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भारतीय अर्थव्यवस्था में इस प्राथमिक क्रिया का महत्त्वपूर्ण स्थान है । भोजन की आपूर्ति के अतिरिक्त कृषि से उद्योगों को कच्चा माल भी प्राप्त होता है । अत:उद्योगों के विकास में भी कृषि का महत्त्वपूर्ण योगदान है।कृषि पर प्राकृतिक पर्यावरण का गहरा प्रभाव पड़ता है । किसी स्थान की स्थिति,जलवायु,उच्चावच तथा मृदा कृषि को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले तत्व है । देश के विभिन्न भागों में इनमें से विभिन्न कारकों के संयोजन विभिन्न फसलों के उत्पादन के लिए उत्तरदायी हैं । 

कृषि,भारतीय अर्थव्यवस्था का मेरुदण्ड है जो विभिन्न रूपों में भारतीय अर्थव्यवस्था को सहारा प्रदान करती है । भारतीय जीवन का आधार, रोजगार का प्रमुख स्रोत तथा विदेशी मुद्रा अर्जन का माध्यम होने के कारण कृषि को देश की आधारशिला कहा जाता है । भारत की लगभग 49% जनसंख्या आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है । भारत के कुल क्षेत्रफल के लगभग 51% भाग पर कृषि कार्य होता है । स्वतंत्रता के समय सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 56.46% था,जो वर्ष 2016-17 में घटकर 17.4% रह गया । कृषि व सम्बद्ध क्षेत्र के सकल मूल्य वर्द्धन (GVA) में पशुधन की हिस्सेदारी वर्ष 2011-12 से लगातार बढ़ रही है जबकि,फसल क्षेत्र हिस्सेदारी कम हो रही है । कृषि क्षेत्र के योगदान में निरंतर कमी का कारण जी.डी.पी.में सेवा क्षेत्र एवं उद्योग क्षेत्रों का बढ़ना है ।  

भारत को 15 कृषि जलवायु प्रदेशों में बाटा गया है,जिसका आभार प्रदेश विशेष की भौतिक दशाओं के साथ साथ वहाँ अपनायी जा रही कृषि विधियाँ भी हैं । सामान्य रूप से भारत की कृषि के विकास पर निम्नलिखित कारकों का प्रभाव पड़ता है-

भौतिक कारक

इसके अन्तर्गत जलवायु की विभिन्न दशाओं जैसे-वर्षा,तापमान,आर्द्रता,मिट्टी की उर्वरता, वर्षा स्थालाकृतिक, ढाल एवं भौगोलिक उच्चावच्च को शामिल किया के जाता है । 

संस्थागत कारक

इसके अन्तर्गत भूमि सुधार अर्थात्  बिचौलियों का अंत, चकबंदी, हदबंदी एवं काश्तकारी सुधार जिसमें लगान का नियमन, काश्त अधिकार की सुरक्षा तथा काश्तकारों का भूमि पर मालिकाना अधिकार आता है । इसके अतिरिक्त, भूमि का पुनर्वितरण और पुराने भूमि सम्बंधों को समाप्त करना भी इसका लक्ष्य है । इन सभी समस्याओं की जड़ अंग्रेजों द्वारा अपनायी गयी शोषणकारी भू-धारण पद्धतियों में निहित थी ।

संरचनात्मक कारक

इसके अन्तर्गत कृषि में आधुनिकता एवं उत्पादकता बढ़ाने वाले तकनीकी उपकरण, कृषि शोध पद्धतियों एवं विज्ञान आधारित निवेश को शामिल किया जाता है।इनमें उच्च उत्पादकता वाले बीज (HYV), रासायनिक एवं जैव उर्वरक, सिंचाई, ऊर्जा, मशीनीकरण व कीटनाशकों के साथ-साथ कृषि विपणन, कृषि साख एवं पर्यावरण अनुकूल कृषि प्रमुख हैं । भारतीय कृषि में हरित क्रांति की उपलब्धियों को दीर्घजीवी बनाने के लिए सतत् अथवा हरित कृषि को प्राथमिकता दी जा रही है ।

राजनीतिक व प्रशासनिक प्रयास

संस्थागत एवं संरचनात्मक कारकों की सफलता काफी हद तक कृषि को गति देने वाले राजनीतिक व प्रशासनिक निर्णयों एवं प्रतिबद्धता पर निर्भर करती है।न्यूनतम समर्थन मूल्य, कृषि बीमा साख की उपलब्धता, कृषि वित्त, ऋण प्रवाह, विपणन व भंडारण केन्द्रों तथा अन्य आधारभूत कृषि संरचना एवं विकास इसी पर आधारित होते हैं ।

तकनीकी दक्षता

तकनीकी दक्षता एवं कुशलता वर्तमान कृषि व्यवस्था को प्रभावित करने वाले सबसे गतिशील प्रभावी कारक हैं। किसान कॉल सेंटर, ग्रामीण ज्ञान केन्द्र, ई-चौपाल, कृषि उपज भंडारण, बागवानी एवं रोपण, ऊर्जा संरक्षण एवं कृषि प्रशिक्षण जैसी तकनीकों के माध्यम से कृषि उत्पादकता को नया आधार मिला है ।

शस्य गहनता

शस्य गहनता अथवा फसल गहनता का अर्थ है- एक ही खेत में एक कृषि वर्ष में उगायी गयी फसलों की संख्या (बारंबारता) दूसरे शब्दों में, किसी कृषि योग्य भूमि पर एक वर्ष में जितनी बार फसल उगायी जाती है, वह उस भूमि की शस्य गहनता कहलाती है। शस्य गहनता प्राकृतिक दशाओं, सामाजिक, आर्थिक एवं संस्थागत कारकों द्वारा प्रभावित होती है । शस्य गहनता को सूत्र निम्नलिखित द्वारा ज्ञात किया जाता है ।

                             

वर्ष 2012-13 के अनुसार भू-उपयोग सांख्यिकी के अनुसार देश में कृषि भौगोलिक क्षेत्र 328.7 मिलियन हेक्टेयर है,जिसमें से l39.9 मिलियन हेक्टेयर निवल बोया गया क्षेत्र और 194.4 मिलियन हेक्टेयर सकल फसल क्षेत्र है । इस प्रकार फसल सघनता 138.9 प्रतिशत ऑकी गयी थी । वर्ष 1950-51 में खाद्यान्न फसलों के अन्तर्गत 76.7 प्रतिशत भूमि थी । वर्तमान आँकड़ों के अनुसार,भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 46% भाग शुद्ध बोए गए क्षेत्रफल के अन्तर्गत आता है । इसमें भी खाद्यान्न कृषि के अन्तर्गत आने वाली भूमि 65.6% है । कृषि योग्य भूमि की दृष्टि से विश्व में तीन शीर्ष राष्ट्र हैं-संयुक्त राज्य अमेरिका,भारत एवं   चीन ।

भूमि उपयोग नियोजन तथा भूमि संसाधन के इष्टतम् उपयोग के लिए 1988 ई. में राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति तैयार की गयी थी, जिसका उद्देश्य देश की भूमि उपयोग का विस्तृत तथा वैज्ञानिक सर्वेक्षण करना है ।

शस्यन प्रणाली

यह एक स्थान विशिष्ट प्रणाली है जो वातावरण के बदलने से परिवर्तित हो जाती है । अतः फसलोत्पादन के सभी अवयवों तथा इनका आपसी सम्बंध और वातावरण के साथ सामंजस्य होना शस्यन प्रणाली कहलाती है । इस प्रणाली का मुख्य उद्देश्य सभी संसाधनों,जैसे-भूमि,जल और सौर विकिरणों का समुचित उपयोग करना है ।

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