• Have Any Questions
  • +91 6307281212
  • smartwayeducation.in@gmail.com

Study Material



भूमि एवं कृषि सुधार 

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत , राजनैतिक नेतृत्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती देश का सामाजिक एवं आर्थिक पुनर्निर्माण एवं विकास थी । भारत की 80 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या की आजीविका कृषि पर निर्भर होने के कारण कृषि को आर्थिक विकास से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध पाया गया । आजादी के बाद भारत को पिछड़ी हुई कृषि व्यवस्था विरासत में प्राप्त हुई ,जिसके मुख्य लक्षण इस प्रकार थे -भूस्वामित्व के विभिन्न प्रकार ,कुछ गिने - चुने हाथों में भूमि का केंद्रीकरण , बिचौलियों की प्रभावशीलता , बहुसंख्यक गरीब किसानों का अस्तित्व , ग्रामीण बेरोजगारी , न्यून कृषि उत्पादन , तकनीकी सुविधाओं का अभाव , सामाजिक पिछड़ापन एवं भेदभाव , निम्न ग्रामीण जीवन स्तर तथा ग्रामीण क्षेत्रों में निरक्षरता ,रूढ़िवाद ,धर्मांधता व जातिवाद का वर्चस्व आदि । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ग्रामीण जीवन और कृषि में सुधार करना नेतृत्व की प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर था । तत्कालीन समय में कृषि सुधार से जुड़ी तीन विचारधाराएं मौजूद थीं-

( i ) भारतीय साम्यवादी दल द्वारा भूमि के राष्ट्रीयकरण को अनिवार्य माना गया ;

( ii ) विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के अंतर्गत भूमि सुधारों को नैतिक दबाव के आधार पर तय करने का आह्वान किया गया ; और

( iii ) 1949 में कांग्रेस कृषि सुधार समिति के प्रतिवेदन में संघीय लोकतांत्रिक ढांचे के अधीन भूमि सुधार तथा सहकारी खेती पर बल दिया गया ।

पहली दो विचारधाराओं को कानूनी समर्थन के अभाव में अस्वीकार कर दिया गया तथा कांग्रेस की नीतियों के आधार पर ही कृषि सुधारों की प्रक्रिया को प्रारंभ करने का निश्चय किया गया ।

1955 के आवड़ी अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा समाजवादी ढांचे के अंतर्गत कृषि क्षेत्र में सुधारों के निम्न उद्देश्य निश्चित किये गये -

( i ) ग्रामीण भारत में प्रभावी अर्धसामंती सामाजिक सम्बंधों तथा आर्थिक संस्थाओं का उन्मूलन ;

( ii ) वास्तविक किसानों को भूमि का वितरण ;

( iii ) सरकारी सामुदायिक विकास योजनाओं द्वारा प्रगतिशील किसानों की क्षमता में वृद्धि ;

( iv ) खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि ;

( v ) काश्तकारी अवधि की सुरक्षा सुनिश्चित करना ;

( vi ) लगान का भुगतान नकदी में करना |

इन उद्देश्यों की प्राप्ति संसदीय लोकतंत्र के अधीन तथा सम्पत्ति के अधिकार को विना क्षति पहुंचाये , की जानी थी । भारतीय संसद द्वारा भी शीघ्र ही कांग्रेस के प्रस्तावों का अनुमोदन कर दिया गया । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् योजना आयोग , केंद्रीय सरकार और अन्य राज्य सरकारों ने भूमि सुधारों के बृहत् कार्यक्रमों को जारी किया । इसके अंतर्गत मिलकियत ढांचे में संस्थागत और संरचनात्मक परिवर्तन किए गए , भू - स्वामित्व की नई अवधारणा सामने आई , कृषि क्षेत्रों में आधुनिकीकरण की मांग की गई और ग्रामीण क्षेत्रों में सामुदायिक स्तर पर सहायता पहुंचाने वाले संस्थानों का गठन किया गया ।

भूमि सुधार कार्यक्रमों में उठाए गए कदम थे-

( i ) बिचौलियों का उन्मूलन ।

( ii ) काश्तकारी सुधार ।

( iii ) भूमि अधिग्रहण के लिए भूमि जोतों की सीमा का निर्धारण ।

इन सुधारों का एकमात्र उद्देश्य था , भारतीय किसान को जमींदार और जागीरदार जैसे विचौलियों के चंगुल से मुक्त करना और उनकी जमीन को सुरक्षा प्रदान करना ताकि कृषि के आधुनिकीकरण के लिए वे उसमें पूंजी लगा सकें । 

 

बिचौलियों का उन्मूलन 

सरकार द्वारा जमींदारी व्यवस्था के उन्मूलन पर अधिक बल दिया गया , जिससे बिचौलियों को समाप्त करके कृषकों के साथ सीधा सम्पर्क कायम किया जा सके । काश्तकार की वैधानिक परिभाषा में लघु किसानों के साथ -साथ , बड़े - बड़े भूस्वामियों को भी शामिल किया गया ।

कृषि श्रम जांच रिपोर्ट ( 1951 ) के अनुसार , ' ' कुल कृषक परिवारों में 20 प्रतिशत लोग भूमिहीन थे ।2.5 एकड़ से कम भूमि प्राप्त किसानों का प्रतिशत 38 था और कुल खेती योग्य भूमि के मात्र 6 प्रतिशत पर ही उनका अधिकार था । 59 प्रतिशत कृषक परिवारों के पास 5 एकड़ से अधिक भूमि थी जो कुल खेती योग्य भूमि का 16 प्रतिशत थी । ' '

आजादी के समय व्यक्तिगत स्वामित्व की 57 प्रतिशत कृषि भूमि पर जमींदारों का प्रभुत्व था । सरकार द्वारा जमींदारी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए कदम उठाये जाने पर निम्न कठिनाइयां उपस्थित हुई –

  • कृषि राज्य सूची का विषय था । अतः इस दिशा में किया गया कोई भी सुधार संपूर्ण भारत में एक साथ लागू करना अत्यंत दुष्कर था । विभिन्न राज्यों की भू - सुधार नीतियों में विभिन्नता थी ।
  • खेतिहर व सीमांत कृषकों को राज्य के प्रत्यक्ष सम्पर्क में लाना एक विकट समस्या थी ।
  • अधिग्रहीत की गई भूमि के बदले मुआवजा देना भी एक समस्या थी । जमींदार मुआवजे के प्रश्न को मौलिक अधिकार के उल्लंघन के आधार पर न्यायालय से असंवैधानिक घोषित करा लेते थे ।

अनुच्छेद 31 में संशोधन करके ही भूमि सुधारों को लागू किया जा सका । जमींदारी व्यवस्था के उन्मूलन के बाद भी जमींदारों को 'भू - कृषक ' का दर्जा प्रदान किया गया तथा उन्हें निजी खेती के लिए भूमि के पुनर्ग्रहण की सुविधा भी दी गई ।

 

काश्तकारी सुधार

काश्तकारों को भूमि जोतने का स्थायी अधिकार दे दिया गया किंतु वे जमीन का विक्रय नहीं कर सकते थे । एक वर्ष के लगान का दस गुना अदा करने वाले काश्तकार ही भूमि को बेच सकते थे । इस प्रकार अधिकांश किसान भूमिधर और सिरदार के रूप में बदल गये , जो सरकार को सीधे लगान देते थे । किंतु जमींदारों पर अभी भी खुदकाश्त के रूप में काफी भूमि बची रह गयी थी और सरकार से प्राप्त मुआवजे को लाभकारी व्यवसायों में नियोजित करके उन्होंने अपनी प्रभावपूर्ण सामाजिक व आर्थिक स्थिति को पूर्णतः समाप्त नहीं होने दिया था ।

कृषिक सुधारों के अंतर्गत अनेक वैधानिक कदम उठाये गये । काश्तकारी अवधि की सुरक्षा , लगान दर के निर्धारण , तथा काश्तकारों को भूमि खरीद कर स्वामी बनने का अवसर देने के उद्देश्य से कई कानून बनाये गये ।कृषि भूमि की सीमा तथा भूमिहीनों को कृषि भूमि के वितरण के संबंध में भी कई कानून बनाये गये । छठे दशक के प्रारंभिक वर्षों में योजना आयोग द्वारा एक पारिवारिक जोत का निर्धारण किया गया , जिसकी वार्षिक आमदनी 1200 रु . के बराबर हो । योजना आयोग द्वारा दिये गये सुझाव में 5 सदस्यीय परिवार के पास 3 पारिवारिक जोतों के स्वामित्व को जरूरी माना गया ।

प्रथम तीन पंचवर्षीय योजनाओं के प्रपत्रों में भी काश्तकारों की दशा सुधारने के संबंध में निम्न प्रस्ताव मौजूद थे –

( i ) भूमि का किराया कुल उत्पादन के 1 / 2 से 1 / 4 स्तर से ज्यादा न हो ;

( ii ) जिस भूमि के पुनर्ग्रहण की संभावना न हो , उसका स्वामित्व काश्तकार को सौंपा जाये ;

( iii ) दूरस्थ जमींदारी को हतोत्साहित किया जाये ;

( iv ) व्यक्तिगत कृषि को प्रोत्साहन दिया जाये ।

 भूमि हदबंदी

पंचवर्षीय योजनाओं में असमानता की समाप्ति तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन किसानों को रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से भूमि हदबंदी की आवश्यकता को स्वीकार किया गया। भूमि हदबंदी कानून 1950 के दशक में ही लागू हो गया , किंतु उसका क्रियान्वयन विभिन्न राज्यों में अलग - अलग समय पर हुआ । भूमि हदबंदी के उद्देश्य को आंशिक सफलता ही मिल सकी , क्योंकि भूमिपतियों ने अपनी अधिशेष भूमि अपने रिश्तेदारों , मित्रों व अन्य लोगों के नाम कर दी थी । इस बेनामी हस्तांतरण ने भूमि हदबंदी कानूनों को एक सीमा तक अप्रभावी बना दिया ।

अन्य उपाय

कृषि सुधारों के अंतर्गत भारी निवेश के द्वारा भूमि की उत्पादकता बढ़ाने पर भी जोर दिया गया । प्रथम पंचवर्षीय योजना में भूमि चकबंदी की व्यवस्थित शुरुआत की गई , जिसका उद्देश्य भूमि के उपविभाजन को रोकना था ।

1957 के अंत तक 150 लाख एकड़ भूमि की चकबंदी हो चुकी थी । भूमि सुधारों के साथ ही संविधान के निर्देशक तत्वों ( अनुच्छेद 40 ) के अधीन , ग्राम पंचायत व्यवस्था लागू की गयी , जो वयस्क और व्यापक मताधिकार पर आधारित थी ।

ग्रामीण पंचायतों द्वारा ग्रामीण स्तर के भूमि संसाधनों के नियंत्रण से ग्रामीण जीवन में एक सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तन की शुरुआत हुई । कृषि सुधारों के अंतर्गत , सरकार ने कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए भी कई प्रयास किये । 1960 में 'गहन कृषि जिला कार्यक्रम ' को कुछ राज्यों के चयनित जिलों में लागू किया गया । इसका उद्देश्य किसानों को उर्वरक , कीटनाशक दवाइयां , अच्छे बीज तथा तकनीकी सहायता उपलब्ध कराना था । इन सुविधाओं के साथ - साथ , सिंचाई की उचित व्यवस्था पर भी बल दिया गया ।

किंतु इन सुविधाओं का सर्वाधिक लाभ अमीर कृषकों द्वारा उठाया गया । यद्यपि इससे सरकार को उत्पादन में वृद्धि हासिल करने में सफलता प्राप्त हुई किंतु कृषि क्षेत्र संरचनात्मक परिवर्तन तथा सामाजार्थिक समानता लाने के प्रयासों को कई अवरोधों सामना करना पड़ा ।

        निष्कर्ष रूप में 1947 - 64 के काल में कृषिक सुधारों को लागू करने के अभूतपूर्व प्रयास किये गये , किंतु वे कृषि क्षेत्र में आमूल संरचनात्मक परिवर्तन लाने में अपर्याप्त जिसका कारण मूलतः तत्कालीन समाजार्थिक संरचना में निहित था ।

 

Videos Related To Subject Topic

Coming Soon....