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हूणों का आक्रमण

  • हूण मध्य एशिया की एक असभ्य जंगली जाति थी। उनका निवास स्थान चीन के आसपास था। हूण मूलतः मंगोल जाति के थे और सिथियनों की एक शाखा थे।
  • आजीविका के साधनों की खोज में दूसरी शताब्दी ई0पू0 में हूण अपने मूल निवास स्थान को छोड़ते समय दो शाखाओं में बट गए-पहली शाखा ने वोल्गा नदी की ओर से यूरोप में प्रवेश किया और दूसरी शाखा आक्सस की घाटी में आ बसी। भारत में जो हूण आए, उनका संबंध इसी दूसरी शाखा से था।
  • आक्सस घाटी के हूणों ने ईरान में तत्कालीन शासक फिरोज को पराजित करने के बाद काबुल में कुषाण-राज्य को नष्ट किया। काबुल के आगे पश्चिमी दर्रां को पार करते हुए हूणों ने भारत पर आक्रमण करने शुरू किए। भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों को ‘एप्थेलिटीज’ या ‘सफेद हूण’ की संज्ञा दी जाती है।
  • गुप्त साम्राज्य के चरमोत्कर्ष के समय पांचवीं शताब्दी ई0 में उत्तर-पश्चिमी की ओर से हूणों ने भारत पर आक्रमण करना शुरू किया। हूणों ने सर्वप्रथम 458 ई0 में भारत पर आक्रमण किया। उस समय गुप्त साम्राज्य (उत्तरी भारत) का शासक स्कंदगुप्त था।
  • स्कंदगुप्त ने हूणों को पराजित कर उन्हें वापस जाने के लिए विवश कर दिया। इतिहासकारों द्वारा स्कंदगुप्त को एशिया अथवा यूरोप का ऐसा पहला शासक होने का श्रेय दिया जाता है, जिसने हूणों को पराजित किया।
  • 466-67 ई0 में तोरमाण के नेतृत्व में हूणों ने भारत पर दूसरी बार आक्रमण किया। इस बार भी हूणों को स्कंदगुप्त के हाथों पराजित होना पड़ा। 484 ई0 में हूणों ने पूर्ण शक्ति के साथ भारत पर आक्रमण किए। स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारी कमजोर थे और उनमें हूणों का प्रतिरोध करने की क्षमता नहीं थी। इसलिए, वे भारत के कुछ भू-भाग पर आधिपत्य स्थापित करने में सफल रहे।

 

तोरमाण

  • भारतीय क्षेत्र में हूणों का प्रवेश तोरमाण के नेतृत्व में हुआ। कल्हण ने अपनी ‘राजतरंगिणी’ में हूण शासक के रूप में तोरमाण और मिहिरकुल का उल्लेख किया है। इन दोनों से सम्बंधित, अनेक सिक्के तथा शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं।
  • तोरमाण ने पांचवीं शताब्दी के अंतिम दशकों छठी शताब्दी के आरंभ में भारत के कुछ भागों पर आधिपत्य स्थापित कर हूण सत्ता की स्थापना की। पंजाब पर विजय के बाद उसने पश्चिमी भारत के प्रदेशों पर विजय प्राप्त की।
  • सिक्कों तथा शिलालेखों से ज्ञात होता है कि राजपूताना, मालवा, उत्तर प्रदेश के अधिकांश हिस्से तथा मध्य प्रदेश में एरण तोरमाण के राज्य के अंग थे।
  • कल्हण की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर भी तोरमाण के राज्य का हिस्सा था। ऐसा माना जाता है कि तोरमाण विष्णु का उपासक था उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि ली थी।

 

मिहिरकुल

  • तोरमाण की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल अथवा मिहिरगुल हूणों के भारतीय राज्य का उत्तराधिकारी बना। अधिकांश इतिहासकारों की मान्यता है कि मिहिरकुल 515 ई0 में शासक बना, जबकि वी0ए0 स्मिथ का कहना है कि वह 502 ई0 में ही शासक बना।
  • मिहिरकुल के राज्य में अफगानिस्तान, पंजाब, राजपूताना तथा मालवा के प्रदेश थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार साकल (स्यालकोट) उसकी राजधानी थी। उसी के अनुसार मिहिरकुल बौद्धों का संहारक था। उसने अनेक बौद्ध  विहारों तथा स्तूपों का नाश किया। उसे ‘भारतीय एटिला’ कहा जाता है।
  • मिहिरकुल की मृत्यु के बाद भारत में हूणों का कोई भी उल्लेखनीय शासक नहीं हुआ। जब भारत में राजपूत शक्तियों का अभ्युदय हुआ, तब उन्होंने हूणों का विनाश कर दिया। भारत के बाहर हूणों की शक्ति को तुर्कां ने विनष्ट कर दिया। अंत में उन्होंने भारतीयों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए और राजपूतों के अंग बनगए।

 

हूण आक्रमण के प्रभाव

  • तोरमाण और मिहिरकुल जैसे शक्तिशाली शासकों के नेतृत्व के बावजूद हूण भारत में स्थायी राज्य स्थापित करने में असफल रहे। उनका अस्थायी राज्य भी उत्तर-पश्चिम भारत के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रहा। हूणों के आक्रमणों का भारतीय राजनीति और समाज पर बहुत ही व्यापक प्रभाव पड़ा।

 

राजनीतिक प्रभाव

  • हूणों के आक्रमण के सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव राजनीतिक क्षेत्र में दृष्टिगोचर होते हैं। उनके आक्रमणों ने विशाल गुप्त साम्राज्य के विघटन का मार्ग प्रशस्त किया। स्कंदगुप्त के जीवित रहने तक गुप्त साम्राज्य सुरक्षित रहा, परन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात हूणों ने गुप्तों को पराजित कर दिया और उनके साम्राज्य के एक हिस्से में अपना राज्य स्थापित कर लिया, जिससे गुप्तों का साम्राज्य विघटित हो गया।
  • हूणों के आक्रमण के बाद भारत में राजनीतिक एकता का सर्वथा अभाव दृष्टिगोचर होने लगा। गुप्तों ने सम्पूर्ण उत्तर भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया था और सुदृढ़ शासन व्यवस्था के माध्यम से राजनीतिक एकता का सूत्रपात किया था। परन्तु, हूणों द्वारा गुप्तों को पराजित करने के बाद शासन व्यवस्था कमजोर पड़ गई और अशांति एवं अव्यवस्था के कारण राजनीतिक एकता भी टूट गयी।
  • हूणों के आक्रमण के बाद भारतीय शासकों में तानाशाही प्रवृत्ति का विकास हुआ। इसके पूर्व शासक सभा, समितियों, मंत्रिपरिषद सामंत आदि जैसी संस्थाओं से विचार-विमर्श के साथ शासन कार्य करते थे, परन्तु बाद में वे तानाशाह हो गए।

 

धार्मिक प्रभाव

  • हूणों के आक्रमणों का भारतीय धार्मिक व्यवस्था पर भी गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। गुप्तों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई थी, जिसके कारण ब्राम्हण धर्म को राजकीय संरक्षण मिलने के बावजूद बौद्ध  धर्म एवं जैन धर्म का भी अबाध विकास होता रहा।
  • तोरमाण एवं मिहिरकुल ने भारत में सत्ता स्थापित करने के बाद हिंदू धर्म को तो अपनाया, लेकिन धार्मिक कट्टरता की नीति के तहत बौद्धों पर भीषण आक्रमण भी किए। मिहिरकुल ने तो बौद्ध  धर्मस्थलों-स्तूपों एवं विहारों के विनाश के साथ-साथ बौद्ध  अनुयायियों के कत्ल का रास्ता भी अपनाया। इससे उत्तर-पश्चिम भारत में बौद्ध  धर्म का विनाश हो गया।
  • हूणों के आक्रमण के परिणामस्वरूप भारतीयों की नैतिकता में पतन होने लगा। अपने आप को आर्य (पवित्र) मानने वाले भारतीय अपनी नैतिकता के कारण विश्व प्रसिद्ध, थे, परन्तु हूणों के आगमन और उनके साथ संबंध स्थापित कर लेने के कारण कट्टरता एवं हिंसा की भावना का विकास हुआ और नैतिकता का भी पतन होने लगा।

 

आर्थिक प्रभाव

  • गुप्तकाल में भारत आर्थिक दृष्टि से बहुत ही समृद्ध था। कृषि एवं पशुपालन के साथ-साथ वाणिज्य एवं व्यापार का भी बहुत विकास हुआ था। इस समय राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार उन्नत स्थिति में था।
  • सुदृढ़ शासन व्यवस्था के कारण समुचित राजस्व प्रणाली प्रचलन में थी, जिससे कृषि तथा कृषि से जुड़े विभिन्न व्यावसायियों की स्थिति भी अच्छी थी। परन्तु, हूणों के आक्रमणों के परिणामस्वरूप गुप्तों की साम्राज्य सीमा विघटित हो गई और शासन व्यवस्था भी चरमरा गई। इस कारण, कृषि वाणिज्य एवं व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और भारत आर्थिक दृष्टि से कमजोर हो गया।

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