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मैदान

 मैदान प्रायः भूपटल पर समतल किन्तु निचले स्थलखण्ड होते हैं। यह धरातल के द्वितीय श्रेणी के सभी उच्चावच्चों में सर्वाधिक स्पष्ट एवं सरल होते हैं। ये 500 से कम ऊँचाई वाले भू पृष्ठ के समतल भाग होते हैं | मैदानों की कुछ विशिष्टतायें निम्नलिखित हैं-

  • मैदान सागर तल के ऊँचे या नीचे हो सकते हैं। जैसे-उत्तरी अमेरिका का ग्रेट प्लेन (बड़ा मैदान) जहां अपने समीपवर्ती अप्लेशियन पर्वतीय क्षेत्र से ऊँचा है, वहीं जार्डन घाटी तथा हालैण्ड के पोल्डर मैदान समुद्र तल से भी नीचे पाये जाते हैं।
  • मैदान का ढाल मंद तथा सागरतट की ओर क्रमशः कम होता जाता है।
  • द्वितीय श्रेणी के स्थलरूप के अन्तर्गत मैदानों में तटीय तथा आन्तरिक मैदानों को ही सम्मिलित किया जाता है।
  • अपरदन तथा निक्षेप द्वारा निर्मित मैदान को तृतीय श्रेणी के स्थलरूपों में सम्मिलित किया जाता है।
  • मैदानों को 'सभ्यता का पालना' की उपमा प्रदान की गई है।
  • भूपटल के लगभग 41 प्रतिशत भाग पर मैदानों का विस्तार है।

निर्माण और विकास की विभिन्न विधियों के आधार पर मैदानों का वर्गीकरण किया जाता है-

(1) पटलविरूपणी मैदान-भूपटल के उत्थान या अवतलन के द्वारा ऐसे मैदानों का निर्माण होता है जैसे-संयुक्त राज्य अमेरिका के ग्रेटप्लेस अधिसागरीय भाग के उत्थान के कारण निर्मित हुए, भारत का कोरोमण्डल तट और उत्तरी सरकार तटीय मैदान, अवतलन और निक्षेपण द्वारा निर्मित हुए।

(2) अपरदनात्मक मैदान-भूपटल पर उत्पन्न विषमताओं को दूर करने हेतु अनेक परिवर्तनकारी शक्तियां (नदी, हिमानी, पवन) अपरदन द्वारा विषमताओं को दूर करने का प्रयास करती हैं। फलस्वरूप वहां अपरदनात्मक मैदान बन जाता है। जिसे अधोलिखित भागों में विभक्त किया गया है। यथा-

(i) समप्राय मैदान-नदियों के अपरदन द्वारा निर्मित मैदानों में सर्वप्रथम पेनीप्लेन मैदान है। नदियां अपने अपरदन-चक्र की अन्तिम अवस्था में उच्च स्थल खण्ड (पहाड़, पठार) को काट कर अपने आधार-तल को प्राप्त कर लेती है, जिसे पेनीप्लेन कहते हैं। इनके बीच-बीच में कठोर शैलों के कुछ अवशिष्ट दिखाई पड़ते हैं, जिन्हें मोनैडनॉक कहा जाता है। भारत का अरावली क्षेत्र, पेरिस बेसिन, मिसीसिपी बेसिन आदि इसके अदाहरण हैं।

(ii) हिमानी निर्मित मैदान-हिमानी अपने अपरदन द्वारा उच्च भाग को घिसकर सपाट, परन्तु उच्चावच्च युक्त मैदान का निर्माण करती हैं। जैसे-फिनलैण्ड तथा स्वीडन के मैदान। पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास में चार बार हिमानी का प्रवाह निरूपित किया गया है। शक के हिमानीकरण से कनाडा एवं यू.एस.ए. में अनेक हिमानी मैदानों का निर्माण हुआ। 

(iii) कार्स्ट मैदान- चूनापत्थर वाली शैलों पर जल का प्रवाह होने से अपरदन एवं घुलनशील के कारण सम्पूर्ण भू-भाग एक समतल मैदान में परिवर्तित हो जाता है जिससे कार्स्ट मैदानों की उत्पत्ति होती है। जैसे-यूगोस्लाविया के कार्स्ट प्रदेश, फ्लोरिडा, नुलारबोर (दक्षिण आस्ट्रेलिया) तथा यूकाटन का क्षेत्र, भारत में चित्रकूट एवं  अल्मोड़ा के कार्स्ट मैदान आदि।

(iv) मरूस्थलीय मैदान - इसका निर्माण विश्व के मरूस्थलीय भागों में वायु के क्रियाओं के परिणामस्वरूप होता है।

(3) निक्षेपात्मक मैदान-अपरदन के कारकों द्वारा धरातल के किसी भाग से अपरदित पदार्थो को परिवहित करके उन्हें दूसरे स्थान पर निक्षेपित कर देने से ऐसे मैदानों की उत्पत्ति होती है। विश्व के अधिकांश मैदान इन्हीं मैदानों की श्रेणी में आते हैं। निक्षेप के साधनों एवं स्थान के नाम पर इन्हें निम्न वर्गों में बांटा गया है। यथा-

(i) जलोढ़ मैदान-ऐसे मैदानों का निर्माण पर्वतीय भागों से निकलने वाली नदियों द्वारा अपने साथ बहाकर लाये गये निक्षेपों के जमाव के परिणामस्वरूप होता है। ये   मैदान काफी बड़े क्षेत्र पर विस्तृत एवं बहुत उपजाऊ होते हैं। विश्व के अधिकांश बड़े मैदान, जलोढ़ मैदान ही है। जैसे-मिसीसिपी का मैदान, गंगा-ब्रम्हपुत्र का         मैदान        नील नदी का मैदान, वोल्गा तथा डेन्यूब का मैदान तथा व्हांगहो-यांगटिसी-क्यांग का मैदान आदि।

(ii) अपोढ़ मैदान-ऐसे मैदानों की रचना पर्वतीय भागों से हिमानियों के नीचे उतरते समय उनके द्वारा बहाकर लाये गये निक्षेप के जमाव से होती है। जैसे-उत्तरी- पश्चिमी यूरोप तथा कनाडा के मध्यवर्ती भागों के मैदान।

(iii) झीलों में गिरने वाली नदियों द्वारा अपने साथ बहाकर लाये पदार्थों का उनमें निक्षेपण होते रहने से कालान्तर में वे सूख कर उपजाऊ मैदान के रूप में बदल जाती हैं। यू.एस.ए., कनाडा, यूरोप में ऐसे मैदान पाये जाते हैं।

 (iv) लावा मैदान- ऐसे मैदानों का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार के समय निकलने वाले लावा तथा अन्य पदार्थों के निक्षेपण से होता है। ऐसे मैदानों में खनिज पदार्थों     की अधिकता के कारण वे उपजाऊ होती हैं। जैसे-भातर का प्रायद्वीपीय भाग और पैटागोनिया (द. अमेरिका) लावा निर्मित मैदान का मुख्य उदाहरण है।

 (v) लोयस मैदान- ऐसे मैदानों का निर्माण पवन के अपरदनात्मक कार्यों के पश्चात किसी स्थान पर उसके साथ उड़ाकर लायी गयी बालू, रेत आदि के निक्षेपण से होता है। ऐसे मैदान समतल एवं विस्तृत तथा मरूस्थलीय भाग से दूर निर्मित होते हैं। जैसे-चीन के शेन्सी प्रान्त में मध्य एशिया के मरूस्थलों से आयी हुई रेत आदि के निक्षेपित होने से चीन के प्रसिद्ध लोयस के मैदान का निर्माण हो गया है।

 

मैदान का प्रकार

निर्माण स्थल

उदाहरण

  • कार्स्ट मैदान

चूने के प्रदेशों में

सर्बिया, माण्टेनेग्रो तथा नुलारबोर (आस्ट्रेलिया)

  • हिम अपरदित मैदान

हिमानी प्रदेशों में

कनाडा, फिनलैण्ड, स्वीडन

  • जलोढ़ मैदान

नदियों के मैदानी भाग

सिन्धु-गंगा का मैदान, मिसीसिपी का मैदान, नील का मैदान, डेन्यूब का मैदान, व्हांगहो और  यांगटिसी का मैदान आदि

  • बट्टड़ मृत्तिका मैदान

हिमानी के निक्षेपण वाले स्थल

न्यू इंग्लैण्ड प्रदेश

  • लोयस का मैदान

वायु के निक्षेपण स्थल

उत्तरी चीन

  • तटीय मैदान

महाद्वीपीय मग्न तट

कोरोमण्डल तट, फ्लोरिडा का मैदान

  • समप्राय मैदान

अपरदन द्वारा ऊँचे भू-भागों के घिसने से

मध्य रूस का मैदान, पेरिस बेसिन

  • झीलों के मैदान

झील के पेटे के उत्थान एवं झील के जल के सूखने से

नीदरलैण्ड का मैदान

 

कुछ महतवपूर्ण तथ्य

  • पवन द्वारा घर्षित मैदान के उदाहरण सहारा के रेग, सेरिर तथा हमादा हैं। हमादा वास्तव में, पवनों का नग्नीकृत चट्टानों का सपाट भाग होता है जो कि अधिक विस्तृत होता है।
  • मरूस्थलीय भागों में पर्वतीय ढालों या पठारी ढाल पर जल द्वारा अपरदन के कारण अवतल ढालवाले स्थलरूप को 'पेडीमेण्ट' कहा जाता है। इससे निर्मित मैदान को पदस्थली कहते हैं।
  • नदी द्वारा निर्मित मैदानों में तीन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यथा-

(i) गिरिपद जलोढ़ मैदान

(ii) बाढ़ मैदान

(iii) डेल्टा मैदान

          जब कई जलोढ़ पंख (पर्वतपाद के पास नदी परिवहित बड़े टुकड़ों का निक्षेप) मिलकर एक विस्तृत पंख के रूप में हो जाते हैं तो एक मैदान का निर्माण होता है, जिसे गिरिपद जलोढ़ मैदान कहा जाता है। इस मैदान के ऊपरी भाग में बड़े-बड़े कण वाले पदार्थ होते हैं तथा निचले अर्थात किनारे की ओर महीन कण वाले पदार्थ होते हैं। बड़े-बड़े टुकड़ों के कारण इनमें साधारण नदियों के जल नीचे चले जाते हैं, जिससे नदी ऊपर से देखने पर अदृश्य हो जाती है। भारत में हिमालय पर्वत की निचली तलहटी में पर्त के पाद के पास बड़े-बड़े टुकड़ों के ढेर से निर्मित मैदान को भाबर कहा जाता है। इस मैदान में जब नदियां हिमालय से उतर कर आती हैं तो उनका जल अदृश्य हो जाता है तथा भाबर के दक्षिण में तराई मैदान में पुनः ऊपर आ जाता है। भाबर मैदान वास्तव में एक शुष्क डेल्टा के रूप में है। यहां पर बड़ी बड़ी घासें तथा छोटे-छोटे वृक्ष उगते हैं। हाथी घास तथा सवाई घास अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। इस तरह के मैदान का ढाल पर्वत की ओर अधिक और मैदान की ओर मंद होता है। कृषि की दृष्टि से ये मैदान अनुपजाऊ होते हैं।

          बाढ़ के मैदान का निर्माण जलोढ़ या कांप या कछारी मिट्टी द्वारा होता है, जो कि कृषि की दृष्टि से अत्यधिक उपजाऊ होती है। कछारी मैदान को प्रायः दो भागों में विभाजित किया जाता है-

(1) जहां पर प्रतिवर्ष बाढ़ का जल पहुंच जाता है तथा नवीन कांप मिट्टी का निक्षेप होता रहता है, उस भाग को खादर मैदान करते हैं।

(2) इसके विपरीत बाढ़ के उच्च भागों को जहां पर बाढ़ का जल नहीं पहुंच पाता है, बांगर मैदान कहते हैं। ज्ञातव्य है कि बांगर की अपेक्षा खादर अधिक उपजाऊ होती है।

          जब नदियां सागरों या झीलों में गिरती हैं तो वेग में कमी के कारण मुहाने के पास तलछट का निक्षेप होने से समतल तिकोनाकार मैदान का निर्माण होता है, जिसे 'डेल्टा' कहते हैं। डेल्टा के ऊँचे भागों को चार तथा निचले भागों को बील (बंगाल में) कहा जाता है। डेल्टाई मैदान भी खेती की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। नील नदी का डेल्टा इस दृष्टि से गंगा डेल्टा के समान ही महत्वपूर्ण है। डेल्टाई मैदान के निचले भागों में पानी सदैव लगा रहता है जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

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