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मौर्योत्तरकालीन प्रशासनिक,आर्थिक, सामाजिक व धार्मिक स्थिति 

 

मौर्योत्तरकालीन प्रशासनिक व्यवस्था 

  • इस काल में अधिकतर छोटे-छोटे राज्य थे। यद्यपि उत्तर में कुषाणों एवं दक्षिण में सातवाहनों ने काफी विस्तृत प्रदेशों पर राज किया किन्तु न तो सातवाहन और न ही कुषाणों के राजनीतिक संगठन में वह केन्द्रीकरण था जो मौर्य प्रशासन की मुख्य विशेषता थी।
  • मौर्योत्तरकाल में विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने के लिए राजतंत्र में दैवीय तत्वों को समाविष्ट करने की प्रवृत्ति अपनाई गई।
  • चीनी शासकों के अनुरूप कुषाण राजाओं ने मृत राजाओं की मूर्तियाँ स्थापित करने के लिए मंदिर बनवाने की प्रथा (देवकुल) आरंभ की। चीनी शासकों के अनुरूप कुषाण राजाओं ने ‘देवपुत्र’ जैसी उपाधियां धारण कीं। मूर्तिपूजा का आरंभ कुषाण काल से ही माना जाता है।
  • सातवाहन शासकों ने ब्राम्हणों एवं बौद्ध भिक्षुओं को पहली शताब्दी ई.पू.में कर-मुक्त भूमि प्रदान करने की प्रथा प्रारंभ की। नानाघाट अभिलेख में भूमिदान का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण मिलता है।
  • कुषाणों ने राज्य शासन में क्षत्रप-प्रणाली चलाई शकां एवं पार्थियन ने दो आनुवंशिक राजाओं के संयुक्त शासन की परिपाटी चलाई
  • प्रशासन की व्यवस्था के लिए सातवाहन साम्राज्य को अनेक विभागों में बांटा गया था, जिन्हें ‘अहार’ कहा जाता था। प्रत्येक ‘अहार’ अमात्य के अधीन होता था।
  • कुषाणों ने प्रांतों में द्वैध शासन की प्रणाली प्रारंभ की।
  • सातवाहन काल के पदाधिकारियों में भांडागारिक (कोषाध्यक्ष), रज्जुक (राजस्व विभाग का प्रमुख), पनियघरक (जलापूर्ति अधिकारी),   कर्मान्तिक (भवन निर्माण अधिकारी), सेनापति आदि होते थे।
  • अहार के नीचे ग्राम होते थें प्रत्येग ग्राम का अध्यक्ष एक ‘ग्रामिक’ होता था, जो ग्राम प्रशासन के लिए उत्तरदायी होता था।
  • कुषाण लेखों से पहली बार ‘दंडनायक’ तथा ‘महादंडनायक’ जैसे पदाधिकारी का उल्लेख मिलता है।

 

मौर्योत्तरकालीन आर्थिक व्यवस्था

मुद्राएं

सोने का सिक्का

 निष्क, स्वर्ण

चांदी का सिक्का

 शतमान

तांबे का सिक्का

 काकणि

  • चार धातुओं-सोना, चांदी, तांबा एवं शीशे से ‘कार्षापण’ नामक सिक्का बनता था।
  • हिंद-यवन शासकों ने सर्वप्रथम सोने के सिक्के चलाए। उनके सिक्कों पर द्विभाषिक लेख होते थे-एक तरफ यूनानी भाषा, यूनानी लिपि में तथा दूसरी तरफ प्राकृत भाषा, खरोष्ठी लिपि में।
  • कुषाणों ने सर्वप्रथम शुद्ध स्वर्ण के सिक्के चलवाए, जो 124 ग्रेन का था।
  • सातवाहनों ने सीसे के अतिरिक्त चांदी, तांबा, पोटीन (तांबा, जिंक, सीसा तथा मिश्र धातु)आदि के सिक्के भी चलाए।

वाणिज्य एवं व्यापार

  • आर्थिक रूप से इस काल का उज्ज्वल पक्ष वाणिज्य-व्यापार की प्रगति था।
  • इस काल में भारत का मध्य एशिया तथा पाश्चात्य विश्व के साथ घनिष्ठ व्यापार शुरू हो गया था। व्यापार की उन्नति के कारण नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में नए वर्गा का उदय हो रहा था।
  • इस समय व्यापार मुख्यतः अरब सागर के तटवर्ती बंदरगाहों पर होता था। इस काल में बारबेरिकस (सिंधु के मुहाने पर), अरिकामेडु (पूर्वी तट पर), बेरीगाजा या भड़ौच (पश्चिमी तट पर) आदि महत्वपूर्ण बंदरगाह थे।
  • कुषाणों ने चीन से ईरान तथा पश्चिम एशिया तक जाने वाले रेशम मार्ग पर नियंत्रण कर रखा था। रेशम मार्ग आय का बहुत बड़ा स्रोत था।
  • प्रथम शताब्दी ई.में अज्ञात यूनानी नाविक ने अपनी ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ नामक पुस्तक में भारत द्वारा रोम को निर्यात की जाने वाली वस्तुओं का विवरण दिया है।
  • रोम को निर्यातित प्रमुख वस्तुएं-मसाले, काली मिर्च, मलमल, हाथी दांत की वस्तुएं, इत्र, चंदन, कछुए की खोपड़ी, केसर, जटामासी, हीरा, रत्न, तोता, शेर, चीता आदि थीं।
  • पश्चिम के लोगों को भारतीय काली मिर्च (गोल मिर्च) इनती प्रिय थी कि संस्कृत में काली मिर्च का नाम ही ‘यवनप्रिय’ पड़ गया।
  • ईसा की पहली सदी में हिप्पालस नामक ग्रीक नाविक ने अरब सागर से चलने वाले मानसून हवाओं की जानकारी दी।
  • रोम से आयातित वस्तुएं-शराब के दो हत्थे वाला कलश, शराब, सोना एवं चांदी के सिक्के, पुखराज, टिन, तांबा, शीशा, लाल आदि।

शिल्प एवं उद्योग

  • व्यापार एवं विनिमय में मुद्राओं का प्रयोग मौर्योत्तर युग की सबसे बड़ी देन है।
  • इस काल का प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग था‘साटक’ नामक वस्त्र के लिए मथुरा; वृक्ष के रेशों से बने वस्त्र के लिए मगध; मलमल के लिए बंग एवं पुण्ड्र क्षेत्र तथा मसालों के लिए दक्षिण भारत प्रसिद्ध था।
  • व्यापारिक प्रगति के कारण शिल्पकारों ने शिल्प श्रेणियों को संगठित किया। श्रेणियों के पास अपना सैन्य बल होता था।
  • श्रेष्ठियों को उत्तर भारत में सेठ एवं दक्षिण भारत में शेट्ठि या चेट्टियार कहा जाता था।

 

मौर्योत्तरकालीन सामाजिक व्यवस्था

  • इस काल में बड़ी संख्या में विदेशियों का समाज में आगमन हुआ और उन्हें आत्मसात् किया गया। इसी क्रम में विदेशियों को ‘व्रात्यक्षत्रिय’ का दर्जा दिया गया।
  • मौर्योत्तर काल में परंपरागत चारों वर्ण-ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मौजूद थे, किन्तु शिल्प एवं वाण्ज्यि में उन्नति का फायदा शूद्रों को मिला।
  • मौर्योत्तर काल में ही शैव धर्म के अन्तर्गत ‘पाशुपत संप्रदाय’ का विकास हुआ, जिसके प्रवर्तक ‘लकुलिश’ को माना जाता है।
  • इस काल में भागवत धर्म का विकास हुआ, जो वैष्णव संप्रदाय से जुड़ा था। कृष्ण के उपासक ‘भागवत’ कहलाते थे।
  • सातवाहन शासकों के नाम का मातृप्रधान होना, स्त्रियों की अच्छी दशा को दर्शाता है। स्त्रियां धार्मिक कार्यां में पति के साथ भाग लेती थीं। कभी-कभी वे शासन कार्यां में भाग लेती थीं।
  • विभिन्न धर्मों ने लचीला रूख अपनाते हुए विदेशियों को शामिल करने का प्रयास किया। यूनानी, शक, पार्थियन और कुषाण सभी भारत में अपनी-अपनी पहचान अंततः खो बैठे। वे समाज के क्षत्रिय वर्ग में समाहित हो गए।

 

मौर्योत्तरकालीन धार्मिक स्थिति

  • मौर्योत्तर कालीन समाज में धर्मऔर विशेषकर चरित्र की प्रधानता थी। इस काल में महाभारत तथा रामायण एवं मनुस्मृति का सामान्य जन-जीवन पर भी प्रभाव था। महाभारत में चार वर्णां के लिए नौ कर्तव्य बताए गए हैं-
  1. क्रोध न करना
  2. सत्य बोलना
  3. न्यायप्रियता
  4. पत्नी से संतानोत्पत्ति
  5. सदाचार
  6. व्यर्थ झगड़े से बचना
  7. सरलता
  8. सेवकों का पालन-पोषण एवं
  9. दान।
  • इसके अनुसार धर्मविहीन समाज में अव्यवस्था फैलती है। गीता में भी नैतिक विकास पर बल दिया गया था। इसी प्रकार के विचार मनु ने भी व्यक्त किए। मौर्योत्तर समाज में धर्म चरम पर था।
  • अनार्यों तथा विदेशी जातियों के कारण आर्यों ने अपनी सामाजिक रक्षा के लिए कई प्रयास किए। इसके कारण सामाजिक संकीर्णता का उत्पन्न होना निश्चित ही था। मनु ने 57 जातियों का उल्लेख किया है, जो यह दर्शाता है कि इस समय नयी जातियों का विकास चरम पर था।
  • मनु ने शूद्रों के विषय में यह व्यवस्था बनाई कि ये तीनों वर्णां-ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करे। उन्हें वेद मंत्रों के उच्चारण से तो वंचित कर दिया गया, लेकिन उन्हें अपने विवाह कार्यो को करने तथा श्राद्ध करने की स्वतंत्रता दी गई। शूद्रों को वैश्यों के समान व्यापार की शिक्षा दी गई थी, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ था। इस काल में अनार्यां को ‘दस्यु’ कहा जाता था। मनु ने अनार्यां को ‘दस्यु’ तथा ‘म्लेच्छ’ संज्ञा से अभिहित किया है।

बौद्ध और जैन धर्म

  • मौर्योत्तर काल में धार्मिक क्षेत्र में कई परिवर्तन और पुनरावृत्तियां हुईं। यूनानी, शक, पार्थियन और कुषाणों का अपना कोई धार्मिक अस्तित्व नहीं रहा, क्योंकि मनु ने उन्हें एक पांचवें वर्ण ‘पतित क्षत्रिय’ के रूप में मान्यता दे दी। इस प्रकार उनका भी भारतीयकरण हो गया।
  • दक्षिण में सातवाहनों ने स्वयं को ब्राम्हण बताया और वैदिक धर्म का प्रसार भी किया। उन्होंने अनेकानेक यज्ञ किए तथा कई देवी-देवताओं की उपासना भी की। उन्होंने बौद्धों के प्रति श्रद्धा और दानवृत्ति अपनाकर बौद्ध धर्म को भी प्रोत्साहित किया।
  • कनिष्क ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया। यद्यपि कनिष्क बौद्ध हो गया था, तथापि उसने अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता का भाव रखा। उसके सिक्कों पर बुद्ध की आकृति के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं की आकृतियां भी मिलती हैं।
  • देश के भीतर बौद्ध धर्म को व्यवसायी वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ। इस काल में बने अनेक बौद्ध-विहार व्यापारियों के अनुदान के ही परिणाम थे। व्यापारियों के माध्यम से बौद्ध धर्म पश्चिमी एवं मध्य एशिया में भी पहुंचा, जहां इसे व्यापक समर्थन मिला। कनिष्क के समय तक बौद्ध धर्म की 18 शाखाएं थीं। इस काल की विशेषता यह थी कि कर्ममार्ग तथा ज्ञानमार्ग की अपेक्षा भक्तिमार्ग अधिक प्रभावशाली था।
  • बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन धर्म में भी परिवर्तन आया। ईसा की पहली शताब्दी में जैन धर्म विभाजित हो गया।
  • रूढ़िवादी जैनों को दिगंबर तथा उदारवादी जैनों को श्वेतांबर कहा गया है। जैन धर्म के अनुयायियों ने मथुरा में मूर्तिकला की एक शैली को प्रश्रय दिया, जहां शिल्पियों ने महावीर की एक मूर्ति का निर्माण किया। यह कला-शैली ‘मथुरा शैली’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। गांधार में ई.पू. प्रथम शताब्दी में बुद्ध की मूर्ति के निर्माण की एक कला का विकास हुआ, जिसे ‘गांधार-शैली’ या ‘ग्रीक-बौद्ध’ शैली कहा गया। ‘मथुरा कला’ को आदर्शवादी कला और ‘गांधार कला’ को यथार्थवादी कला कहा जा सकता है।

 

मौर्योत्तरकाल में स्त्रियों की स्थिति

  • इस काल में स्त्रियों की दशा को ऐतिहासिक घटनाचक्रों, सामाजिक मूल्यों और आस्थाओं के परिवर्तन ने प्रभावित किया। पुत्री की अपेक्षा पुत्र को विशेष महत्व दिया जाता था, क्योंकि यह मान्यता थी कि परिवार की पूरी आशा पुत्र पर ही होती है गीता में भी स्त्री को शूद्र के तुल्य माना गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि 200 ईसा पूर्व के आसपास स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आने लगी थी। कम आयु में लड़कियों के विवाह का प्रचलन था।
  • इस काल में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे-आर्ष, दैव, ब्राम्ह और प्रजापत्य विवाह को विधिसम्मत तथा पैशाच, राक्षस, असुर और गन्धर्व विवाह को हेय समझा जाता था।
  • पति द्वारा पत्नी को शारीरिक दण्ड देने की व्यवस्था थी। विधवा विवाह को मान्यता नहीं प्राप्त थीसती प्रथा का प्रचलन नहीं था।
  • स्त्रियों की स्वतंत्रता प्रतिबंधित थी तथा समाज पितृप्रधान था। वैश्यावृत्ति का भी प्रचलन था। स्त्री के धन में से पुत्र तथा पुत्री की समान भागीदारी थी, जबकि पुरूष के धन पर सिर्फ पुत्र का अधिकार था। 

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