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कांग्रेस की स्थापना

  • कांग्रेस के गठन से पूर्व देश में एक अखिल भारतीय संस्था के गठन की भूमिका तैयार हो चुकी थी। 19वीं शताब्दी के छठे दशक से ही राष्ट्रवादी राजनीतिक कार्यकर्ता एक अखिल भारतीय संगठन के निर्माण में प्रयासरत थे। किंतु इस विचार को मूर्त एवं व्यावहारिक रूप देने का श्रेय एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी ए.ओ. ह्यूम को प्राप्त हुआ।
  • ह्यूम ने 1883 में ही भारत के प्रमुख नेताओं से सम्पर्क स्थापित किया। इसी वर्ष अखिल भारतीय कांफ्रेंस का आयोजन किया गया। 1884 में उन्हीं के प्रयत्नों से एक संस्था ‘इंडियन नेशनल यूनियन' की स्थापना हुयी। इस यूनियन ने पूना में 1885 में राष्ट्र के विभिन्न प्रतिनिधियों का सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया और इस कार्य का उत्तरदायित्व भी ए.ओ. ह्यूम को सौंपा। लेकिन पूना में हैजा फैल जाने से उसी वर्ष यह सम्मेलन बंबई में आयोजित किया गया। सम्मेलन में भारत के सभी प्रमुख शहरों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, यहीं सर्वप्रथम अखिल भारतीय कांग्रेस का गठन किया गया। ए.ओ. ह्यूम के अतिरिक्त सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा आनंद मोहन बोस कांग्रेस के प्रमुख वास्तुविद  माने जाते हैं।
  • कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी ने की तथा इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसके पश्चात प्रतिवर्ष भारत के विभिन्न शहरों में इसका वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया जाता था। देश के प्रख्यात राष्ट्रवादी नेताओं ने कांग्रेस के प्रारंभिक चरण में इसकी अध्यक्षता की तथा उसे सुयोग्य नेतृत्व प्रदान किया। इनमें प्रमुख हैं- दादा भाई नौरोजी (तीन बार अध्यक्ष), बदरुद्दीन तैय्यब्जी, फिरोजशाह मेहता, पी. आनंद चालू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रोमेश चंद्र दत्त, आनंद मोहन बोस और गोपाल कृष्ण गोखले। कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेताओं में मदन मोहन मालवीय, जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर, सी. विजयराघवाचारी तथा दिनशा ई. वाचा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
  • कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रथम महिला स्नातक कादम्बिनी गांगुली  ने 1890 में प्रथम बार कांग्रेस को संबोधित किया। इस सम्बोधन का कांग्रेस के इतिहास में दूरगामी महत्व था क्योंकि इससे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में महिलाओं की सहभागिता परिलक्षित होती है।
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अतिरिक्त प्रांतीय सभाओं, संगठनों, समाचार पत्रों एवं साहित्य के माध्यम से भी राष्ट्रवादी गतिविधियां संचालित होती रहीं।

 

कांग्रेस की स्थापना एवं सेफ्टी वाल्व की अवधारणा

  • कहा जाता है कि ए.ओ. ह्यूम ने राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में जिन मुख्य लक्ष्यों को ध्यान में रखकर सहयोग दिया था उनमें सबसे प्रमुख था- अंग्रेजी शासन के विरुद्ध बढ़ते हुये जन असंतोष के लिये सुरक्षा कपाट (सेफ्टी वाल्व) की व्यवस्था करना। सरकारी अधिकारी के रूप में कार्य करते हुये ह्यूम को कुछ ऐसी सूचनायें प्राप्त हुयीं थीं कि शीघ्र ही राष्ट्रीय विद्रोह होने की सम्भावना है। यदि कांग्रेस का गठन हो जाए तो वह जनता की दबी हुई भावनाओं एवं उद्गारों को बाहर निकालने का अवसर प्रदान करने वाली संस्था सिद्ध होगी जो को किसी प्रकार की हानि होने से बचायेगी। इसीलिये ह्यूम ने भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन से अनुरोध किया कि वे कांग्रेस की स्थापना में किसी तरह की रुकावट पैदा न करें। हालांकि भारत के आधुनिक इतिहासकारों में 'सेफ्टी वाल्व' की अवधारणा को लेकर मतैक्य नहीं है। उनके अनुसार कांग्रेस की स्थापना भारतीयों में आयी राजनीतिक चेतना का परिणाम थी। वे किसी ऐसी राष्ट्रीय संस्था की स्थापना करना चाहते थे, जिसके द्वारा वे भारतीयों की राजनीतिक एवं आर्थिक मांगों को सरकार के सम्मुख रख सकें। यदि उन परिस्थितियों में भारतीय इस तरह  की कोई पहल करते तो निश्चय ही सरकार द्वारा इसका विरोध किया जाता या इसमें व्यवधान पैदा किया जाता तथा सरकार इसकी अनुमति नहीं देती। किंतु संयोगवश ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो गयीं जिनमें कांग्रेस की स्थापना हो गयी।
  • बिपिन चंद्र के अनुसार, 'ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना के लिए ये तड़ित चालक या उत्प्रेरक का कार्य किया। जिससे राष्ट्रवादियों को एक मंच में एकत्र होने एवं कांग्रेस का गठन करने में सहायता मिली और इसी से ‘सेफ्टी वाल्व' की अवधारणा का जन्म हुआ।'
  • कांग्रेस की स्थापना के पश्चात भारत का स्वतंत्रता आंदोलन लघु पैमाने एवं मंद गति से ही सही किन्तु एक संगठित रूप में प्रारंभ हुआ। यद्यपि कांग्रेस का आरंभ बहुत ही प्रारंभिक उद्देश्यों को लेकर किया गया था किंतु धीरे-धीरे उसके उद्देश्यों में परिवर्तन होता गया तथा शीघ्र ही वह राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवा बन गयी।            

 

कांग्रेस के उद्देश्य एवं कार्यक्रम

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्देश्य एवं कार्यक्रम इस प्रकार थे-

  • लोकतांत्रिक राष्ट्रवादी आंदोलन चलाना।
  • भारतीयों को राजनीतिक लक्ष्यों से परिचित कराना तथा राजनीतिक शिक्षा देना।
  • आंदोलन के लिये मुख्यालय की स्थापना।
  • देश के विभिन्न भागों के राजनीतिक नेताओं तथा कार्यकर्ताओं के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंधों की स्थापना को प्रोत्साहित करना।
  • उपनिवेशवादी विरोधी विचारधारा को प्रोत्साहन एवं समर्थन।
  • एक सामान्य आर्थिक एक राजनीतिक कार्यक्रम हेतु देशवासियों को एकमत करना।
  • लोगों को जाति, धर्म एवं प्रांतीयता की भावना से उठाकर उनमें एक राष्ट्रव्यापी अनुभव को जागृत करना।
  • भारतीय राष्ट्रवादी भावना को प्रोत्साहन एवं उसका प्रसार।

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