतवाद -विष्णुस्वामी या वल्लभाचार्य
  4. द्वैताद्वैतवाद -निंबार्काचार्य

रामानुजाचार्य

  • रामानुजाचार्य का जन्म श्रीपेरूम्बुदुर (तमिलनाडु) में हुआ था। ये वैष्णव संत थे।
  • रामानुजाचार्य ने कांची या कांचीपुरम् के यादव प्रकाश की देखरेख में शिक्षा ग्रहण की। माना जाता है कि रामानुज होयसल यादव राजकुमार विष्णुवर्धन के भाई को वैष्णव बनाने में सफल हुए थे।
  • रामानुजाचार्य का दर्शन शंकराचार्य के अद्वैतवाद दर्शन के विरोध में प्रतिक्रिया है। उन्होंने ‘विशिष्टाद्वैतवाद’ का मत दिया तथा ज्ञान के स्थान पर भक्ति को महत्व दिया।
  • रामानुजाचार्य की मान्यता थी कि व्यक्ति की आत्मा ईश्वर के साथ एकीकृत नहीं है, बल्कि आत्मा और ईश्वर का संबंध अग्नि और चिंगारी के समान है। ईश्वर पूर्णतः अमूर्त नहीं है, गुण और सौंदर्य से परिपूर्ण है।
  • रामानुजाचार्य ने सगुण ईश्वर का उपदेश दिया। उन्होंने लोगों को त्याग और तपस्या द्वारा निःस्वार्थ भक्ति करने को कहा । रामानुज के अनुयायियों की संख्या दक्षिण अधिक तथा उत्तर में कम है।
  • रामानुजाचार्य ने ब्रम्हसूत्र पर ‘श्री भाष्य’ नाम से टीका लिखी है-इस टीका में इन्होंने यह कहा कि एक शूद्र ईश्वर की कृपा से मोक्ष प्राप्त कर सकता है
  • रामानुजाचार्य को दक्षिण में ‘विष्णु का अवतार’ माना जाता है।

माध्वाचार्य (13वीं शताब्दी)

  • माध्वाचार्य कन्नड़ ब्राम्हण थे। इन्होंने ‘द्वैतवाद’ दर्शन की स्थापना की।
  • इनका मत है कि सृष्टि सत्य है,अल्पज्ञ जीव विष्णु के अधीन कार्यरत हैं। वास्तविक सुख की अनुभूति ही मुक्ति है और मुक्ति का साधन भक्ति है।
  • इन्होंने आठ मंदिरों का निर्माण कराया।

निम्बार्क (13वीं - 14वीं शताब्दी)

  • इनका सिद्धांत ‘द्वैताद्वैत-भेदाभाव’ है। तेलुगू ब्राम्हण होकर भी वे गांगेय क्षेत्र में भी समान रूप से लोकप्रिय रहे।
  • इनका मत है कि जीव अवस्था भेद से ब्रम्ह के साथ भिन्न भी है तथा अभिन्न भी। अल्पज्ञ जीव ब्रम्ह का अंश है, ब्रम्ह अंशी है। भक्ति ही मुक्ति का साधन है। विष्णु के अवतार-रूप कृष्ण को ही उपास्य बताया।
  • राधा-कृष्ण की युगलोपासना का विधान इस सम्प्रदाय में है।
  • स्वामी हरिदास का सखी-सम्प्रदाय इसी की शाखा है।

वल्लभाचार्य (15वीं तथा 16वीं शताब्दी)

  • वल्लभाचार्य तैलंग ब्राम्हण थे। वल्लभाचार्य का सम्प्रदाय आज स्वतंत्र समुदाय के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु मूलतः इनका संबंध विष्णुस्वामी के रूद्र सम्प्रदाय से ही माना जाता है
  • वल्लभाचार्य ने ‘शुद्धाद्वैतवाद’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। इनके अनुसार ब्रम्ह, माया से शुद्ध है। जीव सत्य और नित्य है। भगवान की प्राप्ति का साधन भक्ति है।
  • आचार्य ने पुष्टिमार्ग पर बल दिया। इनके अनुसार भगवान के पोषण अथवा अनुग्रह को भक्ति का सम्बल मानना चाहिए, इसलिए इनके मत को ‘पुष्टि मार्ग’ कहा जाता है।
  • अपने सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए उन्होंने कई अमर-ग्रंथों का प्रणयन किया-अणुभाष्य, सुबोधिनी टीका इत्यादि।
  • वल्लभ सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार में वल्लभ के पुत्र विट्ठलनाथ ने योगदान दिया। उन्होंने हिन्दी के वल्लभ-सम्प्रदायी कवियों को दीक्षा देकर अष्टछाप की स्थापना की। अष्टछाप में आठ कवियों में चार वल्लभाचार्य के और चार विट्ठलनाथ के शिष्य थे। अष्टछाप सम्प्रदाय गुजरात में लोकप्रिय हुआ था।
  • चार वल्लभाचार्य के शिष्य- कुम्भनदास, सूरदास, परमानंद दास, कृष्णदास

    चार गोस्वामी बिट्ठलनाथ के शिष्य-गोविंदस्वामी, नंददास, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास।

उत्तर भारत के प्रमुख संत

रामानन्द (15वीं शताब्दी)

  • रामानन्द का जन्म इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने विष्णु के स्थान पर राम की भक्ति आरंभ की। वे रामानुज के शिष्य थे। उत्तरी भारत के पहले महान भक्त संत थे।
  • रामानन्द ने दक्षिण और उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन के बीच सेतु का काम किया अर्थात भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाये।
  • उन्होंने अपने उपदेश संस्कृत के स्थान पर हिन्दी में दिये जिससे यह आन्दोलन लोकप्रिय हुआ और हिन्दी साहित्य का निर्माण आरंभ हुआ।
  • रामानन्द ने चारों वर्णों को भक्ति का उपदेश दिया। उन्होंने सिद्धांत के आधार पर जाति-प्रथा का कोई विरोध नहीं किया किन्तु उनका व्यावहारिक जीवन जाति समानता में विश्वास करने का था।
  • रामानन्द के 12 शिष्य थे। उनमें कई जातियों के लोग थे, जैसे-रविदास (रैदास) चमार, कबीर-जुलाहा, धन्ना-जाट (किसान), सेन-नाई, सघना-कसाई, पीपा-राजपूत आदि।
  • वास्तव में मध्ययुग का धार्मिक आन्दोलन रामानन्द से आरंभ हुआ।

कबीर (1440-1510ई.)

  • कबीर सिकंदर लोदी के समकालीन थे। उन्होंने अपने गुरू रामानन्द के सामाजिक दर्शन को सुनिश्चित रूप दिया। वे हिन्दू मुस्लिम एकता के हिमायती थे।
  • कबीर के ईश्वर निराकार और निर्गुण थे। उन्होंने जात-पात, मूर्ति पूजा तथा अवतार सिद्धांत को अस्वीकार किया।
  • कबीर की शिक्षाएं बीजक में संग्रहीत है। उनके अनुयायियों को कबीरपंथी कहा जाता था।
  • निर्गुण भक्ति धारा में कबीर पहले संत थे जो संत होकर भी अन्त तक गृहस्थ बने रहे। वे साम्यवादी विचारधारा के थे।
  • जो लोग तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के तीव्र आलोचक थे और हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षपाती थे उनमें से कबीर और नानक का योगदान सबसे अधिक है।

रविदास (रैदास) (पन्द्रहवी शताब्दी)

  • ये रामानन्द के अति प्रसिद्ध शिष्यों में से थे। ये जन्म से चमार थे लेकिन इनका धार्मिक जीवन जितना गूढ़ था, उतना ही उन्नत और पवित्र था।
  • सिक्खों के गुरू ग्रंथ साहिब में संग्रहीत रविदास के तीस से अधिक भजन हैं।
  • रविदास के अनुसार मानव सेवा ही जीवन में धर्म की सर्वाेत्कृष्ट अभिव्यक्ति का माध्यम है।

दादू (1544-1603ई.)

  • निर्गुण भक्ति की परम्परा में दादू का महत्वपूर्ण स्थान है।
  • इनका जन्म अहमदाबाद में एक जुलाहा के यहां हुआ था इनकी मृत्यु 1603ई. में राजस्थान के नराना या नारायण गांव में हुई थी जहां अब इनके अनुयायियों (दादू-पंथियों) का मुख्य केन्द्र है।
  • इनके जीवन का महान स्वप्न सभी धर्माें के विपथगामियों को प्रेम और बन्धुत्व के एक सूत्र में आबद्ध करना था और इस महान आदर्श को कार्य रूप में परिणत करने के लिए ब्रम्ह सम्प्रदाय या परब्रम्ह सम्प्रदाय की स्थापना की।
  • इन्होंने पुस्तकीय ज्ञान का तिरस्कार न कर लिखित रूप में संत वाणियों की रक्षा पर विशेष जोर दिया।
  • दादू धर्मग्रंथों की सत्ता में नहीं बल्कि आत्म ज्ञान के महत्व में विश्वास करते थे। इन्होने ईश्वरीय भक्ति को समाज-सेवा एवं मानवतावादी दृष्टि से संबद्ध किया। ‘‘ईश्वर के सम्मुख सभी स्त्री-पुरूष भाई बहनों की भांति है।’’
  • दादू की शिक्षा थी ‘‘विनयशील बनाने तथा अहम से मुक्त रहो।’
  • दादू गृहस्थ थे तथा इनका विश्वास था कि गृहस्थ का सहज जीवन आध्यात्मिक अनुभूति के लिए अधिक उपयुक्त है।
  • दादू के अनुरोध पर इनके शिष्यों ने विभिन्न सम्प्रदायों की भक्ति परक रचनाओं को संकलित किया।
  • दादू ने एक असाम्प्रदायिक मार्ग (निपख सम्प्रदाय) का उपदेश दिया।
  • दादू के अनेक शिष्यों में सुन्दरदास रज्जब तथा सूरदास प्रमुख थे।
  • रज्जब का कहना है ‘‘जितने मनुष्य हैं उतने ही अधिक सम्प्रदाय हैं।’
  • रज्जब ने कहा कि ‘‘यह संसार वेद है यह सृष्टि कुरान है।’

गुरूनानक (1469-153 ई.) 

  •  इनका जन्म 1469ई. में तलवंडी (आधुनिक ननकाना) पंजाब में एक खत्री परिवार में हुआ था। एकेश्वरवाद तथा मानव मात्र की एकता गुरू के मौलिक सिद्धांत थे।
  • नानक ने जाति-पांत, बाह्य आडम्बर तथा ब्राम्हणों और मुल्लाओं की श्रेष्ठता का विरोध किया। मार्ग दर्शन के लिए वे गुरू की अनिवार्यता को पहली शर्त मानते थे।
  • कबीर की भांति मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा तथा धार्मिक आडम्बरों के कट्टर विरोधी थे किन्तु कर्म एवं पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे।
  • गुरूनानक ने निराकार (आकार रहित) ईश्वर की कल्पना की और इस निराकार ईश्वर को इन्होंने अकाल पुरूष (अनन्त एवं अनादि ईश्वर) की संज्ञा दी।
  • वे काव्य रचना करते थे और रबाब के संगीत के साथ गाया करते थे। सारंगी उनका स्वामिभक्त शिष्य मरदाना बजाया करता था। कहा जाता है कि नानक सारे भारत और दक्षिण मे श्रीलंका तथा पश्चिम में मक्का और मदीना का भ्रमण किया।
  • इन्होंने प्रेरणादायी कविताओं एवं गीतों की रचना की जिन्हें एक पुस्तक रूप में संकलित किया गया जो बाद में आदि ग्रंथ के नाम से प्रकाशित हुआ।
  • 1538ई. में करतार में इनका निधन हो गया
  • अकबर की धार्मिक और राजनीतिक नीतियों में कबीर एवं नानक दो महान संतों के उपदेशों को लक्षित किया गया है।

चैतन्य (1486-1533ई.)

  • इनका जन्म 1486ई. में नवद्वीप या नदिया (बंगाल) में हुआ था। चैतन्य का वास्तविक नाम विश्वम्भर था पर बाल्यावस्था में इनका नाम निमाई था। शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त इन्हें विद्यासागर की उपाधि प्रदान की गई।
  • चैतन्य को बंगाल में आधुनिक वैष्णवाद, जिसे गौडीय वैष्णव धर्म कहा जाता है का संस्थापक माना जाता है।
  • भक्त कवियों में चैतन्य एक मात्र ऐसे कवि थे जिन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध नहीं किया। उनके दार्शनिक सिद्धांत वेदांत की अद्वैतवाद की ही शाखाएं थी।
  • चैतन्य ने लगभग सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। वे वृन्दावन भी गये जहां उन्होंने कृष्ण भक्ति सम्प्रदाय को पुर्नस्थापित किया।
  • उड़ीसा नरेश प्रताप रूद्र गजपति उनके शिष्य थे। उनके संरक्षण में चैतन्य स्थायी रूप से पुरी में रहे और वहीं इनका देहावसान हुआ।
  • चैतन्य ने ईश्वर को कृष्ण या हरि नाम दिया। इन्होंने राधा और कृष्ण की उपासना की तथा वृन्दावन में राधा-कृष्ण को आध्यात्मिक रूप प्रदान किया।
  • इन्होंने मध्यगौडीय सम्प्रदाय या अचिन्त्य भेदाभेद सम्प्रदाय की स्थापना की। इनके अनुयायी इन्हें कृष्ण या विष्णु का अवतार मानते हैं तथा इन्हें गौरांगमहाप्रभु के नाम से पूजते हैं।
  • चैतन्य ने भक्ति में कीर्तन को मुख्य स्थान दिया।
  • चैतन्य के अधिकांश शिष्य निम्नजाति के थे जिनमें प्रमुख शिष्य हरिदास थे।

बल्लभाचार्य (1479-1531ई.)

  • वल्लभाचार्य वैष्णव धर्म के कृष्ण मार्गी शाखा के दूसरे महान संत थे। इनका जन्म 1479ई. में वाराणसी में उस समय हुआ जब इनके पिता लक्ष्मण भट्ट तेलंगाना से अपने परिवार के साथ काशी की तीर्थयात्रा पर आये थे। ये ब्राम्हण परिवार के थे।
  • काशी में अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात वल्लभाचार्य अपने गृहनगर विजयनगर चले गये और कृष्ण देवराय के समय में इन्होंने वैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की।
  • ये श्रीनाथ जी के नाम से भगवान कृष्ण की पूजा करते थे। कबीर और नानक की तरह इन्होंने विवाहित जीवन को आध्यात्मिक उन्नति के लिए बाधक नहीं माना।
  • वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैत में विश्वास करते थे। इन्होंने अनेक धार्मिक ग्रंथ लिखे जिनमें सुबोधिनी और सिद्धांत रहस्य अत्यधिक प्रसिद्ध है।
  • इनके पुत्र विट्ठल नाथ ने कृष्ण भक्ति को अधिक लोकप्रिय बनाया। अकबर ने उन्हें गोकुल और जैतपुरा की जागीरे प्रदान की।
  • वल्लभाचार्य का दर्शन एक वैयक्ति तथा प्रेममयी ईश्वर की अवधारणा पर केंद्रित है। वे पुष्टिमार्ग और भक्तिमार्ग में विश्वास करते थे।

मीराबाई (1498-1546ई.)

  • मीराबाई सोलहवीं शताब्दी के भारत की एक महान महिला संत थी। ये मेड़ता के राजा रत्नसिंह राठौर की इकलौती संतान थी। इनका विवाह राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था।
  • मीरा भगवान कृष्ण की भक्त थी तथा राजस्थानी और ब्रजभाषा में गीतों की रचना की। मीरा ने अपने काव्य में कृष्ण को प्रेमी, सहचर और अपना पति मानकर चित्रित किया है।

सूरदास (16वीं - 17वीं शताब्दी)

  • इनका जन्म आगरा मथुरा मार्ग पर रूनकता नामक ग्राम में हुआ था। ये अकबर एवं जहांगीर के समकालीन थे।
  • सूरदास भगवान कृष्ण और राधा के भक्त थे। इन्होंने ब्रजभाषा में तीन ग्रंथों सूरसारावली, सूरसागर एवं साहित्य लहरी की रचना की।
  • इन ग्रंथों में सूरसागर सबसे प्रसिद्ध हैं इसकी रचना जहांगीर के समय में हुई। सूरदास जी अष्टछाप के कवि थे।
  • सूरदास जी सगुण भक्ति के उपासक थे। ये वल्लभाचार्य के समकालीन थे जिनसे इन्होंने वल्लभ सम्प्रदाय की दीक्षा ग्रहण की।

तुलसीदास (1532-1623ई.)

  • तुलसीदास जी मुगल शासक अकबर के समकालीन थे। इनका जन्म 1523ई. में बांदा जिले के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था।
  • ये राम के भक्त थे। 1574-75ई. में इन्होंने रामचरित मानस की रचना की। इसके अतिरिक्त इन्होंने कई अन्य ग्रंथों की रचना की। जैसे-गीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका, बरवै रामायण आदि।
  • रामचरित मानस में सर्वाेच्च कोटि की धार्मिक भक्ति का विवरण है। इसकी रचना अवधी भाषा में हुई है।

महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन

 भक्ति आंदोलन का सबसे व्यापक प्रभाव क्षेत्र महाराष्ट्र में रहा। महाराष्ट्र में यह न केवल धार्मिक एवं सामाजिक परिवर्तन लाया, अपितु वहां की राजनीतिक व्यवस्था की पुनः संरचना में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन मुख्य रूप से 2 संप्रदायों में विभक्त था।

धरकरी संप्रदाय: इसमें राम की पूजा की जाती थी। इस संप्रदाय के प्रमुख संत एकनाथ और रामदास थे। इस संप्रदाय के अनुयायी स्वयं को रामदास अविहित करते हैं। धरकरी संप्रदाय के अनुयायी सांसारिक कार्य करते हुए भी ईश्वर को समर्पित रहते थे।

वरकरी संप्रदाय: विष्णु के रूप में विट्ठल (विठोवा) की उपासना की जाती थी वारकरी संप्रदाय के संस्थापक तुकाराम माने जाते हैं। इस संप्रदाय का केंद्र पंढरपुर था। यह पंढरपुर के विट्ठल भगवान के भक्तों का रहस्यवादी संप्रदाय था।

विठोवा पंथ के 3 महान गुरू: 1. ज्ञानेश्वर (ज्ञानदेव), 2. नामदेव, 3. तुकाराम थे। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार निवत्तिनाथ तथा ज्ञानेश्वर को महाराष्ट्र के रहस्यवादी संप्रदाय का संस्थापक माना जाता है।

 

 

नामदेव (1270 से 1350ई.)

  • नामदेव का जन्म एक दर्जी के परिवार में हुआ था। अपने प्रारंभिक जीवन में ये डाकू थे।
  • पण्ढरपुर के बिठोवा के परम भक्त थे। बारकरी संप्रदाय के रूप में प्रसिद्ध विचारधारा की गौरवशाली परम्परा की स्थापना में इनकी मुख्य भूमिका रही।
  • इनके कुछ गीतात्मक पद्य गुरू ग्रंथ साहिब में संकलित है। इन्होंने कुछ भक्ति परक मराठी गीतों की रचना की, जो अभंगों के रूप में प्रसिद्ध है।
  • नामदेव ने दूर-दूर तक यात्रा की और दिल्ली में सूफी संतो के वाद-विवाद में भी भाग लिया।
  • नामदेव ने कहा था ‘‘एक पत्थर की पूजा होती है, तो दूसरे को पैरों तले रौंदा जाता है। यदि एक भगवान है, तो दूसरा भी भगवान है।’’

एकनाथ (1533 से 1599ई.)

  • इनका जन्म पैठण (औरंगाबाद) में हुआ था। इन्होंने जाति एवं धर्म में कोई भेदभाव नहीं किया।
  • इनकी सहृदयता की कोई सीमा नहीं थी। इन्होंने प्रभु की पूजा के लिए काफी दूर से लाये गये गोदावरी के पवित्र जल को उस गधे के गले में उड़ेल दिया (पिला दिया) जो प्यास से मर रहा था।
  • इन्होंने पली बार ज्ञानेश्वरी का विश्सनीय संस्करण प्रकाशित करवाया। ये बहुसर्जक लेखक थे और भगवत गीता के चार श्लोकों पर लिखी गई इनकी टीका प्रसिद्ध है।

तुकाराम-(1598 से 1650ई.)

  • जन्म से तुकाराम शूद्र थे और शिवाजी के समकालीन थे। इन्होंने शिवाजी द्वारा दिये गये विपुल उपहारों की भेंट को लेने से इन्कार कर दिया
  • इनकी शिक्षाएं अभंगों के रूप में संग्रहीत है, जिनकी संख्या हजारों में थी।
  • तुकाराम ने हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दिया तथा बारकरी पंथ की स्थापना की

रामदास

  • इनका जन्म 1608ई. में हुआ था। इन्होंने बारह वर्षाें तक पूरे भारत का भ्रमण किया तथा अन्ततः कृष्णा नदी के तट पर चफाल के के पास बस गये जहां इन्होंने एक मंदिर की स्थापना की।
  • ये शिवाजी के आध्यात्मिक गुरू थे। इन्होंने अपनी अति महत्वपूर्ण रचना दासबोध में आध्यात्मिक जीवन के समन्वयवादी सिद्धांत के साथ विविध विज्ञानों एवं कलाओं के अपने विस्तृत ज्ञान को संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया है।

संप्रदाय                         संस्थापक                                           मत                                               काल

स्मृति संप्रदाय               शंकराचार्य                                      अद्वैतवाद                                         9वीं शताब्दी

श्री संप्रदाय                    रामानुज                                         विशिष्टद्वैतवाद                                 12वीं शताब्दी

ब्रम्ह संप्रदाय                 मध्वाचार्य                                       द्वैतवाद  (आनन्दतीर्थ)                      13वीं शताब्दी

सनक संप्रदाय              निम्बार्क                                         द्वैताद्वैतवाद                                      12वीं शताब्दी

रूद्र संप्रदाय                 विष्णुस्वामी या वल्लभाचार्य             शुद्धाद्वैतवाद                                   -

मध्यगौडीय सम्प्रदाय    चैतन्य महाप्रभु-                               -                                                   15वीं - 16वीं शताब्दी

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