• Have Any Questions
  • +91 6307281212
  • smartwayeducation.in@gmail.com

Study Material



नेहरू के काल में विदेश नीति 

  • देश की विदेश नीति को निर्धारित करने वाले आंतरिक तत्व होते हैं - भौगोलिक स्थिति , इतिहास एवं परम्पराएं , सामाजिक संरचना तथा राजनीतिक संगठन । भारत का राष्ट्रीय नेतृत्व स्वतंत्रता से पूर्व ही विदेश नीति के प्रति जागरूक था ।
  • सन् 1921 में अखिल भारतीय कांग्रेस इसमें रुचि लेने लगी थी और स्वतंत्र भारत की विदेश नीति के तत्वों की उद्घोषणा करने लगी थी ।सन् 1925 में जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस समिति के विदेश विभाग का प्रमुख बनाया गया । इसके कुछ समय बाद , अर्थात 1927 में कांग्रेस ने चीन , मेसोपोटामिया तथा पर्शिया में भारतीय सेना के प्रयोग के प्रति खेद प्रकट किया ।
  • इन वर्षों में कांग्रेस ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध लड़ रही मिस्र , इराक , फिलिस्तीन , सीरिया की जनता के प्रति समर्थन प्रकट किया । वर्ष 1999 में इसने उपनिवेशवाद तथा फासीवाद के मध्य चल रहे युद्ध में भारतीय जनता के भाग न लेने की उद्घोषणा की , चूंकि ये इन दोनों के विरुद्ध थे । जब भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई , उस समय इसने विश्व को दो गुटों में विभाजित पाया । इस समय देश के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती अपनी एकता एवं स्वतंत्रता को बनाए रखना था , विशेषकर तब , जब देश विभाजन तथा फूट डालो और राज करो की नीतियों का शिकार हो चुका था ।
  • इसी आवश्यकता ने देश की विदेश नीति के निर्माण को भी प्रभावित किया । भारत की विदेश नीति के निर्धारण में पांच अत्यावश्यक घरेलू तत्व हैं - इतिहास एवं परम्पराएं , लोकतंत्र , आर्थिक कारक , भारतीय समाज की बहुलवादी प्रकृति तथा नेहरू का करिश्माई नेतृत्व | भारतीय विदेश नीति के मौलिक सिद्धांत भली - भांति परिभाषित हैं तथा ये आज भी लगभग वहीं हैं जिनका भारत की अंतरिम सरकार के प्रधान के रूप में 1946 में पंडित नेहरू ने वर्णन किया था । इनमें निरंतरता इसलिए बनी रही क्योकि कुछ क्रांतिकारी घटनाओं के होते हुए भी वातावरण की मुख्य मांगें , अर्थात् विश्व शांति तथा सुरक्षा या उपनिवेशवाद तथा नस्ली भेदभाव की समाप्ति , आपसी असहयोग तथा मित्रता के बंधनों को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता , शक्ति राजनीति , शीत युद्ध से अलग रहने की आवश्यकता तथा संयुक्त राष्ट्र को सुदृढ़ करने की आवश्यकता आज भी उतनी ही वैध मानी जाती है , जितनी कि 1946 में थी । तथापि भारतीय विदेश नीति के प्रारंभिक वर्षों में अपनाए गए उद्देश्य तथा सिद्धांत काफी स्पष्ट हो गए हैं परंतु स्थिति में परिवर्तन तथा सूक्ष्म पुनव्यख्याएं भी हुई हैं ।
  • इन सिद्धांतों को सर्वप्रथम पंडित नेहरू ने बनाया तथा परिकल्पित किया । भारत की विदेश नीति की मूल बातों का समावेश हमारे संविधान के अनुच्छेद 51 में कर दिया गया है , जिसके अनुसार राज्य अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देगा , राज्य राष्ट्रों के मध्य न्याय और सम्मानपूर्वक सम्बंधों को बनाए रखने का प्रयास करेगा , राज्य अंतरराष्ट्रीय कानूनों तथा संधियों का सम्मान करेगा तथा राज्य अंतरराष्ट्रीय झगड़ों को पंच फैसलों द्वारा निपटाने की रीति को बढ़ावा देगा । कुल मिलाकर भारत की विदेश नीति के प्रमुख आदर्श निम्नलिखित हैं- 
    • भारतीय विदेश नीति अपने आप में स्वतंत्र है , भारत दो बड़ी शक्तियों में से किसी के गुट में शामिल नहीं है । पर ऐसा मानना सही नहीं कि भारत की विदेश नीति ‘ तटस्थ है । वस्तुतः अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भारत कभी तटस्थ नहीं रहा , बल्कि इसके गुण और दोष के आधार पर विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों से अपनी सम्मति स्पष्ट रूप से व्यक्त करता रहा है ।
    • भारत कभी भी द्विपक्षीय या बहुपक्षीय सैन्य संधि के पक्ष में नहीं रहा है । विश्व की समस्याओं को सुलझाने में सैन्य शक्ति की भूमिका का भारत ने हमेशा विरोध किया है ।
    • भारत ने सभी देशों से मित्रता बनाये रखने की कोशिश की । उल्लेखनीय है कि भारत ने अमरीकी गुट ( पूंजीवादी व्यवस्था ) और सोवियत गुट ( साम्यवादी व्यवस्था ) के देशों से बिना किसी भेदभाव के मित्रता की । भारत ने कभी भी एक देश को दूसरे देश से लड़ाने की नीति पर अमल नहीं किया । भारत में सरकार का ढांचा लोकतांत्रिक है । लेकिन विदेश नीति के मामले में भारत ने पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों से अधिक जुड़ा और न ही साम्यवादी देशों से इस कारण दूर हुआ ।
    • भारत बहुत दिनों तक ब्रिटेन का उपनिवेश रहा , इसने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही उपनिवेशवाद विरोधी नीति का अनुगमन किया । विश्व के मानचित्र पर भारत के एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में उभरने के साथ ही , एशिया - अफ्रीका - लातिनी अमरीका के देशों में उपनिवेशों के स्वतंत्र होने का सिलसिला शुरू हुआ ।
    • भारत की स्वतंत्रता के बाद श्रीलंका , बर्मा और इंडोनेशिया आजाद हुए । इसके बाद भारत ने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों से उपनिवेशवाद के विरुद्ध बोलकर अफ्रीकी देशों की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
    • भारत ने अपनी विदेश नीति के अंतर्गत नस्लवाद विरोधी नारा बुलंद किया । उल्लेखनीय है , कि गांधी जी ने 19वीं शताब्दी के आरंभ में दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष किया था ।
    • भारत इस विचार का समर्थक रहा है कि अस्त्रों की होड़ और सैन्य संधियों को रोके बिना विश्व - शांति कायम करना असंभव है । भारत निरस्त्रीकरण को विश्व शांति की कुंजी मानता है । इसके अतिरिक्त , निरस्त्रीकरण से अस्त्रों पर खर्च की जाने वाली विशाल राशि की बचत होगी और इस राशि का उपयोग गरीब देशों के विकास के लिए किया जा सकता है ।

 

भारत की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएं

सितंबर 1946 में , अंतरिम सरकार की स्थापना के बाद से ही भारतीय विदेश नीति विकसित होने लगी । पं . नेहरू ने स्पष्ट कहा कि स्वतंत्र भारत अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में एक स्वतंत्र नीति का अवलम्बन करेगा और किसी गुट में सम्मिलित नहीं होगा । भारत विश्व के किसी भी भाग में उपनिवेशवाद और प्रजातीय सहयोग बढ़ाने पर भी जोर देगा । यदि स्वाधीन भारत की विदेश नीति का समीक्षात्मक विश्लेषण करें तो अग्रलिखित विशेषताएं हमारे सामने प्रकट होती हैं ।

 

शांति की विदेश नीति

  • शांति की विदेश नीति सदैव ही विश्व शांति की समर्थक रही है । भारत ने प्रारंभ से ही यह महसूस किया है कि युद्ध और संघर्ष नवोदित भारत के आर्थिक और राजनीतिक विकास को अवरुद्ध करने वाला है । अगस्त 1954 में पणिक्कर ने कहा था , “ भारत को इस बात की बड़ी चिंता है कि उसकी प्रगति को तथा सामान्य रूप से मानव - जाति की उन्नति को संकट में डालने वाला कोई युद्ध न हो । ' 1956 के स्वेज नहर के संकट के कारण भारत की आर्थिक योजनाएं अत्यधिक प्रभावित हुई ।

 

मैत्री और शांतिपूर्ण सह - अस्तित्व की नीति

  • भारत की विदेशी नीति मैत्री और सह - अस्तित्व पर जोर देती है । यदि सह - अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता , तो आणविक शस्त्रों से समूची दुनिया का ही विनाश हो जाएगा । इसी कारण भारत ने अधिक से अधिक देशों के साथ मंत्री संधियां और व्यापारिक समझौते किए ।

 

पंचशील सिद्धांत

  • ' पंचशील ' के पांच सिद्धांतों का प्रतिपालन भी भारत की शांतिप्रियता का द्योतक है । 1954 के बाद से भारत की विदेश नीति को पंचशील  के सिद्धांतों ने एक नई दिशा प्रदान की ।
  • पंचशील से अभिप्राय है - ' आचरण के पाच सिद्धांत '। जिस प्रकार बौद्ध धर्म में ये व्रत एक व्यक्ति के लिए होते हैं , उसी प्रकार आधुनिक पंचशील के सिद्धांतों द्वारा राष्ट्रों के लिए दूसरे राष्ट्रों के साथ आचरण के संबंध निश्चित किए गए हैं । ये सिद्धांत निम्नलिखित हैं -
    •  एक - दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और सर्वोच्च सत्ता के लिए पारस्परिक सम्मान की भावना 
    •  एक - दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना
    •  समानता एवं पारस्परिक लाभ , तथा
    •  शांतिपूर्ण सह - अस्तित्व
  • ‘ पंचशील ' के इन सिद्धांतों का प्रतिपादन सर्वप्रथम 29 अप्रैल , 1954 को तिब्बत के संबंध में भारत और चीन के बीच हुए एक समझौते में किया गया था ।
  • 28 जून , 1954 को चीन के प्रधानमंत्री चाऊ - एन - लाई तथा भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ने पंचशील में अपने विश्वास को दोहराया । इसके उपरांत एशिया के प्रायः सभी देशों ने ‘ पंचशील ' के सिद्धांतों को स्वीकार कर लिया ।
  • अप्रैल 1955 में ' बाण्डुग सम्मेलन ' में पंचशील के इन सिद्धांतों को पुनः विस्तृत रूप दिया गया । बाण्डुग सम्मेलन के बाद विश्व के अधिसंख्य राष्ट्रों ने ‘ पंचशील ’ सिद्धांत को मान्यता दी और उसमें आस्था प्रकट की । पंचशील के सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों के लिए निःसंदेह आदर्श भूमिका का निर्माण करते है । ‘ पंचशील ' के सिद्धांत आपसी विश्वासों के सिद्धांत हैं । पं . नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि “ यदि इन सिद्धांतों को सभी देश मान्यता दे दें कि विश्व की अनेक समस्याओं का निदान मिल जाएगा । ‘ पंचशील ' के सिद्धांत आदर्श हैं , जिन्हें यथार्थ जावन में उतारा जाना चाहिए । इनसे हमें नैतिक शक्ति मिलती है और नैतिकता के बल पर हम न्याय और आक्रमण का प्रतिकार कर सकते हैं ।
  • आलोचकों का कहना है कि भारत - चीन सम्बंधों की पृष्ठभूमि में ' पंचशील ' एक अत्यंत असफल सिद्धांत साबित हुआ । इसके द्वारा भारत ने तिब्बत में चीन की सर्वोत्तम सत्ता को स्वीकार करके तिब्बत की स्वायत्तता के अपहरण में चीन का समर्थन किया था । इसकी आलोचना करते हुए आचार्य कृपलानी ने कहा था कि “ यह महान सिद्धांत पापपूर्ण परिस्थितियों की उपज है , क्योंकि यह आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से हमारे साथ सम्बद्ध एक प्राचीन राष्ट्र के विनाश पर हमारी स्वीकृति पाने के लिए प्रतिपादित किया गया था । ”

 

साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोध

  • ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन दासता में पिसने के बाद भारत को साम्राज्यवाद , उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद के अमानवीय , अनुदारवादी , तथा उच्च स्तरीय शोषण प्रवृत्ति का पूर्णतया आभास है । भारत की आजादी की लड़ाई वास्तव में साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई थी ।
  • विश्व के किसी भी भाग में साम्राज्यवाद का अस्तित्व भारत को अस्वीकार्य है । भारत के लिए साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष जीवन - मृत्यु का प्रश्न है । ऐसे सभी देश जो कभी न कभी साम्राज्यवाद के शिकार थे , जैसे इंडोनेशिया , लीबिया , ट्यूनीशिया , अल्जीरिया , मोरक्को , अंगोला , नामीबिया आदि सभी की भारत ने उपनिवेशीय शासन से छुटकारा पाने के लिए किए जाने वाले संघर्ष में पूर्ण रूप से सहायता की है ।
  • 1947 के बाद से भारत , साम्राज्यवाद तथा नवउपनिवेशवाद की शक्तियों ( जो नये राष्ट्रों की स्वतंत्रता को विभिन्न अप्रत्यक्ष तथा सूक्ष्म तरीकों से सीमित कर रहे हैं ) के विरुद्ध एशियाई , अफ्रीकी तथा लातीनी अमरीकी राष्ट्रों की एकता बनाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है ।
  • एशियाई सम्बंध कान्फ्रेंस , 1955 के बाण्डुग सम्मेलन , गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के सम्मेलनों में , संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा की बैठकों में तथा वास्तव में सभी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में , भारत ने इन बुराइयों के विरुद्ध सदा ही आवाज उठाई है ।
  • अफ्रीकी - एशियाई एकता की दृढ़ता बल्कि , साम्राज्यवाद , उपनिवेशवाद तथा नव - उपनिवेशवाद के विरुद्ध सम्पूर्ण तीसरे विश्व की एकता आज भी भारतीय विदेश नीति के मूल सिद्धांत हैं । उपनिवेशीय तथा साम्राज्यवादी शक्तियों की ओर से घोर विरोध के बावजूद भारत साम्राज्यवाद , उपनिवेशवाद तथा नव - उपनिवेशवादी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष का समर्थन करता रहा है । तथा ऐसा करने के लिए दृढ़ निश्चयी है । इस सम्बंध में शक्तिशाली भूमिका निभाने के लिए भारत दक्षिण - दक्षिण सहयोग के विकास का प्रबल समर्थक रहा है ।

 

संयुक्त राष्ट्र तथा विश्व शांति के लिए समर्थन

  • भारत संयुक्त राष्ट्र के मूल सदस्यों में से एक है । भारत ने सैनफ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लिया था तथा संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर हस्ताक्षर किए थे । तब से लेकर आज तक भारत ने संयुक्त राष्ट्र तथा दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के क्रिया - कलापों का समर्थन किया है तथा इनमें सक्रियता से भाग लिया है । संयुक्त राष्ट्र की विचारधारा का समर्थन करने तथा इसके क्रिया - कलापों में सक्रियता सकारात्मक तथा रचनात्मक रूप से भाग लेना , भारतीय विदेश नीति का महत्वपूर्ण सिद्धांत रहा है ।
  • भारत महासभा का एक सक्रिय सदस्य रहा है तथा यह सुरक्षा परिषद् में कई बार अस्थाई सदस्य बना है । बहुत - सी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के क्षेत्रीय कार्यालय भारत में स्थित हैं । भारत UNICEF , FAO , UNESCO तथा ऐसी अन्य संस्थाओं के कार्यक्रमों में सक्रियता से जुड़ा हुआ है भारत सदा ही लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक कल्याण के लिए संयुक्त राष्ट्र के निर्देशों का पालन करता रहा है तथा हर अंतरराष्ट्रीय प्रायोजित वर्षों तथा कार्यक्रमों को लागू करने के यथासम्भव प्रयत्न करता है ।
  • इसलिए संयुक्त राष्ट्र की कार्यप्रणाली का समर्थन करना तथा इसमें सक्रियता से भाग लेना भारतीय विदेश नीति का महत्वपूर्ण सिद्धांत है । 

 

गुटनिरपेक्ष नीति

द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत विश्व राजनीति का दो ध्रुवों में विभाजन हो चुका था । साम्यवादी सोवियत संघ और पूंजीवादी अमेरिका द्वारा संसार के नवस्वतंत्र देशों को अपने - अपने गुटों में शामिल करने तथा इन देशों की शासन प्रणालियों को अपनी विचारधाराओं के अनुकूल ढालने के भरसक प्रयास किये जा रहे थे । ऐसे विश्व परिदृश्य में , भारत ने विश्व राजनीति में अपनी पृथक पहचान एवं स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखने के उद्देश्य से गुटनिरपेक्षता नीति का अनुपालन किया ।

 

गुटनिरपेक्षता को अपनाये जाने के कारण निम्नलिखित हैं -

( i ) भारत किसी गुट में शामिल होकर विश्व में अनावश्यक तनावपूर्ण स्थिति पैदा करने का इच्छुक नहीं था ।

( ii ) भारत किसी भी गुट के विचारधारायी प्रभाव से ग्रस्त नहीं होना चाहता था । किसी भी गुट में शामिल होने पर भारत की शासनप्रणाली एवं नीतियों पर उस गुट विशेष के नेतृत्व का दृष्टिकोण हावी हो जाता ।

( iii ) भारत की भौगोलिक सीमाएं साम्यवादी देशों से जुड़ी थीं , अतः पश्चिमी देशों के गुट में शामिल होना अदूरदर्शी कदम होता । दूसरी ओर , साम्यवादी गुट में शामिल होने पर भारत को विशाल पश्चिमी आर्थिक व तकनीकी सहायता से वंचित होना पड़ता ।

( iv ) नवस्वतंत्र भारत को आर्थिक विकास हेतु दोनों गुटों से समग्र तकनीकी एवं आर्थिक सहायता की जरूरत थी , जिसे गुटनिरपेक्ष रहकर ही प्राप्त किया जा सकता था ।

( v ) गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत भारत की मिश्रित एवं सर्वमान्य संस्कृति के अनुरूप था ।

( vi ) भारत के दक्षिणपंथी तथा वामपंथी दलों के विदेश नीति से जुड़े आपसी मतभेदों को समाप्त करने का सर्वमान्य सूत्र - गुटनिरपेक्षता सिद्धांत को ही स्वीकार किया गया ।

( vi ) गुटनिरपेक्षता स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान घोषित आदर्शों एवं मान्यताओं का पोषण करती थी । यह गांधीवादी विचारधारा के सर्वाधिक निकट थी । इस प्रकार , उपर्युक्त कारणों से भारत ने गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत को अपने विश्व राजनीतिक व्यवहार का प्रमुख मापदंड बनाया ।

 

भारत की गुटनिरपेक्षता के प्रमुख लक्ष्य

स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही भारतीय नेताओं पर कुछ मान्यताओं का स्पष्ट प्रभाव पड़ चुका था । ये मान्यताएं थीं - राजनीति एवं सत्ता का आदर्शवादी दृष्टिकोण , एशियावाद , पश्चिमी लोकतांत्रिक प्रणाली तथा साम्यवाद का सैद्धांतिक रूप से खंडन और अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों के आदर्शवादी दृष्टिकोण को मान्यता । इन मान्यताओं के प्रत्यक्ष प्रभाव के आलोक में ही भारत की गुटनिरपेक्षता नीति के लक्ष्य निर्धारित किये गये ।

ये लक्ष्य इस प्रकार थे -

( i ) अंतरराष्ट्रीय शांति व सुरक्षा को कायम रखना और उसका संवर्धन करना ।

( ii ) उपनिवेशों के लोगों के आत्मनिर्णय अधिकार को बढ़ावा देना ।

( iii ) समानता पर आधारित विश्व समुदाय की स्थापना तथा रंगभेद का विरोध ।

( iv ) आणविक निरस्त्रीकरण तथा नवीन आर्थिक व्यवस्था की स्थापना ।

( v ) अफ्रीका और एशिया के देशों का समर्थन ।

( vi ) अंतरराष्ट्रीय विवादों तथा संघर्षों के शांतिपूर्ण निपटारे का समर्थन ।

( vii ) संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था के अंतर्गत ही उपर्युक्त लक्ष्यों की सिद्धि करना ।

 

गुटनिरपेक्षता की विशेषताएं 

गुटनिरपेक्षता की मुख्य विशेषताएं हैं -

( i ) शीतयुद्ध का विरोध ;

( ii ) सैन्य एवं सुरक्षा गठबंधनों का विरोध ;

( iii ) शक्ति राजनीति से निर्लिप्तता ;

( iv ) स्वतंत्र विदेश नीति का समर्थन ;

( v ) शांतिपूर्ण सहअस्तित्व तथा अहस्तक्षेप ;

( vi ) अलगाववाद की बजाय क्रियाशीलता की नीति ;

( vii ) कूटनीतिक साधन या वैधानिक स्थिति नहीं ;

( viii ) गुटनिरपेक्ष देशों की गुटबंदी नहीं ;

( ix ) विकास के लिए आपसी सहयोग की नीति ;

( x ) नवउपनिवेशवाद का विरोध ।

 

Videos Related To Subject Topic

Coming Soon....