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बाढ़ व सूखाग्रस्त क्षेत्रों की पहचान

 भारत में वर्षा का प्रादेशिक व मौसमी वितरण अत्यधिक विषम है जहाँ  एक और जैसलमेर में 9 सेमी. से कम वर्षा होती है तो वहीं मॉसिनराम में 1140 सेमी  से भी अधिक वर्षा होती है । इसी प्रकार भारत में अधिकतर वर्षा जून से सितम्बर के चार  आर्द्रतम महीनों में ही होती है । अत: बाढ़ एवं सूखाग्रस्त क्षेत्रों  की पहचान के लिए निश्चित व अनिश्चित वर्षा वाले क्षेत्रों को जानने के अलावा वर्षा की विचलनशीलता की प्रकृति को समझना भी आवश्यक है । सामान्यतः अनिश्चित व कम वर्षा के क्षेत्रों में विचलनशीलता अधिक है और ये क्षेत्र सूखाग्रस्त क्षेत्रों के अंतर्गत आते हैं ।

 

सूखा

यह एक असामान्य व लम्बा शुष्क मौसम है जो किसी क्षेत्र विशेष में स्पष्ट जलीय असंतुलन पैदा करता है । सूखा के लिए मानसून की अनिश्चित प्रकृति के अलावा कृषि का अवैज्ञानिक प्रबंधन भी उत्तरदायी कारक हो सकता है । सूखे को तीन प्रकार में बाँटा गया है-

मौसम विज्ञानी- किसी बड़े क्षेत्र में 75% से कम वर्षा प्राप्त होने पर ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है ।

जलीय सूखा- मौसम विज्ञानी सूखा कीअवधि के काफी लम्बा होने पर जलीय सूखा की स्थिति उत्पन्न होती है । ऐसे सूखे के समय नदियाँ,तालाब,झील जैसे जल स्रोत सूख जाते हैं ।

कृषिगत सूखा- यह फसल के लिए अपेक्षित वर्षा से । काफी कम वर्षा होने का परिणाम है । इस अवस्था में मिट्टी की नमी फसल विकास के लिए अपर्याप्त होती है ।

सिंचाई आयोग ने वर्षा की मात्रा व उसकी विचलनशीलता के आधार पर सूखा प्रभावित क्षेत्रों को दो भागों में बाँटा है

सूखा क्षेत्र

  • ये ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ वर्षा 50 सेमी से कम होती है एवं वर्षा की विचलनशीलता 25% से अधिक रहती है ।
  • इन क्षेत्रों के अंतर्गत पश्चिमी राजस्थान,सौराष्ट्र व कच्छ का रण क्षेत्र आते हैं । यहाँ अवैज्ञानिक मरुस्थलीकरण रोकने,पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने, जल व मृदा का प्रबंधन आदि के लिए मरुभूमि विकास कार्यक्रम  चलाए जा रहे हैं ।

 सूखाग्रस्त क्षेत्र

  • ये ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ सामान्य वर्षा 75 सेमी.से कम एवं वर्षा की विचलनशीलता सामान्यत: 25% हो इसके अंतर्गत गुजरात, राजस्थान,पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी मध्य प्रदेश, मध्य महाराष्ट्र, आंतरिक कर्नाटक रायलसीमा,दक्षिणी तेलंगाना, तमिलनाडु के कुछ भाग, बिहार में चंपारण जिला, पूर्वी उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर, झारखंड में पलामू, पश्चिम बंगाल में पुरूलिया व ओडिशा में कालाहांडी जिले आते हैं ।
  • ये क्षेत्र द्वितीयक हरित क्रांति के संभावित क्षेत्र हैं । यहाँ शुष्क: कृषि प्रणाली, मृदा व जल प्रबंधन, ड्रिप व स्प्रिंकलर सिंचाई, सामाजिक वानिकी, भूमि उत्पादकता को बढ़ाने के विविध प्रयास तथा वैकल्पिक अर्थ:व्यवस्था के रूप में पशुपालन का विकास आदि कार्यक्रम,सूखाग्रस्त क्षेत्र कार्यक्रम के तहत चलाए जा रहे हैं ।

बाढ़

  • जब नदियाँ या जलधाराएँ तटबंधों को पारकर अपने जल को आसपास के क्षेत्रों में फैला दे तो बाढ़ की घटनाएँ होती हैं । इसका मुख्य कारण नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में भारी वर्षा का होना है । चक्रवाती तूफानों से भी अचानकअत्यधिक वर्षा से तटीय भागों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । बादल के अचानक फटने से राजस्थान जैसे शुष्क क्षेत्रों में भी कभी-कभी बाढ़ की स्थिति देखने को मिलती है । यद्यपि बाढ़ के लिए मानसून की प्रकृति ही मुख्यतः उत्तरदायी है परन्तु नदी बेसिनों में अधिक अवसादीकरण, नदियों का मार्ग बदलना, मानवीय बसाव के कारण नदियों के जल:चैनल का सँकरा होना, पहाड़ी ढालों पर वनों की अंधाधुंध कटाई, विकास कार्यक्रमों में ढाल का ध्यान न रखा जाना आदि भी बाढ़ के लिए उत्तरदायी कारक हैं ।
  • भारत सरकार के जल संसाधन विभाग के अनुसार,बाढ़ के द्वारा होने वाले हानि का 60% नदियों से आने वाले बाढ़ से एवं 40% अधिक वर्षा एवं चक्रवातों से होता है ।
  • राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने देश के 40 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ग्रस्त क्षेत्र बताया है । बाढ़ संरक्षण उपायों के बावजूद हर वर्ष 7.7 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है जिसमें कुल बोए गए क्षेत्र की 3.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि शामिल है । जब बाढ़ अपने चरम पर होती है तो उस वर्ष अधिकतम 10 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र तक प्रभावित होता है ।
  • बाढ़ क्षेत्र बाढ़ आयोग ने बाढ़ की आवृत्ति के अनुसार विभिन्न बाढ़ क्षेत्रों को तीन भागों में बाँटा है -

1 . अधिकतम आवृत्ति के क्षेत्र:यहाँ हर वर्ष बाढ़ की घटनाएँ होती हैं । इसके अंतर्गत ब्रह्मपुत्र घाटी, निम्न गंगा घाटी, गंगा,गोदावरी, कृष्णा, महानदी, कावेरी आदि नदियों के डेल्टाई क्षेत्र ; गंडक,कोसी जैसी नदियों के बाढ़ क्षेत्र शामिल किए जाते हैं ।

2 . मध्यम आवृत्ति वाले क्षेत्र:यहाँ पाँच वर्ष या कम अंतराल पर बाढ़ की घटनाएँ होती हैं । भारत के अधिकतर अन्य बाढ़ क्षेत्र इसी के अंतर्गत आते हैं ।

3 . निम्न आवृत्ति के क्षेत्र: ये ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ कम वर्षा होती है । परन्तु यहाँ सामान्यतः पाँच वर्षों से भी अधिक अंतराल पर बादल प्रस्फोट से अचानक भारी वर्षा तथा अनियमित जल निकासी व्यवस्था के कारण बाढ़ की घटनाएँ देखने को मिलती हैं ।

  • बाढ़ नियंत्रण हेतु संरचनात्मक उपायों के तहत बाँध व जलाशयों का निर्माण, जल निकासी चैनलों में सुधार, नदियों को जोड़ना, वनीकरण जैसे उपाय आते हैं । परन्तु INCID (Indian National Committee on Irrigation & Drainage) के अनुसार,सिर्फ संरचनात्मक उपायों से बाढ़ पर पूर्ण नियंत्रण संभव नहीं है । अतः उसने Flood Plain Zone की अवधारणा प्रस्तुत की है और बताया,कि यहाँ किसी भी विकास गतिविधि से पूर्व बाढ़ विशेषज्ञों की अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य किया जाना चाहिए । वर्तमान समय में सभी बाढ़ग्रस्त नदियों के लिए मास्टर प्लान बनाए जा रहे हैं ।
  • देश में 11 राज्यों एवं 2 केन्द्र शासित राज्यों में 162 पूर्वानुमान स्टेशन स्थापित किए जा चुके हैं । INSAT व IRS उपग्रह प्रणालियों से बाढ़ की भविष्यवाणी में भी बेहतर मदद मिल रही है । 2015 में पूर्वानुमान की परिशुद्धता 98% तक थी । नवीनतम उपग्रह OCEANSAT व METSAT आदि के आने के बाद बाढ़ पूर्वानुमान की परिशुद्धता बढ़ी है ।

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