सूफी आन्दोलन
सूफी आंदोलन भी भक्ति आंदोलन की तरह ही मध्यकाल में अपने प्रभावी रूप में आया, यद्यपि उसकी पृष्ठभूमि सातवीं-आठवीं शताब्दी में ही देखी जा सकती है। इसी प्रकार, सूफी आंदोलन भी भक्ति आंदोलन की तरह ही किसी नए धर्म की स्थापना का प्रयास न होकर इस्लाम का ही शांतिपूर्ण अभियान था। दोनों ही आंदोलनों का उद्देश्य अपने-अपने धर्म की बुराइयों व अंधविश्वासों को समाप्त कर अपने-अपने अनुयायियों को मानवमात्र की समानता और ‘विश्वबंधुत्व’ के उच्च आदर्शों पर चलने के लिए उपदेश देना था।
परिचय
- ‘सूफीमत’ या ‘तसव्वुफ’ इस्लाम के रहस्यवादी, उदारवादी तथा समन्वयवादी दर्शन की संज्ञा है। वास्तव में सूफीमत का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना पुराना इस्लाम है। मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद अरब शासक वर्ग द्वारा इस्लाम की रूढ़िवादी व्याख्या की गई और सामाजिक समानता के इस्लाम के मूलभूत सिद्धांत की उपेक्षा कर गैर-अरबों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाने लगा। उलेमा-वर्ग चूंकि शासकवर्ग के संरक्षण में था, इसलिए वह शासकवर्ग का विरोध नहीं कर रहा था। ऐसे में सूफियों ने इस्लाम की समानता व अन्य उदात्त भावनाओं के प्रचार का दायित्व ग्रहण कर लिया। रूढ़िवादी वर्ग ‘शरीरत’ के बाह्चारों पर अधिक बल देता था, जबकि सुफियों ने ‘कुरान’ की रहस्यवादी एवं उदार व्याख्या की, जिसे ‘तरीकत’ कहा गया।
विकास
- सूफी आंदोलन ने अपना व्यस्थित रूप नवीं शताब्दी में अब्बासियों के खिलाफत के समय में फारस में ग्रहण किया।
- अब तक सूफीवाद की उदारता जाहिर हो चुकी थी और इसमें बौद्धमत, जैनमत, ईसाइयत, हिन्दुत्व आदि सभी धर्म-दर्शनों के उपयोगी तत्व सहजता से स्वीकार किए जाने लगे थे।
- एकान्तमय जीवन एवं फक्कड़पन सूफियों ने बौद्धमत सी सीखा था, उनके खानकाहों का संगठन ईसाई मत से प्रभावित था और आत्मा-परमात्मा के बीच के संबंधों का विवेचन हिन्दुत्व के वेदांत-दर्शन से लिया गया था। आरंभ से शिया और सुन्नी दोनों ही मुस्लिम संप्रदायों के जबरदस्त विरोध का सामना सूफियों को करना पड़ा, जिसकी परिणति मृत्युदंड तक हो सकती थी।
- सूफीमत के पहले शहीद थे ईरान के मंसूर अल-हल्लाज, जिन्होंने अनलहक (मैं ही सत्य हूं) की बात की थी, उन्हें 922ई. में मृत्युदण्ड दे दिया गया। भारत में भी औरंगजेब के समय सरमद नामक एक सूफी संत को मृत्युदंड दिया गया था। वैसे, अल-गज्जाली (1057-1112ई.) नामक अरब दार्शनिक के समय से इस्लाम के रूढ़िवादियों और सूफियों के बीच तनाव कम हो गया था, जब गज्जाली ने यह सिद्ध कर दिया कि ‘तरीकत’, ‘शरीयत’ का विरोध नहीं है।
सूफी शब्द की उत्पत्ति
- सूफी मत, इस्लाम धर्म में उदार, रहस्यवादी और संश्लेषणात्मक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाली विचारधारा हैं सूफी शब्द की उत्पत्ति के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है। विभिन्न विद्वानों ने ‘सूफी’ शब्द की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या भिन्न-भिन्न दृष्टियों से की है।
- सबसे प्रसिद्ध मत के अनुसार सूफी शब्द ‘सूफ’ से विकसित हुआ है जिसका तात्पर्य है-ऊन या ऊनी कपड़ा। सूफी साधक आरंभिक समय में भेड़ या बकरी की ऊन से बने कपड़े धारण किया करते थे। संभवतः इसीलिये उन्हें सूफी कह दिया गया।
- दूसरे मत के अनुसार, सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सफा’ से हुई है जिसका अर्थ है-पवित्रता या शुद्धि की अवस्था। इस व्याख्या के अनुसार आचरण की पवित्रता और शुद्धता के कारण ही इन लोगों को सूफी कहा गया।
- कुछ विद्वानों ने सफा शब्द की एक और व्याख्या की। उनके अनुसार मोहम्मद पैगम्बर द्वारा मदीना की मस्जिद के बाहर ‘सफा’ अर्थात् मक्का की एक पहाड़ी पर जिन लोगों ने शरण ली, वही आगे चलकर सूफी कहलाए।
- वस्तुतः इस विवाद का कोई भी सर्वमान्य निर्णय करना कठिन है। ज्यादा संभावना इस बात की है कि सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सूफ’ अर्थात् ‘ऊन’ से ही हुई होगी क्योंकि प्रथम दृष्टया बाह्य विशेषताएं ही समाज को नजर आती हैं। आगे चलकर बाकी व्याख्याएं क्रमशः विकसित होती गई होंगी। कुछ भी हो, आजकल इसका अर्थ ‘तसव्वुफ’ को मानने वाले साधक (‘इश्क मजाजी’ और ‘इश्क हकीकी’ के सिद्धांत को मानते हुए सभी धर्माें से प्रेम करना) से ही लिया जाता है।
सूफी संगठन
- सूफियों के संघ को वस्ल कहते हैं और उसके मठ को खानकाह या जमायतखाना कहते हैं। कलन्दर , बे-शरा सूफी संप्रदाय खानकाहों के सख्त खिलाफ थे। ज्ञातव्य है कि सूफियों के दो संप्रदाय थे-'बा-शरा' और 'बे-शरा'। बा-शरा वे जो शरीयत के आदेशों का पालन करते थे। बे-शरा के मानने वाले मजदूब, कलंदर आदि थे, जो जान-बूझकर शरीयत के आदेशों का उल्लंघन करते थे, समाज में इन्हें आदरणीय नहीं माना जाता था।
- सूफियों की कब्र दरगाह कहलाती थी और यह बहुत पवित्र मानी जाती थी। इसी में सूफियों में संत-पूजा की परम्परा विकसित हुई। सिलसिला सूफियों में संबंधों की श्रृंखला की संज्ञा है। प्रत्येक सिलसिले में एक प्रधान होता था, जिसे खलीफा कहते थे।