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Study Material



धन का बहिर्गमन

सिद्धांत 

भारत से धन के निष्कासन का सिद्धांत सर्वप्रथम दादाभाई नौरोजी ने 2 मई 1867 को लंदन में ईस्ट इण्डिया एसोसियेशन की बैठक में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा ब्रिटेन अपने शासन की कीमत पर भारत की सम्पदा को छीन रहा है। भारत में वसूल किये गये राजस्व का एक चौथाई भाग भारत से बाहर चला जाता है। भारत का रक्त निरंतर निचोड़ा जा रहा है।

महादेव गोविंद रानाडे ने भी 1872 ई. में अपने एक भाषण में कहा- 'भारत की राष्ट्रीय आय के एक तिहाई हिस्से से अधिक, ब्रिटिश सरकार द्वारा किसी ने किसी रूप में लिया जाता है।'

रमेशचंद्र दत्त ने 'इकॉनोमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया' में लिखा है- 'भारत में हो रही धन की निकासी का उदाहरण आज तक विश्व के किसी भी देश में ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा।' दादाभाई नौरोजी ने पॉवर्टी एण्ड ब्रिटिश रूल इन इण्डिया नामक शोध ग्रंथ में भारत से धन के बहिर्गमन के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत की मुख्य बातें इस प्रकार से हैं-

  • धन के बर्हिगमन की राष्ट्रवादी परिभाषा का तात्पर्य भारत से धन-सम्पत्ति एवं माल का इंग्लैण्ड में हस्तान्तरण था जिसके बदले में भारत को इसके समतुल्य कोई भी आर्थिक, वाणिज्यिक या भौतिक प्रतिलाभ प्राप्त नहीं होता था।

  • धन बर्हिगमन का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम, ब्रिटिश प्रशासनिक, सैनिक और रेलवे अधिकारियों के वेतन देना, आय व बचत के एक भाग को इंग्लैण्ड भेजना और अँग्रेज अधिकारियों की पेंशन एवं अवकाश भत्तों को इंग्लैण्ड में भुगतान करना था।

  • धन का बहिर्गमन भारत की निर्धनता का मुख्य कारण है।

 

धन निष्कासन की मात्रा एवं स्वरूप

ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा ब्रिटिश क्राउन द्वारा भारत से निकाले गये धन की मात्रा का अनुमान लगाना अत्यंत कठिन है। विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग आंकड़े दिये हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-

  • बंगाल प्रांत में प्राप्त होने वाले राजस्व एवं व्यय विवरण के अनुसार कम्पनी ने प्रथम छः वर्षों (1765-1771 ई.) में 1,30,66,991 पौण्ड शुद्ध राजस्व अर्जित किया जिसमें से 90,27,609 पौण्ड खर्च कर दिया। शेष बचे 40,39,152 पौण्ड का सामान इंग्लैण्ड भेज दिया गया।

  • विलियम डिग्बी के अनुसार 1757 ई. से 1815 ई. तक भारत से 50 से 100 करोड़ पौण्ड राशि इंग्लैण्ड भेजी गई।

  • 1828 ई. में मार्टिन मोंटमुगरी ने इस निर्गम का अनुमान 30 हजार मिलियन पौण्ड (3 करोड़ पौण्ड) प्रतिवर्ष की दर से लगाया।

  • जॉर्ज विन्सेट द्वारा 1859 ई. में लगाये गये अनुमान के अनुसार 1834 ई. से 1851 ई. तक भारत से 42,21,611 पौण्ड धन का निष्कासन प्रतिवर्ष हुआ।

  • भारत को कम्पनी के माध्यम से ब्रिटिश ताज को सत्ता हस्तांतरण से सम्बन्धित व्यय, चीन के साथ हुए युद्धों के व्यय, लंदन में इण्डिया ऑफिस के व्यय, भारतीय सेना की रेजीमेण्टों के प्रशिक्षण व्यय, चीन और फारस में इंग्लैण्ड के राजनयिक मिशनों के व्यय, इंग्लैण्ड से भारत तक टेलिग्राफ लाइनों के सम्पूर्ण व्यय आदि विविध व्यय चुकाने पड़ते थे। इस कारण भारत पर वर्ष 1850-51 में 5.50 करोड़ रुपये का ऋण चढ़ गया।

  • कम्पनी के अनुसार 1857 ई. के विद्रोह को दबाने में 47 करोड़ रुपये व्यय हुए। कम्पनी ने इस राशि को भारत पर कर्ज माना।

  • दादा भाई नौरोजी तथा आर. सी. दत्त आदि राष्ट्रवादियों ने 1883 ई. से 1892 ई. तक के दस वर्षों में भारत से इंग्लैण्ड भेजी गई राशि 359 करोड़ पौण्ड बताई है।

  • विभिन्न स्थलों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करने पर अर्थशास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि 1834 से 1924 ई. तक के 90 वर्ष की अवधि में भारत से 394 से 591 मिलियन पौण्ड राशि इंग्लैण्ड भेजी गई।

 

धन निष्कासन के परिणाम

1765 ई. से 1947 ई. तक भारत से भारी परिमाण में किये गये धन निष्कासन के अत्यन्त बुरे परिणाम हुए-

  • 1939-40 ई. में भारत सरकार पर ब्रिटिश सरकार का 1200 करोड़ रुपये का कर्ज हो गया। आश्चर्य है कि 1850-51 ई. में यह कर्ज केवल 5.50 करोड़ रुपये था।

  • कर्ज बढ़ने से भारतीयों पर करों का बोझ बढ़ गया। भारत का यह कर प्रति व्यक्ति आय का 14 प्रतिशत से अधिक था। इससे भारतीयों का जीवन स्तर निरंतर गिरता चला गया।

  • देश में दरिद्रता बढ़ने से बार-बार अकाल पड़ने लगे जिनमें हजारों लोग मरने लगे। एक अनुमान के अनुसार इन अकालों में 2.85 करोड़ लोग मरे।

  • भारत की अर्थव्यवस्था, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में बदल गई जिससे देश में गहरा आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया।

  • आम भारतीय के मन में अंग्रेजों के शासन से घृणा उत्पन्न हो गई जिससे राष्ट्रीय आंदोलनों को बल मिला।

 

धन निष्कासन के सम्बन्ध में विभिन्न विचार

दादाभाई नौरोजी- धन निष्कासन को समस्त बुराइयों की बुराई (ईविल ऑफ ऑल ईविल्स) बताया है। 1905 ई. में उन्होंने कहा- 'धन का बहिर्गमन समस्त बुराइयों की जड़ है और भारतीय निर्धनता का मुख्य कारण।'

आर. सी. दत्त - 'भारतीय राजाओं द्वारा कर लेना तो सूर्य द्वारा भूमि से पानी लेने के समान था जो पुनः वर्षा के रूप में भूमि पर उर्वरता देने के लिये वापस आता था, पर अँग्रेजों द्वारा लिया गया कर फिर भारत में वर्षा न करके इंग्लैण्ड में ही वर्षा करता था।'

मैकडॉनल्ड- 'भारत में तीन करोड़ से लेकर पांच करोड़ तक ऐसे परिवार हैं जिनकी आय साढ़े तीन पैन्स प्रतिदिन से अधिक नहीं है।'

विलियम हण्टर-(1883 ई. में वायसरॉय की कौंसिल में कहा)- 'सरकार का लगान किसानों एवं उनके परिवारों के लिये पूरा अन्न भी नहीं छोड़ता। ब्रिटिश साम्राज्य में भारत के किसान के समान हृदय द्रवित करने वाला और कोई मनुष्य नहीं है।

कोलीन क्लार्क-'राष्ट्रीय आय के विशेषज्ञ कोलीन क्लार्क- '1924-25 ई. के समय संसार में सबसे कम प्रति व्यक्ति आय, भारतीय की आय से पांच गुना अधिक थी।'

लॉर्ड क्लाइव-बंगाल को एडन का बगीचा एवं सोने का खजाना कहता था। उसने एडन के इस बगीचे को इंग्लैण्ड-वासियों की तरफ से लूटने का काम आरम्भ किया जिसे देखकर स्वयं अँग्रेज अधिकारियों के दिल दहल उठे। असम के चीफ कमिश्नर चार्ल्स इलियन ने व्यथित होकर लिखा- 'मैं यह कहने में नहीं हिचकूंगा कि आधे किसान साल भर में कभी यह भी नहीं जानते कि पूरा भोजन किस चिड़िया का नाम है। यह मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है कि भारत में 10 करोड़ मनुष्यों की प्रति व्यक्ति आय 5 डॉलर वार्षिक से अधिक नहीं है।'

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