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कृषि का वाणिज्यीकरण

  • कृषि का वाणिज्यीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत खाद्यान्न फसलों के स्थान पर बाजार आधारित फसलों को उपजाया जाता है जैसे कपास,तंबाकू आदि ।
  • औपनिवेशिक सरकार ने भारत में उन्हीं फसलों को बढ़ावा दिया जिनकी उन्हें जरूरत थी उदाहरण स्वरुप- कैरेबियाई देशों से आयात की निर्भरता को समाप्त करने के लिए उन्होंने भारत में नील की खेती को बढ़ावा दिया, निर्यात करने के लिए भारत में अफीम के उत्पादन पर जोर दिया गया,  इटालियन रेशम पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए बंगाल में मलबरी रेशम के उत्पादन पर जोर दिया गया ।
  • कृषि के वाणिज्यीकरण के व्यापक प्रभाव पर दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह अधिकांश भारतीय किसानों पर थोपी गई प्रक्रिया थी । औपनिवेशिक सत्ता के अंतर्गत लाई गई इस व्यवस्था में भारत में अकाल और भुखमरी की बारंबारता बढ़ा दी । किसान अब बिचौलियों और मध्यस्थों के बीच कठपुतली बनकर रह गए ऐसा इसलिए क्योंकि जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में व्यावसायिक फसलों की मांग में तेजी होती तो इसका लाभ मध्यस्थ और बिचौलियों को प्राप्त होता लेकिन इसके विपरीत नुकसान की स्थिति में इसकी मार किसानों को ही झेलनी पड़ती थी ।
  • रेलवे लाइन का निर्माण इस तरह किया गया था कि देश के भीतर कृषि समृद्धि क्षेत्रों से बंदरगाहों को अच्छी तरह से जोड़ा जा सके । रेल किराया इस तरह निर्धारित किया गया जिससे कि कच्चे माल को आसानी से सस्ती कीमत पर ढोया जा सके सरकार की कर नीति भी कृषि निर्यात के पक्ष में थी ।
  • भारत के प्रथम मंत्री जेम्स विल्सन ने 1860 में प्रथम बजट के निर्माण के समय कृषि निर्यात प्रोत्साहन की नीति को निर्धारित किया था । उसकी नीति यह थी कि भारत एक कृषि प्रधान देश के रूप में कच्चे माल का निर्यात करके उद्योगों की समृद्धि में इंग्लैंड के साथ योगदान करेगा ।
  • 1860  से 1890 के बीच भारत में मुंबई प्रेसिडेंसी में रूई, बंगाल में पटसन, संयुक्त प्रांत में गन्ना, मद्रास में मूंगफली  आदि ने विस्तार प्राप्त किया।  इन फसलों को नगदी फसल कहा जाता है तथा इनका उत्पादन मूल रूप से विक्रय के लिए किया जाता था

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