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आर्थिक विकास हेतु नियोजन की अवधारणा दीर्घकालीन औपनिवेशिक शासन के फलस्वरूप भारत को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक ऐसी अर्थव्यवस्था विरासत में मिली , जिसमें सीमित उद्योगीकरण , निम्न कृषि उत्पादन , अल्प प्रतिव्यक्ति आय तथा मंद आर्थिक विकास गति जैसी नकारात्मक विशेषताएं मौजूद थीं । अशिक्षा , संकीर्णता तथा सामाजिक असमानता इसके अन्य प्रमुख तत्व थे ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजनीतिक नेतृत्व द्वारा परिस्थितियों एवं जनाकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए विकास के चार लक्ष्य घोषित किये गये , ये थे -

  • आयात और विदेशी सहायता पर भारत की निर्भरता को कम करना
  • पूंजी निर्माण एवं संसाधनों का प्रसार करना 
  • सामाजिक एवं क्षेत्रीय असमानताओं का उन्मूलन करना , तथा
  • जनसामान्य हेतु पर्याप्त एवं न्यूनतम जीवन स्तर की उपलब्धि सुनिश्चित करना ।

उपर्युक्त लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु राजनीतिक नेतृत्व के पास दो विचारधाराओं पूंजीवादी और साम्यवादी पर आधारित शासन प्रणालियों को अपनाने के विकल्प मौजूद थे , किंतु पूंजीवादी व्यवस्था में व्याप्त असमानता तथा साम्यवादी शासन की निरंकुशता ने भारतीय नेतृत्व को तीसरे रास्ते का चुनाव करने को प्रेरित किया । जवाहरलाल नेहरू के प्रभाव के अंतर्गत लोकतांत्रिक व्यवस्था में आर्थिक नियोजन को लागू करने के नये प्रयोग को अपनाने का निर्णय किया गया , जिसमें विकास और समता के उद्देश्यों को शांतिपूर्ण तरीके से प्राप्त किया जाना था ।

 

नियोजन संबंधी प्रारंभिक प्रयास

  • कांग्रेस ने 1938 में राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया , जिसके अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू थे । समिति द्वारा तैयार कई रिपोर्टों में मूलभूत उद्योगों के सार्वजनिक स्वामित्व , बड़े और लघु उद्योगों के मध्य समन्वय , क्षतिपूर्ति देकर जमींदारी प्रथा के उन्मूलन , नियोजन में कृषि क्षेत्र को आवश्यक रूप से शामिल करने तथा सहकारी खेती के विस्तार आदि की सिफारिशें की गयीं ।
  • 1944 में भारत के आठ बड़े उद्योगपतियों ने आर्थिक विकास का एक दस्तावेज तैयार किया , जिसे बंबई योजना कहा जाता है ।
  • आचार्य श्री मन्नारायण द्वारा  गांधीवादी योजना  के माध्यम से दस वर्ष में लोगों को जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने का दावा किया गया । एम . एन . राय ने भी ‘ जनता योजना ' का प्रस्ताव रखा , जिसमें सरकारी खेती और भूमि के राष्ट्रीयकरण पर बल दिया गया । जयप्रकाश नारायण की ‘ सर्वोदय योजना ' भी विकास के गांधीवादी मॉडल पर आधारित थी । 
  • इस प्रकार विकास की इन विभिन्न योजनाओं के द्वारा भारत में नियोजन के कई प्रारूप उभर कर आये , जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजनीतिक नेतृत्व को नियोजन सम्बंधी नीति निर्माण हेतु प्रचुर आधार - सामग्री उपलब्ध करायी । 

 

स्वातंत्र्योत्तर प्रारंभिक प्रयास

  • केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक प्रस्ताव द्वारा 1950 में योजना आयोग की स्थापना की गई । आयोग को परामर्शदात्री संस्था का दर्जा दिया गया ।
  • आयोग को सात दायित्व निभाने थे –

( i ) भारत के भौतिक , पूंजीगत तथा मानवीय संसाधनों का आकलन करना ;

( ii ) इन संसाधनों के प्रभावी एवं संतुलित उपयोग के लिए योजना तैयार करना ;

(iii ) विकास की राष्ट्रीय प्राथमिकताएं निर्धारित करना , विकास की स्थितियों को परिभाषित करना तथा संसाधनों के वितरण हेतु सुझाव देना ;

( iv ) योजना के सफल क्रियान्वयन हेतु आवश्यक शर्तों का निर्धारण करना ;

( v ) योजना के प्रत्येक चरण के कार्यान्वयन हेतु अपेक्षित प्रशासन तंत्र सुनिश्चित करना ;

( vi ) योजना क्रियान्वयन द्वारा हासिल की गई प्रगति का समय - समय पर मूल्यांकन करना तथा नीतियों और मापदंडों में अपेक्षित सुधारों की सिफारिश करना ;

( vii ) स्वयं की प्रभावी कार्यशीलता , बदलती आर्थिक परिस्थितियों , चालू नीतियों , कार्यक्रमों व मापदंडों तथा केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा प्रेषित किसी समस्या आदि विषयों के सम्बंध में अपनी सिफारिशें देना । योजना आयोग की सिफारिशों तथा तैयार नीतियों व योजनाओं पर अंतिम निर्णय ‘ राष्ट्रीय विकास परिषद् ' द्वारा किया जाता है , जिसकी स्थापना 6 अगस्त , 1952 को की गई । 

 

नियोजन के समाजिक - आर्थिक उद्देश्य 

  • नियोजन के विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्य हैं , जिन्हें विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के प्रारूपों में वर्णित किया जाता रहा है ।
  • एक मोटे अनुमान के आधार पर नियोजन के उद्देश्य निम्न हैं -

( i ) आधारभूत औद्योगिक संरचना का निर्माण ;

( ii ) कृषि उत्पादन में वृद्धि एवं सुधार ;

( iii ) राष्ट्रीय संपदा की वृद्धि और वितरण ; ( iv ) आत्म निर्भर और स्वस्फूर्त राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना ;

( v ) गरीबी व बेरोजगारी का उन्मूलन ;

( vi ) सामाजिक न्याय को प्रोत्साहन ;

( vii ) बीमारियों और निरक्षरता की समाप्ति;

( viii ) व्यापार और वाणिज्य का विस्तार ;

( ix ) आयात प्रतिस्थापन एवं नियतोन्मुख उत्पादन हेतु उद्यमियों को आर्थिक प्रोत्साहन ;

( x ) भारतीय अर्थव्यवस्था का आधुनिक , प्रभावशील व प्रतिस्पर्धात्मक रूप में कायांतरण ।

 

पंचवर्षीय योजनाएं 

प्रथम पंचवर्षीय योजना ( 1951 - 56 ) : प्रथम योजना में सर्वांगीण राष्ट्रीय विकास के साथ - साथ शरणार्थी पुनर्वास , खाद्य आत्मनिर्भरता , मुद्रास्फीति नियंत्रण जैसे तात्कालिक लक्ष्यों का चुनाव किया गया । इस योजना को लक्ष्यों की प्राप्ति में सफलता प्राप्त हुई । 

 

द्वितीय पंचवर्षीय योजना ( 1956 - 61 ) : इस योजना में भारी एवं मूलभूत उद्योगों के विकास एवं विस्तार को प्राथमिकता दी गयी , जो समाजवादी अर्थव्यवस्था स्थापित करने की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम था । दूसरी योजना के अनेक लक्ष्यों को पूंजी अभाव के कारण प्राप्त नहीं किया जा सका , फिर भी इसे सीमित सफलता प्राप्त हुई । 

तृतीय पंचवर्षीय योजना ( 1961 - 66 ) : तीसरी योजना में कृषि को पुनः सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए स्वस्फूर्त एवं निर्भर अर्थव्यवस्था का लक्ष्य तय किया गया । किंतु भारत - चीन युद्ध ( 1962 ) तथा भारत - पाकिस्तान युद्ध ( 1965 ) के कारण योजना की प्राथमिकताओं को रक्षा जरूरतों तक सीमित होना पड़ा । 1965 - 66 में पड़े भयंकर अकाल ने पूर्णतः इस योजना को , विफल बना दिया । अतः तीसरी योजना के दौरान भारतीय नियोजन प्रणाली को गंभीर संकटों व अवरोधों का सामना करना पड़ा । इस प्रकार जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में ही नियोजन व्यवस्था के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलू पूर्णतः स्पष्ट हो गये । जहां एक ओर उत्पादन वृद्धि , औद्योगीकरण विस्तार , आधार संरचना विकास , विज्ञान एवं तकनीकी विकास , तथा शिक्षा के प्रसार आदि क्षेत्रों में नियोजन प्रणाली को सफलता प्राप्त हुई , वहीं दूसरी ओर गरीबी व बेरोजगारी उन्मूलन , आय असमानताओं में कमी , भूमिसुधारों के पूर्ण क्रियान्वयन आदि क्षेत्रों में यह असफल साबित हुई ।

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