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क्रान्ति की असफलता के कारण

क्रान्तिकारियों ने जिस उद्देश्य से 1857 की क्रान्ति का सूत्रपात किया था, उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। उन्होंने सोचा था कि अंग्रेजों को बाहर खदेड़ कर भारत को स्वाधीन कर देंगे। परन्तु, क्रान्ति क दमन के बाद अंग्रेजों ने ऐसी नीति अपनायी कि 90 और varshon तक भारतीयों को गुलाम बनाए रखने में सफल रहे।

इन महान क्रान्ति की असफलता के अनेक कारण थे, जिनमें कुछ प्रमुख हैं-

निश्चित समय की प्रतीक्षा न करना

1857 की क्रान्ति की देशव्यापी शुरूआत के लिए 31 मई 1857 का दिन निर्धारित किया गया था। एक ही दिन क्रान्ति शुरू होने पर उसका व्यापक प्रभाव होता। परन्तु सैनिकों ने आक्रोश में आकर निश्चित समय के पूर्व 10 मई, 1857 को ही विद्रोह कर दिया। सैनिकों की इस कार्यवाही के कारण क्रान्ति की योजना अधूरी रह गयी। निश्चित समय का पालन नहीं होने के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में क्रान्ति की शुरूआत अलग-अलग दिनों में हुई। इससे अंग्रेजों को क्रान्तिकारियों का दमन करने में काफी सहायता हुई। अनेक स्थानों पर तो 31 मई की प्रतीक्षा कर रहे सैनिकों के हथियार छीन लिए गए। यदि सभी क्षेत्रों में क्रान्ति का सूत्रपात एक साथ हुआ होता, तो तस्वीर कुछ और ही होती।

देशी राजाओं का देशद्रोही रूख 

1857 की क्रान्ति का दमन करने में अनेक देशी राजाओं ने अंग्रेजों की खुलकर सहायता की। पटियाला, नाभा, जींद, अफगानिस्तान और नेपाल के राजाओं ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता के साथ-साथ आर्थिक सहायता भी की। देशी राजाओं की इस देशद्रोहितापूर्ण भूमिका ने क्रान्तिकारियों का मनोबल तोड़ा और क्रान्ति के दमन के लिए अंग्रेजी सरकार को प्रोत्साहित किया।

साम्प्रदायिकता का खेल

1857 की क्रान्ति के दौरान अंग्रेजी सरकार हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाने में तो सफलता प्राप्त नहीं कर सकी, परन्तु आंशिक रूप से ही सही साम्प्रदायिकता का खेल खेलने में सफल रही। साम्प्रदायिक भावनाओं को उभार कर ही अंग्रेजी सरकार ने सिक्ख रेजिमेण्ट और मद्रास के सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। मराठों, सिक्खों और गोरखों को बहादुरशाह के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। उन्हें यह महसूस कराया गया कि बहादुरशाह के हाथों में फिर से सत्ता आ जाने पर हिन्दुओं और सिक्खों पर अत्याचार होगा। इसका मूल कारण था कि सम्पूर्ण पंजाब में बादशाह के नाम झूठा फरमान अंग्रेजों की ओर से जारी किया गया, जिसमें कहा गया था कि लड़ाई में जीत मिलते ही प्रत्येक सिक्ख का वध कर दिया जाएगा। सैनिकों के साथ-साथ जनसाधारण को ही गुमराह किया गया। इस स्थिति में क्रान्ति का असफल हो जाना निश्चित हो गया। जब देश के भीतर देशवासी ही पूर्ण सहयोग न दें, तो कोई भी क्रान्ति सफलता प्राप्त नहीं कर सकती।

सम्पूर्ण देश में प्रसारित न होना 

1857 की क्रान्ति का प्रसार सम्पूर्ण भारत में नहीं हो सका था। सम्पूर्ण दक्षिण भारत और पंजाब का अधिकांश हिस्सा इस क्रान्ति से अछूता रहा। यदि इन क्षेत्रों में क्रान्ति का विस्तार हुआ होता, तो अंग्रेजों को अपनी शक्ति को इधर भी फैलाना पड़ता और वे पंजाब रेजिमेण्ट तथा मद्रास के सैनिकों को अपने पक्ष में करने में असफल रहते।

शस्त्रास्त्रों का अभाव

क्रान्ति का सूत्रपात तो कर दिया गया, किन्तु आर्थिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण क्रान्तिकारी आधुनिक शस्त्रास्त्रों का प्रबंध करने में असफल रहे। अंग्रेजी सेना ने तोपों और लम्बी दूरी तक मार करने वाली बन्दूकों का प्रयोग किया, जबकि क्रान्तिकारियों को तलवारों और भालों का सहारा लेना पड़ा। इसलिए, क्रान्ति को कुचलने में अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई।

सहायक साधनों का अभाव

सत्ताधरी होने के कारण रेल, डाक, तार एवं परिवहन तथा संचार के अन्य सभी साधन अंग्रेजों के अधीन थे। इसलिए, इन साधनों का उन्होंने पूरा उपयोग किया। दूसरी ओर, भारतीय क्रान्तिकारियों के पास इन साधनों का पूर्ण अभाव था। क्रान्तिकारी अपना संदेश एक स्थान से दूसरे स्थान तक शीघ्र भेजने में असफल रहे। सूचना के अभाव के कारण क्रान्तिकारी संगठित होकर अभियान बनाने में असफल रहे। इसका पूरा-पूरा फायदा अंग्रेजों को मिला और अलग-अलग क्षेत्रों में क्रान्ति को क्रमशः कुचल दिया गया।

सैनिक संख्या में अंतर 

एक तो विद्रोह करने वाले भारतीय सैनिकों की संख्या वैसे ही कम थी, दूसरे अंग्रेजी सरकार द्वारा बाहर से भी अतिरिक्त सैनिक मंगवा लिया गया था। उस समय कम्पनी के पास वैसे 96,000 सैनिक थे। इसके अतिरिक्त देशी रियासतों के सैनिकों से भी अंग्रेजों को सहयोग मिला। अंग्रेज सैनिकों को अच्छी सैनिक शिक्षा मिली थी और उनके पास अधुनातन शस्त्रास्त्र थे, परन्तु अपने परम्परागत हथियारों के साथ ही भारतीय क्रान्तिकारियों ने जिस संघर्ष क्षमता का परिचय दिया, उससे कई स्थलों पर अंग्रेजों के दांत खट्टे हो गए। फिर भी, अंततः सफलता अंग्रेजों के हाथों ही लगी।

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