भक्ति आंदोलन
भक्ति आन्दोलन की शुरुआत
तुर्कों के भारत-आगमन के पूर्व ही भारत में एक भक्ति-आंदोलन चल रहा था, जिसमें व्यक्ति और ईश्वर के रहस्यवादी तथा आध्यात्मिक संबंध पर विशेष जोर दिया गया था। भक्ति के बीज वैसे वेदों में ही ढूंढ़े जा सकते हैं इसलिए भारत में धार्मिक-सुधार आंदोलन कोई नई बात नहीं थी। आवश्यक होने पर धर्म के बाह्य अंतर्भूत तत्व के सदैव से युग की नवीन आवश्यकताओं के अनुरूप सामयिकीकरण के प्रयास किए जाते रहे हैं। 600ई. पूर्व के धार्मिक-सामाजिक उपक्रम इस तथ्य के प्रबलतम उदाहरण हैं। गुप्तकाल में भी विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने की प्रवृत्ति धर्म में दिखाई देती है।
भक्ति-आंदोलन का मूल तत्व
भक्ति-आंदोलन का मूल तत्व है भक्ति अर्थात् मोक्ष प्राप्ति। मोक्ष प्राप्ति हिन्दू-धर्म का परम लक्ष्य है। हिन्दू-धर्म में मोक्ष प्राप्ति के लिए तीन मार्ग बताये गये हैं-ज्ञान, कर्म तथा भक्ति। भक्ति आंदोलन में इसी भक्ति पर ही सर्वाधिक जोर दिया गया है। इस उपक्रम में व्यक्तिगत उपासना द्वारा सर्वाेच्च ईश्वर के समक्ष भक्तिपूर्ण आत्मसमर्पण का भाव प्रबल है।
भक्ति-आंदोलन का वास्तविक अर्थाें में विकास 700ई. - 1200ई. के मध्य दक्षिण भारत में हुआ और भक्ति धार्मिक-सामाजिक सीमाओं से निकलकर समानता के जनांदोलन में परिणत हो गई। दक्षिण से उत्तर भारत तक भक्ति-आंदोलन के स्वरूप में भिन्नता रही। भक्ति आंदोलन में क्रमिक रूप से इन दार्शनिक विचारधाराओं का विकास तथा उसकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई-अद्वैतवाद-द्वैतवाद, सगुण-निर्गुण, रामभक्ति-परम्परा तथा कृष्णभक्ति-पराम्परा आदि इसी के विभिन्न रूप हुए।
भक्ति आंदोलन की विशेषताएं
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