सामान्य परिचय
'वनस्पति' से तात्पर्य वृक्षों, झाड़ियों, घास, बेलों और लताओं आदि के समूह अथवा पौधों की विभिन्न प्रजातियों से है, जो एक निश्चित पर्यावरण में पाई जाती हैं ।
- जब वनस्पति लंबे समय तक बिना किसी बाह्य मानवीय हस्तक्षेप के वहाँ पाई जाने वाली मिट्टी और जलवायविक परिस्थितियों अपने आप को ढालकर स्वतः विकास करती या उगती है तो उसे ‘प्राकृतिक वनस्पति' कहते हैं ।
- वनस्पति और वन में एक मूल अंतर यह है कि वन व्यापक रूप से संपूर्ण वनस्पतियों (प्राकृतिक/अप्राकृतिक), वन्यजीवों एवं आस-पास के वातावरण को समाहित करता है एवं इसका हमारे लिये आर्थिक महत्त्व होता है ।
- जमीन की ऊँचाई और वनस्पति की विशेषता के बीच एक करीबी रिश्ता है । ऊँचाई में परिवर्तन के साथ जलवायु भिन्नता होती है, जिसके कारण प्राकृतिक वनस्पति का स्वरूप बदलता है । वनस्पति का विकास तापमान और नमी पर निर्भर करता है । यह मिट्टी की मोटाई और ढलान जैसे कारकों पर भी निर्भर करता है ।
- भारत में प्राकृतिक वनस्पतियों के संदर्भ में व्यापक विविधता पाई जाती है । यहाँ पर उष्ण आर्द्र सदाबहार वनस्पतियों से लेकर मरुस्थलीय व अल्पाइन वनस्पतियाँ भी पाई जाती हैं । थार मरुस्थल एवं गंगा मैदान के पश्चिमी सीमांत भाग, भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित पहाड़ियों एवं कुछ अन्य स्थानों पर विदेशी पौधों की प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं ।
- भारत अपने स्थानीय/स्थानिक प्राकृतिक पौधों की प्रजातियों हेतु विश्व प्रसिद्ध है । यहाँ प्राकृतिक वनस्पतियों की लाखों प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से कई प्रजातियों का औषधीय महत्त्व है ।
वनस्पति का वितरण तथा प्रकार ( Type and Distribution of Vegetation )
- वर्षा जल की प्राप्ति तथा तापमान के आधार पर भारत की प्राकृतिक वनस्पति को मुख्यतः दो तरह से वर्गीकृत किया जा सकता है-
- क्षैतिज वितरण या वर्षा के आधार पर वितरण ।
- उर्ध्वधर वितरण या तापमान के आधार पर वितरण ।
क्षैतिज वितरण ( Horizontal Distribution )
वर्षा की मात्रा में कमी आने के साथ वनस्पति की सघनता, जैवभार एवं जैव-विविधता में भी कमी आती जाती है । अत: भारत में औसत से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों से कम वर्षा वाले क्षेत्रों की ओर जाने पर उष्ण कटिबंधीय वनस्पति का विकास क्रमशः सदाबहार वन, पर्णपाती वन (शुष्क एवं आर्द्र), कॅटीले वन, सवाना एवं मरुस्थलीय वनस्पति के रूप में हुआ है ।
वर्षा की मात्रा
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वनस्पति के प्रकार
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प्रमुख वृक्ष
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250 से.मी. से अधिक
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उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनस्पति
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आबनूस (एबोनी), महोगनी रोजवुड, रबड़, सिनकोना,बाँस (एक प्रकार की घास ) आदि ।
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200-250 से.मी तक
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अर्द्ध सदाबहार वनस्पति
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साइडर, होलक, कैल (मुख्य प्रजातियाँ) इत्यादि ।
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100-200 से.मी. तक
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उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वनस्पति
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सागवान, टीक, साल, शीशम चंदन, अर्जुन, शहतूत आदि
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70-100 से.मी. तक
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शुष्क पर्णपाती वनस्पति या उष्णकटिबंधीय सवाना
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तेंदू, पलास, अमलतास, बेल खैर, अक्सलवुड आदि
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70 से. मी. से कम
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शुष्क कैंटीली वनस्पति
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नीम, खजूर, बबूल इत्यादि
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40-60 से.मी. तक
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सवाना वनस्पति
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छोटे वृक्ष या घास ।
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50 से. मी. से कम
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मरुस्थलीय वनस्पति
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अकासिया, नागफनी इत्यादि
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उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनस्पति (Tropical Evergreen Vegetation)
- इस प्रकार की वनस्पतियाँ उन प्रदेशों में पाई जाती हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 250 सेमी. से अधिक होती है तथा औसत वार्षिक तापमान 22° सेल्सियस से अधिक एवं शुष्क मौसम अल्प अवधि के लिये होता है ।
- इन्हें 'उष्णकटिबंधीय आर्द्र सदापर्णी वनस्पति' भी कहते हैं ।
- उष्णकटिबंधीय वनों की शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता (Net Primary Productivity) भी सर्वाधिक होती है ।
- भारत में इस प्रकार की वनस्पतियों का विकास पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढाल पर, केरल, कर्नाटक, उत्तर-पूर्वी पहाड़ियों एवं अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में हुआ है ।
- इस प्रकार की वनस्पतियों का विकास सघन व विभिन्न स्तरों के रूप में होता है, साथ ही तापमान एवं वर्षा की निरंतर पूर्ति के कारण यहाँ की वनस्पति बहुत तेजी से वृद्धि करती है । इसलिये यहाँ पेड़ों की लंबाई 60 मीटर या उससे भी अधिक होती है ।
- भूमि के नजदीक झाड़ियों एवं लताओं की श्रृंखलायें पाई जाती हैं तथा इन वनस्पतियों की प्रजातियों में सर्वाधिक विविधता पाई जाती है । घास प्रायः अनुपस्थित होती है । इन वनों में वनस्पतियों के पाँच संस्तर पाए जाते हैं ।
- यह वन वर्ष भर हरे-भरे दिखाई देते हैं, क्योंकि यहाँ के पेड़ों में पत्ते लगने-झड़ने, फूल एवं फल आने का समय भिन्न-भिन्न होता है । इन वनस्पति वनों को ‘सदाबहार वन' भी कहा जाता है ।
- यहाँ पाए जाने वाले वृक्षों में सिनकोना, महोगनी, रोजवुड, आर्किड, फर्न (फूल/बीज रहित पौधे), आबनूस, बाँस तथा ताड़ प्रमुख एवं बहुतायत में हैं । इन वृक्षों की लकड़ियाँ कठोर होती हैं, अत: इनका वाणिज्यिक महत्त्व अधिक नहीं है । इनमें सघनता अधिक होने के कारण गम्यता (पहुँच) बहुत कठिन होती है इसलिये इनका दोहन नहीं हो पाता है ।
- अंडमान-निकोबार 'उष्ण कटिबंधीय 'सदाबहार वनस्पतियों का घर' कहलाता है । यहाँ आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण वृक्ष बहुतायत में मिलते हैं, जैसे-विशालकाय डिप्टेरोकार्पस एवं टर्मिनालिया ।
अर्द्ध सदाबहार वनस्पति ( Semi-Evergreen Vegetation )
- इस प्रकार की वनस्पतियों का विकास 200 से. मी. से 250 से. मी. तक वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में होता है । यह सदाहरित वनस्पति क्षेत्र एवं आर्द्र शीतोष्ण पर्णपाती वनस्पति क्षेत्र के मध्यवर्ती भाग में पाई जाती है ।
- भारत में अर्द्ध सदाबहार वनस्पतियाँ अंडमान-निकोबार, सह्याद्रि एवं मेघालय के पठार के आस-पास के क्षेत्रों में पाई जाती हैं । यह वनस्पति/वन सदाबहार वनों से कम घनी होती है, जिसके कारण इनका दोहन करना आसान होता है । 'स्थानांतरित कृषि' की वजह से इनका ह्रास भी अधिक हुआ है ।
- यहाँ पाए जाने वाले वृक्षों में साइडर, होलक, कैल, गुरजन, लॉरेल, चंपा, रोजवुड आदि प्रमुख हैं ।
उष्ण कटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वनस्पति ( Tropical Moist Deciduous Vegetation )
- इन वनस्पतियों के विकास हेतु 100 से. मी. से 200 से. मी. तक वार्षिक वर्षा उपयुक्त होती है । बसंत एवं ग्रीष्म के आरंभ में ये वृक्ष अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं, इसलिये इन्हें 'पर्णपाती वनस्पति' कहा जाता है ।
- इसके अंतर्गत हिमालय श्रेणी में शिवालिक के गिरिपद, भाबर एवं, तराई क्षेत्र, पश्चिमी घाट (सह्याद्रि) के पूर्वी ढाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि क्षेत्र सम्मिलित हैं ।
- भारत की मानसूनी जलवायु का प्रभाव इन वनस्पतियों पर अधिक पड़ा है । इन वनों से प्राप्त होने वाले वृक्षों की लकड़ियों का वाणिज्यिक महत्त्व अधिक होता है ।
- यहाँ पाए जाने वाले प्रमुख वृक्ष हैं- साल, सागवान, शीशम, बेंत, चंदन, आँवला, शहतूत, महुआ आदि ।
शुष्क उष्णकटिबंधीय वनस्पति ( Dry Tropical Vegetation )
इस प्रकार की वनस्पति को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-
- शुष्क पर्णपाती वनस्पति
- शुष्क कैंटीली वनस्पति
शुष्क पर्णपाती वनस्पति (Dry Deciduous Vegetation)
- इन वनस्पतियों का विकास उन क्षेत्रों में होता है, जहाँ वार्षिक वर्षा 70 से. मी. से 100 से. मी. तक होती है।
- यह वनस्पति मुख्यत: उत्तर प्रदेश के कुछ भाग, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाड, उत्तरी गुजरात, महाराष्ट्र, दक्षिणी पंजाब, छत्तीसगढ़ तथा पश्चिमी बिहार आदि में पाई जाती है । ये वन भारत के सर्वाधिक वृहद् क्षेत्रों में पाए जाते हैं ।
- इन वनस्पति क्षेत्रों में शुष्क काल की अवधि लंबी होती है तथा वृक्ष सधन न होकर विरल होते हैं एवं पेड़ों के बीच विस्तृत घास भूमियाँ पाई जाती हैं । अतः विशाल आकार के जानवरों, जैसे-हाथी, गैंडा, शेर, चीता आदि के आवास हेतु ये वन क्षेत्र बेहतर होते हैं । अधिक वर्षा वाले प्रायद्वीपीय पठार व उत्तर भारत के मैदानों में ये वन ‘पार्कनुमा भू-दृश्य' का निर्माण करते हैं ।
- तेंदू, बेल, खैर आदि यहाँ के प्रमुख वृक्ष हैं । कत्था बनाने के लिये 'खैर वृक्ष' की लकड़ी का प्रयोग होता है तथा तेंदू वृक्ष के पत्ते से बीड़ी बनाई जाती है ।
शुष्क कटीली वनस्पति (Dry Thorli Vegetation)
- यहाँ वार्षिक वर्षा 70 से. मी. से कम होती है तथा निम्न किस्म की घास भूमियाँ पाई जाती हैं ।
- इसके अंतर्गत भारत के उत्तरी एवं उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र (हरियाणा, राजस्थान, गुजरात), मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ का कुछ क्षेत्र एवं पश्चिम घाट के वृष्टि छाया प्रदेश, जैसे-पश्चिमी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक के कुछ क्षेत्र शामिल हैं । इन क्षेत्रों में अत्यधिक पशुचारण के कारण वनों का स्वरूप अत्यधिक विरल है ।
- प्रमुख वृक्ष-बबूल, नागफनी, खजूर, नीम, खेजड़ी, पलाश आदि हैं ।
नोटः पलाश (ब्यूटिया मोनोस्पर्मा) को जंगल की आग (flame of the forest) भी कहा जाता है । यह उत्तर प्रदेश एवं झारखंड का 'राजकीय पुष्प' भी है ।
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मवाना वनस्पति (Savannu Vegetation)
- सामान्यत: 60 से. मी. से कम वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में यह वनस्पति पाई जाती है ।
- छोटे वृक्ष और घास इस प्रकार की वनस्पति की प्रमुख विशिष्टता है ।
- उर्वरता की दृष्टि से ये क्षेत्र कम समृद्ध होते हैं भारत में आमतौर पर इन्हें बंजर प्रदेशों के तौर पर जाना जाता है ।
- महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और कर्नाटक राज्यों के कुछ भागों में ये प्रदेश उपस्थित हैं ।
- ये क्षेत्र ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, लेज़र फ्लोरिकन और भारतीय भेड़िया जैसी प्रजातियों के आवास स्थल भी हैं ।
मरुस्थलीय वनस्पति (Desert Vegetation)
- ये वनस्पतियाँ उन भागों में पाई जाती हैं जहाँ वार्षिक वर्षा 50 से. मी. से कम होती है ।
- इन वनों के वृक्ष प्रायः बिखरे हुए होते हैं । इस प्रकार के वनों में कई प्रकार की घास व झाड़ियों का विकास होता है तथा इनकी जड़ें जल की तलाश में लंबी तथा चारों ओर फैली होती हैं ।
- यहाँ पाए जाने वाले वृक्षों की पत्तियाँ प्राय : छोटी, मोमी तथा मोटी छाल युक्त होती हैं, जिससे कि वाष्पीकरण कम-से-कम हो सके ।
- इस प्रकार के वनों का विस्तार दक्षिण-पश्चिम पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पाया जाता है ।
ज्वारीय वनस्पति (Tidal Vegetation)
- इस प्रकार की वनस्पति समुद्र तट एवं निम्न डेल्टाई भागों में पाई जाती है । इन क्षेत्रों में उच्च ज्वार के कारण नमकीन जल का फैलाव होता है । यहाँ की मिट्टी की प्रकृति दलदली होती है ।
- भारत में ज्वारीय वनस्पति मुख्य रूप से गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के डेल्टाई क्षेत्रों में अंडमान- निकोबार तथा कच्छ क्षेत्र में पाई जाती है ।
- ज्वारीय वनस्पति (कच्छ वनस्पति) समुद्री एवं स्थलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के बीच एक सेतु (सहजीवी संपर्क) का कार्य करती है । भारत में सर्वाधिक ज्वारीय वनस्पति पश्चिम बंगाल में और उसके बाद क्रमशः गुजरात एवं अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के तटवर्ती क्षेत्रों में पाई जाती हैं ।
- ज्वारीय वनस्पति के उगने के लिये सभी तटवर्ती क्षेत्र उपयुक्त नहीं होते हैं क्योंकि इनके विकास और रखरखाव के लिये ताजे एवं खारे जल का उचित मिश्रण एवं कीचड़ युक्त मृदा के समान नरम मृदा (नरम स्थल) का होना भी आवश्यक है ।
- यहाँ पाई जाने वाली वनस्पतियों में मैंग्रोव, सुंदरी, कैजुरीना, केवडा एवं बेंदी प्रमुख हैं । पश्चिम बंगाल के डेल्टाई क्षेत्रों में सुंदरी वृक्षों/पौधों की बहुलता के कारण ही इस डेल्टाई क्षेत्र को ‘सुंदरबन डेल्टा' के नाम से जाना जाता है ।
- मैंग्रोव वनस्पति के पौधों में ऐसी भी जड़ें पाई जाती हैं, जिनका प्रायद्वीप विकास गुरुत्वाकर्षण के विपरीत होता है ।
- ज्वारीय वनस्पतियों का क्षेत्र उच्च जैव-विविधता वाले क्षेत्रों में गिना जाता है । इन वनों का सुनामी से बचाव, तटीय कटाव को रोकने, औषधीय उपयोग एवं पक्षियों हेतु आवास प्रदत्त कराने इत्यादि में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है ।
- ज्वारीय वनों को कच्छ वनस्पति, अनूप वन, वेलांचली वन अथवा मैंग्रोव वन भी कहा जाता है ।
भारत के कच्छ वनस्पति स्थलों की सूची
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राज्य केद्रशासित प्रदेश
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सुदरबन्
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ओडिशा
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भीतरकणिका,महानदी, स्वर्णरेखा,देवी,धर्मा,कच्छ वनस्पति आनुवंशिक संसाधन केंद्र, चिल्का
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आंध्र प्रदेश
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कोरिंगा, पूर्वी गोदावरी, कृष्णा
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तमिलनाडु
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पिचावरम, मुथुपेट, रामनाद, पुलिकट (आंध्र प्रदेश व तमिलनाडु सीमा पर), कझुवेली
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अंडमान-निकोबार
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उत्तरी अंडमान-निकोबार
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केरल
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वेबनाद, कन्नूर (उत्तरी केरल)
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कर्नाटक
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कुंडापुर, दक्षिण कन्नड/ होन्नावर, कारवार, मंगलूरू वन विभाग
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गोवा
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गोवा
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महाराष्ट्र
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अचरा रत्नागिरी, देवगढ़-विजय दुर्ग, वेल्दूर ,कुंडालिका-रेवडांडा, मुंबरा-दिवा, विक्रोली, श्रीवर्धन, वैतरणा, वसई-मनोरी, मलवाण
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गुजरात
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कच्छ की खाड़ी, खंभात की खाड़ी, डूमस, उभ्रत
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भारत में मूंगा चट्टान स्थल
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कच्छ की खाड़ी, मन्नार की खाड़ी, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप
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ऊर्ध्वाधर वितरण ( Vertical Distribution )
- समुद्र जलस्तर से 900 मीटर की ऊँचाई के बाद भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में जाने पर वनस्पति के विकास को वर्षा की मात्रा की अपेक्षा तापमान अधिक प्रभावित करता है, इसलिये ऊँचाई में वृद्धि के साथ तापमान में आने वाली कमी के कारण प्राकृतिक वनस्पति का विकास क्रमशः उष्ण कटिबंधीय, समशीतोष्ण, शंकुधारी और टुंड्रा वन के रूप में हुआ है ।
- तापमान के आधार पर प्राकृतिक वनस्पति के उर्ध्वधर वितरण को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है ।
- प्रायद्वीपीय भारत के पर्वतीय क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पतियाँ ।
- हिमालय की प्राकृतिक वनस्पतियाँ ।
प्रायद्वीपीय भारत के पर्वतीय क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पतिया(Natiral Vegetation of Mountainous Region of Peninsular India)
- प्रायद्वीपीय भारत में निम्न अक्षांशीय भौगोलिक अवस्थिति के साथ औसत ऊँचाई कम एवं औसत तापमान अपेक्षाकृत अधिक रहता है, जिसके कारण यहाँ के ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में भी शंकुधारी और टुंड्रा वनस्पति का विकास नहीं हो पाता है ।
- प्रायद्वीपीय भारत में पर्वतीय वन मुख्यतः पश्चिमी घाट, विंध्याचल तथा नीलगिरी पर्वत श्रृंखलाओं में पाए जाते हैं ।
- ये पर्वतश्रृंखलाएँ उष्ण कटिबंध में पड़ती हैं तथा समुद्र तल से इनकी औसत ऊँचाई लगभग 1,500 मीटर है, इसलिये ऊँचाई वाले क्षेत्रों में शीतोष्णकटिबंधीय वनस्पति तथा निचले क्षेत्रों में उपोष्णकटिबंधीय वनस्पति पाई जाती है ।
- नीलगिरी, अन्नामलाई और पालनी पहाड़ियों पर पाए जाने वाले शीतोष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्वतीय वनों को 'शोलास वन' कहते हैं । ये वन सतपुड़ा तथा मैकाल श्रेणियों में भी पाए जाते हैं ।
- इन वनों में पाए जाने वाले वृक्षों में मैगनोलिया, लैरेल, सिनकोना वैटल, यूकेलिप्टस, एल्म इत्यादि प्रमुख हैं ।
हिमालय की प्राकृतिक वनस्पतियाँ (Natural Vegetation of Hnialayas)
- हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में समुद्र जलस्तर से लगभग 900 की ऊँचाई तक प्राकृतिक वनस्पति के विकास को तापमान की अपेक्षा वर्षा की मात्रा अधिक निर्धारित करती है, इसलिये 900 मीटर की ऊँचाई तक पूर्वी हिमालय से पश्चिमी हिमालय की ओर जाने पर वर्षा की मात्रा में कमी आती जाती है, जिसके कारण उष्णकटिबंधीय वनस्पति का विकास क्रमशः सदाबहार वन से लेकर कॅटीले वन एवं सवाना वन तक हुआ है ।
- 1000 से 2,000 मीटर की ऊंचाई के बीच, आर्द्र शीतोष्ण प्रकार के ऊँचे एवं घने वन पाए जाते हैं । ये मुख्यतः शंकुल आकार की गहरी हरी भू-दृश्यवाली का निर्माण करने वाले वनों की धारियों के रूप में पाए जाते हैं । यहाँ सदाबहार ओक (बांज) एवं चेस्टनट के वृक्ष प्रमुख रूप से मिलते हैं ।
- 1,500 से 1,750 मीटर की ऊँचाई पर चीड़ के वन काफी विकसित रूप में पाए जाते हैं । और ये आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं ।
- 2,000 मीटर से 3,000 मीटर की ऊँचाई पर आर्द्र शीतोष्ण वनों का विस्तार मिलता है । इन वनों में देवदार, भोजपत्र, बुरुंश (रोडोडेंड्रान) चीड़, सिल्वर फर, स्यूस आदि वृक्ष प्रमुख हैं ।
- चीड़ के वृक्ष से ‘लीसा' प्राप्त होता है, जिससे ‘तारपीन का तेल' बनाया जाता है । इसका उपयोग साबुन, पेंट बनाने एवं कागज उद्योग में किया जाता है ।
- 3,000 मीटर से अधिक ऊँचाई पर अल्पाइन वनों तथा चारागाह भूमियों का संक्रमण पाया जाता है । ऋतु प्रवास करने वाले समुदाय, जैसे-गुज्जर, बकरवाल, गद्दी और भूटिया इन चारागाहों का भरपूर प्रयोग करते हैं ।
- पश्चिमी हिमालय की अपेक्षा पूर्वी हिमालय की निम्न अक्षांशीय भौगोलिक अवस्थिति के साथ विषुवत रेखा एवं समुद्र से निकटता के कारण न केवल औसत तापमान अधिक रहता है बल्कि वर्षा भी अधिक मात्रा में होती है । यही कारण है कि पश्चिमी हिमालय की अपेक्षा, पूर्वी हिमालय में प्राकृतिक वनस्पतियों की सघनता, जैवभार और जैव-विविधता अधिक है ।
- पश्चिमी हिमालय की अपेक्षा पूर्वी हिमालय का औसत तापमान अधिक होने के कारण सभी प्रकार की प्राकतिक वनस्पतियों का अधिक ऊँचाई तक विस्तार हुआ है । उदाहरण के तौर पर पश्चिमी हिमालय में शंकुधारी और टुंड्रा वनस्पति कम ऊँचाई से ही मिलने लगती हैं तथा 4,000 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों में अत्यंत कम तापमान हो जाने के कारण टुंड्रा वनस्पति का विकास भी नहीं हो पाता है, जबकि पूर्वी हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में 4,000 मीटर से भी अधिक ऊँचाई पर टुंडा वनस्पति का विकास हुआ है ।
घास भूमि वनस्पति (Grassland vegetation)
- भारत की घास भूमि (सवाना तुल्य), विश्व की सवाना वनस्पति से भिन्न होते हैं, क्योंकि यहाँ कॅटीले वनस्पति प्रदेश के वृक्षों को काटे जाने के बाद उगने वाले छोटे वृक्ष या घास को ही सवाना तुल्य वनस्पति या घास भूमि वनस्पति प्रदेश की संज्ञा दी जाती है ।
- भारत के घास भूमि प्रदेश ग्रामीण चारागाहों के रूप में, देश के पश्चिमी शुष्क क्षेत्रों में फैले निम्न चारागाहों में एवं हिमालय की श्रेणियों में (अल्पाइन क्षेत्र) भी पाए जाते हैं, जिन्हें जम्मू-कश्मीर में 'मर्ग' तथा उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में 'बुग्याल' के नाम से जाना जाता है ।
- इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत के तमिलनाडु एवं नीलगिरी पर्वत के सदाबहार वनों में भी घास प्रदेश पाए जाते हैं ।
नमभूमि आर्द्रभूमि (Wetland)
- आर्द्रभूमि वह भू-क्षेत्र होता है, जिनमें नम एवं शुष्क दोनों वातावरण की विशेषताएँ पाई जाती हैं । इन क्षेत्रों की भूमि उथले पानी की सतह से ढकी रहती है ।
- आर्द्रभूमि एक जटिल पारिस्थितिकी प्रणाली है, जिसके अंतर्गत अंतर्देशीय, तटीय और समुद्रीय वास की व्यापक श्रृंखला शामिल है । रामसर सम्मेलन के अनुसार नम भूमि क्षेत्र के अंतर्गत दलदली कच्छ क्षेत्र, जो कृत्रिम या प्राकृतिक, स्थायी या अस्थायी हो सकते हैं तथा जिसमें पानी रुका या बहता हुआ हो सकता है । इसमें ऐसे समुद्री क्षेत्रों को भी शामिल किया जाता है, जिसकी गहराई 6 मीटर से अधिक नहीं होती है ।
- इस प्रकार रामसर सम्मेलन में दी गई परिभाषा के आधार पर मैंग्रोव, प्रवाल भित्ति, ज्वारनदमुख, क्रीक, खाडी, तालाब, दलदल तथा झीलों आदि को सम्मिलित किया जाता है
- आर्द्रभूमि क्षेत्र जैव-विविधता तथा सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं ।
नोटः रामसर सम्मेलन की शुरुआत 1971 में ईरान के ‘रामसर' नामक स्थल से हुई ।
रामसर सम्मेलन (1971) के अंतर्गत आर्द्रभूमि के संरक्षण हेतु । प्रावधान किये गए हैं । भारत इसमें 1982 में शामिल हुआ ।
वर्तमान में भारत में रामसर साइट्स की संख्या 26 है ।
हर वर्ष 2 फरवरी को ‘विश्व आर्द्र भूमि दिवस' मनाया जाता है ।
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भारत में स्थित रामसर साइट्स (आर्द्र भूमियाँ)
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नाम
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राज्य
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कुल
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अष्टमुड़ी आर्द्रभूमि
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केरल
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3
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सस्थमकोट्टा झील
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केरल
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वेंबनाद कोल आर्द्रभूमि
|
केरल
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पाइंट कैलिमर वाइल्डलाइफ और बर्ड सैन्क्चुअरी
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तमिलनाडु
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1
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कोलेरू झील
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आंध्र प्रदेश
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1
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चिल्का झील
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ओडिशा
|
2
|
भीतरकणिका मैन्ग्रोव
|
ओडिशा
|
पूर्वी कोलकाता आर्द्रभूमि
|
पश्चिम बंगाल
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1
|
भोज आर्द्रभूमि
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मध्य प्रदेश
|
1
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केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान
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राजस्थान (मोंट्रेक्स रिकार्ड में दर्ज)
|
2
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सांभर झील
|
राजस्थान
|
कंजली
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पंजाब
|
3
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रोपड़
|
पंजाब
|
हरिके झील
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पंजाब (सतलुज- ब्यास का संगम)
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ऊपरी गंगा नदी
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उत्तर प्रदेश
|
1
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चंद्रताल आर्द्रभूमि
|
हिमाचल प्रदेश
|
3
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पोंग बांध झील
|
हिमाचल प्रदेश
|
रेणुका आर्द्रभूमि
|
हिमाचल प्रदेश
|
वुलर झील
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जम्मू-कश्मीर
|
4
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सोमोरीरी
|
जम्मू-कश्मीर
|
सुरीनसर-मानसर झील
|
जम्मू-कश्मीर
|
होकेरा/होकरसर आर्द्रभूमि
|
जम्मू-कश्मीर
|
नलसरोवर बर्ड सैंक्चुअरी
|
गुजरात
|
1
|
रुद्रसागर झील
|
त्रिपुरा
|
1
|
लोकटक झील
|
मणिपुर (मोंट्रेक्स रिकार्ड में दर्ज)
|
1
|
दिपोरबील
|
असम
|
1
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राष्ट्रीय वन नीति, 1952 ( National Forest Policy, 1952)
- इस नीति के तहत भारतीय वनों को मुख्यता 3 वर्गों में वर्गीकृत किया गया है-
- संरक्षित वन (पारिस्थितिक तंत्र के आवश्यक वन)
- राष्ट्रीय वन (ऐसे वन जिसका उपयोग आर्थिक गतिविधियों में किया जा सके)
- ग्राम वन (ग्रामीण क्षेत्र की जरूरतों की पूर्ति करने वाले वन)
वन अनुसंधान केंद्र
- इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वन अकादमी-देहरादून (उत्तराखंड) भारतीय प्लाईवुड उद्योग अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान-बंगलूरू (कर्नाटक) ।
- भारतीय वन प्रबंधन संस्थान-भोपाल (मध्य प्रदेश) भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद्-देहरादून (उत्तराखंड)
- जी. बी. पंत हिमालयन पर्यावरण और विकास संस्थान-अल्मोड़ा (उत्तराखंड)
- उष्ण कटिबंधीय वनस्पति बागान और अनुसंधान संस्थान तिरूवनंतपुरम (केरल)
- इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट-नई दिल्ली ।
- राष्ट्रीय प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय - नई दिल्ली
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- इस नीति के अनुसार देश के एक-तिहाई (33 प्रतिशत) भू-भाग पर वनों का विस्तार होना चाहिये, जिसमें पर्वतीय क्षेत्रों में 60 प्रतिशत तथा मैदानी भागों में 20 प्रतिशत भाग पर वनों का विस्तार होना चाहिये ।
- इस नीति के अंतर्गत विभिन्न उद्देश्यों को शामिल किया गया है, जैसे-मानव निर्मित वन क्षेत्रों में वृद्धि, पशुचारण व झूम कृषि पर नियंत्रण, वानिकी क्षेत्रों में शोध आदि को प्रोत्साहित करना ।
- आगे चलकर 1988 में राष्ट्रीय वन नीति, 1952 को संशोधित कर और विस्तार दिया गया, जैसे-समस्त भौगोलिक क्षेत्र के एक- तिहाई क्षेत्र (33%) पर वनावरण, सामाजिक वानिकी कार्यक्रम को बढ़ावा देते हुए वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करना, पारिस्थितिकी संतुलन को कायम रखना, वन उत्पादों के कुशलतम उपयोग पर बल देना आदि ।
सामाजिक वानिकी (Social Forestry)
- सामाजिक वानिकी के तहत सार्वजनिक व निजी भूमि पर वृक्षारोपण को प्रोत्साहित किया जाता है । इस हेतु प्रथम सुझाव 1976 में 'राष्ट्रीय कृषि आयोग' द्वारा दिया गया था ।
- इस कार्यक्रम की शुरुआत 1978 में हुई और 1980 में यह छठी पंचवर्षीय योजना का अंग बन गया । इसका प्रमुख उद्देश्य परंपरागत वनों पर दबाव कम करके अनुपयोगी भूमि या परती भूमि का उपयोग करते हुए ग्रामीण रोजगार के अवसर पैदा करना है ।
- सामाजिक वानिकी कार्यक्रम को राष्ट्रीय कृषि आयोग ने तीन वर्गों में विभाजित किया है- शहरी वानिकी, ग्रामीण वानिकी और फार्म वानिकी । ग्रामीण वानिकी में कृषि वानिकी और सामुदायिक कृषि वानिकी शामिल हैं ।
कृषि वानिकी (Agroforestry)
‘कृषि वानिकी' का अर्थ है- एक ही भूमि पर कृषि फसल एवं वृक्ष प्रजाति को विधिपूर्वक रोपित कर दोनों प्रकार की उपज लेकर आय बढ़ाना ।
सामुदायिक कृषि वानिकी (Community Agroforestry)
- ‘सामुदायिक कृषि वानिकी' के अंतर्गत निजी भूमि से हटकर सार्वजनिक परती पड़ी भूमि पर समुदाय द्वारा वनारोपण को बढ़ावा दिया जाता है । इसके अंतर्गत ‘खेजड़ी' जैसे वृक्षों का रोपण किया जाता है, जिनका उपयोग पशुओं के चारा, ईंधन तथा औषधि के रूप में किया जाता है ।
- सामुदायिक वानिकी का एक अन्य उद्देश्य है- भूमिविहीन लोगों को वनीकरण से जोड़ना तथा इससे उन्हें वो लाभ पहुँचाना, जो केवल भूस्वामियों को प्राप्त होते हों ।
भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण
( Botanical Survey of India : BSI )
बीएसआई पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत देश में वनस्पति व पौधों संबंधी अध्ययन एवं वर्गीकरण करने वाला शीर्ष अनुसंधान संगठन है । इसकी स्थापना 1890 में की गईं तथा इसका मुख्यालय कोलकाता में है । इसके प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं ।
- देश के वनस्पति संसाधनों का पता लगाना और आर्थिक गुणवत्ता वाले पौधों की प्रजातियों की पहचान करना ।
- गंभीर रूप से संकट ग्रस्त वनस्पतियों हेतु बीएसआई लाल सूची जारी करता है एवं उनके संरक्षण के उपाय करता है ।
- वानस्पतिक गार्डन, संग्रहालय एवं हर्बेरियन का रख-रखाव करना ।
- पौधों से संबंधित परंपरागत ज्ञान का दस्तावेजीकरण करना
- पर्यावरण प्रभाव का आकलन करना ।
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शहरी वानिकी ( Urban Forestry )
शहरों और उनके इर्द-गिर्द निजी व सार्वजनिक भूमि, जैसे-हरित पट्टी, पार्क, सड़कों के साथ औद्योगिक व व्यापारिक स्थलों पर वृक्ष लगाना और उनका प्रबंधन शहरी वानिकी के अंतर्गत आता है ।
फार्म वानिकी ( Farm Forestry )
- इसके अंतर्गत किसानों को खेतों में व्यापारिक महत्त्व वाले व अन्य पेड़ों को लगाने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है ।
- वन विभाग इसके लिये किसानों को नि: शुल्क पौधे उपलब्ध करवाता है
भारतीय राज्य वन रिपोर्ट : 2015
(Indian State Forest Report : 2015)
- भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा राज्य वन रिपोर्ट प्रत्येक दो वर्षों में 1987 से प्रकाशित की जा रही है ।
- इस वन रिपोर्ट से संबंधित प्रमुख बिंदु निम्न हैं-
- 14 वीं ISFR-2015 के अनुसार देश में कुल वनावरण व वृक्षावरण 7,94,245 वर्ग किमी. है, जो कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 24.16 प्रतिशत है ।
- भारत में कुल वन क्षेत्र 7,01,673 वर्ग किमी. है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 21.34 प्रतिशत है ।
- वृक्ष आच्छादित क्षेत्र 92,572 वर्ग किमी. है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 2.82 प्रतिशत है ।
- यह स्वदेशी रिसोर्स सैट-II, उपग्रह एल आई एस एस-III, सेंटर डॉटा की व्याख्या पर आधारित है ।
- वन क्षेत्रफल की दृष्टि से सर्वाधिक वन क्षेत्रफल मध्य प्रदेश का है तत्पश्चात् अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र और ओडिशा का स्थान आता है ।
- न्यूनतम वनावरण क्षेत्रफल वाले राज्य हरियाणा, पंजाब, गोवा, सिक्किम तथा बिहार हैं ।
- प्रतिशत की दृष्टि से सर्वाधिक वन क्षेत्रफल मिज़ोरम (88.93 प्रतिशत) तथा लक्षद्वीप (84.56 प्रतिशत) में है ।
- राज्य तथा संघशासित क्षेत्र जिनका वन क्षेत्रफल 80 प्रतिशत से अधिक है, वे हैं-मिज़ोरम, लक्षद्वीप, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह तथा अरुणाचल प्रदेश ।
- वन क्षेत्र में सबसे ज्यादा वृद्धि तमिलनाडु में तथा सर्वाधिक कमी मिजोरम में दर्ज हुई है।
- इस रिपोर्ट में वर्ष 2013 की रिपोर्ट की तुलना में कुल वनावरण में 3,775 वर्ग किमी. की वृद्धि हुई है ।
- इस रिपोर्ट के अनुसार मैंग्रोव वनस्पति का क्षेत्रफल 4,628 वर्ग किमी. से बढकर 4.740 वर्ग किमी. हो गया है । विश्व की संपूर्ण मैंग्रोव वनस्पति का लगभग 3 प्रतिशत भाग भारत में पाया जाता है ।
जैवमंडल निचय (Biosphere Reserve)
- बायोस्फीयर रिजर्व शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 'एडवर्ड सुएस' ने किया था ।
- जैवमंडल निचय (आरक्षित क्षेत्र) विशेष प्रकार के भौमिक और तटीय या इसके संयोजन वाले पारिस्थितिक तंत्र हैं, जिन्हें यूनेस्को (UNESCO) के मानव और जैवमंडल प्रोग्राम-1971 (Man and the Biosphere Programme-MAB) के अंतर्गत मान्यता प्राप्त है
- यह जैवमंडल निचय प्राकृतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य के प्रतिनिधि भाग होते हैं जो बड़े पैमाने पर विस्तृत होते हैं ।
- जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र के तीन भाग होते हैं ।
कोर क्षेत्र (Core Zone) ; यह वन्यजीवों के संरक्षण के लिये सबसे सुरक्षित क्षेत्र होता है । इस क्षेत्र में सरकारी अधिकारियों/ कर्मचारियों को छोड़ अन्य सभी का प्रवेश वर्जित होता है ।
बफर क्षेत्र (Buffer Zone); बफर क्षेत्र, कोर क्षेत्र के चारों और का क्षेत्र है । इसका प्रयोग पूर्णत: नियंत्रित एवं अविध्वंसक कार्यों के लिये किया जाता है, जिसमें अनुसंधान/शोध, परंपरागत उपयोग एवं पुनर्वास शामिल हैं ।
संक्रमण क्षेत्र (Transition Zone) ; यह सबसे बाहरी भाग होता है जो खुला हुआ एवं विस्तृत होता है । इस क्षेत्र में मनोरंजन के संसाधनों फसल क्षेत्र तथा प्रबंधित जंगलों को शामिल किया जाता है । भारत में कुल 18 जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र घोषित किये गए हैं, जिनमें से 10 जैवमंडल आरक्षित क्षेत्रों को यूनेस्को (UNESCO) की सूची में शामिल कर लिया गया है ।
क्रम
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वर्ष
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नाम
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राज्य
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क्षेत्रफल(वर्गकिमी. में) एवं UNESCO में शामिल होने का वर्ष
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1.
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1986
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निलिगिरी संरक्षित जैविक क्षेत्र
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तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक
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5,520 (यूनेस्को 2000)
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2.
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1988
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नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान एवं बायोस्फीयर रिजर्व
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उत्तराखंड
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5,860 (यूनेस्को 2004)
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3.
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1988
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नोकरेक
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मेघालय
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820 (यूनेस्को 2009)
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4.
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1989
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मन्नार की खाड़ी
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तमिलनाडु
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10,500 (यूनेस्को 2001)
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5.
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1989
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सुंदरबन
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पश्चिम बंगाल
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9,630 (यूनेस्को 2001)
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6.
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1989
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मानस
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असम
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2,837
|
7.
|
1994
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सिमलीपाल
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ओडिशा
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4,374 (यूनेस्को 2009)
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8.
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1998
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दिहांग-दिबांग
|
अरुणांचल प्रदेश
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5,112
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9.
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1999
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पंचमढ़ी बायोस्फीयर रिजर्व
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मध्य प्रदेश
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4,981.72 (यूनेस्को 2009)
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10.
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2005
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अचानकमार-अमरकंटक बायोस्फीयर रिजर्व
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मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़
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3,835 (यूनेस्को 2012)
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11.
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2008
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कच्छ का रण
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गुजरात
|
12,454
|
12.
|
2009
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कोल्ड डेजर्ट
|
हिमांचल प्रदेश
|
7,770
|
13.
|
2000
|
कंचनजंघा
|
सिक्किम
|
2,620
|
14.
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2001
|
अगस्थ्यामलाई बायोस्फीयर रिजर्व
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केरल, तमिलनाडु
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3,500.08 (यूनेस्को 2016)
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15.
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1989
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ग्रेट निकोबार जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र
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अंडमान और निकोबार द्वीप समूह
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885 (यूनेस्को 2013)
|
16.
|
1997
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डिब्रू-सैखोवा
|
असम
|
765
|
17.
|
2010
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शेषाचलम पहाड़ियाँ
|
आंध्र प्रदेश
|
4,755
|
18.
|
2011
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पन्ना राष्ट्रीय उद्यान
|
मध्य प्रदेश
|
2,998.98
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नोट: यूनेस्को की सूची में शामिल जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र हैं !
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