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गुप्तकालीन शासन प्रणाली

        गुप्त सम्राटों द्वारा शासन प्रणाली की सफलता हेतु अनेक नवीन प्रयोग किए गए। इनके शासन प्रणाली की आधारशिला निम्नलिखित बिंदुओं पर टिकी थी-

(1)राज्यतंत्रात्मक शासन-प्रणाली

गुप्तशासन का स्वरूप राज्यतंत्रात्मक होने के कारण शासन की सर्वाच्च सत्ता का उपभोग सम्राट करता था। उसी के अधीन व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का उद्गम स्रोत होता था। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त राजधर्मानुसार शासन करता था तथा जनमत को ध्यान में रखकर ही राज्यसत्ता का उपभोग करता था। निष्कर्षतः गुप्तशासन राज्यतंत्रात्मक होते हुए भी जनहित और लोकरंजन के प्रति सतर्क सचेष्ट था।

(2)सामंतवाद

गुप्तों ने सामंतवादी पद्धति  का अनुसरण करने के साथ-साथ उसका विकास भी किया। सामंतों की आंतरिक नीति पर सम्राट का अंकुश नहीं होता था। परन्तु, सामंत समय-समय पर राज्य के वैभव तथा प्रभुता की सूचना सम्राट को देते थे।

(3)विकेंद्रीकृत सत्ता

 गुप्तकालीन शासन व्यवस्था विकेंद्रीकृत थी। समस्त साम्राज्य की शासन-व्यवस्था चार भागों में विभक्त थी-केंद्रीय शासन, प्रांतीय शासन, जिले का शासन और ग्रामीण शासन

केन्द्रीय शासन

  • इसके अन्तर्गत राजा अर्थात सम्राट का पद वंशानुगत था अपने सहयोग तथा सत्परामर्श के लिए सम्राट मंत्रिपरिषद का गठन करता था। मंत्रियों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी।
  • अभिलेखों में सचिव या मंत्री को राजा की तीसरी आंख कहा गया है।
  • मंत्रिपरिषद का प्रमुख कार्य सम्राट को परामर्श देना था। मंत्रिपरिषद की कार्यवाही को गोपनीय रखा जाता था।
  • केंद्रीय शासन के अन्तर्गत कई विभाग थे। गुप्तकालीन पदाधिकारियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

 

महाबलाधिकृत  यह साम्राज्य की सेना का सेनापति होता था।

महादण्डनायक   यह पद युद्ध तथा सैन्य सक्रियता से संबद्ध था।

महाप्रतिहार     इसका कार्य सम्राट के राज प्रसाद की देखरेख करना था।

महासंधिविग्रहक      यह पद युद्धोपरांत संधि से संबंधित था।

दण्डपाशिक      यह पुलिस विभाग का सर्वाच्च अधिकारी था।

भाण्डागाराधिकृत         यह राज्यकोष का प्रमुख होता था।

महापक्षपटलिक          यह लेखा विभाग का सर्वाच्च अधिकारी था।

विनयस्थिति संस्थापक     यह शिक्षा विभाग का अधिकारी था।

सर्वाध्यक्ष         यह समस्त केंद्रीय विभागों का निरीक्षण करता था।

महाश्वपति       यह अश्वारोही सेना का नियंत्रक था।

महामहीपीलपति        यह गज (हाथी) सेना का नियंत्रक तथा संचालक था।

विनयपुरुष        विभिन्न आगंतुकों को सम्राट के समक्ष प्रस्तुत करता था।

युक्तपुरूष       युद्धोपरान्त प्राप्त सामग्रियों का लेखा-जोखा रखता था।

खाद्यात्पाकिका   यह राजप्रसाद के रसोईघर तथा भोजनालय का निरीक्षक तथा                                    परीक्षक था।

 

 

प्रान्तीय शासन

गुप्त साम्राज्य को सीमाओं के विस्तार के कारण प्रान्तों में विभक्त किया गया था। प्रान्तों कोमुक्तिकहा जाता था प्रान्तीय शासक की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। उन्हें कई नाम दिए गये थे जैसे-उपरिकमहाराज’, गोप्त’, भोगिक’, भोगपतितथा राजस्थानीय शासकों के प्रमुख परामर्शदाता कोकुमारामात्यकहा जाता था। बाह्य आक्रमण से सुरक्षा तथा सैनिक कार्यवाही करने के लिए वे स्वतंत्र थे। अपने अधीनस्थ पदों की नियुक्ति  वे कर सकते थे।

जिले का शासन 

जिला स्तर पर एक जिला परिषद होती थी जिसे विषय परिषद जाता था। इसी प्रकार प्रत्येक नगर में एक नगर परिषद होती थी। नगर परिषद में निम्नलिखित पद थे-

  • नगर श्रेष्ठ - पूंजीगत वर्ग का नेता
  • सार्थवाह - ‘ विषय ' के व्यापारियों का नेता
  • प्रथम कुलिक - कारीगर समुदाय का प्रमुख
  • प्रथम कायस्थ - लिपिकों का प्रधान

ग्रामीण शासन

प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी , जिसका प्रशासन ग्राम सभा द्वारा चलाया जाता था । ग्राम सभा का कार्य ग्राम की सुरक्षा व्यवस्था करना , निर्माण कार्य करना तथा राजस्व एकत्रित करना था । ग्राम सभा को मध्य भारत में ' पंचमंडली ' तथा बिहार में ' ग्राम जनपद ' कहा जाता था । ग्राम प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी ग्रामिकी ( ग्रामपति ) या महत्तर होता था । उनकी सहायता के लिये एक ग्राम पंचायत होती थी , जो अपने अधिकार क्षेत्र में पूर्णत : स्वतंत्र होती थी ।

 

गुप्तकालीन न्याय व्यवस्था

  • गुप्तकाल में सम्राट ही न्यायाधिपति होता था।
  • गुप्त लेखों से ज्ञात होता है कि उस समय ‘दण्डनायक’, महादण्डनायक’, ‘सर्वदण्डनायक’ तथा ‘महासर्वदण्डनायक’ नामक न्यायाधीश होता था।
  • नारदस्मृति के अनुसार उस समय न्यायालय के चार वर्ग थे-1. राजा का न्यायालय, 2. पूग, 3. श्रेणी तथा 4. कुल।
  • इस काल में दण्ड का विधान अति कठोर था। अपराधियों को शारीरिक क्षति पहुंचाई जाती थी, जैसे उसका हाथ काट लिया जाता था।
  • प्राणदण्ड की भी व्यवस्था थी।
  • मद्यपान कर सार्वजनिक स्थानों पर विचरण करना निषिद्ध था।

 

सैन्य संगठन तथा पुलिस

  • साम्राज्य को सुरक्षित तथा अक्षुण्ण रखने एवं बाहरी आक्रमण से सुरक्षा के लिए सैन्य संगठन की व्यवस्था थी।
  • सेना के चार प्रमुख अंग थे-पदाति, रथारोही, अश्वारोही तथा गजसेना।
  • गजसेना के प्रमुख को ‘कटुक’ तथा अश्वारोही सेना के प्रमुख को ‘भटाश्वपति’ कहा जाता था।
  • साधारण सैनिकों को चाट कहा जाता था।
  • गुप्तकालीन राजस्व स्रोत
  • गुप्तकाल में राजकीय आय का प्रमुख साधन भूमिकर था। वस्तुओं पर चुंगीकर लिया जाता था।
  • वनों, चारागाहों, खानों, जलमार्गां, राजकीय मार्गां तथा बंजर भूमि पर राज्य का अधिकार था।
  • गुप्तकालीन अभिलेखों से निम्नलिखित प्रकार के कर ज्ञात होते हैं-उद्रंग, उपरिक, वट, भूत, धान्य, हिरण्य, अदेय, वैष्टिक, भोग तथा भाग।
  • विदेशी वस्तुओं पर ‘भूतावात प्रत्याय’ नामक कर लगाया जाता था। उपज का छठा भाग कर के रूप में लिया जाता था।

 

दास-प्रथा

  • गुप्तकाल में दास प्रथा भी प्रचलित थी
  • दास कई प्रकार के थे-क्रय किए गए दास, ऋणी दास, दास पुत्र, दण्डभागी दास, युद्ध बंदी दास, जुए में हारे हुए दास आदि।
  • ब्राम्हणों को दास नहीं बताया जाता था।
  • दास से विवाह करने वाली स्त्री दासी कहलाती थी, पर उससे उत्पन्न संतान दास नहीं होता था

 

स्त्रियों की स्थिति

  • गुप्त काल में स्त्रियों की दशा में पहले की अपेक्षा गिरावट आई। इसका प्रमुख कारण उपनयन संस्कार बंद होना, अल्पायु में विवाह होना, पर्दा प्रथा या सती प्रथा का प्रचलन आदि था।
  • इस काल में ‘देवदासी प्रथा’ का भी प्रचलन था। कालिदास के ग्रंथ ‘मेघदूत’ में उज्जैन के महाकाल मंदिर में देवदासी रखे जाने का उल्लेख मिलता है।
  • स्त्री शिक्षा का प्रचलन था। ‘अमरकोश’ में शिक्षिकाओं के लिए उपाध्याया, उपाध्यायीय और आचार्या शब्द आए हैं।
  • ‘कामसूत्र’ एवं ‘मुद्राराक्षस’ में गणिकाओं तथा वेश्याओं का वर्णन मिलता है। नारद एवं पराशर स्मृति में विधवा विवाह का समर्थन मिलता है।

 

आर्थिक स्थिति

  • कृषि प्रमुख व्यवसाय था। इसकी उन्नति के लिए वैज्ञानिक तरीके भी अपनाए गए थे।
  • कृषि के बाद आय का प्रमुख साधन व्यापार था।
  • विदेशों को निर्यात किए जाने वाली वस्तुओं में मसाले, औषधियां, मोती, हीरे, मलमल तथा ऊन आदि प्रमुख थे।
  • सोना, टिन, धागा, मूंगा, कपूर आदि का आयात किया जाता था।
  • बैंकिंग प्रणाली भी प्रचलित थी। ऋण और ब्याज के भी नियम थे।
  • वस्त्र उद्योग तथा उससे संबंधित गृहउद्योगों की प्रधानता थी।
  • राजकीय आय का प्रमुख स्रोत कृषि एवं भूमिकर था

वाणिज्य एवं व्यापार

  • वस्त्र उद्योग इस काल का सर्वप्रथम उद्योग था। ‘अमरकोश’ में कताई, बुनाई, हथकरघा, धागे इत्यादि का संदर्भ आया है।
  • इस काल में मिट्टी के बर्तन एवं मृण्मूतियां बनाने तथा पत्थर एवं धातु के सामान तेयार करने का उद्योग भी विकसित हुआ। ‘मेहरौली का लौह-स्तंभ’ गुप्तकालीन धातु निर्माण कला का सर्वात्कृष्ट उदाहरण माना जाता है।
  • शिल्पियों एवं व्यावसायियों के निगम,  श्रेणी तथा संघ होते थे। इस काल में नालंदा, वैशाली आदि स्थानों से श्रेणियों, सार्थवाहों, प्रथम कुलिकों आदि की मुहरें शिल्पियों की संगठनात्मक गतिविधियों को प्रदर्शित करती हैं।
  • मंदसौर अभिलेख में पट्टवाय श्रेणी तथा इंदौर लेख में तैलिक श्रेणी का उल्लेख आया है।
  • मंदसौर अभिलेख से यह पता चलता है कि रेशम बुनकरो की श्रेणी ने एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था।
  • वाणिज्यिक निकायों का उनके वास्तविक कार्य या स्वरूप के आधार पर विभाजन-
  • श्रेष्टि कुलिक निगम - श्रेष्टियों, शिल्पियों एवं श्रेणियों का केन्द्रीय निगम या संघ।
  • पूग - विभिन्न जातियों के व्यापारियों का समूह।
  • श्रेणी - एक ही जाति के व्यापारियों का समूह।
  • निगम - व्यापारियों की समिति को ‘निगम’ कहा जाता था। इसका प्रधान श्रेष्ठि होता था। ‘अमरकोश’ के अनुसार निगम ऐसे व्यापारियों का संगठन था जो एक ही नगर में रहकर व्यापार करते थे।
  • इस काल तक रोमन व्यापार का पतन हो चुका था, लेकिन दक्षिण-पूर्व एशिया एवं चीन के साथ व्यापार में वृद्धि हुई। ताम्रलिप्ति पूर्वी भारत का, जबकि भृगुकच्छ (भड़ौच) पश्चिमी भारत का प्रमुख बंदरगाह था।
  • इस काल में चीन से रेशम (चीनांशुक), इथियोपिया से हाथीदांत तथा अरब, ईरान एवं बैक्ट्रिया से घोड़ों का आयात किया जाता था।

 

धार्मिक स्थिति

  • इस काल में वैष्णव धर्म (भागवत धर्म) का काफी प्रचार प्रसार हुआ। वास्तव में वैष्णव धर्म हिंदू धर्म का ही रूप था।
  • गुप्तकाल में कई अश्वमेध यज्ञ हुए। मुख्यतः वैष्णव धर्म, शैव धर्म, शक्ति पूजा, सूर्यापासना की प्रधानता थी।
  • युद्ध देवता के रूप में कार्तिकेय की पूजा की जाती थी।
  • बौद्ध  धर्म में एक नए दर्शन ‘विज्ञानवाद’ का प्रादुर्भाव इसी समय हुआ।
  • जैनधर्म के प्रति लोगों की आस्था बढ़ी। लोग भूतप्रेतों में विश्वास करते थे। लोगों का पिशाच, ब्रम्हराक्षस तथा वैताल आदि में भी विश्वास था।
  • हिंदू देवी-देवताओं के अतिरिक्त जैन व बौद्ध  अनुयायी भी देश में बड़ी संख्या में विद्यमान थे। अतः बौद्ध  एवं जैन धर्मां का प्रचार-प्रसार भी हुआ।
  • इस काल में विष्णु के अतिरिक्त शिव, गंगा-यमुना, दुर्गा, सूर्य, नाग, यक्ष आदि देवताओं की भी उपासना होती थी। इस समय हिंदू धर्म के तीन महत्वपूर्ण पक्ष विकसित हुए-
  • मूर्ति उपासना का केन्द्र बन गई।
  • यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया।
  • वैष्णव तथा शैव धर्मां का समन्वय हुआ।
  • इस काल में महायान शाखा के अन्तर्गत बोधिसत्वों की प्रतिमाएं बनाई जाने लगीं।

प्राचीन काल में विभिन्न प्रकार के मत-मतांतर और दृष्टिकोण प्रचलित थे, परन्तु गुप्त काल में चलकर ये षड्दर्शन के रूप में स्थापित हो गए-

दर्शन

प्रवर्तक

सांख्य

कपिल

न्याय

अक्षपाद गौतम

योग

पतंजलि

वैशेषिक

कणाद या उलूक

पूर्व मीमांसा

जैमिनी, प्रमुख आचार्य-शबरस्वामी

उत्तर मीमांसा या वेदांत

वादरायण, प्रमुख आचार्य-गौणपाद

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