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मानसून की क्रियाविधि

इसे निम्न चरणों के अंतर्गत समझा जा सकता है-

  1. मानसून का आरम्भ और उसका आगमन 
  2. वषां लाने वाले यंत्र तथा मानसूनी वर्षा का वितरण
  3. मानसून का विच्छेद
  4. मानसून में निवर्तन

 मानसून का आरम्भ व अग्रसरण

इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं ।

तापीय संकल्पना

  • इसके अनुसार 21 मार्च के बाद जब सूर्य उत्तरायण होता है तो उत्तरी भारत में गर्मी बढ़ने लगती हैं । मध्य जून आते-आते गर्मी बेहद बढ़ जाती है एवं पश्चिमोत्तर भारत तथा पाकिस्तान निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है ।
  • ये निम्न दाब क्षेत्र इतने शक्तिशाली होते हैं कि दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें विषुवत रेखा पार कर इस ओर आकर्षित हो जाती हैं एवं दक्षिणी: पूर्वी मानसूनी पवनों के रूप में भारतीय पवन तंत्र की अंग बन जाती हैं । हजारों किमी. की समुद्री यात्रा के कारण इनमें पर्याप्त नमी होती है । अतः काले कपासी बादल उमड़ने लगते हैं, ऊमस का वातावरण बन जाता है एवं अंततः इनसे भारी वर्षा होती है । इस प्रकार मानसून का आकस्मिक प्रारम्भ हो जाता है जिसे मानसून प्रस्फोट (Burst of Monsoon) कहते हैं ।
  • इस समय पर्वतों का वितरण वर्षा का मुख्य निर्धारक होता है । पर्वतीय ढालों के पवन अभिमुख क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है जबकि पवन विमुख क्षेत्र में कम वर्षा होने से वृष्टिछाया क्षेत्र और मरुस्थल निर्मित हो जाता है ।

फ्लोन का प्रतिविषुवतीय पछुआ पवन सिद्धान्त

  • उत्तरी:पूर्वी व्यापारिक पवन व दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनों के संपर्क क्षेत्र NITCZ ( उत्तरी अंतराउष्ण अभिसरण क्षेत्र ) में प्रति विषुवतीय पछुआ पवनें चलती हैं । जब सूर्य के उत्तरायण की स्थिति में ITCZ का उत्तरी भाग भारतीय भू:भाग की ओर खिसक जाता है (अधिकतम खिसकाव 30° N अक्षांश) तो यही पवनें दक्षिणी: पूर्वी मानसून के रूप में भारत में वर्षा करती हैं ।

कोटेश्वरम का जेट:स्ट्रीम सिद्धान्त

  • कोटेश्वरम के अनुसार,ITCZ के उत्तर की तरफ खिसकाव से हिमालय के दक्षिणी भाग में सक्रिय उपोष्ण पछुआ जेट स्ट्रीम का भी उत्तर की ओर खिसकाव हो जाता है । इस समय हिमालय तथा तिब्बत के पठार के गर्म होने तथा गर्म हवाओं के ऊपर उठने से ऊपरी वायुमंडल में प्रतिचक्रवातीय स्थिति उत्पन्न होने के कारण पूर्वी जेट पवनों का अविर्भाव होता है ।
  • इस क्षेत्र से ऊपर उठी वायु की दक्षिणी शाखा मेडागास्कर के पास मैस्कर्णी उच्च दाब क्षेत्र में उतरकर सतही दक्षिणी:पश्चिमी मानसूनी पवनों के रूप में पवन की चक्रीय व्यवस्था  पूरी करती है । इस क्रम में लंबी समुद्री दूरी तय करने के कारण उसमें पर्याप्त नमी होती है एवं इसीलिए पर्वतीय ढालों के अभिमुख क्षेत्रों में वह पर्याप्त वर्षा में सहायक होती है ।
  • उष्ण अभिमुख क्षेत्रों में वह पर्याप्त वर्षा में सहायक कटिबंधीय पूर्वी जेट पवनें इन मानसूनी पवनों को शक्ति प्रदान करती हैं । इन जेट पवनों की उत्पत्ति क्षोभ सीमा में 14-16 किमी .की ऊँचाई पर उस समय होती है जब ऊषरी वायुमंडल का वायुदाब 100-150 मिलीबार हो ।
  • इसका क्षेत्र विस्तार 8°-35° उत्तरी अक्षांश के मध्य होता है एवं ये सिर्फ गर्मियों में उत्पन्न होती हैं । पूर्वी जेट बंगाल की खाड़ी के उष्णकटिबंधीय अवदाबों को भी खींचकर तटीय भागों में लाते हैं एवं चक्रवाती वर्षा कराते हैं । गर्म होने के कारण ये जेट पवनें सतह की आर्द्र वायु को ऊपर उठाती हैं जिसके परिणामस्वरूप भारतीय भू:भाग पर संवहनीय वर्षा होती  है एवं भारत के विभिन्न भागों में मानसून प्रस्फोट की दशा उत्पन्न हो जाती है ।
  • इस प्रकार पूर्वी जेट:स्ट्रीम का दक्षिणी पश्चिमी मानसून के अविर्भाव में अत्यधिक योगदान है । चूंकि इस सिद्धांत से भारत में होने वाली हर प्रकार की वर्षा की व्याख्या हो जाती है । इसीलिए इस सिद्धांत को पर्याप्त मान्यता प्राप्त है ।

         वस्तुत:उपर्युक्त में से कोई भी सिद्धान्त मानसून की उत्पत्ति की पूर्ण व्याख्या नहीं कर पाता । इन्हें समेकित रूप में देखने पर अपेक्षाकृत सही तस्वीर प्रस्तुत हो पाती है । निष्कर्षत:यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में निम्नदाब की स्थापना व ITCZ के उत्तरी खिसकाव में संबंध है । इसी प्रकार ITCZ के उत्तरी खिसकाव का संबंध उपोष्ण पछुआ जेट स्ट्रीम का हिमालय के उत्तर की ओर खिसकाव व उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट:स्ट्रीम की उत्पत्ति से है तथा ये सभी कारक मिलकर भारत में दक्षिण:पश्चिम मानसून की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार हैं । मानसून का अग्रसरण पश्चिमोत्तर भारत के निम्न दाब के कारण चापाकार आकृति में होता है । मानसूनी पवनें 1 जून तक केरल तट पर एवं 10 जून तक मुंबई तथा कोलकाता 12 जुलाई तक संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप को प्रभावित कर देती हैं ।

 

वर्षा लाने वाले यंत्र व वर्षा वितरण

पर्वतों का वितरण-पर्वतों के पवन अभिमुख क्षेत्र में भारी वर्षा होती है । जबकि पवन विमुख क्षेत्र में अल्प वर्षा देखी जाती है ।

ITCZ की स्थिति-इसे मानसून द्रोणी भी कहा जाता है । ये मानसूनी पवनों को आकर्षित कर वर्षा का कारक बनती हैं ।

उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम-इसका शक्तिशाली मानसून की होना जो दक्षिण पश्चिमी मानसूनी पवनों को गति प्रदान करता है । ये पवनें पर्वतीय अवरोधों से टकराकर पर्वतीय वर्षा लाती हैं व बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वाली अवदाबों को खींचकर उपमहाद्वीप तथा भारतीय भू –भाग की आर्द्र पवनों को ऊपर उठाकर ITCZ के संवहनीय वर्षा कराती हैं ।

एलनिनो व दक्षिणी दोलन सूचकांक ( ENSO )-जिस हिमालय वर्ष पेरू के तट पर एल:निनो (प्रति विषुवतीय गर्म सागरीय स्ट्रीम धारा) का जन्म होता है उस वर्ष दक्षिणी दोलन सूचकांक भारत में (Southern Oscillation Index:SOI) नकारात्मक होता है ।

SOI ऑस्ट्रेलिया के पोर्ट डार्विन व फ्रेंच पोलीनेशिया के बीच वायुदाब के अंतर से संबंधित सूचकांक है । नकारात्मक SOI प्रशांत महासागरीय वाकर सेल को कमजोर करता है जिससे हिन्द महासागरीय वाकर सेल शक्तिशाली हो जाता है । इसके परिणामस्वरूप हैडली सेल भारतीय भू:भाग से विस्थापित हो जाता है एवं मानसून कमजोर पड़ जाता है । ऐसी स्थिति सामान्यत:2 से 5 सालों में उत्पन्न होती है । 

1972 ई . में एलनिनो की उत्पत्ति व मानसून के कमजोर पड़ने में सीधा संबंध पाया गया था परन्तु ऐसे भी वर्ष रहे हैं,जब एलनिनो आने के बावजूद मानसून खराब नहीं रहा । इस संबंध में भारतीय मौसम वैज्ञानिक बसंत गोवारीकर ने मानसून की भविष्यवाणी हेतु 16 सूचकों ( Index ) का एक मॉडल दिया है । इनमें तापमान के 6,वायुदाब के 5,पवन तंत्र के 3 और हिमाच्छादन के 2 सूचकांक शामिल हैं । इनमें एलनिनो तापमान का एवं दक्षिणी दोलन सूचकांक,वायुदाब का एक:एक महत्वपूर्ण सूचक है ।

यद्यपि ये मानसून पर पर्याप्त प्रभाव डालते हैं परंतु अन्य सूचकों का भी मानसून की उत्पत्ति एवं प्रभाविता पर असर रहता है । इस प्रकार एलनिनो के प्रभाव के बावजूद अभी मानसून की भविष्यवाणी हेतु अनेक शोधों की आवश्यकता है और इस दिशा में लगातार प्रयास जारी है ।

 

मानसून में विच्छेद

मानसून काल में वर्षा के दौर व शुष्क दौर आते रहते हैं । लम्बे शुष्क दौर को मानसून विच्छेद कहा जाता है । यह वह स्थिति है जब एक:दो या कई सप्ताह तक वर्षा न हो । इसके निम्न कारण हैं-

(i) ITCZ की स्थिति (मैदानी भागों में रहने पर वर्षा)

(ii) उष्ण कटिबंधीय अवदाबों की आवृत्ति में कमी आना

(iii) जब वाष्प भरी हवाओं की दिशा प. घाट के समानान्तर रहे ।

(iv) तापक्रम का प्रतिलोपन ।

 

मानसून का निवर्तन

इसका संबंध सूर्य के दक्षिणायन होने से है जिसके कारण निम्न दशाएँ बनती हैं-

(i) शीतकाल में पश्चिमोत्तर भारत में उच्च दाब का विकास ।  

(ii) ITCZ का दक्षिण की ओर स्थानान्तरण ।

      (iii) उपोष्ण पछुआ जेट स्ट्रीम का पुनः अपने स्थान पर लौटना ।

      (iv) उत्तर पूर्व व्यापारिक पवनों का अपने स्थान पर कायम होना 

मानसून का निवर्तन भी चापाकार आकृति में होता है । निवर्तित मानसून बंगाल की खाड़ी से जलवाष्प ग्रहण कर पूर्वी तटीय भागों में वर्षा करती है । अक्टूबर-नवम्बर में उत्तरी भारत क्षेत्र में जबकि नवम्बर:दिसम्बर में तमिलनाडु तट (कोरोमंडल तट) पर वर्षा होती है । मानसून की संपूर्ण क्रियाविधि अत्यधिक जटिल है जिस कारण निरंतर शोध जारी है ।

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