मानसून की क्रियाविधि
इसे निम्न चरणों के अंतर्गत समझा जा सकता है-
मानसून का आरम्भ व अग्रसरण
इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं ।
तापीय संकल्पना
फ्लोन का प्रतिविषुवतीय पछुआ पवन सिद्धान्त
कोटेश्वरम का जेट:स्ट्रीम सिद्धान्त
वस्तुत:उपर्युक्त में से कोई भी सिद्धान्त मानसून की उत्पत्ति की पूर्ण व्याख्या नहीं कर पाता । इन्हें समेकित रूप में देखने पर अपेक्षाकृत सही तस्वीर प्रस्तुत हो पाती है । निष्कर्षत:यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में निम्नदाब की स्थापना व ITCZ के उत्तरी खिसकाव में संबंध है । इसी प्रकार ITCZ के उत्तरी खिसकाव का संबंध उपोष्ण पछुआ जेट स्ट्रीम का हिमालय के उत्तर की ओर खिसकाव व उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट:स्ट्रीम की उत्पत्ति से है तथा ये सभी कारक मिलकर भारत में दक्षिण:पश्चिम मानसून की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार हैं । मानसून का अग्रसरण पश्चिमोत्तर भारत के निम्न दाब के कारण चापाकार आकृति में होता है । मानसूनी पवनें 1 जून तक केरल तट पर एवं 10 जून तक मुंबई तथा कोलकाता 12 जुलाई तक संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप को प्रभावित कर देती हैं ।
वर्षा लाने वाले यंत्र व वर्षा वितरण
पर्वतों का वितरण-पर्वतों के पवन अभिमुख क्षेत्र में भारी वर्षा होती है । जबकि पवन विमुख क्षेत्र में अल्प वर्षा देखी जाती है ।
ITCZ की स्थिति-इसे मानसून द्रोणी भी कहा जाता है । ये मानसूनी पवनों को आकर्षित कर वर्षा का कारक बनती हैं ।
उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम-इसका शक्तिशाली मानसून की होना जो दक्षिण पश्चिमी मानसूनी पवनों को गति प्रदान करता है । ये पवनें पर्वतीय अवरोधों से टकराकर पर्वतीय वर्षा लाती हैं व बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वाली अवदाबों को खींचकर उपमहाद्वीप तथा भारतीय भू –भाग की आर्द्र पवनों को ऊपर उठाकर ITCZ के संवहनीय वर्षा कराती हैं ।
एलनिनो व दक्षिणी दोलन सूचकांक ( ENSO )-जिस हिमालय वर्ष पेरू के तट पर एल:निनो (प्रति विषुवतीय गर्म सागरीय स्ट्रीम धारा) का जन्म होता है उस वर्ष दक्षिणी दोलन सूचकांक भारत में (Southern Oscillation Index:SOI) नकारात्मक होता है ।
SOI ऑस्ट्रेलिया के पोर्ट डार्विन व फ्रेंच पोलीनेशिया के बीच वायुदाब के अंतर से संबंधित सूचकांक है । नकारात्मक SOI प्रशांत महासागरीय वाकर सेल को कमजोर करता है जिससे हिन्द महासागरीय वाकर सेल शक्तिशाली हो जाता है । इसके परिणामस्वरूप हैडली सेल भारतीय भू:भाग से विस्थापित हो जाता है एवं मानसून कमजोर पड़ जाता है । ऐसी स्थिति सामान्यत:2 से 5 सालों में उत्पन्न होती है ।
1972 ई . में एलनिनो की उत्पत्ति व मानसून के कमजोर पड़ने में सीधा संबंध पाया गया था परन्तु ऐसे भी वर्ष रहे हैं,जब एलनिनो आने के बावजूद मानसून खराब नहीं रहा । इस संबंध में भारतीय मौसम वैज्ञानिक बसंत गोवारीकर ने मानसून की भविष्यवाणी हेतु 16 सूचकों ( Index ) का एक मॉडल दिया है । इनमें तापमान के 6,वायुदाब के 5,पवन तंत्र के 3 और हिमाच्छादन के 2 सूचकांक शामिल हैं । इनमें एलनिनो तापमान का एवं दक्षिणी दोलन सूचकांक,वायुदाब का एक:एक महत्वपूर्ण सूचक है ।
यद्यपि ये मानसून पर पर्याप्त प्रभाव डालते हैं परंतु अन्य सूचकों का भी मानसून की उत्पत्ति एवं प्रभाविता पर असर रहता है । इस प्रकार एलनिनो के प्रभाव के बावजूद अभी मानसून की भविष्यवाणी हेतु अनेक शोधों की आवश्यकता है और इस दिशा में लगातार प्रयास जारी है ।
मानसून में विच्छेद
मानसून काल में वर्षा के दौर व शुष्क दौर आते रहते हैं । लम्बे शुष्क दौर को मानसून विच्छेद कहा जाता है । यह वह स्थिति है जब एक:दो या कई सप्ताह तक वर्षा न हो । इसके निम्न कारण हैं-
(i) ITCZ की स्थिति (मैदानी भागों में रहने पर वर्षा)
(ii) उष्ण कटिबंधीय अवदाबों की आवृत्ति में कमी आना
(iii) जब वाष्प भरी हवाओं की दिशा प. घाट के समानान्तर रहे ।
(iv) तापक्रम का प्रतिलोपन ।
मानसून का निवर्तन
इसका संबंध सूर्य के दक्षिणायन होने से है जिसके कारण निम्न दशाएँ बनती हैं-
(i) शीतकाल में पश्चिमोत्तर भारत में उच्च दाब का विकास ।
(ii) ITCZ का दक्षिण की ओर स्थानान्तरण ।
(iii) उपोष्ण पछुआ जेट स्ट्रीम का पुनः अपने स्थान पर लौटना ।
(iv) उत्तर पूर्व व्यापारिक पवनों का अपने स्थान पर कायम होना
मानसून का निवर्तन भी चापाकार आकृति में होता है । निवर्तित मानसून बंगाल की खाड़ी से जलवाष्प ग्रहण कर पूर्वी तटीय भागों में वर्षा करती है । अक्टूबर-नवम्बर में उत्तरी भारत क्षेत्र में जबकि नवम्बर:दिसम्बर में तमिलनाडु तट (कोरोमंडल तट) पर वर्षा होती है । मानसून की संपूर्ण क्रियाविधि अत्यधिक जटिल है जिस कारण निरंतर शोध जारी है ।
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