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 गुप्त काल के प्रमुख शासक 

श्रीगुप्त

  •  गुप्तवंश के अभिलेखों में ‘महाराज श्रीगुप्त’ को गुप्तों का आदिपुरूष कहा गया है।
  • गुप्त वंश का संस्थापक श्रीगुप्त था, जिसने ‘महाराज’ की उपाधि धारण की थी।
  • महाराज सामंतों की उपाधि होती थी जिससे पता चलता है वह वह किसी शासक के अधीन शासन करते थे।
  • इस्सिंग के विवरण के अनुसर उसने मगध में एक मंदिर का निर्माण करवाया तथा मंदिर के खर्च के लिए 24 ग्राम दान में दिये थे।
  • श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र ‘घटोत्कच गुप्त वंश का शासक बना।
  • स्कंदगुप्त के सुपिया के लेख (रीवा, मध्य प्रदेश) में भी गुप्तों की वंशावली घटोत्कच के समय से ही प्रारंभ मानी जाती है। अतः इससे ज्ञात होता है कि गुप्तों का राजनैतिक इतिहास घटोत्कच के समय से ही प्रारंभ हुआ।

चंद्रगुप्त प्रथम (319-350 ई0)

  • प्रारंभिक गुप्त शासकों में चंद्रगुप्त प्रथम सर्वाधिक शक्तिशाली था।
  • वह महाराज घटोत्कच का पुत्र और गुप्तवंश का तीसरा शासक था।
  • इसके काल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना रही लिच्छवियों के साथ वैवाहिक संबंधों की शुरूआत। इससे चंद्रगुप्त की दूरदर्शिता साबित होती है।
  • लिच्छवियों के साथ सहयोग और संबंध बढ़ाने के लिए उसने उनकी राजकुमारी कुमारदेवी से अपना विवाह किया।
  • इसकी पुष्टि गुप्तवंशीय अभिलेखों तथा स्वर्ण सिक्कों से होती है, जिस पर चंद्रगुप्त प्रथम तथा कुमारदेवी के चित्र अंकित हैं।
  • पुराणों के अनुसार चंद्रगुप्त का राज्य-विस्तार पूर्वी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी पश्चिमी बिहार एवं साकेत तक था। किन्तु इसके स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते हैं।
  • चंद्रगुप्त प्रथम को एक नये संवत् के प्रवर्तन का श्रेय प्राप्त है जिसे परवर्ती लेखों में गुप्त-संवत् की संज्ञा दी गई है।
  • फ्लीट की गणना के अनुसार संवत् का प्रारंभ 319-20 ई0 में किया गया था।
  • चंद्रगुप्त प्रथम ने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि ग्रहण की और लिच्छवी राज्य की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिच्छवियों की सहायता से अपनी शक्ति बढ़ाई। इसकी पुष्टि दो प्रमाणों से होती है-
  • स्वर्ण सिक्के, जिसमें ‘चंद्रगुप्त कुमारदेवी प्रकार’, ‘लिच्छवी प्रकार’, ‘राजा-रानी प्रकार’, ‘विवाह प्रकार’ आदि हैं।
  • दूसरा प्रमाण समुद्रगुप्त का प्रयाग अभिलेख हैं, जिसमें उसे ‘लिच्छवी दौहित्र’ कहा गया है।
  • लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर चंद्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राजय प्राप्त किया। उसने अपने स्वर्ण सिक्के पर अपना और कुमारदेवी का नाम खुदवाया। इन सिक्कों के पृष्ठ भारत पर लिच्छावयः (लिच्छवी) उत्कीर्ण है।
  • गुप्त वंश के शासकों में चंद्रगुप्त प्रथम पहला शासक था, जिसने चांदी के सिक्के चलाए।
  • गुप्त संवत् (319-20 ई0) तथा शक संवत् (78 ई0) के बीच 241 वर्षां का अन्तर था।
  • समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी बनाने के बाद चंद्रगुप्त प्रथम ने संन्याय ग्रहण कर लिया।

समुद्रगुप्त (350-375 ई0)

  • समुद्रगुप्त चंद्रगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी पुत्र था। उसके बारे में जानकारी प्राप्त करने का स्रोत उसकी स्वरचित प्रयाग प्रशस्ति है, जिसे ‘इलाहाबाद स्तंभलेख’ भी कहते हैं।

प्रयाग प्रशस्ति के आधार पर समुद्रगुप्त की विजयों को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है-

आर्यावर्त का विजय अभियान

इस प्रथम विजय अभियान के दौरान समुद्रगुप्त ने तीन प्रमुख शक्तियों-अच्युत (बरेली, उत्तरप्रदेश ), नागसेन (ग्वालियर), कोतकुलज आदि को पराजित किया। यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि समुद्रगुप्त ने इन राजाओं को एक ही युद्ध में पराजित किया अथ्वा अलग-अलग युद्धों में |

दक्षिणापथ का विजय अभियान

इस द्वितीय विजय अभियान के दौरान समुद्रगुप्त ने जिन राजाओं को पराजित कर बंदी बना लिया, वे हैं-कोसल के राजा महेंद्र, महाकांतार के राजा व्याघ्रराज, कौराल के राजा मण्टराज, पिस्टपुर के राजा महेंद्रगिरि, कुट्टूर के राजा स्वामीदत्त, एरण्डपल्ल के राजा दमन, कांची के राजा विष्णुगोप, अवमुक्त के राजा नीलराज, वेंगी के राजा हस्तिवर्मा, पालक्कनरेश उग्रसेन, देवराष्ट्र के राजा कुबेर तथा कुस्थलपुर के राजा धनंजय। इस उल्लेख से पूर्णतया स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत के करीब 12 राजाओं को परास्त किया था।

आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध

दक्षिणापथ विजय के बाद समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में एक और युद्ध किया, जिसे आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध कहा गया। पहले युद्ध के दौरान समुद्रगुप्त ने सिर्फ उन्हें परास्त किया था, लेकिन आर्यावर्त के दूसरे युद्ध में उसने उत्तर भारत के राजाओं का उन्मूलन कर दिया। प्रयाग प्रशस्ति की 21वीं पंक्ति में 9 राजाओं का उल्लेख किया गया है। वे हैं-रूद्रदेव, मत्तिल, नागदत्त, चंद्रवर्मा, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नंदि और बलवर्मा।

आटविक राज्य की विजय

प्रयाग प्रशस्ति की 21वीं पंक्ति के अनुसार समुद्रगुप्त ने आटविक राज्यों को अपना सेवक बना लिया। फ्लीट के मततानुसार उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले से लेकर मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले के वन-प्रदेश तक आटविक राज्य फैले हुए थे। उत्तर तथा दक्षिण भारत के बीच यातायात को सुगम एवं अवरोधमुक्त करने के लिए आटविक राज्यों को नियंत्रण में रखना आवश्यक था।

प्रत्यंत या सीमावर्ती राज्यों की विजय

प्रयाग प्रशस्ति की 24वीं एवं 25वीं पंक्ति में 5 राज्यतंत्रात्मक प्रत्यंत राज्यों का वर्णन मिलता है, जो इस प्रकार हैं-समतट राज्य, डवाक, कामरूप, नेपाल और कर्तृपुर। इन राज्यों के राजाओं ने समुद्रगुप्त के प्रभाव को देखते हुए स्वयं ही आत्मसमर्पण कर दिया।

समुद्रगुप्त की विजय नीतियां

  • राज्य प्रसभोद्धरण की नीति-  मगध के आसपास के राज्यों को पराजित कर उन्हें अपने राज्य में मिला लिया।
  • सर्वकरदानाज्ञाकरण की नीति-   यह  नीति सीमांत क्षेत्रों के लिए थी।
  • परिचारिकीकृत नीति -  आटविक (जनजातीय) राज्यों को सेवक बनाने की नीति।
  • ग्रहणमोक्षानुग्रह-   भारत के 12 राजाओं के संघ को पराजित कर उन्हें पुनः उनके राज्य सौंप दिये।
  • कन्योपायन-   विदेशियों को पराजित कर उनके साथ वैवाहिक संबंधों की नीति।

समुद्रगुप्त की मुद्राएं

  • समुद्रगुप्त की हमें कुल छः मुद्राएं प्राप्त होती हैं। मुद्राएं उसके जीवन एवं कार्यां पर सुंदर प्रकाश डालती हैं।
  •   गरूड़ प्रकार की मुद्राएं समुद्रगुप्त की नागवंशी राजाओं पर विजय का साक्ष्य प्रदान करती हैं। इन मुद्राओं में समुद्रगुप्त को सैकड़ों युद्धों को जीतने वाला बताया गया है। मुद्रा के पृष्ठभाग पर सिंहासनासीन देवी के साथ-साथ ‘पराक्रमः’ शब्द अंकित है।
  • धनुर्धारी प्रकार इसके पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ उसकी उपाधि अप्रतिरथः अंकित है। मुद्रा के मुख भाग पर राजा धनुष-बाण लिये खड़ा हुआ है।
  • परशु प्रकार इसमें राजा परशु धारण किये हुए है तथा उसकी उपाधि ‘कृतांत (यम) परशु’ अंकित है।
  • अश्वमेध प्रकार इस प्रकार के सिक्के समुद्रगुप्त द्वारा किये गए अश्वमेध यज्ञों का प्रमाण है। इनकी मुद्रा पर यज्ञ रूप में बंधे हुए घोड़े का चित्र तथा मुद्रालेख-‘राजाधिराज’ पृथ्वी को जीतकर तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर स्वर्गलोक की विजय करता है, उत्कीर्ण है।
  • व्याघ्रहनन प्रकार इसमें समुद्रगुप्त को व्याघ्र का आखेट करते हुए दिखाया गया है। पृष्ठ भाग पर गंगा घाटी की विजय के रूप में ‘मकरवाहिनी गंगा’ तथा ‘राजा समुद्रगुप्त’ उत्कीर्ण है।
  • वीणावादन प्रकार इसमें समुद्रगुप्त के संगीत प्रेमी होने का साक्ष्य मिलता है। इसमें समुद्रगुप्त को वीणा बजाते हुए दिखाया गया है।

समुद्रगुप्त की अन्य विशेषताएं

समुद्रगुप्त विजेता के साथ-साथ कवि, संगीतज्ञ तथा विद्या का संरक्षक था। उसके सिक्कों पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है तथा ‘कविराज’ की उपाधि प्रदान की गई है।

  • समुद्रगुप्त ने व्याघ्रपराक्रमांक, अप्रतिरथ, पराक्रमांक आदि उपाधियां धारण की जो उसके सिक्कों पर मुद्रित मिलती हैं।
  • उसने प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु वसुबंधु को संरक्षण दिया था।
  • समुद्रगुप्त से श्रीलंका के शासक मेघवर्ण ने गया में एक बौद्ध मठ बनाने की अनुमति मांगी थी, जिसकी अनुमति दे दी गई थी। जो कालांतर में विशाल बौद्ध  विहार के रूप में विकसित हुआ।
  • ताम्रपत्र में समुद्रगुप्त को ‘परमभागवत’ की उपाधि मिली है।
  • समुद्रगुप्त की दक्षिणापथ विजय को रायचौधरी ने ‘धर्मविजय’ की संज्ञा प्रदान की है।
  • विन्सेंट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा है।
  • इलाहाबाद के स्तंभ लेख में समुद्रगुप्त के लिए ‘धर्म प्रचार बंधु’ उपाधि का उल्लेख मिलता है।

चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (375-415 ई.)

  • समुद्रगुप्त के पश्चात गुप्तवंशावली में चंद्रगुप्त द्वितीय का नाम उल्लिखित है परन्तु दोनों शासकों के बीच रामगुप्त नामक एक दुर्बल शासक के अस्तित्व का भी पता चलता है।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चोटी पर पहुंचा। उसने वैवाहिक संबंध और  विजय  दोनों तरह से साम्राज्य की सीमा का विस्तार किया।
  • विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्त नामक नाटक में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से पूर्व रामगुप्त का गुप्त शासक के रूप में वर्णन किया गया है।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम-देवगुप्त, देवराज, देवश्री तथा उपाधियां-विक्रमांक, विक्रमादित्य, परमभागवत आदि थी।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शक मुद्राओं के ही अनुकरण पर चांदी के सिक्के उत्कीर्ण करवाये। पश्चिमी शक विजय के फलस्वरूप ही उसने व्याघ्र सिक्के उत्कीर्ण कराये तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।
  • भारतीय अनुश्रुतियां उसे शकारि के रूप में स्मरण करती है। चन्द्रगुप्त द्वितीय की दिग्विजयों का उल्लेख उसके उदयगिरि गुहालेख से होता है।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में पाटलिपुत्र एवं उज्जैयिनी विद्या के प्रमुमख केन्द्र थे। उज्जैयिनी उसकी दूसरी राजधानी भी थी।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन का स्मरण लड़ाइयों के कारण नहीं, बल्कि कला और साहित्य के प्रति उसके अगाध अनुराग के कारण करते हैं।
  • अनुश्रुतियों के अनुसार उसके दरबार में नौ विद्वानों की एक मण्डली निवास करती थी जिसे नवरत्न कहा गया है। इनमें कालिदास, धनवन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररूचि जैसे जैसे विद्वान थे।
  • उसके शासन काल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था। उसने अपने यात्रा वृत्तान्त में मध्य प्रदेश को ब्राम्हणों का देश कहा है।
  • पाटलिपुत्र से ही फाह्यान ने वापसी यात्रा आरंभ की। अपनी पूरी यात्रा विवरण में वह कहीं भी सम्राट का नामोल्लेख नहीं करता
  • चंद्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राम्हण धर्म के चरमोत्कर्ष का काल था।

कुमारगुप्त प्रथम (415 0 से 455 ई0)

  • कुमारगुप्त प्रथम ने चंद्रगुप्त द्वितीय के बाद 40 वर्षां तक सफलतापूर्वक शासन किया। उसने अपने शासनकाल के दौरान पुष्यमित्र को पराजित किया तथा अश्वमेघ यज्ञ भी करवाए। स्कंदगुप्त ‘विक्रमादित्य (455 ई0 से 467 ई0) स्कदंगुप्त के शासनारूढ़ होते ही गुप्तवंश पर विपत्ति के बादल मंडराने लगे। उसके साम्राज्य पर कई आक्रमण हुए।
  • पुष्यमित्रों और हूणों ने बारी-बारी गुप्तों पर आक्रमण किया। यद्यपि स्कंदगुप्त ने उन पर विजय प्राप्त कर ली तथापि कुछ राज्यों एवं वाकाटकों से उसके संबंध बिगड़े। स्कंदगुप्त गुप्तवंश का अंतिम सफल शासन माना जाता है। उसने गुप्त साम्राज्य की अक्षुण्णता को कायम रखा।

सिक्के

  • ध्य भारत में रजत सिक्कों का प्रचलन इसी के काल में हुआ।
  • कुमारगुप्त ने मुद्राओं पर गरूड़ के स्थान पर मयूर की आकृति उत्कीर्ण कराई। इस प्रकार की मुद्रा के मुख भाग पर मयूर को खिलाते हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर आसीन कार्तिकेय की आकृति उत्कीर्ण है।
  • कुमारगुप्त के सिक्कों से पता चलता है कि उसने अवश्मेध यज्ञ किया था।

उपाधियां

  1. महेंद्रादित्य,
  2. श्री महेंद्र तथा
  3. महेंद्र अश्वमेध आदि उपाधियां कुमारगुप्त ने धारण की।

 

स्कंदगुप्त (455-467 ई0)

  • कुमारगुप्त का उत्तराधिकारी स्कंदगुप्त हुआ।
  • भीतरी स्तंभलेख के अनुसार प्रथम हूण आक्रमण इसी के समय हुआ था। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण को विफल कर दिया था। जूनागढ़ अभिलेख में हूणों को ‘म्लेच्छ’  कहा गया है।
  •  पुष्यमित्र वैश्य (चंद्रगुप्त मौर्य के समय), तुसास्प (अशोक के समय) एवं सुविशाख (रूद्रादामन के समय)-ये तीनों सुदर्शन झील से संबंधित है।
  • जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने सुदर्शन झील के पुनरूद्धार का कार्य सौराष्ट्र के गवर्नर पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित को सौंपा था। उसने झील के किनारे एक विष्णु मंदिर का निर्माण भी करवाया था।
  • व्हेनसांग ने नालंदा संघाराम को बनवाने वाले शासकों में ‘शक्रदित्य’ के नाम का उल्लेख किया है, जिससे स्कंदगुप्त द्वारा नालंदा संघाराम को सहायता देने का प्रमाण मिलता है।
  • स्कंदगुप्त ने वृषभशैली के नए सिक्के जारी किये।
  • स्कंदगुप्त ने 466 ई0 में चीनी सम्राट सांग के दरबार में एक राजदूत भेजा।

हूण कौन थे ?

  • हूण राज्य फारस से खोतान तक फैला हुआ था, जिसकी मुख्य राजधानी अफगानिस्तान में बामियान थी।
  • प्रथम हूण आक्रमण खुशनवाज के नेतृत्व में स्कंदगुप्त के समय हुआ।
  • तोरमाण और मिहिरकुल प्रसिद्ध हूण शासक हुए।
  • मिहिरकुल को बौद्ध धर्म से घृणा करने वाला और मूर्तिभंजक कहा गया है 

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