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 राष्ट्रीय आन्दोलन का अंतिम चरण (1919-1947)

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर विभिन्न शक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ । युद्धोपरांत भारत में राष्ट्रवादी गतिविधियां पुनः प्रारंभ हो गयीं , लेकिन एशिया एवं अफ्रीका के अन्य उपनिवेश भी युद्ध के प्रभाव से अछूते नहीं रहे और इन उपनिवेशों में भी साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियां सिर उठाने लगीं । ब्रिटिश शासन के खिलाफ चल रहे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने इस समय एक निर्णायक मोड़ लिया । इसका सबसे प्रमुख कारण था - भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर महात्मा गांधी का अभ्युदय । राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी के प्रवेश के बाद इसके जनाधार एवं लोकप्रियता में अपार वृद्धि हुई तथा यह सम्पूर्ण भारतीय जनमानस का आंदोलन बन गया ।

 

गांधीवादी चरण

  • 1919-1947 के काल को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के काल का ' तृतीय चरण ' या ' गांधी युग ' के नाम से जाना जाता है । यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अंतिम चरण था । स्वतंत्रता संग्राम के पहले दो चरणों में नरमपंथी एवं गरमपंथी दलों के नेताओं के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन की चलाया गया । वहीं तीसरे चरण में महात्मा गांधी स्वतंत्रता आंदोलन के केंद्र बिंदु रहे । इस युग के राष्ट्रीय आंदोलन ने जनसंघर्ष का रूप धारण कर लिया । राष्ट्रवादियों , क्रांतिकारियों , सैनिकों , किसानों , मजदूरों , सामान्यजन सभी ने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । इस काल में कांग्रेस ने पहले तो ब्रिटिश सरकार के साथ असहयोग और फिर अहिंसात्मक संघर्ष की नीति अपनाई , जिसके तीन निरंतर प्रगतिशील चरण - असहयोग आंदोलन , सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन थे ।
  • इस चरण में हिंदू - मुस्लिम मतभेद अपने चरम स्तर पर पहुँच गए । परिणामत: 1940 में जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने पृथक् राष्ट्र पाकिस्तान की मांग की ।
  • 1942 में ' करो या मरो ' नारे के साथ अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन चलाया गया । अंतत : भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की विजय हुई और 15 अगस्त , 1947 को देश स्वतंत्र हो गया ।

 

गांधी : सामान्य परिचय

  • गांधीजी का जन्म 2 अक्तूबर , 1869 में गुजरात के एक संपन्न परिवार में पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था । अपनी वकालत की पढ़ाई इंग्लैंड से पूरी करने के बाद गांधीजी 1892 - 1893 में दक्षिण अफ्रीका में व्यापार करने वाले एक भारतीय मुसलमान व्यापारी दादा अब्दुल्ला का मुकदमा लड़ने के लिये डरबन ( दक्षिण अफ्रीका ) चले गए । इस मुकदमे में इन्होंने सफलता हासिल की ।
  • इस दौरान इन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के प्रति रंगभेद नीति को स्पष्ट रूप से महसूस किया । वहाँ प्रत्येक भारतीय को पंजीकरण प्रमाण पत्र लेना और यह प्रमाण पत्र हर समय अपने पास रखना आवश्यक था । गांधीजी ने इस संबंध में ' एशियाटिक रजिस्ट्रेशन एक्ट ' का विरोध किया । 
  • डरबन से प्रिटोरिया जाते समय गांधीजी को अपमानित किया गया और यहीं से उन्हें भारतीयों के नेतृत्व की प्रेरणा मिली । 1894 में गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में ' नटाल इंडियन कॉन्ग्रेस ' की स्थापना की और रंगभेद की नीति के विरुद्ध आंदोलन भी शुरू किया । अपने सहयोगी जर्मन शिल्पकार ‘कॉलेनबाख' की मदद से ‘ टॉलस्टॉय फार्म ' की स्थापना की । वहाँ रह कर उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में ' इंडियन ओपीनियन ' अखबार का प्रकाशन किया तथा 1904 में ' फीनिक्स आश्रम ' की स्थापना की ।
  • उनके प्रयासों व आंदोलन के कारण दक्षिण अफ्रीकी सरकार द्वारा सन् 1914 में अधिकांश रंग भेद कानूनों को रद्द कर दिया गया । 1909 में पश्चिमी मूल्यों की आलोचना करते हुए ' हिंद स्वराज ' नामक पुस्तक लिखी जिसमें सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनने की सलाह दी गई ।

 

गांधीजी का भारत आगमन

  • जनवरी 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत लौटे । यहा गोपाल कृष्ण गोखले के विचारों से वे सर्वाधिक प्रभावित हुए आर कालांतर में गोखले को गांधीजी ने अपना राजनीतिक गुरु मान लिया ।
  • गांधीजी जिस समय भारत में आए, उस समय प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था । गांधीजी ने अंग्रेजों का समर्थन किया तथा भारतीयों को सेना में शामिल होने के लिये प्रोत्साहित किया , जिसके लिये उन्हें कुछ लोग सेना में भर्ती करने वाला सार्जेंट' भी कहने लगे थे ।
  • प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों के समर्थन करने के कारण ब्रिटिश सरकार ने 1915 में गांधीजी को ‘कैसर - ए - हिंद' की उपाधि प्रदान की ।
  • भारत आने पर गांधीजी ने साबरमती नदी के किनारे ' सत्याग्रह आश्रम या साबरमती आश्रम ' की स्थापना की । इसका उद्देश्य रचनात्मक कार्यों को प्रोत्साहन देना था।
  • गांधीजी का भारतीय राजनीति में एक प्रभावशाली नेता के रूप में उदय उत्तरी बिहार के चंपारण आंदोलन, अहमदाबाद के श्रमिक विवाद आदोलन तथा गुजरात के खेड़ा कृषक आंदोलन का सफलतापूर्वक नेतृत्व करने के पश्चात् हुआ ।

भारत में गांधीजी के प्रारंभिक सत्याग्रह चंपारण सत्याग्रह , 1917 

  • बिहार के चंपारण में गांधीजी ने सत्याग्रह का पहला प्रयोग 1917 में किया । चंपारण में सत्याग्रह प्रारंभ करने के दो प्रमुख कारण थे - चंपारण में नील बागान के मालिकों द्वारा ‘ तकावी ऋण ' और ' तिनकठिया व्यवस्था ' ( कृषकों को अपनी जमीन के 3 / 20वें भाग पर नील की खेती करना अनिवार्य ) के कारण किसानों की स्थिति बहुत दयनीय थी ।
  • 19वीं सदी के अंत में जर्मनी में रासायनिक रंगों ( डाई ) का विकास हो गया था जिससे भारतीय कृषकों द्वारा उगाए गए नील की मांग ठप्प हो चुकी थी । परिणामत : चंपारण के बागान मालिक नील की खेती बंद करने को विवश हो गए ।
  • यूरोपीय बागान मालिकों ने इस स्थिति का फायदा उठाया तथा लगान व गैरकानूनी अबवाब की दर मनमाने ढंग से बढ़ा दी । 1917 में चंपारण के एक कि सान राजकुमार शुक्ल ने इस अवस्थिति से गांधीजी को अवगत कराया । गांधीजी चंपारण पहुँचकर कृषकों की समस्याओं से अवगत हुए तथा सरकार को इस समस्या का हल करने के लिये कहा । सरकार ने इस मामले की जाँच के लिये एक आयोग गठित किया और गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया ।
  • गांधीजी आयोग को समझाने में सफल रहे कि तिनकठिया पद्धति खत्म होनी चाहिये । गांधीजी के प्रयास से ही किसानों को अंग्रेज नील बागान मालिकों से मुक्ति मिली ।
  • चंपारण सत्याग्रह के सफल नेतृत्व के बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने गांधीजी को पहली बार ' महात्मा ' कहा । चंपारण सत्याग्रह में ब्रज किशोर , राजेंद्र प्रसाद , महादेव देसाई , नरहरि पारिख , जे . बी . कृपलानी आदि उनके सहयोगी थे ।

 

अहमदाबाद मिल मजदूरों का आंदोलन(प्रथम भूख हड़ताल )1918

  • अहमदाबाद के मिल मजदूरों और मिल मालिकों के बीच फरवरी मार्च 1918 को प्लेग बोनस को लेकर विवाद आरम्भ हुआ । प्लेग बोनस गुजरात में मजदूरों को मालिकों की ओर से प्लेग फैलने के । कारण दिया जाता था , जिसे कालांतर में बंद कर दिया गय कहना था कि जो बोनस ( प्लेग ) उन्हें मिल रहा है वह प्रथम विश्व युद्ध की ।
  • समाप्ति के बाद बढ़ी मंहगाई की तुलना में बहुत कम है इसलिए इसे समाप्त नहीं किया जाना चाहिए । अहमदाबाद के अंग्रेज कलेक्टर ने गांधी जी से मिल मालिकों ( जिनमें कुछ गांधी के मित्र थे ) पर श्रमिकों से समझौता करने के लिए दबाव डालने के लिए अनुरोध किया ।
  • मिल मालिकों में एक अंबालाल साराभाई जो गांधी जी के मित्र थे , इन्होंने साबरमती आश्रम के निर्माण में अधिक मात्रा में दान दिया था , इनकी बहन अनुसूइया बेन अहमदाबाद मजदूर आंदोलन में गांधी के साथ थी ।
  • मिल मालिकों ने मजदूरों को 20 प्रतिशत बोनस देने का निर्णय लिया और धमकी दी की जो यह बोनस स्वीकार नहीं करेगा उसे नौकरी से बाहर कर दिया जायेगा ।
  • गांधी जी ने मजदूरों को 35 प्रतिशत बोनस दिये जाने का समर्थन किया , मार्च ।
  • 1918 में मजदूर हड़ताल पर चले गये , 15 मार्च को गांधी जी खुद भूख हड़ताल पर बैठ गये । गांधी जी के अनशन पर बैठने के बाद मिल मालिक सारे मामलों को ट्रिब्यूनल को सौंपने के लिए तैयार हो गये ट्रिब्यूनल ने श्रमिकों को 35 प्रतिशत बोनस देने का फैसला लिया इस तरह आंदोलन समाप्त हो गया ।
  • भारत में गांधी जी द्वारा सत्याग्रह के आरम्भिक प्रयोगों ने उन्हें जनसाधारण के अधिक समीप ला दिया , जिनमें ग्रामीण क्षेत्र के किसान , शहरों के मजदूर आदि शामिल थे , राष्ट्रीय आंदोलन को गांधी जी द्वारा दी गई यह एक महान देन थी ।

 

खेड़ा सत्याग्रह ( प्रथम असहयोग आंदोलन ) 1918

  •  खेड़ा में फसल बर्बाद होने के बावजूद भी सरकार द्वारा मालगुजारी वसूल की जा रही थी । किसानों द्वारा इसका विरोध किया गया तथा मालगुजारी माफ करने की मांग की गई ।
  • सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसायटी के सदस्यों , विट्ठलभाई पटेल और गांधीजी ने पूरे मामले की पड़ताल करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि किसानों की मांग जायज़ है ।
  • वल्लभभाई पटेल , इंदुलाल याज्ञनिक आदि नेता भी गांधीजी के साथ रहे ।
  • इस आंदोलन में गुजरात सभा ' ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । उस वर्ष इसके अध्यक्ष गांधीजी थे । इसी बीच सरकार द्वारा गुप्त निर्देश जारी किया गया कि लगान उन्हीं से वसूल किया जाये जो देने की स्थिति में है । इसकी जानकारी मिलते ही गांधीजी ने आंदोलन समाप्त कर दिया ।

 

रौलेट एक्ट ( 1919 )

  •  गरीबी , बीमारी , नौकरशाही के दमन - चक्र , मध्यादेशराज और युद्धकाल में धन एकत्र करने और सिपाहियों की भार्ती में सरकार द्वारा प्रयुक्त कठोरता के कारण भारतीय जनता में अंग्रेजी शासन के विरूद्ध पनप रहे असन्तोष ने उग्रवादी क्रांतिकारी गतिविधियों को तेज कर दिया । बढ़ रही क्रांतिकारी गतिविधियों को कुचलने के लिए सरकार ने 1917 में न्यायाधीश सिडनी रौलेट की अध्यक्षता में एक समिति को नियुक्त किया जिसे आतंकवाद को कुचलने के लिए एक प्रभावी योजना का निर्माण करना था ।
  •  रौलेट समिति के सुझावों के आधार पर फरवरी , 1919 को केन्द्रीय विधान परिषद में दो विधेयक पेश किये गये , जिसमें एक विधेयक परिषद के भारतीय सदस्यों के विरोध के बाद भी पास हो गया ।
  • 17 मार्च , 1919 को केन्द्रीय विधान परिषद से पास हुआ विधेयक रौलेट एक्ट या रौलेट अधिनियम के नाम से जाना गया ।
  • रौलेट अधिनियम के द्वारा अंग्रेजी सरकार जिसको चाहे जब तक चाहे , बिना मुकदमा चलाये जेल में बंद रख सकती थी , इसीलिए इस कानून को ' बिना वकील बिना अपील , बिना दलील का कानून ' कहा गया ।
  • रौलेट एक्ट जनता की साधारण स्वतंत्रता पर प्रत्यक्ष कुठाराघात था तथा अंग्रेजी सरकार की बर्बर और स्वेच्छाचारी नीति का स्पष्ट प्रमाण था । रौलेट एक्ट को भारतीय जनता ने ' काला कानून ' कहकर आलोचना की ।
  • गांधी जी ने रौलेट एक्ट की आलोचना करते हुए इसके विरूद्ध सत्याग्रह करने के लिए सत्याग्रह सभा की स्थापना की । रौलेट एक्ट विरोधी सत्याग्रह के पहले चरण में स्वयं सेवकों ने कानून को औपचारिक चुनौती देते हुए गिरफ्तारियां दी ।
  • 6 अप्रैल , 1919 को गांधी जी के अनुरोध पर देश भर में हड़तालों का आयोजन किया गया , हिंसा की छोटी मोटी घटनाओं के कारण गांधी जी का पंजाब और दिल्ली में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया ।
  • 9 अप्रैल को गांधी जी दिल्ली में प्रवेश के प्रयास में गिरफ्तार कर लिये गये , इनकी गिरफ्तारी से देश भर में आक्रोश बढ़ गया , गांधी जी को बम्बई ले जाकर रिहा कर दिया गया । रौलट एक्ट के विरोध के लिए गांधी जी द्वारा स्थापित सत्याग्रह सभा में जमना लाल दास , द्वाराकादास , शंकर लाल बैंकर , उमर सोमानी , बी . जी . हार्नीमन आदि शामिल थे ।

 

जलियाँवाला बाग हत्याकांड ( 13 अप्रैल , 1919 )

  • 9 अप्रैल ( कुछ स्रोतों में 10 अप्रैल ) को पंजाब के दो लोकप्रिय नेता - डॉ . सत्यपाल एवं डॉ . सैफुद्दीन किचलू को सरकार ने गिरफ्तार कर लिया । इनकी गिरफ्तारी के विरोध में 13 अप्रैल , 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक विशाल सभा का आयोजन हुआ । जनरल डायर ने इसे अपने आदेश की अवहेलना समझा तथा सभा स्थल पहुँचकर निहत्थी जनता पर गोली चलाने का आदेश दे दिया ।
  • आँकड़ों के अनुसार मरने वालों की संख्या 379 थी लेकिन वास्तव में इससे कहीं ज्यादा लोग मारे गए ।
  • गांधीजी को लगा कि कहीं पूरा देश हिंसा की चपेट में न आ | जाये अतः उन्होंने 18 अप्रैल को आंदोलन वापसी की घोषणा की ।
  • इस नरसंहार के विरोध में रवींद्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई ' नाइट ' की उपाधि वापस कर दी ।
  • दीनबंधु एफ . एंडूज ने इस हत्याकांड को जानबूझकर की गई हत्या ' कहा ।
  • शंकर नायर ने वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्य पद से त्यागपत्र दे दिया । इस हत्याकांड की जाँच हेतु कॉन्ग्रेस ने मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की । समिति के अन्य सदस्यों में मोतीलाल नेहरू , महात्मा गांधी , सी . आर . दास , तैय्यबजी और जयकर इत्यादि थे ।
  • कॉन्ग्रेस की जाँच समिति ने अपनी रिपोर्ट में जनरल डायर की निंदा की तथा उसके निर्णय को विवेकहीन एवं भावावेश में उठाया गया कदम बताया ।
  • ब्रिटिश सरकार ने इस हत्याकांड की जाँच के लिये हंटर आयोग गठित किया जिसमें तीन भारतीय सदस्य - चिमनलाल शीतलवाड़ , सुल्तान अहमद एवं जगत नारायण थे ।
  • हंटर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा - " अमृतसर की तत्कालीन परिस्थितियों में मार्शल लॉ लागू और बढ़ती भीड़ को नियंत्रित करने हेतु गोली चलाना आवश्यक हो गया था , लेकिन डायर ने अपने कर्तव्य को गलत समझा और तर्कसंगत आवश्यकता से अधिक बल का प्रयोग किया , फिर भी उसने ईमानदारी से जो उचित समझा , वही किया ।
  • हत्याकांड के दोषी लोगों को बचाने के लिये सरकार ने हंटर आयोग की रिपोर्ट आने से पहले ‘ इंडेमिटी बिल पास कर लिया था । सजा के तौर पर डायर को नौकरी से बर्खास्त किया गया । ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ट्स में डायर की प्रशंसा में भाषण दिये गए तथा सम्मानार्थ तलवार ( Sword of Honour ) और 2600 पौंड की धनराशि दी गई ।

 

खिलाफत आंदोलन

  • सितम्बर , 1920 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस के अधिवेशन का प्रमुख मुद्दा जलियांवाला कांड और खिलाफत था ।
  • भारत के मुसलमान तुर्की ( टर्की ) के सुल्तान को इस्लाम का ‘ खलीफा ' मानते थे । प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की मित्र देशों के विरूद्ध लड़ रहा था , युद्ध के समय ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने भारतीय मुसलमानों को वचन दिया था कि वे तुर्की साम्राज्य को किसी तरह का नुक्सान नहीं पहुँचायेगे लेकिन युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने तुर्की सम्राज्य का विघटन करने का निश्चय किया , जिससे भारतीय मुसलमानों की सहानुभूति तुर्की के प्रति हो गई ।
  • हकीम अजमल खान , डा . मुख्तार अहमद अंसारी , मौलाना अल हसन , अब्दुल वारी , मौलाना अब्दुल कलाम आजाद , मोहम्मद अली , शौकत अली आदि तुर्की के समर्थक थे ।
  • ' अली बंधुओं ( मोहम्मद और शैकत अली ) ने अपने पत्र कामरेड में तुको एवं इस्लामी की परम्पराओं के प्रति सहानुभूति व्यक्त की ।
  • • तुर्की साम्राज्य के विभाजन के विरूद्ध शुरू हुए खिलाफत आंदोलन ने उस समय अधिक जोर पकड़ लिया जब उसमें गांधी जी ने हिस्सेदारी की । गाँधी ने खिलाफत आंदोलन को हिन्दू - मुस्लिम एकता का एक सुनहरा अवसर माना ।17 अक्टूबर 1919 को अखिल भारतीय स्तर पर खिलाफत दिवस मनाया गया ।
  • • सितम्बर , 1919 में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी का गठन किया गया ।
  • • दिल्ली में 24 नवम्बर , 1919 को होने वाले खिलाफत कमेटी के सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी को प्रदान की गई । 13 जनवरी , 1920 को डा० अहमद अंसारी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मण्डल वायसराय से मिलने गया लेकिन खाली हाथ वापस आ गया ।
  • 10 अगस्त , 1920 को सम्पन्न सीवर्स की संधि के बाद तुर्की का विभाजन हो गया ।
  • गांधी ने खिलाफत कमेटी को सलाह दी कि उनके सामने एक मात्र रास्ता असहयोग आंदोलन का है , समिति द्वारा गांधी का यह सुझाव मान लिया गया ।
  • सितम्बर , 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कलकत्ता में हुए । कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार भारत में विदेशी शासन के विरूद्ध सीधी कार्यवाही करने , विधान परिषदों का बहिष्कार करने तथा असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारम्भ करने का निर्णय लिया ।

 

असहयोग आंदोलन (1920-21)

  • कलकत्ता में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन ( 1920 ) में पास हुआ असहयोग आंदोलन सम्बन्धी प्रस्ताव का दिसम्बर 1920 में नागपुर में हुए कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में पुष्टि कर दी गई ।
  • कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन का विशेष महत्व है क्योंकि इस अधिवेशन में असहयोग के प्रस्ताव की पुष्टि के साथ ही दो और महत्वपूर्ण निर्णय लिये गये ।
  • पहले निर्णय के अन्तर्गत कांग्रेस ने अब ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन ' का अपना लक्ष्य त्याग कर ' ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर और आवश्यक हो तो उसके बाहर ' स्वराज का लक्ष्य ' घोषित किया ।

दूसरे निर्णय के द्वारा कांग्रेस ने रचनात्मक कार्यक्रमों की एक सूची तैयार की जो इस प्रकार था-

 1 . सभी वयस्कों को कांग्रेस का सदस्य बनाना ।

 2 . तीन सौ सदस्यों की अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का गठन

 3 . भाषायी आधार पर प्रांतीय कांग्रेस समितियों का पुनर्गठन ।

 4 . स्वदेशी मुख्यतः हाथ की कताई - बुनाई को प्रोत्साहन ।

5 . यथासंभव हिन्दी का प्रयोग आदि ।

  • नागपुर अधिवेशन के बाद ' स्वराज ' के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कांग्रेस ने अब केवल सांविधानिक उपायों के स्थान पर सभी शांतिमय और उचित उपाय जिसमें केवल आवेदन और अपील भेजना ही शामिल नहीं था , अपितु सरकार को कर देने से मना करने जैसी सीधी कार्यवाही भी शामिल थी को अपनाने पर जोर दिया ।
  •  कांग्रेस की नीतियों में आये परिवर्तन के विरोध में एनी बेसेन्ट, मुहम्मद अली जिन्ना , विपिन चंद्र पाल सर नारायण चंद्रावकर ओर शंकर नायर ने कांग्रेस को छोड़ दिया । असहायोग आंदोलन के कार्यक्रम के दो प्रमुख भाग थे जिसमें एक रचनात्मक तथा दूसरा नकारात्मक था ।

रचनात्मक कार्यक्रमों में शमिल था-

  •  राष्ट्रीय विद्यालयों तथा पंचायती अदालतों की स्थापना,
  •  अस्पृश्यता का अंत ,
  •  हिन्दू - मुस्लिम एकता 
  •  स्वदेशी का प्रसार और कताई - बुनाई ।

 नकारात्मक कार्यक्रमों में मुख्य कार्यक्रम इस प्रकार थे-

  •  सरकारी उपाधियों प्रशस्ति पत्रों को लौटाना ।
  •  सरकारी स्कूलों , कालेजों , अदालतों , विदेशी कपड़ों आदि का बहिष्कार।
  •  सरकारी उत्सवों समारोहो का बहिष्कार ।
  •  विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार तथा स्वदेशी का प्रचार ।
  • अवैतनिक पदों से तथा स्थानीय निकायों के नामांकित पदों से त्याग पत्र ।

असहयोग आंदोलन की शुरूआत के समय ही कांग्रेस को तिलक की मृत्यु का एक बड़ा सदमा झेलना पड़ा । बाल गंगाधर तिलक की 1 अगस्त, 1920 को हुई मृत्यु के बाद उनकी अर्थी को महात्मा गांधी के साथ मौलाना शौकत अली तथा डाॅ. सैफुद्दीन किचलू ने उठाया था। मौलाना हसरत मोहानी ने उस समय शोक गीत पढ़ा था।

कांग्रेस ने असहयोग के कार्यक्रम में 31 मार्च 1921 को विजयवाड़ा में हुए कांग्रेस अधिवेशन में तिलक स्मारक के लिए स्वराज कोष के रूप में एक करोड़ रूपये एकत्र करना तथा समूचे भारत में करीब 20 लाख चरखे बंटवाने का कार्यक्रम भी शमिल कर लिया ।

  • असहयोग आंदोलन गांधी जी द्वारा 1अगस्त, 1920 को शुरू कर दिया गया । पश्चिमी भारत , बंगाल तथा उत्तरी भारत में असहयोग आंदोलन को अभूतपूर्व सफलता मिली । करीब 90,000 विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल और कालेजों को छोड़ा तथा 800 नये राष्ट्रीय स्कूल स्थापित किये गये । शिक्षा संस्थाओं का असहयोग आंदोलन के समय सर्वाधिक बहिष्कार बंगाल में हुआ । 'नेशनल कालेज कलकत्ता ' के सुभाष चन्द्र बोस प्रधानाचार्य बने । पंजाब में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में शिक्षा का बहिष्कार किया गया ।
  • शिक्षा का बहिष्कार मद्रास में बिल्कुल असफल रहा । आंदोलन के दौरान कई वरिष्ठ वकील एवं बैरिस्टर जैसे मोती लाल नेहरू , लाला लाजपत राय , सरदार वल्लभभाई पटेल , पंडित जवाहर लाल नेहरू , सी० आर० दास , विट्ठल भाई पटेल और राजेन्द्र प्रसाद आदि न्यायालयों का बहिष्कार कर आंदोलन में कूद पड़े । गांधी जी ने अपना कैसरे हिन्द , जूलू युद्ध पदक और बोअर पदक वापस कर दिया गांधी जी का अनुकरण कर सैकड़ों अन्य भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार से मिले पदकों को वापस कर दिया ।
  • बहिष्कार आंदोलन में विदेशी कपड़ों का बहिष्कार सर्वाधिक सफल रहा , विदेशी कपड़ों की आंदोलन के समय सार्वजनिक होली जलायी गई । असहयोग आंदोलन के समय शराब और ताड़ी की दुकानों पर धरना दिया । जिससे सरकार को बड़ी मात्रा में राजस्व की हानि हुई । विजयवाड़ा कांग्रेस अधिवेशन ( 1921 ) में जिस समय गांधी जी खादी के महत्व को समझा रहे थे उसी समय किसी एक कार्यकर्ता ने कहा कि गांधी खादी बहुत मंहगी है , इस पर गांधी ने लोगों को कम कपड़े पहनने की सलाह देते हुए खुद भी जीवन भर मात्र लंगोटी पहनने का निश्चय कर उसे पूरा किया ।
  • अप्रैल, 1921 में प्रिन्स ऑफ़ वेल्स के भारत आगमन पर उनका सर्वत्र काला झण्डा दिखाकर स्वागत किया गया। गांधी जी ने अली बन्धुओं की रिहाई न किये जाने के कारण प्रिन्स ऑफ़ वेल्स के भारत आगमन का बहिष्कार किया। 17 नवम्बर 1921 को जब प्रिन्स ऑफ़ वेल्स का बम्बई, वर्तमान मुम्बई आगमन हुआ, तो उनका स्वागत राष्ट्रव्यापी हड़ताल से हुआ। इसी बीच दिसम्बर, 1921 में अहमदाबाद में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। यहाँ पर असहयोग आन्दोलन को तेज़ करने एवं सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने की योजना बनी। दमन की नीति से असहयोग आन्दोलन को कुचलने में असमर्थ होने के बाद सरकार ने कांग्रेस और खिलाफत कमेटी दोनों पर प्रतिबंध लगा दिया साथ ही वर्ष की समाप्ति पर अली बंधुओं , मोतीलाल नेहरू चितरंजन दास , लाजपतराय , मौलाना आजाद आदि नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया ।
  •  खिलाफत और असहयोग आंदोलन हिन्दू और मुसलमानों को नजदीक लाने में प्रभावकारी सिद्ध हुआ । मुसलमानों ने कट्टर आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानन्द को जामा मस्जिद से भाषण देने के लिए आमंत्रित किया, दूसरी ओर सिखों ने अमृतसर के स्वर्णमंदिर की चाभियां मुसलमान नेता डॉ० किचलू को सौंप दिया । दिसम्बर , 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में आंदोलन को तेज करने का निर्णय लिया गया साथ ही अगले कदम के रूप में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की अनुमति प्रदान कर दी गई ।
  • फरवरी 1922 को गांधी जी ने वायसराय को एक पत्र लिखकर धमकी दिया कि यदि एक हफ्ते के अंदर सरकार की उत्पीड़नकारी नीतियां वापस न ली गई तो व्यापक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो जायेगा ।
  • आंदोलन में हिंसा की बढ़ रही घटना से गांधी जी चिंतित थे,अली बंधुओं ने भड़काने वाले भाषण देकर हिंसा को भड़काया , अगस्त 1921 में मालाबार में मोपलों ने हिंसा का भयंकर कृत्य कर डाला ।
  • गांधी जी द्वारा वायसराय को दी गई धमकी की समय सीमा पूरा होने से पहले ही उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में स्थित चौरी चौरा नामक स्थान  पर फरवरी 1922 को एक भयानक घटना घट गई ।
  •  चौरी - चौरा कांड के नाम से चर्चित इस घटना के अन्तर्गत क्रोध से पागल भीड़ ने पुलिस के 22 जवानों को थाने के अंदर जिंदा जला दिया ।  चौरी - चौरा की घटना से गांधी जी इतने आहत हुए कि उन्होंने शीघ्र आंदोलन को समाप्त करने का निर्णय लिया ।
  • 12 फरवरी , 1922 को बारदोली में हुई कांग्रेस की बैठक में असहयोग आंदोलन को समाप्त करने का निर्णय लिया गया और आंदोलन समाप्त हो गया । जिस समय जनता का उत्साह अपने चरम बिन्दु पर था उस समय गांधी जी द्वारा आंदोलन को वापस लेने के निर्णय से देश को आघात पहुंचा ।
  • मोतीलाल नेहरू , सुभाषचन्द्र बोस , जवाहर लाल, सी . राजगोपालाचारी , सी आर . दास , अलीबंधु आदि ने गांधी के इस निर्णय की आलोचना की ।  आंदोलन को समाप्त करने के अपने निर्णय के बारे में गांधी जी ने यंग इंडिया  में लिखा कि "आंदोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान , हर एक यंत्रणापूर्ण बहिष्कार यहां तक की मौत भी सहने को तैयार हैं ।" आंदोलन की समाप्ति के बाद गांधी जी की स्थिति थोड़ी कमजोर हुई । सरकार ने इस स्थिति का फायदा उठाकर 10 मार्च , 1922 को गांधी को गिरफ्तार कर लिया , न्यायाधीश ब्रुम फील्ड ने गांधी को असन्तोष भड़काने के अपराध में 6 वर्ष की कैद की सजा दी ।

 

मूल्यांकन

  • असहयोग आंदोलन सचमुच भारत का पहला जन - आंदोलन था । इसका सूत्रपात एक क्रांतिकारी कदम था , जिसने कांग्रेस के स्वरूप और स्वभाव में मूलभूत परिवर्तन ला दिया। कांग्रेस अब लोकप्रिय लोकतंत्रीय अखिल भारतीय संस्था तथा भारत में विदेशी शासन के विरूद्ध अहिंसात्मक विद्रोह का माध्यम बन गई ।
  • कूपलैंड के अनुसार  "गांधी जी ने भारत के इतिहास का रुख बदल दिया , उन्होंने वह कर दिखाया जो तिलक भी नहीं कर सके थे , राष्ट्रीय आंदोलन को क्रांतिकारी बनाया, स्वतंत्रता के लक्ष्य की ओर बढ़ना सिखाया, सरकार के ऊपर संविधानिक दबाव डाला , वाद - विवाद और समझौते के द्वारा नहीं अपितु शक्ति के द्वारा , वह शक्ति जो अहिंसात्मक थी । उनका आंदोलन शहरी बुद्धिजीवी वर्ग तक न सिमट कर गांव की आम जनता तक पहुँच गया और जाग्रति पैदा करने लगा ।"
  • सुभाष चन्द्र बोस के अनुसार “सन 1921 ने देश को सचमुच एक अच्छी तरह संगठित दल दिया । इससे पहले कांग्रेस केवल सांविधानिक दल और बातचीत करने वाली संस्था थी , महात्मा जी ने कांग्रेस को न केवल एक नया संविधान और राष्ट्रव्यापी आधार दिया बल्कि उन सबसे महत्वपूर्ण काम यह किया कि उसे कांतिकारी संगठन में बदल दिया ।”
  • असहयोग आंदोलन के आकस्मिक स्थगन से खिलाफत के मुद्दे का भी अंत हो गया , हिन्दू मुस्लिम एकता भी समाप्त हो गई , साम्प्रदायिकता का बोल बाला हो गया । 1923 और 27 के बीच देश भर में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायकि दंगे हुए ।
  • केरल स्थित मालाबार क्षेत्र के मोपला किसानों ने हिन्दू भू-सामन्तों और साहूकारों के विरूद्ध जमींदार विरोधी विद्रोह करके भयंकर रक्तपात किया। असहयोग आंदोलन अपने किसी भी घोषित लक्ष्य को प्रप्त करने में तो सफल नहीं रहा लेकिन इसकी चरम उपलब्धि तत्कालीन हानियों से अधिक थी ।

स्वराज पार्टी

  • असहयोग आंदोलन की समाप्ति और गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद देश के वातावरण में एक अजीब निराशा का माहौल बन गया था । ऐसी स्थिति में मोतीलाल नेहरू तथा सी . आर . दास ने एक नई विचारधारा को जन्म दिया । कांग्रेस ने विधानमंडलों के भीतर प्रवेश कर अंदर से लड़ाई का विचार प्रस्तुत किया तथा 1923 के चुनावों के माध्यम से विधानमंडल में पहुँचने की योजना बनाई ।
  • 1922 में कांग्रेस के गया अधिवेशन  में बहुमत के साथ इस योजना को अस्वीकार कर दिया गया । सी.आर. दास ने कांग्रेस की अध्यक्षता से त्यागपत्र दे दिया और एक नई पार्टी ' कॉग्रेस ख़िलाफ़त स्वराज पार्टी' के गठन की घोषणा की । इसी पार्टी को बाद में ' स्वराज पार्टी' (मार्च 1923) के नाम से जाना जाने लगा ।
  • सी. आर. दास इसके अध्यक्ष व मोतीलाल नेहरू इसके महासचिव थे ।
  • ध्यातव्य है कि वे लोग जो विधान परिषदों में प्रवेश की वकालत कर रहे थे , उन्हें परिवर्तन समर्थक कहा जाने लगा , जिनमें विट्ठलभाई पटेल , कस्तूरी रंगा , हकीम अजमल खाँ , मोतीलाल नेहरू,  सी . आर . दास थे , जबकि वे लोग जो विधान परिषदों में प्रवेश के पक्षधर नहीं थे , वे परिवर्तन विरोधी (अपरिवर्तनवादी) कहलाए जिनमें राजगोपालाचारी, आयंगर, एम. ए. अंसारी तथा राजेंद्र प्रसाद थे। उल्लेखनीय है की मोहम्मद अली जिन्ना ने केंद्रीय विधानसभा में स्वराज दल का समर्थन किया था|
  • 1923 में दिल्ली में हुए कांग्रेस के विशेष अधिवेशन की अध्यक्षता मौलाना आजाद ने की थी , जिसमें स्वराज पार्टी को मान्यता प्रदान कर दी गई । परिणामस्वरूप कांग्रेस पुनः विभाजन से बच गई । स्वराजियों ने 1923 के विधानमंडल चुनावों में हिस्सा लेते समय जारी किये गए अपने घोषणापत्र में यह प्रतिज्ञा की कि वे केंद्रीय विधानसभा व प्रांतीय परिषदों के द्वारा सरकार के कामकाज को बाधित करने के लिये सतत्, सुसंगत व अविरल नीति का पालन करेंगे । नवंबर 1923 के चुनावों में स्वराजियों ने हिस्सा लेकर अच्छा प्रदर्शन किया । केंद्रीय विधानमंडल की 101 निर्वाचित सीटों में से कांग्रेस ने 42 पर जीत हासिल की । प्रांतीय विधानसभाओं में स्वराजियों को मध्य प्रांत में स्पष्ट बहुमत मिला , बंगाल में सबसे बड़े दल के रूप में उभरे तथा बंबई एवं उत्तर प्रदेश में संतोषजनक सफलता मिली । स्वराजियों को मद्रास और पंजाब में सांप्रदायिकता एवं जातिवाद की लहर के कारण आशा के अनुरूप सफलता नहीं मिली । स्वराजियों ने चुनावी विजय के बाद महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की , जिनमें मुख्य उपलब्धियाँ इस प्रकार थी -
    • 1919 के अधिनियम की जाँच हेतु 'मुडीमैन समिति ' की नियुक्ति करवाना ।
    • दमनात्मक कानूनों को समाप्त करवाने के लिये संघर्ष ।
    • श्रमिकों की स्थिति को बेहतर बनाना, मज़दूर संघों की सुरक्षा आदि। स्वराजियों ने उत्तरदायी शासन की स्थापना हेतु गोलमेज सम्मेलन बुलाने का सुझाव दिया ।
    • मॉण्टेग्यू - चेम्सफोर्ड के सुधारों की खामियों को उजागर किया । 1923-24 में नगर पालिकाओं और स्थानीय निकायों में हुए  चुनावों में कांग्रेस को विशेष सफलता मिली । कलकत्ता के मेयर सी. आर. दास, अहमदाबाद के मेयर विट्ठलभाई पटेल, पटना के मेयर राजेंद्र प्रसाद तथा इलाहाबाद का मेयर पंडित जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया ।
    • 1925 में विट्ठलभाई पटेल को केंद्रीय विधानमंडल का अध्यक्ष (स्पीकर) चुना गया , जो स्वराजियों की एक प्रमुख उपलब्धि थी ।
    • जून 1925 में चित्तरंजन दास की मृत्यु से स्वराज दल को गहरा धक्का लगा । ध्यातव्य है कि चित्तरंजन दास सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक गुरु थे ।
    • नवंबर 1926 के चुनावों में स्वराजियों को हार का सामना करना पड़ा । लाहौर अधिवेशन में पारित प्रस्तावों और सविनय अवज्ञा आंदोलन छिड़ जाने के कारण 1930 में स्वराजियों ने विधानमंडल का दामन छोड़ दिया । इस प्रकार स्वराज पार्टी का अंत हो गया ।

       

गांधी दास पैक्ट ( 1924 )

  • नवंबर 1924 में गांधी , सी. आर.दास और मोतीलाल नेहरू ने एक संयुक्त वक्तव्य दिया, जो 'गांधी-दास पैक्ट' के नाम से जाना जाता है । इसकी मुख्य बातों में विधानसभाओं के भीतर स्वराज पार्टी को कांग्रेस के नाम तथा इसके अभिन्न अंग के रूप में कार्य करने का अधिकार प्रदान किया गया । इस एक्ट की दूसरी विशेषता यह थी कि इसमें यह कहा गया था कि असहयोग अब राष्ट्रीय कार्यक्रम नहीं रहेगा । इसके अतिरिक्त 'ऑल इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन' को संगठित करने तथा चरखे व करघे का प्रचार - प्रसार करने की जिम्मेदारी गांधीजी को सौंपी गई ।
  • इस पैक्ट की प्रमुख बातों की पुष्टि 1924 के बेलगाँव अधिवेशन में की गई, जिसकी अध्यक्षता गांधीजी ने की थी ।

 

क्रांतिकारी आतंकवादी आंदोलन का द्वितीय चरण ( 1924 - 34)

  • 1922 में अचानक गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन समाप्त कर दिये जाने के बाद देश में किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों के अभाव में उत्साही युवक निराशा में पुन : क्रांतिकारी गतिविधयों की ओर मुड़ गये ।
  • रूस , चीन , आयरलैण्ड , तुर्की , मिस्र आदि में होने वाले क्रांति आंदोलनों से प्रेरित युवाओं ने हिंसा के द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की अपनी नीति पर पुनः सक्रिय हो गये ।
  • इस समय क्रीतिकारी आतंकवाद दो धाराओं में विकसित हुआ एक पंजाब , उ० प्र० और बिहार तथा दूसरा बंगाल में ।
  • उत्तरी भारत में क्रांतिकारी आंदोलन उत्तर भारत के महत्वपूर्ण कांतिकारी नेताओं में सचिन्द्रनाथ सान्याल , राम प्रसाद बिस्मिल तथा चंद्र शेखर आजाद आदि शामिल थे । क्रांतिकारी आतंकवादी आंदोलन के द्वितीय चरण में सान्याल की पुस्तक बंदी जीवन ( हिन्दी , गुरूमुखी भाषा ) ने अनेक युवाओं को क्रांति के प्रति आकर्षित किया ।
  • अक्टूबर 1924 में सचीन्द्र सान्याल , राम प्रसाद बिस्मिल , चंद्र शेखर आजाद ने कानपुर में कांतिकारी संस्था ' हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' ( एच . आर . ए . ) की स्थापना की ।

एच . आर . ए . के उद्देश्य 

 ( i ) संगठित सशस्त्र क्रांति के द्वारा ब्रिटिश सत्ता को समाप्त कर एक ' संघीय गणतंत्र ' की स्थापना की जाये जिसे ' संयुक्त राज्य भारत ' कहा जाय ।

( ii ) आंदोलन की सफलता के लिये शस्त्र और धन एकत्र करने के लिए राजनैतिक डकैतियों सहित राजनैतिक अपहरण ।

( iii ) एच . आर . ए . की अनेक शाखायें स्थापित करना ।

  • एच . आर . ए . द्वारा 9 अगस्त , 1925 को उत्तर रेलवे के लखनऊ-सहारनपुर संभाग के काकोरी नामक स्थान पर ' 8 डाउन ट्रेन ' पर डकैती डालकर सरकारी खजाने को लूट लिया गया । यह घटना काकोरी काण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुई । सरकार ने समूचे षड्यंत्र का पता कर 29 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया । जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल , असफाकुल्ला , रोशन लाल , राजेन्द्र लहडी आदि पर मुकदमा चला कर फांसी दे दी गई ।
  • काकोरी काण्ड में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के चन्द्रशेखर आजाद को छोड़कर सभी सदस्यों की गिरफ्तारी से संगठन का अस्तित्व समाप्त हो गया ।
  • चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में सितम्बर 1928 को दिल्ली के फिरोजशाहा कोटला मैदान में 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिऐशन 'की स्थापना की गई ।
  • एच . एस . आर . ए . का उद्देश्य भारत में एक समाजवादी गणतंत्रवादी राज्य की स्थापना करना था , यह एक लोकतांत्रिक संगठन था जिसमें बहुमत को महत्व दिया जाता था । साइमन कमीशन के विरोध के समय लाला जी पर लाठियों से प्रहार करवाने वाला सहायक पुलिस अधीक्षक सांडर्स ( लाहौर ) की 30 अक्टूबर 1928 को भगतसिंह , चन्द्र शेखर आजाद , राजगुरू द्वारा की गई हत्या पहली एच० एस० आर० ए० की क्रांतिकारी गतिविधि थी ।
  • एच . एस . आर . ए . के दो सदस्य भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय विधान मण्डल में जिस समय ट्रेड डिसप्यूट विल और सेफ्टी बिल पर बहस चल रही थी , बम फेंका । जिसका उद्देश्य सरकार को डराना मात्र था । बम के साथ फेंके गये परचों में एच . एस . आर . ए . का संदेश इस प्रकार था - " बहरे कानों तक अपनी आवाज पहुँचाने के लिए बम का प्रयोग किया गया । " केन्द्रीय विधान मण्डल में बम फेंकते समय ही पहली बार भगतसिंह ने ‘ इन्कलाब जिंदाबाद ' का नारा दिया ।
  • भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को गिरफ्तार कर उन पर एसेम्बली में बम फेंकने तथा कुछ अन्य षड्यंत्रों से जोड़कर ' लाहौर षड्यंत्र केस ' के तहत मुकदमा चलाया गया ।
  • लाहौर षड्यंत्र केस के तहत एच . एस . आर . ए . के अन्य सदस्यों पर भी मुकदमा चलाया गया । जेल में बंद क्रांतिकारियों ने राजनैतिक कैदी का दर्जा प्राप्त करने के लिए भूख हड़ताल की । भूख हड़ताल पर बैठे जतिन दास की 64 दिन बाद 13 सितम्बर , 1929 को मृत्यु हो गई । जतिन का मृत शरीर जब लाहौर से बंगाल लाया गया उस समय कलकत्ता रेलवे स्टेशन पर लगभग 6 लाख लोगों ने महान युवा नेता को श्रद्धांजलि दी ।
  • भगतसिंह , सुखदेव तथ राजगुरू पर मुकदमा चला कर फांसी की सजा सुना दी गई । मुकदमें की सुनवायी के दौरान क्रांतिकारी ‘ इन्कलाब जिन्दाबाद ' का नारा लगाते हुए अदालतों में प्रवेश करते थे और 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद', 'सर्वहारा जिन्दाबाद ' का नारा लगाते हुए अदालत से बाहर आते थे । इन्कलाब जिन्दाबाद जिसकी रचना मुहम्मद इकबाल ने की थी , का पहलीबार नारे के रूप में भगत सिंह ने प्रयोग किया , इन्होंने ही इस नारे को चर्चित बनाया ।
  • 23 मार्च , 1931 को भगतसिंह , सुखदेव और राजगुरू को फांसी दे दी गई ।
  • एच . एस . आर . ए . के एक मात्र सदस्य चंद्रशेखर आजाद जो काकोरी षड्यंत्र केस से ही पुलिस को चकमा दे रहे थे , लाहौर षड्यंत्र केस से भी बच निकले थे लेकिन 27 फरवरी , 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में वे शहीद हो गये । इस तरह उत्तर भारत में एच . एस . आर . ए . की गतिविधियां समाप्त हो गई ।

 

बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन 

  •  कांतिकारी आतंकवादी आंदोलन के द्वितीय चरण में बंगाल में अनुशीलन और युगांतर जैसी क्रांतिकारी संस्थायें एक बार फिर से सक्रिय हुई । इसी समय बंगाल में हेम चंद्र घोष तथा लीला नाग ने बंगाल स्वयं सेवक संघ तथा अनिल राय ने श्री संघ नामक संस्था की स्थापना की । बंगाल में सूर्यसेन जो गांधी के असहयोग आंदोलन के प्रमुख नेता थे , ने इण्डियन रिपब्लिकन आर्मी ( आई . आर . ए . ) की स्थापना की । सूर्यसेन , चटगांव जो एक बंदरगाह क्षेत्र था , के एक राष्ट्रीय विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यरत थे । इसके द्वारा स्थापित संस्था आई . आर . ए . के चटगांव शाखा के सदस्यों में अनन्त सिंह , अंबिका चक्रवर्ती , लोकीनाथ , प्रीतिलता वाडेदर , गणेश घोष , कल्पना दत्त जैसी नवयुवतियां , आनंद गुप्त और टेगारबल जैसे नवयुवक शामिल थे ।
  • 19 अप्रैल , 1930 को सूर्यसेन ( मास्टर दा ) अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा करते हुए आई . आर . का घोषणा पत्र जारी किया जिसमें चटगांव , बारीसाल , मेमन सिंह स्थित सरकारी शस्त्रागारों पर एक साथ हमला बोलना था ।
  • सूर्यसेन के नेतृत्व में आई . आर . ए . के सदस्यों ने चटगांव शस्त्रागार पर आक्रमण कर हथियारों पर कब्जा कर लिया इसी समय 65 सदस्यीय क्रांतिकारी दल के समक्ष सूर्यसेन ने इन्कलाब जिन्दाबाद के नारों के बीच तिरंगा झण्डा फहरा कर ' अस्थायी क्रांतिकारी सरकार ' का गठन किया जिसके राष्ट्रपति सूर्यसेन बने ।
  • 22 मई , 1930 को आई . आर . ए . के सदस्यों और सरकारी सेना के बीच हुए संघर्ष में 80 सैनिक और 12 कांतिकारी मारे गये ।
  • 16 फरवरी , 1933 को सूर्यसन को गिरफ्तार कर लिया गया मुकदमें के बाद 12 जनवरी , 1934 को इन्हें फांसी दे दी गई । बंगाल में आई आर . ए . की गतिविधियों ने बड़ी संख्या में युवाओं को जिसमें कॉलेज की लडकिया भी शामिल थी , को कांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया । चटगांव कांड के बाद मिदनापुर में क्रांतिकारियों द्वारा तीन अंग्रेज मजिस्ट्रेट और दो पुलिस महानिरीक्षकों की हत्या कर दी गई । क्रन्तिकारी आंदोलन के द्वितीय चरण में बंगाल की महिलाओं की भागीदारी क्रांतिकारी गतिविधियों में अधिक हुई ।  प्रीतिलता वाडेदर ने पहाड़तली ( चटगांव ) के रेलवे इंस्टीट्यूट पर छापा मारने के समय मारी गईं।
  • कल्पनादत्त , सूर्यसेन के साथ 1935 में गिरफ्तार हुई इन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली । दिसम्बर 1931 में कोमिला की दो युवतियों सुनीति चौधरी और शांतिघोष ने कोमिला के जिलाधिकारी की हत्या कर दी ।
  • फरवरी 1932 में बीना दास ने दीक्षांत समारोह के दौरान उपाधि ग्रहण करते समय गवर्नर पर गोली चलायी ।
  • 1920 - 30 के दशक में चटगांव के आई . आर . ए . संगठन में सत्तारमीर अहमद , फकीर अहमद मियां , तुनू मियां आदि शामिल हुए ।

 

क्रांतिकारी आतंकवादी गतिविधियों से जुड़ी महत्वपूर्ण समाचार पत्र , पत्रिका तथा पुस्तकें 

समाचार पत्र / पुस्तकें

संपादक एवं प्रकाशन

युगान्तर

वारीन्द्र कुमार घोष , भूपेन्द्र नाथ दत्त

संध्या

मुखदा चरण

बंदेमातरम

अरविन्द घोष 

जमींदार

सिराजुद्दीन    

भारत माता

अजीत सिंह 

इण्डियन सोशियोलॉजिस्ट  

श्याम जी कृष्ण वर्मा 

वंदेमातरम

मैडम कामा ( लंदन )

 मदर

लाला हरदयाल ( न्यूयार्क ) 

बंदी जीवन

शचीन्द्र नाथ सान्याल 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

बी . डी . सावरकर  

भवानी मंदिर

अरबिन्द घोष 

वर्तमान रणनीति

बारीन्द्र कुमार घोष 

पथेर दावी

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय 

बम मैनुअल

पी . एन . वापट

 

साइमन कमीशन (1927-28)

  • 1919 के भारत शासन अधिनियम में कहा गया था कि अधिनियम पारित होने के दस वर्ष बाद एक संवैधानिक आयोग की नियुक्ति की जाएगी, जो यह जाँच करेगी कि भारत उत्तरदायी शासन की दिशा में कहाँ तक प्रगति करने की स्थिति में है।।
  • आयोग की नियुक्ति तो 10 वर्ष के बाद की जानी चाहिये थी,लेकिन ब्रिटेन की तत्कालीन कंजरवेटिव सरकार ने दो वर्ष पूर्व ही साइमन कमीशन की नियुक्ति (8 नवंबर, 1927) कर दी, क्योंकि उसे आशंका थी कि दो वर्ष बाद लेबर पार्टी की सरकार भारत समर्थक सदस्यों वाले वैधानिक आयोग की नियुक्ति कर सकती है।
  • साइमन आयोग की नियुक्ति राज्य सचिव बर्केनहेड ने की थी।सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में गठित साइमन आयोग में सात सदस्य थे। सातों सदस्यों का अंग्रेज़ होना ही विरोध का कारण बना, इसलिये इसे 'श्वेत कमीशन' कहकर इसका बहिष्कार किया गया।
  • 27 दिसंबर, 1927 को मद्रास में हुए कॉन्ग्रेस के अधिवेशन में साइमन कमीशन के पूर्ण बहिष्कार का निर्णय लिया गया, जिसकी अध्यक्षता एम.ए. अंसारी ने की थी।
  • तत्कालीन राजनीतिक दलों में लिबरल फेडरेशन, भारतीय औद्योगिक,वाणिज्यिक कॉन्ग्रेस, हिंदू महासभा, किसान मजदूर पार्टी, जिन्ना गुट आदि ने आयोग का बहिष्कार किया।
  •  संपूर्ण भारत में इसका विरोध हुआ। केवल मोहम्मद शफी के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग, जस्टिस पार्टी, ऑल इंडिया अछूत एसोसिएशन व केंद्रीय सिख संघ ने इसका विरोध नहीं किया।
  •  जहाँ-जहाँ आयोग गया, वहाँ-वहाँ ‘साइमन गो बैक' का नारा दिया गया और देशव्यापी हड़ताल का आयोजन किया गया।
  •  1928-29 के बीच कमीशन ने भारत की दो बार यात्रा की आयोग ने मई 1930 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी, जिस पर लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में विचार होना था।
  • साइमन विरोधी इस आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक निर्णायक दौर में पहुँचा दिया।

 

नेहरू रिपोर्ट (1928)

  • साइमन आयोग की नियुक्ति के समय ही अनुदार दल (कंजरवेटिव पार्टी) की सरकार में भारत सचिव लॉर्ड बर्केनहेड ने भारतीयों के समक्ष एक चुनौती रखी कि वे एक ऐसा संविधान बनाकर तैयार करें, जो सामान्यत: भारत के सभी लोगों को मान्य हो।
  • भारतीय नेताओं द्वारा इस चुनौती को स्वीकार करते हुए फरवरी 1928 में दिल्ली में आयोजित प्रथम सर्वदलीय सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें एक ऐसे संविधान निर्माण की योजना थी |  जिसमें पूर्ण उत्तरदायी सरकार की व्यवस्था होगी।
  • मई 1928 में बंबई में हुए दूसरे सर्वदलीय सम्मेलन में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक आठ सदस्यीय समिति की स्थापना की गई।
  • मोतीलाल नेहरू की समिति के सदस्यों में तेज बहादुर सपू, सुभाष चंद्र बोस, एम.एस. रैने, मंगल सिंह, अली इमाम, जी.आर. प्रधान, शोएब कुरैशी इत्यादि थे।
  • मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता वाली समिति ने अगस्त 1928 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसे 'नेहरू रिपोर्ट' के नाम से जाना गया। इस रिपोर्ट में भारत के नए डोमेनियन संविधान का खाका था।

रिपोर्ट में की गई सिफारिशें इस प्रकार थीं-

• भारत को डोमेनियन (अधिराज्य) का दर्जा।

• भारत एक संघ होगा, जिसके नियंत्रण में केंद्र में द्विसदनीय विधानमंडल होगा, मंत्रिमंडल सदन के प्रति उत्तरदायी होगा।

• केंद्र और प्रांतों में संघीय आधार पर शक्तियों का विभाजन किया जाए, किंतु अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र को दी जाए।

• सिंध को बंबई से पृथक् कर एक पृथक् प्रांत बनाया जाए।

• उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत को ब्रिटिश भारत के अन्य प्रांतों के समान वैधानिक स्तर प्रदान किया जाए।

  • देशी राज्यों के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को सुनिश्चित किया जाए।
  • उत्तरदायी शासन के पश्चात् ही किसी राज्य को संघ में सम्मिलित किया जाए।
  •  गवर्नर जनरल की स्थिति संवैधानिक मुखिया भर की रहेगी।
  • भारत में एक प्रतिरक्षा समिति, उच्चतम न्यायालय तथा लोकसेवा आयोग की स्थापना की जाए।
  • सांप्रदायिक आधार पर पृथक् निर्वाचक मंडल की मांग अस्वीकार कर अल्पसंख्यकों हेतु आरक्षित स्थानों के लिये संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र का प्रस्ताव किया गया, लेकिन यह व्यवस्था उन प्रांतों में लागू न की जाए, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हों।
  • वयस्कों के लिये मताधिकार, महिलाओं के लिये समान अधिकार, धर्म का हर प्रकार के राज्य से पृथक्करण, भाषायी आधारों पर प्रांतों के गठन का भी प्रावधान किया गया।
  • कॉन्ग्रेस में सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, सत्यमूर्ति जैसे युवानेता डोमिनियन स्टेटस की जगह पूर्ण स्वराज को कॉन्ग्रेस का लक्ष्य बनाना चाहते थे। इस मुद्दे को लेकर 1928 में कॉन्ग्रेस के कलकत्ताअधिवेशन में कॉन्ग्रेस के भीतर मतभेद उत्पन्न हो गया। दुर्भाग्य से सर्वदलीय सम्मेलन रिपोर्ट स्वीकार नहीं कर सका।
  • सुभाष चंद्र बोस, पॉडत जवाहरलाल नेहरू, सत्यमूर्ति आदि ने इसका विरोध किया तथा पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु 1928 में इन्होंने 'ऑल इंडिया इंडिपेंडेंस लीग' की स्थापना की।

मुस्लिम तथा हिंदू सांप्रदायिक प्रतिक्रिया

  •  नेहरू रिपोर्ट के रूप में देश के भावी संविधान की रूपरेखा का निर्माण राष्ट्रवादी नेताओं की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। यद्यपिआरंभ में उन्होंने प्रशंसनीय एकता प्रदर्शित की, किंतु सांप्रदायिक निर्वाचन के मुद्दे को लेकर धीरे धीरे उनके बीच विवाद गहरा गए।
  •  दिसंबर 1927 में मुस्लिम लीग के दिल्ली अधिवेशन में अनेक प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने भाग लिया। उन्होंने चार मांगों को संविधान के प्रस्तावित मसौदे में जोड़ने की मांग की-
  1.  सिंध को एक अलग राज्य बनाया जाए।
  2.  उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत को वही दर्जा दिया जाए जो अन्य प्रांतों को मिला हुआ है।
  3.  केंद्रीय विधायिका में मुसलमानों को 1/3 प्रतिनिधित्व मिले।
  4. पंजाब और बंगाल में प्रतिनिधित्व का अनुपात आबादी के अनुरूप हो तथा अन्य प्रांतों में मुसलमानों के लिये सीटों का मौजूदा आरक्षण बरकरार रहे।
  • दिसंबर 1928 में नेहरू रिपोर्ट की समीक्षा हेतु एक सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। उपरोक्त मांगों को लेकर मतदान की प्रक्रिया शुरू होते ही जिन्ना ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। परिणामत: मुस्लिम लीग सर्वदलीय सम्मेलन से अलग हो गई तथा मुहम्मद अली जिन्ना, मुहम्मद शफी एवं आगा खाँ के गुट से जाकर मिल गए। इसके पश्चात् मार्च 1929 को जिन्ना ने अलग से चौदह सूत्रीय मांगें पेश की। यहीं से आधुनिक भारतीय इतिहास में ब्रिटिशों द्वारा बोया गया सांप्रदायिकता का बीज पेड़ का रूप धारण किये हुए सामने आया।

 

जिन्ना की चौदह सूत्रीय माँगें

  1. संविधान का भावी रूप संघीय हो तथा प्रांतों को अवशिष्ट शक्तियाँ प्रदान की जाए  ।
  2. देश के सभी विधानमंडलों तथा सभी प्रांतों की अन्य निर्वाचित संस्थाओं में अल्पसंख्यकों को पर्याप्त एवं प्रभावी नियंत्रण दिया जाए।
  3. सभी प्रांतों को समान स्वायत्तता प्रदान की जाए।
  4. सांप्रदायिक समूह का निर्वाचन पृथक निर्वाचन पद्धति से किया जाए।
  5. केंद्रीय विधानमंडल में मुसलमानों के लिये 1/3 स्थान आरक्षित किये जाए  
  6. सभी संप्रदायों को धर्म, पूजा, उपासना, विश्वास, प्रचार एवं शिक्षा की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाए।
  7. भविष्य में किसी प्रदेश के गठन या विभाजन में बंगाल, पंजाब एवं उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत की अक्षुण्णता का पूर्ण ध्यान रखा जाए।
  8. सिंध को बंबई से पृथक् कर एक नया प्रांत बनाया जाए।
  9. किसी निर्वाचित निकाय या विधानमंडल में किसी संप्रदाय से संबंधित कोई विधेयक तभी पारित किया जाए, जब उस संप्रदाय के 3/4 सदस्य उसका समर्थन करें।
  10. सभी सरकारी सेवाओं में योग्यता के आधार पर मुसलमानों को पर्याप्त अवसर दिया जाए ।
  11. अन्य प्रांतों की तरह बलूचिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में भी सुधार कार्यक्रम प्रारंभ किये जाए  ।
  12. संविधान में मुस्लिम धर्म, संस्कृति, भाषा, वैयक्तिक विधि, मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं के संरक्षण एवं अनुदान के लिये आवश्यक प्रावधान किये जाए ।
  13. केंद्रीय विधानमंडल द्वारा भारतीय संघ के सभी राज्यों की सहमति बिन कोई संवैधानिक संशोधन न किया जाए।
  14. मुस्लिम संस्कृति, धर्म, पर्सनल लॉ और धर्मार्थ संस्थाओं (चैरिटेबल इंस्टीट्यूशंस) को सुरक्षा प्रदान की जाए ।

कॉन्ग्रेस का लाहौर अधिवेशन (पूर्ण स्वराज), 1929

  • दिसंबर 1929 में कॉन्ग्रेस का अधिवेशन लाहौर में हुआ, जिसकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू द्वारा की गई। इस अधिवेशन में स्पष्ट कहा गया कि नेहरू रिपोर्ट को लागू करने की अवधि समाप्त हो गई है तथा अब पूर्ण स्वाधीनता की मांग बुलंद की जाए।
  • इस अधिवेशन में कुछ ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किये गए|
  • नेहरू समिति की रिपोर्ट को निरस्त घोषित कर दिया गया।
  • लाहौर अधिवेशन में पारित ‘पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव' के अनुसार कॉन्ग्रेस के संविधान में ‘स्वराज्य' शब्द का अर्थ अब से पूर्ण स्वतंत्रता या पूर्ण स्वराज होगा, इसे अब राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य निर्धारित किया गया।
  • सम्मेलन में 31 दिसंबर, 1929 को मध्य रात्रि को रावी नदी के तट पर कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय स्वतंत्रता का प्रतीक तिरंगा झंडा, पूर्ण स्वराज, वंदे मातरम् तथा इंकलाब जिंदाबाद के नारों के बीच फहराया।
  • कॉन्ग्रेस कार्य समिति ने तय किया कि 26 जनवरी, 1930 का दिन पूर्ण स्वराज के रूप में मनाया जाएगा तथा अब से 26 जनवरी को प्रत्येक वर्ष पूर्ण स्वाधीनता दिवस' के रूप में मनाया जाएगा।
  • कॉन्ग्रेस कार्यकारिणी समिति ने लाहौर अधिवेशन में ही गांधीजी को यह अधिकार दिया कि वह देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ें।

 

गांधीजी द्वारा प्रस्तुत 11 सूत्रीय मांगें (31 जनवरी, 1930 )

  • गांधीजी ने वायसराय लॉर्ड इरविन एवं ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड के सम्मुख 31 जनवरी, 1930 को 11 सूत्रीय मांगे रखी। 11 सूत्रीय मांगों को गांधीजी द्वारा अपने पत्र 'यंग इंडिया' में प्रस्तुत किया गया था,जो निम्नलिखित थीं-

1. सेना के व्यय तथा सिविल सेवा के वेतनों में 50 प्रतिशत की कटौती।

2. डाक आरक्षण बिल पास किया जाए।

3. पूर्ण शराब बंदी।

4. राजनीतिक बंदियों की रिहाई।

5. आपराधिक गुप्तचर विभाग में सुधार।

6. हथियार कानून में सुधार करके आत्मरक्षा हेतु भारतीयों को बंदूकों इत्यादि के लाइसेंस की स्वीकृति प्रदान की जाए।

7. रुपया- स्टर्लिंग के विनिमय अनुपात को घटाकर 1 शिलिंग 4 पेंस करना।

8. वस्त्र उद्योग को संरक्षण प्रदान करना।

9. भारतीय समुद्र तट केवल भारतीयों के लिये आरक्षित करना।

10. भूमिकर में कटौती हो तथा उस पर काउंसिल का नियंत्रण हो।

11. नमक कर व नमक पर सरकारी एकाधिकार समाप्त करना।

  • गांधीजी की इस मांग पर सरकार ने कोई सकारात्मक रूख नहीं अपनाया फलतः 14 फरवरी, 1930 को साबरमती में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की एक बैठक में गांधीजी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने का निश्चय किया गया।

 

सविनय अवज्ञा आन्दोलन

  • 1929 के लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में, कांग्रेस कार्यकारिणी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने का अधिकार दिया गया।
  • फरवरी 1930 को साबरमती आश्रम में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की दूसरी बैठक में महात्मा गांधी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने की बागडोर सौंपी गई।
  • आन्दोलन शुरू करने से पूर्व गांधी जी ने आन्दोलन को टालने का पूरा प्रयास किया लेकिन तत्कालीन वायसराय से वह अपनी न्याचोचित मांगों को भी नहीं मनवा सके।

वायसराय इरविन के समक्ष गांधी जी द्वारा प्रस्तुत 11 सूची मांग पत्र में प्रमुख मांगे इस प्रकार थीं-

1. सेना का खर्च तथा सिविल सेवा के वेतनों में पचास प्रतिशत कटौती।

2. पूर्ण शराब बन्दी।

3. राजनैतिक कैदियों की रिहाई ।

4. भारतीयों को आत्मरक्षार्थ हथियार रखने का लाइसेंस।

5. रूपये का विनिमय दर एक सीलिंग चार पेन्स के बराबर किया जाय।

6. लगान में 50 प्रतिशत की कटौ।

7. नमक पर सरकारी इजारेदारी तथा नमक कर को समाप्त करना।

8. नशीली वस्तुओं के क्रय विक्रय पर प्रतिबन्ध।

आन्दोलन की शुरूआत

  • गांधी जी अपनी 11 सूत्री मांगों को न मांगे जाने पर इरविन को एक पत्र लिखा " मैनें रोटी मांगी थी मुझे पत्थर मिला। इन्तजार की घड़ियाँ समाप्त हुई।"
  •  सविनय अवज्ञा आन्दोलन के तहत महात्मा गांधी ने 12 मार्च 1930 को ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह की शुरूआत की।
  • गांधी जी ने साबरमती आश्रम से अपने 78 अनुयायियों के साथ डांडी मार्च किया।
  • 24 दिन की लम्बी यात्रा के बाद 5 अप्रैल 1930 को डांडी में गांधी जी ने सांकेतिक रूप से नमक कानून को तोड़ा। यहीं से सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरूआत हुई। 

आन्दोलन का कार्यक्रम

1. नमक कानून तथा ब्रिटिश कानूनों का उल्लंघन।

2. कानूनी अदालतों, सरकारी विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं सरकारी समारोहों का बहिष्कार ।

3. भूराजस्व, लगान तथा अन्य करों की अदायगी पर रोक।

4. शराब तथा अन्य मादक पदार्थों का विक्रय करने वाली दुकानों पर शातिपूर्ण

धरना।

5. विदेशी वस्तुए एवं कपड़ों का बहिष्कार।

6. सरकारी नैकरियों से त्याग पत्र।

 

प्रथम गोलमेज सम्मेलन (12 नवंबर , 1930 से 19 जनवरी , 1931)

  • लंदन में आयोजित यह सम्मेलन पहला ऐसा सम्मेलन था , जिसमें ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीयों को बराबर का दर्जा दिया गया ।
  • ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड इस सम्मेलन के सभापति थे।
  • सम्मेलन में कुल 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिसमें मुख्य रूप से शामिल थे- 
  1. हिंदू महासभा - जयकर एवं वी . एस . मुंजे 
  2. उदारवादी - सी . वाई चिंतामणि एवं टी . वी . सपू , 
  3. मुस्लिम लीग - आगा खाँ , मुहम्मद शफी , मुहम्मद अली जिन्ना और फजलुल हक । 
  4. सिख - सरदार संपूर्ण सिंह ।
  5. ऐंग्लो इंडियन - के . टी . पॉल । 
  6. दलित वर्ग - डॉ . भीमराव अंबेडकर । 
  7. देशी रियासतें - 16 नरेश ।  
  • सम्मेलन में मुस्लिम लीग ने पृथक् निर्वाचन मंडल की मांग रखी
  • इसी तरह अंबेडकर ने दलित वर्गों के लिये पृथक् निर्वाचन मंडल की मांग की , लेकिन उपस्थित प्रतिनिधियों में एकता का अभाव था । सम्मेलन के निष्कर्षों में ब्रिटिश सरकार अखिल भारतीय संघ का निर्माण , प्रदेशों में पूर्ण उत्तरदायी शासन तथा केंद्र में वैध शासन पर सहमत हुई । तेज बहादुर सपू एवं जयकर के प्रयत्नों से गांधीजी एवं इरविन के मध्य 17 फरवरी से दिल्ली में वार्ता प्रारंभ हुई ।
  • 5 मार्च , 1931 को अंततः एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए , जो ‘ गांधी - इरविन समझौते के नाम से जाना गया ।
  •  गांधी - इरविन समझौते पर कॉन्ग्रेस की तरफ से गांधीजी ने हस्ताक्षर किये , जबकि सरकार की ओर से लॉर्ड इरविन ने हस्ताक्षर किये ।
  • गांधी - इरविन समझौता ( दिल्ली - समझौता ) 5 मार्च , 1931 को दिल्ली  में एक समझौता हुआ , इस समझौते को गांधी - इरविन समझौता कहा जाता है ।
  • सरोजिनी नायडू ने इसे ' दो महात्माओं का मिलन ' कहा । इस समझौते के अंतर्गत जो शर्ते वायसराय इरविन द्वारा मानी गई , वे निम्न हैं-
    • जिन राजनीतिक बंदियों पर हिंसा के आरोप हैं , उन्हें छोड़कर शेष को रिहा कर दिया जायेगा । भारतीय , समुद्र किनारे नमक बना सकते हैं ।
    • भारतीय लोग शराब व विदेशी वस्त्रों की दुकान पर कानून की सीमा के भीतर धरना दे सकते हैं ।
    • सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने वालों को सरकार वापस लेने में उदारता दिखाएगी ।
    •  कांग्रेस की तरफ से गांधीजी ने निम्न बातों को स्वीकार किया-
    •  सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया जाएगा ।
    •  कॉन्ग्रेस निकट भविष्य में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी ।
    •  कांग्रेस ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार नहीं करेगी ।
  •  गांधी - इरविन समझौते का कॉन्ग्रेस के नेताओं ने स्वागत किया |
  • श्री के ऍम . मुंशी  ने इस समझौते को भारत के साविधानिक इतिहास में एक युग प्रवर्तक घटना । किंतु इस समझौते के कारण कॉन्ग्रेस के वामपंथी  , विशेषकर युवा वर्ग में गंभीर असंतोष था ।
  • युवा कांग्रेसी नेता गांधीजी के प्रति असंतुष्टि का कारण क्रांतिकारी भगत सिंह , सुखदेव एवं राजगुरु को फाँसी से न बचा पाने की वजह से था ।
  • इन तीनों को 23 मार्च , 1931 को लाहौर में फाँसी पर लटका दिया गया ।
  • मार्च 1931 में कॉन्ग्रेस का विशेष अधिवेशन कराची में संपन्न हुआ । युवाओं द्वारा गांधीजी को काले झंडे दिखाए गए ।
  • कराची अधिवेशन में ही पूर्ण स्वराज के साथ गांधी - इरविन पैक्ट को स्वीकार कर लिया गया । साथ ही पहली बार कॉन्ग्रेस ने मौलिक अधिकारों , राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रमों से संबंधित प्रस्ताव भी स्वीकार किया गया ।
  • कराची अधिवेशन की अध्यक्षता सरदार वल्लभभाई पटेल ने की थी ।
  • कराची अधिवेशन में ही गांधीजी ने कहा था गांधी मर सकता है , परंतु गांधीवाद नहीं । "

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 

द्वितीय गोलमेज़ सम्मेलन का आयोजन 7 सितम्बर, 1931 ई. को किया गया था। इस सम्मेलन की सबसे ख़ास बात यह रही कि इसमें महात्मा गाँधी ने कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। सम्मेलन में मुख्य रूप से साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के आधार पर सीटों के बँटवारे के जटिल प्रश्न पर विचार-विनिमय होता रहा, किन्तु इस प्रश्न पर परस्पर मतैक्य न हो सका। क्योंकि मुस्लिम प्रतिनिधियों को ऐसा विश्वास हो गया था कि हिन्दुओं से समझौता करने की अपेक्षा अंग्रेज़ों से उन्हें अधिक सीटें प्राप्त हो सकेंगी। इस गतिरोध का लाभ उठाकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्ज़े मैकडोनल्ड ने 'साम्प्रदायिक निर्णय' की घोषणा कर दी।

'द्वितीय गोलमेल सम्मेलन' के समय ब्रिटेन के सर्वदलीय मंत्रिमण्डल में अनुदारवादियों का बहुमत था। अनुदारवादियों ने सैमुअल होर को भारतमंत्री एवं लॉर्ड विलिंगडन को भारत का वायसराय बनाया। 7 सितम्बर, 1931 ई. को सम्मेलन शुरू हुआ। गाँधी जी 12 सितम्बर को 'एस.एस. राजपूताना' नामक जहाज़ से इंग्लैण्ड पहुँचे। इस सम्मेलन में वे कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि थे। एनी बेसेन्ट एवं मदन मोहन मालवीय व्यक्तिगत रूप से इंग्लैण्ड गये थे। एनी बेसेन्ट ने सम्मेलन में शामिल होकर भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया। द्वितीय गोलमेल सम्मेलन में कुल 21 लोगों ने भाग लिया था।

साम्प्रदायिक समस्या

इस गोलमेज़ सम्मेलन में राजनीतिज्ञों की कुटिल चाल के कारण साम्प्रादायिक समस्या उभर कर सामने आयी। मुस्लिमों एवं सिक्खों के साथ अनुसूचित जाति के लोगों के लिए भी राजनीतिज्ञों ने भाग लिया। महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधियों में भीमराव अम्बेडकर ने पृथक् निर्वाचन की मांग की। गाँधी जी इससे बड़े दुःखी हुए।

सम्मेलन में भारतीय संघ की रूपरेखा पर विचार-विमर्श हुआ। भारत में एक संघीय न्यायालय की स्थापना की बात की गयी। अनेक प्रतिनिधयों ने केंद्र में 'द्वैध शासन' अपनाने की बात की। हिन्दुओं तथा मुस्लिमों के गतिरोध का लाभ उठाकर प्रधानमंत्री रैम्ज़े मैकडोनल्ड ने साम्प्रदायिक निर्णय की घोषणा कर दी, जिसमें केवल मान्य अल्पसख्यकों को ही नहीं, बल्कि हिन्दुओं के दलित वर्ग को भी अलग प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था थी।

महात्मा गांधी ने इसका तीव्र विरोध किया और आमरण अनशन आरम्भ कर दिया, जिसके फलस्वरूप कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार में एक समझौता हुआ, जो 'पूना समझौता' के नाम से विख्यात है। यद्यपि इस समझौते से साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की समस्या का कोई संतोषजनक समाधान नहीं हुआ, तथापि इससे अच्छा कोई दूसरा हल न मिलने के कारण सभी दलों ने इसे मान लिया।

1 दिसम्बर, 1931 ई. को 'द्वितीय गोलमेल सम्मेलन' बिना किसी ठोस निर्णय के समाप्त हो गया। 28 दिसम्बर को भारत पहुँचने पर स्वागत के लिए आयी हुई भीड़ को सम्बोधित करते हुए गाँधी जी ने कहा "मैं ख़ाली हाथ लौटा हूँ, परन्तु देश की इज्जत को मैंने बट्टा नहीं लगने दिया।" 'द्वितीय गोलमेल सम्मेलन' के समय फ़्रेंक मोरेस ने गाँधी जी के बारे में कहा "अर्ध नंगे फ़कीर के ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वार्ता हेतु सेण्ट जेम्स पैलेस की सीढ़ियाँ चढ़ने का दृश्य अपने आप में अनोखा एवं दिव्य प्रभाव उत्पन्न करने वाला था।"

द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन ( 1932 से 1934 तक )

  • जनवरी 1932 में कांग्रेस  कार्य समिति ने सविनय अवज्ञा आंदोलन दोबारा शुरू करने का निर्णय लिया ।
  • इस बीच देश के अनेक भागों में किसानों में असंतोष की लहर फैल चुकी थी । विश्वव्यापी मंदी के कारण कृषि उपजों के दाम गिर गए । लगान तथा मालगुजारी का बोझ उनके लिये असहनीय हो गया ।
  • आंदोलन शुरू होने के शीघ्र बाद शीर्ष नेताओं - गांधीजी , जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल , खान अब्दुल गफ्फार खाँ ( पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में ) आदि को गिरफ्तार कर सरकार ने कॉग्रेस को ' गैर - काननी संस्था ' घोषित कर उसकी संपत्ति को जब्त कर लिया ।
  • आपातकालीन शक्तियों से संबंधी अध्यादेश सरकार द्वारा निकाले गए । प्रदर्शनकारियों तथा सत्याग्रहियों पर लाठियों से प्रहार किया गया ।
  • गाँवों में कर अदा न करने वाले किसानों की जमीन , पशु , मकान आदि को जब्त कर लिया गया । सरकार ने द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय प्रमुख नेताओं समेत बड़ी संख्या में ( कुछ स्रोतों में यह संख्या 1 लाख से ऊपर बताई गई हैं) लोगों को जेल भेजा । अप्रैल 1934 में गांधीजी ने द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया ।

 

साम्प्रदायिक पंचाट और पूना समझौता ( 1932 )

  •  ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने 16 अगस्त , 1932 को विभिन्न सम्प्रदायों के प्रतिनिधित्व के विषय पर एक पंचाट जारी किया जिसे साम्प्रदायिक पंचाट  कहा गया ।
  • इस पंचाट में पृथक निर्वाचिक पद्धति को न केवल मुसलमानों के लिए जारी रखा गया बल्कि इसे दलित वर्गों पर भी लागू कर दिया गया ।
  • मुसलमानों , इसाइयों , सिखों , आंग्ल भारतीयों तथा महिलाओं के लिए पृथक निर्वाचन पद्धति को सुविधा प्रदान की गई जो केवल प्रातीय विधान मण्डलों पर ही लागू थी ।
  • दलित वर्गों को पृथक चुनाव क्षेत्र को सुविधा प्रदान करने के पोछे अंग्रेजों को गहरी चाल थी वे इन्हें हिन्दुओं से अलग करना चाहते थे ।
  • दलित वर्ग की पृथक निर्वाचक मण्डल की सुविधा दिये जाने के विरोध में महात्मा गांधी ने जेल में ही 20 सितम्बर 1932 को आमरण अनशन शुरू कर दिया ।
  • इसी समय टैगोर ने गांधी के बारे में कहा कि "भारत की एकता और उसकी  सामाजिक अखण्डता के लिये यह एक उत्कृष्ट बलिदान है । हमारे व्यथित हृदय आपको महान तपस्या का आदर और प्रेम के साथ अनुसरण करेंगे । "  मदनमोहन मालवीय , डा० राजेन्द्र प्रसाद , पुरूषोत्तम दास , सी० राजगोपालाचारो आदि के प्रयत्नों से गांधी के उपवास के 5 दिन बाद 26 सितम्बर , 1932 को गांधी जी और दलित नेता अम्बेडकर में पूना समझौता हुआ ।
  • पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था समाप्त कर दी गई तथा विभिन्न प्रांतीय विधान मण्डलों में दलित वर्ग के लिए 148 सीटें आरक्षित की गई , दूसरे केन्द्रीय विधान मण्डल में 18 प्रतिशत सीटें दलित वर्ग के लिए आरक्षित की गई ।

 

तृतीय गोलमेज सम्मेलन ( 1932 ) 

  • लंदन में तृतीय गोलमेज सम्मेलन 17 नवम्बर 1932 से 24  दिसम्बर 1932 तक चला , कांग्रेस ने सम्मेलन का बहिष्कार किया ।
  • इस सम्मेलन में कुल 46 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया सम्मेलन में भारत सरकार अधिनियम 1935 हेतु ठोस योजना के अंतिम स्वरूप को पेश किया गया ।

 

कॉन्ग्रेस समाजवादी पार्टी 

  • वर्ष 1934 में कॉन्ग्रेस के बहुत बड़े भाग ने कॉन्ग्रेस के भीतर समाजवादी विचारधारा का प्रचार - प्रसार करने के लिये एक पृथक् दल के गठन पर बल दिया । इसी उद्देश्य से जय प्रकाश नारायण , आचार्य नरेंद्र देव तथा मीनू मसानी ने मिलकर ' बंबई में कॉन्ग्रेस समाजवादी दल ' की स्थापना की । इसके अन्य सहयोगी नेता अशोक मेहता , अच्युत पटवर्धन , डॉ . राम मनोहर लोहिया आदि थे ।
  • 1936 में कॉन्ग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में समाजवाद का लक्ष्य , विश्व में फासीवाद तथा प्रतिक्रियावाद के विरुद्ध रहते हुए संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में भारतीय संघर्ष को केंद्रित रखने का रखा गया ।
  • नेहरू का यह प्रस्ताव कॉन्ग्रेस कार्यकारिणी समिति में अस्वीकृत हो गया ।

     

प्रांतीय चुनाव तथा मंत्रिमंडलों का गठन ( 1937 )

  • 1936 में लखनऊ और फैजपुर में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए कॉन्ग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में सभी गुट चुनाव में हिस्सा लेने के लिये तैयार हो गए । जनवरी - फरवरी 1937 में हुए प्रांतीय विधानमंडला वे चुनाव में अपने प्रतिद्वंद्वी दलों का सफाया करते हुए कॉन्ग्रेस ने 11 प्रांतों में से 5 प्रातों में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया ।
  • कॉन्ग्रेस बंबई , असम तथा उत्तर - पश्चिम सीमांत प्रांत में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी । केवल बंगाल , पंजाब तथा सिंध में ही कॉन्ग्रेस बहुमत से वंचित रह गई ।
  • जुलाई 1937 में कॉन्ग्रेस ने मद्रास , संयुक्त प्रांत , मध्य प्रांत , बिहार , बंबई तथा उड़ीसा में अपनी सरकारे गठित की , बाद में पश्चिमोत्तर प्रांत और असम में भी कॉन्ग्रेस ने मंत्रिमंडल बनाए ।
  • इस तरह कुल 8 प्रांतों में कॉन्ग्रेस ने अपनी सरकार बनायी
  • पंजाब में मुस्लिम लीग और यूनियनिस्ट पार्टी ने संयुक्त सरकार का गठन किया ।
  • बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी तथा मुस्लिम लीग ने संयुक्त सरकार का गठन किया । 1937 के चुनाव में  कांग्रेस ने कुल आठ राज्यों में अपनी सरकारें बनाई । प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिये एक केंद्रीय नियंत्रण परिषद् का गठन किया गया, जिसे संसदीय उपसमिति का नाम दिया गया । इसके सदस्य - सरदार पटेल मौलाना अबुल कलाम आजाद और डॉ . राजेंद्र प्रसाद थे ।
  • इस समय प्रांत प्रमुखों को प्रधानमंत्री कहा जाता था । कॉग्रेस सरकार ने अपने 28 माह के संक्षिप्त शासनकाल में यह प्रमाणित कर दिया कि वह केवल जनसंघषों के लिये ही जनता का नेतृत्व नहीं कर सकती बल्कि उनके हित में राजसत्ता का भी प्रयोग कर सकती है ।
  • इसी समय कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने 1938 में राष्ट्रीय योजना समिति नियुक्त की । इसके माध्यम से कॉन्ग्रेसी सरकारों ने योजना के विकास में हाथ बँटाने के प्रयास किये । 

प्रांतों के प्रधानमंत्री

मद्रास -                सी . राजगोपालाचारी 

बिहार -                श्रीकृष्ण सिन्हा 

उड़ीसा -               बी . एन . दास 

मध्यप्रांत -             एन . बी . खरे बाद में रविशंकर शुक्ल 

संयुक्त प्रांत -          गोविंद वल्लभ पंत 

बंबई -                बी . जी . खेर 

असम -               सादुल्ला , गोपीनाथ बारदोलई 

उत्तर पश्चिमी प्रांत -     डॉ . खान साहब 

सिंध -                अल्लाह बख्श 

बंगाल -               फजलुल हक 

पंजाब -               सिकंदर हयात खाँ ।

 

 

कॉन्ग्रेस का त्रिपुरी संकट ( 1939 ) 

  • 1938 में हरिपुरा कॉन्ग्रेस के वार्षिक अधिवेशन के लिये सुभाष चंद्र बोस को कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष चुना गया।
  • 1939 के त्रिपुरी कॉन्ग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस दूसरी बार अध्यक्ष पद के उम्मीदवार बने ।
  • वे गांधीजी के पसंदीदा उम्मीदवार पटटाभि सीता रमैय्या को परास्त कर दूसरी बार अध्यक्ष चुने गए । इस हार को गांधीजी ने अपनी व्यक्तिगत हार बताया । चुनाव के बाद अधिवेशन में पारित प्रस्ताव द्वारा अध्यक्ष को गांधीजी की इच्छानुसार कार्य समिति के सदस्य नियुक्त करने को कहा गया , लेकिन गांधीजी ने सलाह देने से इनकार कर दिया ।
  • इस स्थिति में अंततः सुभाष चंद्र बोस ने अप्रैल 1939 में कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया । उनकी जगह पर डॉ . राजेंद्र प्रसाद को कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया ।
  • कांग्रेस से पृथक् होकर 1939 में सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक को स्थापना की ।

 

अगस्त प्रस्ताव ( 8 अगस्त , 1940 )

  • कांग्रेस के मत्रिमंडल से त्यागपत्र के बाद कॉन्ग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मार्च 1940 में रामगढ ( तत्कालीन विहार ) में आयोजित किया गया । इसमें ब्रिटिश सरकार के समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया कि केंद्र में अंतरिम सरकार गठित की जाए । लॉर्ड लिनलिथगो ने द्वितीय विश्व युद्ध में कांग्रेस का सहयोग प्राप्त करने के लिये उनके समक्ष एक प्रस्ताव रखा , जिसे ' अगस्त प्रस्ताव का नाम दिया गया , जिसमें अंतरिम सरकार के गठन करने की मांग को खारिज कर दिया गया । अगस्त प्रस्ताव में अधोलिखित प्रावधान सम्मिलित थे ।
  • युद्ध के बाद एक प्रतिनिधिमूलक संविधान निर्मात्री संस्था का गठन किया जाएगा । एक युद्ध सलाहकार परिषद् की स्थापना की जाएगी । वायसराय कार्यकारिणी परिषद् का विस्तार ( भारतीयों की संख्या बढा दो जाएगी ) किया जाएगा । कॉग्रेस के द्वारा अगस्त प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया तथा पाकिस्तान की मांग स्पष्ट रूप से स्वीकार न किये जाने के कारण मुस्लिम लीग ने भी प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया 

     

मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की मांग

  • खिलाफ़त व असहयोग आंदोलन में हिंदू मुस्लिम एकता का जो दृश्य देखने को मिला था , वह अब सांप्रदायिकता में बदल चुका था । कवि और राजनीतिज्ञ चिंतक मुहम्मद इकबाल को प्रायः  मुसलमानों के लिये पृथक् राष्ट्र के विचार का प्रवर्तक माना जाता है । सर्व इस्लाम की भावना से प्रेरित होकर इकबाल ने 1930 में लीग के इलाहाबाद् अधिवेशन में ' द्विराष्ट्र ' के सिद्धांत का प्रतिपादन किया ।
  • 1933 - 35 के बीच कैंब्रिज में पढ़ने वाले चौधरी रहमत अली नामक एक मुस्लिम छात्र ने ' पाकिस्तान ' शब्द को गढ़ । उनके परिकल्पित पाकिस्तान में पंजाब , अफगान प्रांत , कश्मीर , सिंध तथा बलूचिस्तान को शामिल होना था ।
  • इस प्रस्ताव की रूपरेखा तैयार करने में फजलुल हक तथा सिकंदर हयात खाँ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।
  • 23 मार्च , 1940 को मुस्लिम लीग का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में संपन्न हुआ । इस अधिवेशन में पाकिस्तान का प्रस्ताव औपचारिक रूप से पारित किया गया । इस अधिवेशन की अध्यक्षता जिन्ना ने की थी ।
  • पृथक पाकिस्तान की मांग को पहली बार आशिक मान्यता 1942 में क्रिप्स प्रस्तावों में मिली । प्रस्तावों में व्यवस्था थी कि ब्रिटिश भारत का कोई राज्य यदि भारतीय गणराज्य से अलग होना चाहे तो उसे आजादी मिलेगी । 21 मार्च , 1913 को लीग द्वारा ' पाकिस्तान दिवस मनाया गया ।
  • सरकार की ' बॉटो और राज करो ' की नीति ने पृथक पाकिस्तान की मांग को संरक्षण प्रदान किया ।

 

व्यक्तिगत सत्याग्रह ( 1940 )

  • अगस्त प्रस्तावों को पूरी तरह अस्वीकार करते हुए कांग्रेस ने व्यक्तिगत सत्याग्रह गांधी जी के नेतृत्व में शुरू करने का निर्णय लिया । यह सत्याग्रह ब्रिटिश सरकार की भारत नीति के प्रति नैतिक विरोध की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति थी ।
  • व्यक्तिगत सत्याग्रह की शुरूआत 17 अक्टूबर 1940 को हुई । प्रथम सत्याग्रही के रूप में महात्मा गांधी ने विनोवा भावे को मनोनीत किया । दूसरे सत्याग्रही पं० जवाहर लाल नेहरू थे ।
  •  दो चरण में चलने वाले व्यक्तिगत सत्याग्रह का दूसरा चरण 5 जनवरी 1941 को शुरू हुआ ।  इस सत्याग्रह में कुल करीब 25,000 सत्याग्रही जेल गये जिसमें कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और विधान मंडलों के सदस्य भी शामिल थे|

 

 क्रिप्स प्रस्ताव ( 1942 )

  •  द्वितीय महायुद्ध में मित्र राष्ट्रों की कमजोर हो रही स्थिति के कारण ब्रिटेन पर इस बात का दबाव बढ़ने लगा कि वह भारत की जनता के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करे । अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट, आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री ईवार तथा चीनी राष्ट्रपति च्यांग काई शेक ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल पर दबाव डाला की वह भारतीयों का युद्ध में सहयोग प्राप्त करने के लिए बात - चीत करे ।
  • रंगून ( वर्मा ) के पतन के तीन दिन बाद विंस्टन चर्चिल ने घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार भारत के राजनैतिक और वैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए युद्धकालीन मंत्रिमंडल के सदस्य स्टैफर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक मिशन भारत भेजेंगे । स्टेफर्ड क्रिप्स भारत के शुभचिंतकों तथा स्वतंत्रता के हामियों में एक थे , वे व्यक्तिगत रूप से समाजवादी थे और भारत के कई चोटी के नेताओं से उनके मैत्री सम्बन्ध थे ।

स्टैफर्ड क्रिप्स ने 22 मार्च , 1942 को भारत पहुंच कर एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसकी मुख्य शर्ते इस प्रकार थी-

 1 . युद्ध के बाद एक भारत को ' डोमेनियन स्टेट ' का दर्जा दिया जायेगा जो । किसी घरेलू या बाहरी सत्ता के अधीन नहीं होगा और यदि वह चाहेगा तो ब्रिटिश राष्ट्र मंडल से सम्बन्ध विच्छेद कर सकेगा ।

 2 . युद्ध के बाद एक संविधान निर्मात्री परिषद बनेगी जिसमें ब्रिटिश भारत और देशी रजवाड़ों , दोनों के प्रतिनिधि शामिल होंगे , जिसमें कुछ सदस्यों को प्रांतीय विधायिकाओं द्वारा तथा कुछ को शासकों द्वारा मनोनीत किया जाना था ।

 3 . ब्रिटिश , भारत का कोई भी प्रांत यदि नये संविधान को स्वीकार करना न चाहे तो उसे वर्तमान सांविधानिक स्थिति बनाये रखने का अधिकार होगा , नये संविधान को स्वीकार न करने वाले प्रांतों को सम्राट की सरकार अलग से एक नया संविधान देने को तैयार थी ।

 4 . युद्ध के दौरान एक कार्यकारी परिषद का गठन किया जायेगा जिसमें । भारतीय जनता के मुख्य - मुख्य वर्गों के प्रतिनिधि शामिल होंगे , लेकिन ब्रिटिश - भारत की सरकार के पास ही रक्षा मंत्रालय होगा ।

  • प्रतिक्रिया कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने क्रिप्स प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया । कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक ( 11अप्रैल ) में क्रिप्स प्रस्तावों के बारे में कहा गया कि ' भविष्य के वायदों से ही संतुष्टि नहीं चाहिए हमें तो वास्तविक स्वतंत्रता से ही संतुष्टि मिलेगी ।
  •  महात्मा गांधी ने क्रिप्स प्रस्तावों को उत्तर तिथीय चेक ' ( Post - Dated Cheque ) तथा किसी और ने ( सम्भवत : जवाहर लाल नेहरू ) इसमें ऐसे बैंक के नाम जो टूट रहा है ' जोड़ा ।
  • जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि उनके पुराने मित्र क्रिप्स ' शैतान के वकील ' बनकर आए थे और उनकी योजना के क्रियान्वयन का परिणाम देश के अनगिनत विभाजनों की संभावना के दरवाजे खेल देना होगा । '
  • मुस्लिमलीग ने इन प्रस्तावों की आलोचना इसलिए की क्योंकि इसमें साम्प्रदायिक आधार पर देश के विभाजन की मांग नहीं मानी गई थी 29 मार्च , 1942 को क्रिप्स प्रस्तावों की घोषणा हुई । 
  • 11 अप्रैल , 1942 को क्रिप्स प्रस्तावों को वापस ले लिया गया ।

 

 

भारत छोड़ो आंदोलन

महात्मा गांधीः

  • इन्होंने 1942 में साम्राज्यवादी सत्ता को समूल उखाड फेकने हेतु 1942 में यह आंदोलन प्रारंभ किया । ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अगस्त प्रस्ताव तथा क्रिप्स मिशन के द्वारा जो आश्वासन दिये थे , उनसे भारत का कोई भी वर्ग संतुष्ट न था । तत्पश्चात उपनिवेशी शासन की वास्तविक मंशा को भांपकर गांधी जी ने यह ऐतिहासिक आंदोलन प्रारंभ किया । उन्होंने बबई के गवालिया टैंक मैदान से अपने ऐतिहासिक उदबोधन में भारत के निवासियों से उपनिवेशी शासन को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया । यहीं उन्होंने ' करो या मरो ' का ऐतिहासिक नारा दिया ।
  • 9 अगस्त 1942 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । सरकार द्वारा आंदोलन के कार्यकर्ताओं के विरुद्ध दमनकारी नीतियों का सहारा लिये जाने के विरोध में फरवरी 1943 में उन्होंने 21 दिन का उपवास रखा ।

जय प्रकाश नारायणः

  • ये कांग्रेस समाजवादी दल के सदस्य थे तथा इन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई ।
  • राममनोहर लोहिया , अरुणा आसफ अली , सुचेता कृपलानी , छोटूभाई पुराणिक , बीजू पटनायक , आर . पी गोयनका एवं अच्युत पटवर्धन ये सभी आंदोलन की भूमिगत गतिविधियों से संलग्न राष्ट्रवादी नेता थे ।
  • इनकी क्रांतिकारी गतिविधियों ने आंदोलन में एक नया आयाम जोडा तथा बिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया ।

चित्तू पांडेः

  • ये स्वयं को गांधीवादी कहते थे । इन्होंने अगस्त 1942 में संयुक्त प्रांत के बलिया नामक स्थान में सभी पुलिस थानों एवं सरकारी भवनों पर कब्जा कर लिया तथा समानांतर सरकार की स्थापना की ।

उषा मेहताः

  • इन्होंने आंदोलन में सक्रियता से हिस्सेदारी निभायी । उषा मेहता उस दल की एक प्रमुख सदस्या थी , जिसने आंदोलन के दौरान गुप्त रेडिया ट्रांसमीटर केंद्र की स्थापना की है ।

 

जवाहर लाल नेहरूः

  • यद्यपि प्रारंभ में नेहरू ने गांधीवादी कार्यक्रम का विरोध कर रहे उदारवादियों का समर्थन किया , किंतु बाद में ये गांधीजी के कार्यक्रम का समर्थन करने लगे तथा 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो प्रस्ताव पास करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ।

 

सुमति मोरारजीः

  • इन्होंने अच्पयुत प्टवर्धन को उनकी भूमिगत गतिविधियों के संचालन में महत्वपूर्ण योगदान दिया । कालांतर में इनकी गणना भारत की प्रसिद्ध महिला उद्योगपतियों में की जाने लगी ।

 

रास बिहारी बोसः

  • ये एक प्रसिद्ध क्रांतिकारी नेता थे , जिन्हें जून 1942 में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग ( मार्च 1942 में स्थापित ) का अध्यक्ष चुना गया । इन्होंने कई वर्षों तक जापान में निर्वासित जीवन बिताया । दक्षिण - पूर्वी एशिया में ब्रिटिश सेनाओं की पराजय के पश्चात इन्होंने भारतीय युद्धबंदी सैनिकों को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह करने हेतु प्रेरित किया ।

 

कैप्टन मोहन सिंह: 

  • ये एक भारतीय सैनिक थे , जो द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन की ओर से युद्ध कर रहे थे । किंतु जापानी सेनाओं ने इन्हें बंदी बना लिया तथा जापानी सेना के अधिकारियों ने इन्हें भारत की आजादी के लिये जापानी सेना के साथ मिलकर कार्य करने का आदेश दिया ।
  • इन्हें आई . एन . ए . ( इंडियन नेशनल आर्मी ) का कमांडर नियुक्त किया गया ।

 

सुभाष चंद्र बोसः

  • इन्होंने 1943 में इंडियन नेशनल आर्मी की सदस्यता ग्रहण की । ‘ तम मुझे खून दो , मैं तुम्हें आजादी दूंगा ” नामक यह नारा सुभाषचंद्र बोस का एक बहुत महत्वपूर्ण नारा था , जिसने बाद के वर्षों में भारतीयों में राष्ट्रप्रेम की भावना का प्रसार किया । इनके नेतृत्व में आई . एन . ए ने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी तथा ब्रिटिश सत्ता को कड़ी चुनौती दी ।

 

सी . राजगोपालाचारी एवं भूलाभाई देसाईः

  • ये दोनों कट्टर उदारवादी थे , जिन्होंने मुस्लिम बहुल प्रांतों को मान्यता दिये जाने की वकालत थी । इनका तर्क था कि यदि भारत की आजादी के लिये ऐसा करना अपरिहार्य हो तो इसे मान लिया जाना चाहिए । जुलाई 1942 में इन दोनों नेताओं ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया ।

 

के . जी . मशरवालाः

  • इन्होंने महादेव देसाई की गिरफ्तारी के पश्चात हरिजन नामक पत्र में दो उत्तेजनात्मक लेख लिखे । इनका उद्देश्य भारतीयों की राष्ट्रप्रेम की भावनाओं को जागृत करना था ।

 

के . टी . भाश्यमः

  • ये बंगलौर के एक कांग्रेसी नेता थे , जिन्होंने कई औद्योगिक संघों के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा कई हड़तालों का आयोजन करने में सहायता की ।

 

सतीश सामंतः

  • ये स्थानीय कांग्रेसी नेता तथा तामलुक जातीय सरकार | के प्रथम सर्वाधिनायक थे । मिदनापुर के तामलुक सब - डिवीजन में विद्रोही राष्ट्रीय सरकार के गठन में इनकी प्रमुख भूमिका थी ।

 

नाना पाटिलः

इन्होंने सतारा में विद्रोहियों का नेतृत्व किया ।

 

मातंगिनी हाजराः

  • ये तामलुक की 73 वर्षीय वृद्ध कृषक विधवा थीं ।
  • 29 सितम्बर 1929 को सुताहाटा पुलिस स्टेशन पर आक्रमण के समय हिंसा में इनकी मृत्यु हो गयी ।
  • मातंगी ने गोली लगने के पश्चात भी तिरंगे झंडे को अपने हाथ से नहीं छोड़ा । 

 

लक्ष्मण नायकः

  • ये अशिक्षित ग्रामीण थे , जिन्होंने कोरापूत के जनजातीय तबके को जॅपोर जमींदारी के विरुद्ध विद्रोह करने हेतु संगठित किया ।
  • इनके नेतृत्व में प्रदर्शनकारियों ने पुलिस थाने पर आक्रमण किया  तथा तोड़ - फोड़ की ।
  • एक वन रक्षक की हत्या के आरोप में 16 नवंबर 1942 को लक्ष्मण नायक को फांसी पर चढ़ा दिया गया ।

 

 

अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस कमेटी की बैठक ग्वालिया टैंक , बंबई ( 8 अगस्त , 1942 ) 

  • इस बैठक में अंग्रेजों भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित किया गया तथा निम्नलिखित घोषणाएँ की गई -
    •  भारत में ब्रिटिश शासन को तुरंत समाप्त किया जाए ।
    • घोषणा की गई कि स्वतंत्र भारत सभी प्रकार की फासीवादी एवं साम्राज्यवादी शक्तियों से अपनी रक्षा स्वयं करेगा । 
    • अंग्रेजों की वापसी के पश्चात् कुछ समय के लिये अस्थायी सरकार की स्थापना की जाएगी ।
    •  ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असहयोग का समर्थन किया गया ।
    • गांधीजी को भारत छोड़ो आंदोलन का नेता घोषित किया गया । 

 

विभिन्न वर्गों को गांधीजी द्वारा निर्देश 

इन निर्देशों की घोषणा ग्वालिया टैंक में ही कर दी गई थी ।

  • सरकारी सेवक नौकरी न छोड़े परंतु , कॉन्ग्रेस के प्रति अपनी निष्ठा की घोषणा कर दें ।
  • सैनिक अपने देशवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर दें ।
  • छात्र पढ़ाई तभी छोड़े , जब आजादी हासिल होने तक अपने इस निर्णय पर अटल रह सकें ।
  • यदि कोई जमींदार सरकार विरोधी हो तो कृषक पारस्परिक हित के आधार पर तय किया गया लगान अदा करते रहें । किंतु , यदि कोई जमींदार सरकार समर्थक हो तो उसे लगान अदा करना बंद कर दें । राजा - महाराजा जनता को सहयोग करें तथा अपनी प्रजा की संप्रभुता स्वीकार करें ।
  • देशी रियासतों के लोग शासकों का सहयोग तभी करें जब वे सरकार विरोधी हों तथा सभी स्वयं को राष्ट्र का एक अंग घोषित करें ।
  • इसी अवसर पर गांधीजी ने लोगों से कहा था , “ एक छोटा सा मंत्र में आपको देता हैं जिसे आप अपने हृदय में अंकित कर सकते हैं और प्रत्येक साँस में व्यक्त कर सकते हैं ; यह मंत्र है - करो या मरो । अर्थात् , या तो हम भारत को आजाद कराएंगे या इस प्रयास में अपनी जान दे देंगे अपनी गुलामी का स्थायित्व देखने के लिये जिन्दा नहीं रहेंगे । "

 

आदोलन का प्रसार 

  • भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ( 9 अगस्त , 1942 ) गांधीजी तथा कॉन्ग्रेस के मुख्य नेताओं को ' आपरेशन जोरो आवर ' के तहत गिरफ्तार कर लिया गया । गांधीजी को गिरफ्तार कर आगा खाँ पैलेस में रखा गया । सरोजिनी नायडू तथा कस्तूरबा गाँधी को भी गिरफ्तार कर आगा खाँ पैलेस में रखा गया ।
  • कॉन्ग्रेस को गैर कानूनी घोषित कर उसकी सारी संपत्ति को जब्त कर लिया गया । साथ ही , कॉन्ग्रेस कार्यकारिणी के अन्य सदस्यों को गिरफ्तार कर अहमदनगर जेल में रखा गया ।
  • डॉ . राजेंद्र प्रसाद को पटना ( बाँकीपुर जेल ) में नजरबंद कर दिया गया । जय प्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर हज़ारीबाग सेंट्रल जेल में रखा गया , जो बाद में जेल की दीवार फांदकर फरार हो गए तथा ' आज़ाद दस्ता ' ( भूमिगत कार्रवाई ) नामक दल का गठन किया एवं भूमिगत होकर आंदोलन चलाते रहे ।
  • करो या मरो का नारा समूचे राष्ट्र में गूंज उठा , वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तारी के बाद जनता का आक्रोश बढ़ गया । जगह - जगह हिंसक कार्रवाइयाँ की जाने लगीं । अहमदाबाद , मद्रास , बंगलौर , सहारनपुर , आदि में मजदूरों की हड़तालों से कारखाने बंद हो गए , संचार साधनो को नष्ट कर दिया गया , रेलवे लाइन उखाड़ दी गई , बिजली के तार काट दिये गए , पुलिस स्टेशन , रेलवे स्टेशन , डाकखाने , सरकारी इमारतों में आग लगा दी गई ।
  • 1942 के आंदोलन का सबसे ज्यादा प्रभाव बंगाल , बिहार , संयुक्त प्रात , मद्रास और बंबई में था , लेकिन इसकी भागीदारी समूचे भारत में देखी गई ।
  • सितंबर 1942 के बाद बढ़ते हुये ब्रिटिश दमन के विरुद्ध यह आंदोलन भूमिगत हो गया । गिरफ्तारी से बचे नेता , जैसे - जय प्रकाश नारायण , राम मनोहर लोहिया , अच्युत पटवर्धन , अरुणा आसफ अली आदि ने भूमिगत रहते हुये आंदोलन का नेतृत्व किया और कॉन्ग्रेस की रणनीतिक कार्रवाइयों और महत्वपूर्ण सूचनाओं आदि का रेडियो प्रसारण के द्वारा संचालन किया ।
  • भूमिगत नेता जिसमें सुचेता कृपलानी , ऊषा मेहता , छोटू भाई पुराणिक , बीजू पटनायक , आर . पी . गोयनका भी शामिल थे , जो बम गोला बारूद जैसी सामग्री एकत्र कर गुप्त संगठनों में बाँटते थे ।
  • ध्यातव्य हो , रेडियो प्रसारण का कार्य सर्वप्रथम ऊषा मेहता ने प्रारंभ किया । आंदोलन के प्रति दमनात्मक कार्रवाई के विरुद्ध गांधीजी ने आगा खाँ पैलेस में 21 दिन ( फरवरी 1943 ) के उपवास की घोषणा कर दी । उपवास शुरू करते ही देश - विदेश से उन्हें रिहा करने की मांग तीव्र हो गई । राजभक्त एम . एस . एनी,एन . आर . सरकार और एच . पी . मोदी ने वायसराय की कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया ।
  • 7 मार्च , 1943 को गांधीजी ने अपनी भूख हड़ताल वापस ले ली । उनके खराब स्वास्थ्य के कारण सरकार ने 6 मई , 1944 को उन्हें कैद से रिहा कर दिया । ध्यातव्य है कि गांधीजी के जेल से रिहा होने के पूर्व ही उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी व निजी सचिव महादेव देसाई की मृत्यु हो चुकी थी ।
  • नोट : आमरण अनशन के कारण आगा खाँ पैलेस में कैद गांधीजी के स्वास्थ्य में जब तेजी से गिरावट आ रही थी तो चिकित्सकों के परामर्श पर विटिश सरकार द्वारा विचार किया गया था कि यदि गांधीजी मर जाते हैं तो बबई सरकार प्रांतीय सरकारों के पास ' रुबिकॉन ' कूट शब्द भेज देगी ।

 

समानांतर सरकार की स्थापना

  • बलिया में चित्तू पांडे के नेतृत्व में , सतारा में वाई . वी . चह्वान तथा नाना पाटिल के नेतृत्व में , समानांतर सरकार का गठन किया गया । यह सरकारें क्रमशः 1944 व 1945 तक चली ।
  • बंगाल के मेदिनीपुर जिले में तामलुक नामक स्थान पर तामलुक जातीय ( राष्ट्रीय ) सरकार की स्थापना की गई । यहाँ की सरकार ने सशस्त्र विद्युतवाहिनी का गठन किया । इसका अस्तित्व सितंबर 1944 तक रहा । इसके अलावा उड़ीसा के तलचर में भी कुछ समय तक समानांतर सरकार चली ।
  • सतारा की समानांतर सरकार सबसे लंबे समय तक अस्तित्व में रही ।
  • औंध रियासत के राजा ने ( जिसके राज्य का संविधान गांधीजी द्वारा तैयार किया गया था ) इस सब में काफी मदद की ।

 

आंदोलन में आम - जन की भागीदारी

 युवक :  मुख्य रूप से स्कूल एवं कॉलेज के छात्रों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी ।

 

महिलाएँ : स्कूल , कॉलेज की छात्राओं ने आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभायी । सुचेता कृपलानी , अरुणा आसफ अली तथा ऊषा मेहता के नाम इनमें प्रमुख हैं ।

 

किसानः पूरे आंदोलन में इनकी सक्रिय भागीदारी रही । बंगाल , बिहार , महाराष्ट्र , आंध्र प्रदेश , गुजरात , केरल तथा संयुक्त प्रांत किसानों की गतिविधियों के मुख्य केंद्र थे ।

 

सरकारी अधिकारी; विशेष रूप से प्रशासन एवं पुलिस के निचले तबके से संबद्ध अधिकारियों ने आंदोलन में सहयोग दिया , फलत : इस तबके के सरकारी अधिकारियों से सरकार का विश्वास समाप्त हो गया ।

 

कम्युनिस्टः यद्यपि इनका निर्णय आंदोलन का बहिष्कार करना था , फिर भी स्थानीय स्तर पर सैकड़ों कम्युनिस्टों ने आंदोलन में भाग लिया ।

 

देशी रियासतें : इनका सहयोग सामान्य था ।

 

मुस्लिम : इस आंदोलन में मुसलमानों का योगदान संदेहास्पद था , फिर भी मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों ने भूमिगत नेताओं को अपने घरों में पनाह दी ।

 

आज़ाद हिंद फौज व सुभाष चंद्र बोस

  • जनवरी 1941 में सुभाष चंद्र बोस अचानक गायब हो गए । वे कलकत्ता से पेशावर होते हुए रूस पहुँचे और फिर मार्च में बर्लिन । जर्मनी पहुँचकर उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिये हिटलर से मदद मांगी और फ्री इंडिया सेंटर ' की स्थापना की ।
  • आजाद हिंद फौज का विचार सबसे पहले मोहन सिंह के मन में आया , वे ब्रिटेन की भारतीय सेना के अधिकारी थे ।
  • 1 सितंबर , 1942 को आजाद हिंद फौज की पहली डिवीजन का गठन किया गया ।
  •  2 जुलाई , 1943 को सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर पहुँचे । इन्हें आजाद  हिंद फौज का सर्वोच्च सेनापति घोषित किया गया ।
  • 21 अक्तूबर , 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार की स्थापना की । जर्मनी , जापान तथा उनके समर्थक देशों ने इस सरकार को मान्यता भी दी ।
  • इस सरकार ने मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी ।
  • सुभाष चंद्र बोस ने रानी झाँसी रेजिमेंट के नाम से एक महिला रेजिमेंट भी बनाई । आजाद हिंद फौज के तीन अन्य ब्रिगेडों के नाम क्रमश : सुभाष ब्रिगेड , नेहरू ब्रिगेड तथा गांधी ब्रिगेड रखे गए ।
  • सुभाष चंद्र बोस ने दिल्ली चलो ' तथा ' तुम मुझे खून दो , मैं तम्हें आज़ादी दूंगा ' का नारा दिया ।
  • 6 जुलाई , 1944 को सुभाष चंद्र बोस ने रेडियो पर बोलते हुए गांधीजी को संबोधित किया “ भारत की स्वाधीनता का आखिरी युद्ध शुरू हो चुका है । राष्ट्रपिता ! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ चाहते हैं । " जापान की सेना द्वारा अंडमान और निकोबार द्वीप को सुभाष चंद्र बोस की सरकार को सौंप दिया गया । अंडमान का नाम ' शहीद द्वीप तथा निकोबार का नाम ' स्वराज द्वीप ' रखा गया ।
  • अप्रैल 1944 में भारतीय राष्ट्रीय सेना का झंडा मोइरांग ( मणिपुर ) में फहराया गया ।
  • 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही आजाद हिंद फौज के सिपाहियों को भी जापानी सेना के साथ आत्मसमर्पण करना पड़ा ।
  • सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर से जापान की ओर भागे । संभवत : वह ताइपेई हवाई अड्डे पर एक विमान दुर्घटना में 18 अगस्त , 1945 को मारे गए ।

     

सी आर फार्मूला (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी फार्मूला 10 जुलाई 1944)

  • चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जो मद्रास प्रांत के एक प्रभावशाली नेता थे कांग्रेस और मुस्लिम लीग के समझौते के पूर्ण पक्षधर थे
  • 10 जुलाई 1944 को गांधी जी की स्वीकृति से उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग समझौते की एक योजना प्रस्तुत की थी
  • चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य द्वारा जो योजना तैयार की गई थी वह भारत विभाजन की योजना थी इसे ही सी. आर. फार्मूला अथवा चक्रवर्ती राजगोपालाचारी फार्मूला के नाम से जाना जाता है इसके मुख्य प्रावधान निम्न थे

 

सी आर फार्मूला के मुख्य प्रावधान

  मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ मिलकर भारत के लिए पूर्ण  स्वतंत्रता की मांग करे व अस्थाई सरकार के गठन में कांग्रेस के साथ सहयोगी की भूमिका अदा करे
 द्वितीय विश्वयुद्ध के खत्म होने पर भारत के उत्तर पश्चिम व पूर्वी भागों में स्थित मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों की सीमा का निर्धारण करने के लिए एक कमीशन नियुक्त किया जाए ,फिर वयस्क मताधिकार प्रणाली के आधार पर इन क्षेत्रों के निवासियों की मतगणना करके भारत से उनके संबंध विच्छेद के प्रश्न का निर्णय किया जाए
 मतगणना के पूर्व सभी राजनीतिक दलों को अपने दृष्टिकोण के प्रचार की पूरी स्वतंत्रता हो
 देश विभाजन की स्थिति में रक्षा, व्यापार, संचार और दूसरे आवश्यक विषय के बारे में आपसी समझौते की व्यवस्था की जाए
 यदि ब्रिटिश सरकार द्वारा उनकी मांग मान ली जाती है तो मुस्लिम बहुल प्रांतों को मिलाकर अलग से एक मुस्लिम राज्य का निर्माण किया जाएगा , और रक्षा और वैदेशिक मामलों में दोनों राज्यों के बीच एक समझौता होगा

 उपर्युक्त सभी शर्तें तभी मानी जा सकती हैं जब ब्रिटेन भारत को पूर्ण रूप से स्वतंत्रता प्रदान करें

  •  
  • लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना ने सी. आर. फार्मूले को मानने से इनकार कर दिया
  •  मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि वह इस प्रकार के सड़े-गले और अंग कटे पाकिस्तान का निर्माण नहीं करना चाहता
  • जिसके फलस्वरुप सी आर फार्मूला अपने उद्देश्य की प्राप्ति में अ|सफल रहा

     

लाल किले का मुकदमा- नवंबर 1945

  • आजाद हिंद फौज की सफलता की बजाए देश के मुक्ति संघर्ष के मुकदमे के विरोध में होने वाले आंदोलन ने अधिक गति प्रदान की|
  • देशभक्त सैनिक व अधिकारियों  पर मुकदमा आरंभ होने से पहले ही उनके बचाव के लिए हलचल आरंभ हो गई थी|
  • आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार सैनिकों और सैनिक अधिकारियों पर अंग्रेज सरकार ने दिल्ली के लाल किले में नवंबर 1945 में मुकदमे चलाएं|
  • जिन सैनिक अधिकारियों पर देशद्रोह का अभियोग चलाया उनमें एक हिंदू,एक मुसलमान और एक सिक्ख था|
  • यह 3 सैनिक अधिकारी मेजर शहनवाज खाँ, कर्नल प्रेम सहगल और कर्नल गुरुदयाल सिंह ढिल्लो थे|
  • इन तीनों पर देशद्रोह के अभियोग की सुनवाई दिल्ली के लाल किले में सैनिक न्यायालय ने की थी|
  • उनके बचाव के पक्ष के रूप में कांग्रेस ने आजाद हिंद फौज बचाओ समिति का गठन किया जिसमें भूलाभाई देसाई के नेतृत्व में तेज बहादुर सप्रू ,कैलाश नाथ काटजू,अरुणा आसफ अली और जवाहरलाल नेहरु प्रमुख वकील थे|
  • इसी के साथ कांग्रेस ने इन तीनों की आर्थिक मदद और पुनर्वास हेतु आजाद हिंद फौज जाँच और राहत समिति का गठन किया था|

लाल किले के मुकदमे की प्रतिक्रियाएं

  • आंदोलन से जनता के जुड़ाव पर गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक ने टिप्पणी की थी शायद ही कोई मुद्दा हो दिन में भारतीय  जनता ने इतनी दिलचस्पी दिखाई हो और यह कहना गलत नहीं होगा कि जिसे इतनी व्यापक सहानभूति मिली हो|
  • आंदोलन में छात्र दुकानदारों से लेकर फिल्मी सितारों तक और जनता के सभी वर्गों ने किसी न किसी रूप में सहयोग किया|
  •  फंड एकत्र करना ,सभा करना, प्रदर्शन करना और आवश्यकता पड़ने पर पुलिस से टकराना, इस जन कार्रवाही के मुख्य भाग थे|
  • भारत के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस आंदोलन का साथ दिया यहां तक कि जिन जनसमूह को अभी तक ब्रिटिश राज्य का परंपरागत समर्थक माना जाता था यह भी इसमें शामिल थे|
  • मुस्लिम लेकिन अभी इस अभियोग की कड़ी निंदा की थी|
  • मसलन अपने को राज्य के प्रति वफादार मानने वाले सरकारी कर्मचारियों और सशस्त्र सेना के लोग-विपिनचंद्र स्वयं भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ ऑचीनलेक ने स्वीकार किया था कि अधिकारियों में शत-प्रतिशत की ओर सैनिकों में अधिकांश की सहानुभूति आजाद हिंद फौज के साथ है|

लाल किले के मुकदमे का फैसला

  • दिल्ली के लालकिले में चलाए गए मुकदमे में अधिकारियों को फांसी की सजा दी गई|
  • इस निर्णय के ख़िलाफ़ पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई|
  • नारे लगाए गए लालकिले को तोड़ दो आजाद हिंद फौज को छोड़ दो|
  • इसी के साथ जनता का आक्रोश सड़कों पर आ गया|
  • कलकत्ता में हड़ताल ,प्रदर्शन और पुलिस और सेना से मुठभेड़ में 40 लोग मारे गए 300 से अधिक लोग घायल हुए|
  • यह संघर्ष दिल्ली व मुदरै जैसे स्थानों पर भी हुए
  • इस आंदोलन के परिणाम दूरगामी थे
  • जिस प्रकार का व्यापक समर्थन इन तीनों अफसरों को मिला उससे यह स्पष्ट हो गया की समस्त भारत इन तीनों को राष्ट्रीय वीर मानता था न्यायालय ने उन्हें दोषी पाया|
  • लेकिन भारतीय लोगों की इन सब प्रतिक्रियाओं से विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने भारतीय लोगों की भावनाओं का सम्मान किया और अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्युदंड की सजा को माफ कर दिया गया|

    महत्व

  • भौगोलिक क्षेत्र की दृष्टि से भी यह आंदोलन अखिल भारतीय आंदोलन था|
  •  दिल्ली ,पंजाब, बंगाल सयुक्त प्रांत, बंबई और मद्रास को इस आंदोलन के मुख्य केंद्र थे ही इसके साथ-साथ असम और बलूचिस्तान जैसे क्षेत्रों में भी इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है|
  • इस आंदोलन से संसार में भी जनमत का माहौल बन गया था कि भारतीयों को आत्म निर्णय का अधिकार मिलना चाहिए|
  • इस आंदोलन से साम्राज्य शक्तियों को प्रकट हो गया कि उनके भारत को छोड़ने का समय आ रहा है|
  • मनोवैज्ञानिक रुप से आजाद हिंद फौज वीरों ने एक साहस का उदाहरण प्रस्तुत किया जिससे भारत का स्वतंत्रता प्राप्ति का संकल्प और भी दृढ हो गया|
  • सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्रता सेनानियों के प्रमुख थे जो की क्रांतिकारी थे
  • धीरे-धीरे चलने वाले राजनीतिक आंदोलन में इनका कोई विश्वास नहीं था|
  • इस प्रकार आजाद हिंद फौज और उसके संस्थापक सुभाष चंद्र बोस ने आगे स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक नए मार्ग का निर्माण किया|
  • 6 जुलाई 1944 को सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद रेडियो के एक प्रसारण में महात्मा गांधी के लिए राष्ट्रपिता शब्द प्रयोग किया था|

 

वेवल योजना तथा शिमला सम्मेलन ( 1945 )

  •  1 अक्टूबर , 1943 को लिनलिथगो की जगह लाई वेवल भारत के वायसराय बन कर आये । इस समय भारत की स्थिति अत्यधिक तनावपूर्ण थी । वेवल स्थिति को सामान्य बनाने की दिशा में प्रयास करते हुए सर्वप्रथम भारत छोड़ो आन्दोलन के समय गिरफ्तार कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को रिहा किया ।
  •  14 जून , 1945 को वेवल ने बेवल योजना प्रस्तुत की जिसकी प्रमुख बाते इस प्रकार थी -
    • केन्द्र में एक नई कार्यकारी परिषद का गठन हो जिसमें वायसराय तथा कमाण्डर इन चीफ के अलावा शेष सदस्य भारतीय हों ।
    • कार्यकारी परिषद एक अंतरिम व्यवस्था थी जिसे तब तक देश का शासन चलाना था जब तक की एक नये स्थायी संविधान पर आम सहमति नहीं हो जाती ।
  • वेवल प्रस्ताव पर विचार - विमर्श हेतु शिमला में 25 जून , 1945 को शिमला सम्मेलन का आयोजन किया गया । इसमें 21 भारतीय राजनीतिक नेताओं ने हिस्सा लिया । शिमला सम्मेलन में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप मौलाना अबुल कलाम आजाद , लीग के मुहम्मद अली जिन्ना ने हिस्सा लिया ।
  • सम्मेलन में जिन्ना द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव की वायसराय की कार्यकारिणी के सभी | मुस्लिम सदस्य लीग से ही लिये जाये क्योंकि मुस्लिम लीग ही मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था है , ही सम्मेलन की असफलता का कारण बना ।
  • जिन्ना के इस अनुचित और अप्रजातांत्रिक प्रस्ताव का कांग्रेस ने विरोध किया , वेवल ने 14 सदस्यों वाली वायसराय की कार्यकारी परिषद की नियुक्ति की । 14 सदस्यों वाली परिषद में 6 स्थान मुसलमान सदस्यों को मिले ।
  • भारत की कुल जनसंख्या में मुसलमान केवल 25 प्रतिशत थे इसके बावजूद भी लीग को संतुष्ट करने के लिए 14 में 6 सदस्य मुसलमानों में से चुने गये , फिर भी लीग ने इस योजना का विरोध किया , अन्ततः वेवल ने इस योजना को निरस्त कर दिया ।
  • अबुल कलाम आजाद ने शिमला सम्मेलन की असफलता को भरत के राजनीतिक इतिहास में एक ' जलविभाजक '  की संज्ञा दी । सम्मेलन में वेवल ने लीग को अधिक संतुष्ट करने की नीति का पालन कर मुसलमानों को एक ऐसी ' विटो शक्ति ' सौंप दी जिसका वह किसी भी संवैधानिक प्रस्तावों के विरूद्ध प्रयोग कर सकती थी । ' विटो का अधिकार ' जो मुस्लिम लीग को शिमला सम्मेलन में मिला वह यह था कि यदि मुसलमानों को किसी प्रस्ताव पर आपत्ति है तो ऐसे प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत से पारित होने पर ही स्वीकारे जायें ।गाँधी जी ने इस सम्मलेन में भग नहीं लिया यद्यपि  वे शिमला में उपस्थित रहे |

     

भारत मे कैबिनेट मिशन का आगमन

कैबिनेट मिशन क्लीमेंट एटली मंत्रिमण्डल द्वारा 1946 ई. में भारत भेजा गया था। इसका उद्देश्य भारतीय नेताओं से मिलकर उन्हें इस बात का विश्वास दिलाना था कि सरकार संवैधानिक मामले पर शीघ्र ही समझौता करने को उत्सुक है। लेकिन ब्रिटिश सरकार और भारतीय राजनीतिक नेताओं के बीच निर्णायक चरण 24 मार्च, 1946 ई. में आया, जब मंत्रिमण्डल के तीन सदस्य लॉर्ड पेथिक लॉरेंस (भारत सचिव), सर स्टैफ़र्ड क्रिप्स (अध्यक्ष, बोर्ड ऑफ़ ट्रेड) और ए.वी. अलेक्ज़ेण्डर (नौसेना मंत्री) भारत आए।

 

एटली की घोषणा

ब्रिटेन में 26 जुलाई, 1945 ई. को क्लीमेंट एटली के नेतृत्व में ब्रिटिश मंत्रिमण्डल ने सत्ता ग्रहण की। प्रधानमंत्री एटली ने 15 फ़रवरी, 1946 ई. को भारतीय संविधान सभा की स्थापना एवं तत्कालीन ज्वलन्त समस्याओं पर भारतीयों से विचार-विमर्श के लिए 'कैबिनेट मिशन' को भारत भेजने की घोषणा की। इस समय एटली ने कहा कि "ब्रिटिश सरकार भारत के पूर्ण स्वतन्त्रता के अधिकार को मान्यता प्रदान करती है तथा यह उसका अधिकार है कि ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत रहे या नही।" इसी घोषणा के दौरान एक वाद-विवाद में अपना विचार व्यक्त करते हुए एटली ने कहा कि "हम अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रति भली-भांति जागरुक हैं और चाहते हैं कि अल्पसंख्क बिना भय के रह सकें, परन्तु हम यह भी नहीं सहन करेंगे कि अल्पसंख्यक लोग बहुतसंख्यक लोगों की उन्नति में आड़े आयें।"

 

कांग्रेस द्वारा विभाजन का विरोध

एटली द्वारा भेजे गए इस मंत्रिमण्डल से कांग्रेस की ओर से बातचीत अबुल कलाम आज़ाद ने की। इस काम में जवाहर लाल नेहरू और वल्लभ भाई पटेल ने उनकी सहायता की। महात्मा गांधी से ये लोग सलाह लेते रहते थे। लेकिन इस मूल प्रश्न पर बातचीत में गतिरोध पैदा हो गया कि भारत की एकता बनी रहेगी अथवा मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग को पूरा करने के लिए देश का विभाजन होगा। कांग्रेस विभाजन का विरोध कर रही थी और विभि़न्न प्रांतों को जितनी भी अधिक-से-अधिक आर्थिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय स्वायत्तता दे सकना संभव था, देने को तैयार थी। शिमला में आयोजित एक सम्मेलन में कांग्रेस और लीग के मतभेद दूर नहीं हो सके।

 

मिशन की सिफारिशें

16 मई, 1946 ई. को इस मिशन ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। रिपोर्ट में कैबिनेट मिशन ने निम्नलिखित सिफारिशें की थीं-

 

  • एक भारतीय संघ स्थापित होगा, जिसमें देशी राज्य व ब्रिटिश भारत के प्रान्त सम्मिलित होंगे। यह संघ वैदेशिक, रक्षा तथा यातायात विभागों की व्यवस्था करेगा।
  • संघ में देशी राज्यों व ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों की एक कार्यपालिका होगी। किसी साम्प्रदायिक समस्या पर निर्णय करने के पूर्व यह आवश्यक होगा कि विधानमण्डल में दोनों मुख्य सम्प्रदायों के प्रतिनिधि अलग-अलग मत से उसका समर्थन करें।
  • संघ सूची के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों एवं अवशिष्ट विषयों पर प्रान्तों का अधिकार होगा।
  • भारतीय प्रान्तों को तीन वर्गों में विभाजित करने की योजना के अन्तर्गत वर्ग 'अ' में मद्रास, बम्बई, उत्तर प्रदेश, बिहार, संयुक्त प्रांत, वर्ग 'ब' में पंजाब, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रदेश और सिंध एवं वर्ग 'स' में बंगाल एवं असम शामिल होंगे। तीनों वर्गों के प्रान्तों को अपने-अपने प्रतिनिधि चुनने एवं अपने प्रांत के लिए संविधान बनाने का अधिकार होगा।
  • संविधान निर्माण के लिए एक 'संविधान सभा' के गठन की बात की गयी। संविधान सभा का चुनाव प्रान्तीय विधानसभाओं के सदस्यों से किया जाना था। इन सदस्यों को तीन वर्गों, सामान्य, मुस्लिम और सिक्ख में बांटने की योजना थी। यह चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर किया जाना था।
  • शिष्टमण्डल ने पाकिस्तान संबंधी मांग को स्वीकार नहीं किया।

मुस्लिम लीग की मांग

महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 'कैबिनेट मिशन योजना' को स्वीकार कर लिया, किंतु अन्तरिम सरकार की योजना का मुस्लिम लीग ने विरोध कियां। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग को पूरा करने के लिए प्रत्यक्ष कार्रवाई प्रारम्भ कर दी। 16 अगस्त, 1946 ई. को लीग ने सीधी कार्रवाई दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया। परिणामस्वरूप साम्प्रादायिक दंगे हुए। नेआखली दंगे का केन्द्र था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद- "16 अगस्त भारत के इतिहास में काला दिन है, क्योंकि इस दिन सामूहिक हिंसा ने कलकत्ता की महानगरी को रक्तपात, हत्या और भय की बाढ़ में डुबो दिया। सैकड़ों जानें गयीं, हज़ारों लोग घायल हुए और करोड़ों रुपये की सम्पत्ति नष्ट हुई।"

 

मिशन की असफलता

मुस्लिम लीग ने ऊपर से तो इस योजना को स्वीकार कर लिया, लेकिन यह स्वीकृति वास्तविक न होकर दिखावा मात्र थी। मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग कौंसिल में भाषण देते हुए कहा- "मैं आपको बता देना चाहता हूँ कि जब तक हम अपने सारे क्षेत्र को मिलाकर पूर्ण और प्रभुसत्ता सम्पन्न पाकिस्तान की स्थापना नहीं कर लेंगे, तब तक हम संतुष्ट होकर नहीं बैठेंगे।" लीग की इस विसंगति के कारण ही गाँधी जी और कांग्रेस में उनके साथी, 'प्रांतों के वर्गबंधन' की योजना के विषय में अशांत और आशंकित हो गए। लीग इस योजना को अनिवार्य करके इसे पाकिस्तान की स्थापना का साधन बनाना चाहती थी। इस बात पर मतभेद से कैबिनेट मिशन-योजना विफल हो गई। 29 जून, 1946 ई. को कैबिनेट मिशन इंग्लैण्ड वापस चला गया।

संविधान सभा के लिए चुनाव

कैबिनेट मिशन के बारे में गाँधी जी ने कहा कि "यह योजना उस समय की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सबसे उत्कृष्ट योजना थी, उसमें ऐसे बीज थे, जिससे दुःख की मारी भारत भूमि यातना से मुक्त हो सकती थी।" जुलाई, 1946 ई. में कैबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत संविधान सभा के लिए चुनाव हुआ। यह संविधान सभा प्रान्तीय विधानसभाओं द्वारा चुनी जानी थी, क्योंकि यदि वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनी जाती तो समय अधिक लगता। अतः संविधान सभा के 296 स्थानों के लिए चुनाव सम्पन्न हुआ। इस चुनाव में कांग्रेस ने 214 सामान्य स्थानों में से 201 स्थान प्राप्त कर लिये। साथ ही उसे चार सिक्ख सदस्यों का भी समर्थन प्राप्त हुआ। दूसरी ओर मुस्लिम लीग को 78 मुस्लिम स्थानों में से 73 स्थान मिले।

मुस्लिम लीग का विरोध

मुस्लिम लीग यह सोचकर बौखला गयी कि 296 सदस्यीय संविधान सभा में उसकी केवल 24 प्रतिशत सीटें ही हैं। अतः उसने 29 जून, 1946 ई. को कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर दिया। साथ ही लीग ने पाकिस्तान को प्राप्त करने के लिए प्रत्यक्ष कार्रवाई की धमकी भी दी। इस प्रकार लीग ने 16 अगस्त, 1946 ई. को 'प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस' के रूप में मनाया। इस दिन हुए ख़ूनी संघर्ष में बंगाल में लगभग 7,000 लोगों का कत्ल कर दिया गया। साथ ही बिहार, बंगाल में नोआखली, सिलहट, बम्बई, गढ़मुक्तेश्वर (उत्तर प्रदेश) आदि स्थानों पर भयानक साम्प्रदायिक दंगे हुए।

एटली की घोषणा (पुनः)

2 सितम्बर, 1946 ई. को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 12 सदस्यीय अन्तरिम सरकार ने शपथ ग्रहण की। वेवेल के अनुरोध पर मुस्लिम लीग के पाँच सदस्य अन्तरिम सरकार में शामिल हुए, किन्तु उनका रुख़ हठधर्मिता का रहा। इसलिए किसी समझौते पर अन्तिम निर्णय नहीं हो सका। ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने 20 फ़रवरी, 1947 ई. को दो महत्त्वपूर्ण घोषणाऐं कीं। प्रथम घोषणा में उसने कहा कि ब्रिटिश सरकार जून, 1948 ई. से पूर्व भारतीयों को सत्ता सौंप देंगी। इस घोषणा के बाद मुस्लिम लीग ने भारत के बंटवारे को लेकर आन्दोलन तेज कर दिया। उसे असम, पंजाब और पश्चिमी सीमा प्रात में ख़ूनी संघर्ष करवाया। एटली ने दूसरी घोषणा यह की कि लॉर्ड माउंटबेटन को वायसराय बनाकर भारत भेजा जाएगा।

 

 

2 सितम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरू और उनके सहकर्मियों ने वायसराय की काउंसिल के सदस्यों के रूप में शपथ ली। यह काउंसिल नेहरू के नेतृत्व में एक प्रकार से मंत्रिमंडल के रूप में काम करने लगी। नेहरू के नेतृत्व में काउंसिल के राष्ट्रसमर्थक कार्यों और कांग्रेस की शक्ति में वृद्धि को देखते हुये वायसराय लार्ड वैवेल ने घबराकर मुस्लिम लीग को काउंसिल में शामिल होने के लिये राजी कर लिया। मुस्लिम लीग को काउंसिल में शामिल करना इसलिये आपेक्षित था क्योंकि उसके बिना काउंसिल असंतुलित थी। मुस्लिम लीग ने अब भी संविधान सभा में शामिल होने से इनकार कर दिया था। लेकिन जवाहरलाल नेहरू को लार्ड वैवेल ने यह सूचना दी कि मुस्लिम लीग ने काउंसिल में शामिल होना स्वीकार कर लिया है।

वैवेल के इस कार्य से मंत्रिमंडल (काउंसिल) में असहयोग का वातावरण उत्पन्न हो गया और लीग द्वारा यह घोषणा कर दिये जाने पर कि उसने संविधान सभा में शामिल होने का कोई वायदा नहीं किया था, वैवेल के लिये असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गयी। 9 दिसम्बर, 1946 को मुस्लिम लीग के सदस्यों की अनुपस्थिति में ही डा. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन कर दिया गया। मुस्लिम लीग ने इस संविधान सभा का विरोध किया और पृथक पाकिस्तान की मांग को और अधिक प्रखर रूप में सामने रखा।

 

अंतरिम मंत्रिमंडल

 सदस्य                                     संबंधित विभाग 

जवाहरलाल नेहरू             राष्ट्रमंडल संबंध तथा विदेशी मामले 

सरदार वल्लभभाई पटेल     गृह , सूचना एवं प्रसारण 

बलदेव सिंह                        रक्षा 

जॉन मथाई                        उद्योग एवं नागरिक आपूर्ति 

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी     शिक्षा एवं कला 

सी . एच . भाभा                  कार्य , खान तथा ऊर्जा 

डॉ . राजेंद्र प्रसाद              खाद्य एवं कृषि 

आसफ अली                    रेलवे एवं परिवहन 

जगजीवन राम                  श्रम 

 

लीग के सदस्य           संबंधित विभाग

लियाकत अली खाँ              वित्त 

आई . आई . चुंदरीगर        वाणिज्य 

जोगेंद्रनाथ मंडल                विधि 

गजाँफर अली खान           स्वास्थ्य 

अब्दुर रब - निश्तर           डाक एवं वायु 

 

मुस्लिम लीग की गतिरोध उत्पन्न करने की मानसिकता तथा भविष्य की रणनीति

  • 9 दिसम्बर 1946 को आयोजित संविधान सभा की प्रथम बैठक में मुस्लिम लीग सम्मिलित नहीं हुयी। तत्पश्चात लीग की अनुपस्थिति में बैठक में जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार किये गये एक मसौदे को पारित किया गया, जिसमें “एक स्वतंत्र, पूर्ण प्रभुसत्तासंपन्न गणराज्य की स्थापना का आदर्श लक्ष्य था। जिसे स्वायत्तता, अल्पसंख्यकों को पर्याप्त संरक्षण देने का अधिकार तथा सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त होगी”।
  • मुस्लिम लीग ने मंत्रिमंडल द्वारा निर्णय लिये जाने के लिये आहूत की गयी अनौपचारिक बैठक में भी भाग नहीं लिया।
  • मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के सदस्यों द्वारा लिये गये निर्णय तथा नियुक्तियों पर सवाल उठाये। वित्तमंत्री के रूप में लियाकत अली खान मत्रिमंडल के अन्य मंत्रियों के कार्य में बाधक बन रहे थे।
  • मुस्लिम लीग का उद्देश्य किसी भी तरह पृथक पाकिस्तान का निर्माण करना था तथा उसकी समस्त गतिविधियां तथा निर्णय इसी भावना से ओत-प्रोत थीं। उसके लिये यह गृहयुद्ध जैसी प्रक्रिया थी। दूसरी ओर कांग्रेस ने सरकार से मांग की कि वह या तो मुस्लिम लीग को अंतरिम सरकार को सहयोग देने के लिये कहे या सरकार से अलग होने की कहे।
  • फरवरी 1947 में, मंत्रिमंडल के नौ कांग्रेस सदस्यों ने वायसराय को पत्र लिखकर मांग की कि वे लीग के सदस्यों को त्यागपत्र देने के लिये कहें अन्यथा वे मत्रिमंडल से अपना नामांकन वापस ले लेंगे। तत्पश्चात लीग द्वारा संविधान सभा को भंग करने की मांग से स्थिति और बिगड़ गयी। इस प्रकार गतिरोध सुलझने के स्थान पर और बढ़ता हुआ प्रतीत होने लगा।

 

प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस 16 अगस्त, 1946 

  • जुलाई 1946 में संविधान सभा के लिये हुये चुनावों में कांग्रेस को शानदार सफलता मिली। इससे मुस्लिम लीग भयभीत हो गयी तथा उसने कैबिनेट मिशन योजना को ठुकरा दिया। इतना ही नहीं जिन्ना ने ‘पाकिस्तान' प्राप्त करने के लिये ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही’ की धमकी दी तथा 16 अगस्त 1946 का दिन ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस' के रूप में मनाने का निश्चय किया। इस अशुभ दिन पर देश के अनेक स्थानों में भीषण साम्प्रदायिक दंगे हुये। अकेले कलकत्ता में 7 हजार से अधिक लोग सामूहिक कत्लेआम में मारे गये। नोआखाली, सिलहट, गढ़मुक्तेश्वर, त्रिपुरा, बिहार तथा अन्य स्थानों में भी भीषण सांप्रदायिक दंगे हुये जिनमें हजारों लोग मौत के घाट उतार दिये गये। 

 

 

सरकार ने भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने के लिये तिथि निधारित क्यों की-

  • सरकार को आशा थी कि सत्ता हस्तांतरण के लिये तिथि निर्धारित करने पर भारत के राजनीतिक दल मुख्य समस्या के समाधान हेतु सहमत हो जायेगें।
  • सरकार तत्कालीन संवैधानिक संकट को टालना चाहती थी।
  • सरकार इस बात को स्वीकार कर चुकी थी कि भारत से उसकी वापसी तथा भारतवासियों को सत्ता हस्तांतरण अपरिहार्य हो चुका है।

 

 

शाही नौसेना विद्रोह ( 18 - 23 फरवरी , 1946 )

  • रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह की शुरुआत 18 फरवरी को हुई , जब बंबई में नौसैनिक जहाज ' एच . एम . आई . एस . तलवार ' के 1100 नाविकों ने नस्लवादी भेदभाव और खराब भोजन के प्रतिवाद में हड़ताल कर दी । सैनिकों की मांग यह भी थी कि नाविक बी . सी . दत्त को ( जिसे  जहाज की दीवारों पर भारत छोड़ो लिखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया ) रिहा किया जाए । नौसेना के इस विद्रोह को बंबई , कराची के नाविकों का पूरा सहयोग मिला ।
  • इस नौसेना विद्रोह में इंकलाब जिंदाबाद , जय हिंद , हिंदू - मुस्लिम एक हो , ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद , आजाद हिंद फौज कैदियों को रिहा करो , आदि नारे लगाये गए । इस विद्रोह के समर्थन में बंबई में एक अभूतपूर्व हड़ताल का आयोजन किया गया । इसमें बड़ी संख्या मजदूरों ने हिस्सा लिया ।
  • उनके प्रदर्शनों में तीन झंडे एक साथ चलते थे - कॉन्ग्रेस का तिरंगा , लीग का हरा झंडा और बीच में कम्युनिस्ट पार्टी का लाल झंडा । इस देशव्यापी विस्फोट की स्थिति में वल्लभभाई पटेल ने हस्तक्षेप किया । पटेल व जिन्ना ने उन्हें आत्मसमर्पण की सलाह दी । विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण करते हुए कहा कि , “ हम भारत के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं, ब्रिटेन के सामने नहीं । "

     

माउंटबैटन योजना, 3 जून 1947

भारत विभाजन की ओर-

  • 1947 के प्रारंभ में साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहे देश तथा कांग्रेस एवं लीग के मध्य बढ़ते गतिरोध के कारण भारतीय राष्ट्रवादी विभाजन के उस दुखद एवं ऐतिहासिक निर्णय के संबंध में सोचने को विवश हो गये, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। इस दौरान सबसे महत्वपूर्ण मांग बंगाल एवं पंजाब के हिन्दू एवं सिख समुदाय की ओर से उठायी गयी। इसका प्रमुख कारण यह था कि यह समुदाय समूहीकरण की अनिवार्यता के कारण इस बात से चिंतित था उसे कहीं पाकिस्तान में सम्मिलित न होना पड़े। बंगाल में हिन्दू मह्रासभा ने पं. बंगाल के रूप में एक पृथक हिन्दू राज्य की अवधारणा प्रस्तुत की।
  • 10 मार्च, 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि वर्तमान समस्या के समाधान का सबसे सर्वोत्तम उपाय यह है कि कैबिनेट मिशन, पंजाब एवं बंगाल का विभाजन कर दे।
  • अप्रैल 1947 में भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष जे.बी. कृपलानी ने वायसराय को लिखा कि.“युद्ध से बेहतर यह है कि हम उनकी पाकिस्तान की मांग को मान लें। किन्तु यह तभी संभव होगा जब आप पंजाब और बंगाल का ईमानदारीपूर्वक विभाजन करें।”

 

माउंटबैटन वायसराय के रूप में-

  • लार्ड माउंटबैटन अपने पूर्ववर्ती वायसरायों की तुलना में निर्णय लेने में ज्यादा त्वरित एवं निर्णायक सिद्ध हुये क्योंकि उन्हें निर्णय लेने के ज्यादा एवं अनौपचारिक अधिकार प्रदान किये गये थे। साथ ही उन्हें ब्रिटिश सरकार के इस दृढ़ निर्णय से भी काफी सहायता मिली कि जितनी जल्दी हो सके भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित कर दी जाये।
  • उनका प्रमुख कार्य यह था कि अक्टूबर 1947 से पहले वे इस बात का पता लगायें कि भारत में एकता या विभाजन दोनों में से क्या होना है और इसके पश्चात उनका उत्तरदायित्व ब्रिटिश सरकार को इस बात से अवगत कराना है कि भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण किस प्रकार किया जायेगा तथा उसका स्वरूप क्या होगा? मांउटबैटन के आने से पूर्व ही भारतीय परिस्थितियां निर्णायक मोड़ लेने लगी थीं, इससे भी माउंटबैटन को परिस्थितियों को समझने तथा निर्णय लेने में मदद मिली।
  • कैबिनेट मिशन निष्फल प्रयास के रूप में सामने आया तथा जिन्ना इस बात पर दृढ़तापूर्वक अड़े हुये थे कि वे पाकिस्तान से कम कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे।

 

माउंटबैटन योजना, 3 जून 1947

लार्ड वैवेल के स्थान पर लार्ड माउंटबैटन के वायसराय बन कर आने के पूर्व ही भारत में विभाजन के साथ स्वतंत्रता का फार्मूला भारतीय नेताओं द्वारा लगभग स्वीकार के लिया गया था। 3 जून को माउंटबैटन ने भारत के विभाजन के साथ सत्ता हस्तांतरण की एक योजना प्रस्तुत की। इसे माउंटबैटन योजना के साथ ही 3 जून योजना के नाम से भी जाना जाता है।

 

मुख्य विन्दु

 माउंटबैटन योजना के मुख्य बिन्दु निम्नानुसार थे-

  • पंजाब और बंगाल में हिन्दू तथा मुसलमान बहुसंख्यक जिलों के प्रांतीय विधानसभा के सदस्यों की अलग बैठक बुलाई जाये और उसमें कोई भी पक्ष यदि प्रांत का विभाजन चाहेगा तो विभाजन कर दिया जायेगा।
  • विभाजन होने की दशा में दो डोमनियनों तथा दो संविधान सभाओं का निर्माण किया जायेगा।
  • सिंध इस संबंध में अपना निर्णय स्वयं लेगा।
  • उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत तथा असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह द्वारा यह पता लगाया जायेगा कि वे भारत के किस भाग के साथ रहना चाहते हैं।

 

योजना में कांग्रेस की भारत की एकता की मांग को अधिक से अधिक पूरा करने की कोशिश की गयी। जैसे-

  • भारतीय रजवाड़ों को स्वतंत्र रहने का विकल्प नहीं दिया जा सकता उन्हें या तो भारत में या पाकिस्तान में सम्मिलित होना होगा।
  • बंगाल को स्वतंत्रता देने से मना कर दिया गया।
  • हैदराबाद की पाकिस्तान में सम्मिलित होने की मांग को अस्वीकार कर दी गयी। (इस मांग के संबंध में माउंटबैटन ने कांग्रेस का पूर्ण समर्थन किया)।
  • 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान को डोमिनियन स्टेट्स के आधार पर सत्ता का हस्तांतरण हो जायेगा।
  • यदि विभाजन में गतिरोध उत्पन्न हुआ तो एक सीमा आयोग का गठन किया जायेगा।
  • माउंटबैटन योजना को कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने स्वीकार कर लिया तथा भारत का भारत एवं पाकिस्तान दो डोमिनियनों में विभाजन कर दिया गया। इस योजना से जहां मुस्लिम लीग की बहुप्रतीक्षित पाकिस्तान के निर्माण की मांग पूरी हो गयी, वहीं योजना में कांग्रेस की इस मांग का भी पूरा ध्यान रखा गया कि यथासंभव पाकिस्तान का भौगोलिक क्षेत्र छोटा से छोटा हो।

 

भारत ने डोमिनयन का दर्जा क्यों स्वीकार किया

लाहौर अधिवेशन (1929) की भावना के विरुद्ध कांग्रेस ने डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा स्वीकार किया क्योंकि-

  • इससे शांतिपूर्ण एवं त्वरित सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया सुनिश्चित हो गयी।
  • देश की तत्कालीन विस्फोटक परिस्थितियों को नियंत्रित करने के लिये आवश्यक था कि कांग्रेस जल्द से जल्द शासन की शक्तियां प्राप्त करे।
  • देश में प्रशासनिक एवं सैन्य ढांचे की निरंतरता को बनाये रखने के लिये भी यह अनिवार्य था।
  • भारत द्वारा डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा स्वीकार किये जाने से ब्रिटेन को उसे राष्ट्रमंडल में शामिल करने का अवसर मिल गया। इससे ब्रिटेन की यह चिर-प्रतीक्षित इच्छा पूरी हो गयी। यद्यपि भले ही यह अस्थायी था, परंतु ब्रिटेन को विश्वास था कि भारत के राष्ट्रमंडल में आ जाने से उसे आर्थिक सुदृढ़ता तथा रक्षात्मक शक्ति मिलेगी तथा भारत में उसके निवेश के नये द्वार खुलेंगे।

 

ब्रिटेन द्वारा सत्ता हस्तांतरण की तिथि (15 अगस्त 1947) समय से पूर्व ही तय कर लिये जाने का कारण

  • ब्रिटेन, डोमिनियन स्टेट्स के मुद्दे पर कांग्रेस की स्वीकृति चाहता था। इसके साथ ही वह उस समय हो रहे भीषण सांप्रदायिक दंगों की जिम्मेदारी से भी बचना चाहता था।
  • योजना यह थी कि जैसे ही डोमिनियन स्टेट्स के लिये कांग्रेस की स्वीकृति मिले, योजना को तुरंत बिना किसी विलंब के क्रियान्वित कर दिया जाये। इस योजना के अनुसार, सीमांत प्रांत में जनमत संग्रह द्वारा यह तय होना था कि वह भारत में शामिल होगा या पाकिस्तान में इसी प्रकार असम के मुस्लिम बहुसंख्यक सिल्हट जिले में भी जनमत संग्रह द्वारा यह निश्चित होना था कि वह भारत में सम्मिलित होगा या पूर्वी बंगाल में।
  • बंगाल और पंजाब की विधानसभाओं को दो भागों में, एक में मुस्लिम बहुसंख्यक प्रदेश के प्रतिनिधि तथा दूसरे में शेष अन्य प्रतिनिधियों को यह निश्चित करना था कि प्रांतों का विभाजन हो या नहीं। जैसी कि उम्मीद थी दोनों प्रांतों के हिंदू बहुसंख्यक प्रदेशों के प्रतिनिधियों ने यह निश्चय किया कि प्रांतों का विभाजन हो। पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल ने यह तय किया कि वे पाकिस्तान में सम्मिलित होंगे, जबकि पश्चिमी बंगाल और पूर्वी पंजाब ने यह तय किया कि वे भारत में सम्मिलित होंगे ।
  • सिल्हट और सीमांत प्रांत का जनमत संग्रह पाकिस्तान के पक्ष में गया। ब्लूचिस्तान एवं सिंध में जनमत ने भारी बहुमत से पाकिस्तान में सम्मिलित होने की इच्छा जतायी |  माउन्टबेटन ने भारत की आजादी के लिये ‘ डिक्री बर्ड प्लान' तैयार किया । यह योजना सर हेस्टिग्स , सर जॉर्ज एबेल एवं लॉर्ड माउंटबेटन को एक समिति द्वारा तैयार की गई थी । यह योजना दिल्ली में प्रांतीय गवर्नरों की असेंबली के सम्मुख हेस्टिग्स इस्मा द्वारा प्रस्तुत की गई इसलिये इसे ' इस्मा योजना ' भी कहा जाता है । इस योजना का विवरण माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू के सामने रखा था , जिसे उन्होंने तुरंत अस्वीकार कर दिया और बताया कि यह योजना भारत के 'बाल्कनीकरण ' को आमंत्रित करेगी और संघर्ष एवं हिंसा को भड़काएगी । अत : इस योजना का ' बाल्कन प्लान ' भी कहा जाता है । (बाल्कनीकरण एक भू-राजनीतिक उपकरण या पदनाम है जो मूल रूप से एक क्षेत्र या देश को अलग-अलग क्षेत्रों या देशों में बदलने के लिए उपयोग किया जाता था, अक्सर एक दूसरे के प्रतिकूल या शत्रुतापूर्ण अर्थ में। ऐसा उन देशों के साथ होता है, जो एक-साथ शांतिपूर्ण ढंग से रहने में असमर्थ होते हैं।)

 

 

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम ( 1947 )

माउंटबेटेन योजना के आधार पर ब्रिटिश संसद ने 18 जुलाई , 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 को पास किया । इस उपबन्ध द्वारा ही 15 अगस्त , 1947 को भारत का विभाजन हुआ ।

  अधिनियम की मुख्य बातें –

1 . 15 अगस्त , 1947 से भारत में भारत और पाकिस्तान नामक से डोमीनियन की स्थापना हो जायेगी ।

2 . भारत के राज्य क्षेत्र में उन क्षेत्रों को छोड़कर जो पाकिस्तान में सम्मिलित होंगे , ब्रिटिश भारत के सीती प्रान्त सम्मिलित होंगे ।

3 . पाकिस्तान के राज्य क्षेत्र में पूर्वी बंगाल , पश्चिमी पंजाब सिन्ध और उत्तर - पश्चिम सीमा प्रान्त सम्मिलित होंगे । पूर्वी बंगाल प्रान्त में असम का सिलहट जिला भी सम्मिलित होगा ।

 4 . देशी रजवाड़े दोनों में से भारत और पाकिस्तान किसी भी डोमेनियन (अधिराज्य) में सम्मिलित हो सकते हैं ।

 5 . प्रत्येक डोमेनियन के विधानमण्डल को अपने अधिराज्य के लिये कानून बनाने का पूरा अधिकार होगा । 15 अगस्त 1947 के बाद ब्रिटिश संसद द्वारा पारित कोई भी अधिनियम किसी भी डोमेनियन में वैध नहीं होगा ।

6 . दोनों डोमेनियनों तथा प्रान्तों का संचालन 1935 के अधिनियम के अनुसार ( जहां तक संभव हो सके ) उस समय तक चलाया जायगा जब तक कि सम्बन्धित संविधान सभा इसके लिए कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं कर लेती ।

  •  14 - 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि के समय भारत स्वतंन्त्र हो गया । आधी रात को दिल्ली में संविधान निर्मात्री सभा को संबोधित करते हुए अपने प्रभावशाली ऐतिहासिक भाषण में जवाहर लाल नेहरू ने कहा "वर्षों पूर्व हमने नियति के साथ जो वादा किया था अब वह समय आ गया है जबकि हम उस प्रतिज्ञा को सर्वांश में तो नहीं लेकिन अधिकांश में पूरा करेंगे । अर्ध रात्रि के समय जब सारी दुनिया सो रही होगी भारत में जीवन तथा स्वतंत्रता का स्वर्ण विहान होगा , इतिहास में कभी कभार ही वह क्षण आता है जब हम पुरातन युग से नूतन युग में प्रवेश करते हैं , जब एक युग का अन्त हो जाता है और जब दीर्घ काल से सोई हुई राष्ट्र की आत्मा जाग उठती है , यह उपयुक्त ही है कि इस अवसर पर हम भारत तथा भारत के लोगों की सेवा और यहां तक कि मानवता के अपेक्षाकृत अधिक बड़े उद्देश्य  के लिए समर्पण का प्रण लें । " 
  • 15 अगस्त 1947 को भारतीय इतिहास के एक कालखण्ड का अन्त हुआ दूसरे का आरम्भ 200 वर्षों की ब्रिटिश दासता के बाद भारत ने प्रथम बार मुक्ति का अहसास किया ।
  • लार्ड माउन्टबेटेन को स्वतन्त्र भारत का प्रथम ब्रिटिश गवर्नर जनरल नियुक्त किया तथा जवाहर लाल नेहरू को भारत का प्रधानमंत्री बनाया गया ।
  • 7 अगस्त 1947 को मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना करांची पहुंचे , पाकिस्तान की संविधान सभा द्वारा 11 अगस्त को अपनी पहली बैठक में जिन्ना को राष्ट्रपति चुना गया ।
  • 14 अगस्त 1947 को जिन्ना पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल बने ।
  • भारत की स्वतंत्रता के उपलक्ष्य में जहां देश के कुछ क्षेत्रों में उत्सव जैसा माहौल था वहीं कुछ क्षेत्रों में साम्प्रदायिक दंगे फैले हुए थे ।
  • मृत्युशैय्या पर पड़े रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने कभी ठीक ही कहा था कि अंग्रेज अवश्य ही भारत को छोड़ेंगे लेकिन कैसा भारत वो छोड़ेंगे कितना दुःख भरा ? जब सदियों पुरानी उनके शासन की धारा अन्त में सूख जायेगी तो वे अपने पीछे कितने दलदल और कितने कीचड़ छोड़ जायेंगे । ' '

  

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