प्रशासनिक स्थिति
शासन का स्वरूप
- संगमकालीन राज्यों की शासन-व्यवस्था राजतंत्रात्मक तथा वंशानुगत थी। इस व्यवस्था में राजा शासन का सर्वोच्च अधिकारी था और सभी प्रकार की अंतिम शक्तियां उसी में निहित थीं। राजाओं को ‘मन्नम’, ‘वेदन’, ‘कारेवन’, ‘इरैवन’ आदि उपाधियां मिली थीं।
- शासकों ने ‘अधिराज’ की उपाधि भी ली थी। संगम काल में ‘को’ की उपाधि शासकों और देवताओं दोनों को प्रदान की जाती थी।
- कौटिल्य के सप्त्मंडल सिद्धांत-स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, दण्ड तथा मित्र से संगमकालीन तमिल परिचित थे। संगम साहित्य ‘कुरल’ में संगमकालीन राजनीतिक एवं प्रशासनिक स्थिति की विस्तृत जानकारी मिलती है। इस काल में लोगों को राजनीतिक स्वतंत्रता के मौलिक, नैतिक अधिकारों का पूर्ण ज्ञान था।
- संगमकालीन राजतंत्रात्मक व्यवस्था में शासन में राजा सर्वशक्तिसम्पन्न एवं निरंकुश था, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उस पर बुद्धिजीवियों द्वारा प्रवर्तित नीतियों, मंत्रियों मंत्रिपरिषद का आंशिक नियंत्रण था। राजा की निरंकुशता की संगम कवियों द्वारा कटु शब्दों में निंदा की गयी है।
- संगम काल में जनपद का निर्धारण सामान्यतः आनुवांशिक और ज्येष्ठता के क्रम से किया जाता था। सामान्य परिस्थितियों में राजा अपने शासनकाल में ही ‘युवराज’ की नियुक्ति कर देता था, जिसे ‘कोमहन’ कहते थे। राजा के अन्य पुत्र ‘इलैगो’ कहलाते थे। राजा द्वारा योग्य पुत्र को युवराज नहीं घोषित किए जाने अथवा राजा के पुत्रहीन होन पर उत्तराधिकार का युद्ध भी लड़ा जाता था।
प्रशासनिक संस्थाएं
- संगम काल में राजा की गतिविधियों पर प्रतिनिधि सभाओं तथा परिषदों अथवा मंत्रिपरिषद का व्यवहारिक नियंत्रण होता था। परिषदों को ‘पंचवारम्’ अथवा पंच महासभा कहा जाता था। परिषद के सदस्य जन-प्रतिनिधि, पुरोहित, ज्योतिषी, वैद्य तथा मंत्री होते थे। प्रतिनिधि सभा प्रजा के अधिकारों और विशेषाधिकार की रक्षा करती थी।
- प्रतिनिधि सभा के सदस्य के रूप में पुरोहित समस्त धार्मिक कार्य सम्पादित करते थे।
- मंत्री कर-संग्रह और उसके व्यय तथा न्याय-व्यवस्था के लिए उत्तरदायी थे। प्रत्येक सभा तथा परिषद की बैठकों के लिए राजधानी में स्थान नियत रहता था। प्रतिनिधियों की परिषदों को प्राचीन ग्रंथों में ‘माशनम्’ कहा गया है।
- वैद्य राजा तथा प्रजा के स्वास्थ्य से संबंधित मामलों की निगरानी करते थे।
- ज्योतिषियों का कार्य सार्वजनिक उत्सवों के लिए शुभ समय निर्धारित करना और महत्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी देना था।
राजस्व व्यवस्था
- संगम काल में राज्यों के राजस्व के मुख्य स्रोत कृषि एवं आंतरिक तथा विदेशी व्यापार थे। तमिल प्रदेश अपनी उर्वरता के लिए प्रसिद्ध था। पर्याप्त उत्पादन के कारण कृषि कर से राज्य को पर्याप्त आय होती थी। कृषि कर ‘इरै’ और ‘कडमै’ कहा जाता था। भूमि की माप के लिए ‘मा’ तथा ‘वेलि’ का उपयोग किया जाता था। कृषि कर उत्पादन का छठा हिस्सा (1/6) होता था।
- व्यापार-वाणिज्य से प्राप्त कर, राजस्व का दूसरा मुख्य स्रोत था। विदेश व्यापार के साथ-साथ आंतरिक व्यापार पर भी कर लगाया जाता था। कृषि कर एवं वाणिज्य-व्यापार कर के साथ-साथ लूटपाट तथा पशुओं की चोरी एवं युद्ध में प्राप्त सम्पत्ति से भी राज्य की आय में वृद्धि होती थी।
न्याय व्यवस्था
- संगमकालीन राज्यों में न्यायिक व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था।
- राजा के न्यायालय को ‘मनरम’ कहा जाता था।
- विद्वान और विधिवेत्ता समय-समय पर इनको परामर्श देते थे। इस काल में दण्ड-व्यवस्था कठोर थी। चोरी प्रत्यक्षतः पकड़े जाने पर चोर के हाथ काट लिये जाते थे।
- व्यभिचार महा अपराध माना जाता था और साबित हो जाने पर मृत्युदण्ड भी दिया जाता था।
सामाजिक स्थिति
- संगम काल सामाजिक दृष्टि से आर्य एवं आर्येत्तर तत्वों का समन्वय माना जा सकता है। संगम काल में पहली बार किसी संस्कृति में आर्येत्तर तत्व इतने प्रभावी स्वरूप के साथ समाविष्ट हुए थे।संगम संस्कृति,आर्य और द्रविड़ संस्कृति का मिश्रित रूप प्रदर्शित करती है।
वर्ण व्यवस्था
- संगमकालीन समाज में वर्ण-व्यवस्था का सर्वथा अभाव था।
- संगम साहित्य में ब्राम्हणों के अतिरिक्त किसी अन्य वर्णों का उल्लेख व्यवस्थित रूप में नहीं मिलता। शुद्ध तमिलों में ‘अरैवर’ वर्ग सबसे अधिक प्रतिष्ठित था। उसके बाद ‘उल्वर’ वर्ग का स्थान था।
- चोल, चेर तथा पाण्ड्य शासक ‘उल्वर’ वर्ग के ही थे। इस वर्ग का कमजोर तबका वीलकुडी उल्वर’ कहा जाता था। पशुपालक तथा शिकारी वर्ग ‘अय्यर’ तथा ‘पद्दवर’ कहलाते थे।
- जाति के रूप में पुरूनारू की एक कविता में चार जातियों का उल्लेख है-तुडियन, पाणन, पड़ैयन तथा कडम्वन। संगम काल में व्यापारी वर्ग को ‘वेनिगर’ कहा जाता था और कृषक वर्ग को ‘वेल्लाल’ कहते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि ब्राम्हणों को ‘अरसर’ और क्षत्रियों को ‘उल्वर’ कहा जाता था।
- संगम काल में बंदरगाहों के निकट स्थित शहरों में कुछ विदेशी जातियां भी रहती थीं। यवनों के निवास को ‘मरूवर’ कहा जाता था। विदेशियों में ज्यादार लोग यूनानी और रोमन थे।
दास प्रथा
- मेगस्थनीज के अनुसार भारत में दास प्रथा के अभाव का उल्लेख संगम समाज के संदर्भ में ही उपयुक्त प्रतीत होता है। संगमकालीन समाज में दास-प्रथा का सर्वथा अभाव था।
सती प्रथा
- संगम-साहित्य में सती प्रथा का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
- ‘मणिमेकलै’ में इस बात का उल्लेख है कि सच्ची पत्नी वही कहलाती थी, जो अपने पति की मृत्यु के बाद उसकी जलती हुई चिता में प्रविष्ट हो जाती थी।
- अनेक चोल शासकों की पत्नियों के सती होने का उल्लेख मिलता है। ऐसा माना जाता है कि विधवा हो जाने के बाद धर्मपरायण जीवन-यापन करना सभी वर्गां की स्त्रियों के लिए आदर्श था।
- विधवा-विवाह की व्यवस्था का प्रचलन नहीं होने के कारण संगम काल में विधवाओं की सामाजिक स्थिति निन्द्य तथा हेय थी। विधवाओं के जीवन-यापन के लिए कठोर नियम बनाए गए थे।
वेश्यावृत्ति
- संगम समाज में गणिकाओं तथा नर्तकियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इन्हें ‘परत्तियर’ और ‘कणिगैचर’ कहा जाता था। ये वेश्यावृत्ति द्वारा अपनी आजीविका चलाती थी। वेश्याएं अनेक प्रकार की कलाओं में दक्ष होती थीं और पुरूषों के मनोरंजन के साथ-साथ राजा की अंगरक्षिका का कार्य भी करती थीं। वेश्या वर्ग की स्त्रियां अपने पेशे से अलग कार्य नहीं कर सकती थी, क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता था।
आर्थिक स्थिति
- कृषि संगमकालीन राज्यों की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार था। कृषि के साथ-साथ पशुपालन, उद्योग-धंधे तथा व्यापार-वाणिज्य भी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ता प्रदान करते थे।
कृषि
- भूमि की उर्वरता और सिंचाई की समुचित व्यवस्था संगम प्रदेश में कृषि के पर्याप्त विकास का कारण थी। पालार, कावेरी, पेन्नार, वैगाई, ताम्रपर्णी आदि नदियों की घाटियां अपनी उर्वरता के लिए प्रसिद्ध थीं। संगम साहित्य में कई प्रकार की कृषि योग्य भूमि का उल्लेख मिलता है।
- अधिक नमी वाली भूमि को ‘बयुल’, ‘कडनी’ तथा ‘मनेपलम्’ कहा जाता था।
- ऐसी भूमि जिस पर कृषि के लिए कृषकों को साल भर वर्षा के जल पर निर्भर रहना पड़ता था, उसे ‘पुनपुलम’, ‘कोलै’ और ‘वनुपुलम’ कहा जाता था।
- संगम साहित्य में भूमि के पांच अन्य भागों का वर्णन मिलता है-कुरिंचि, मुल्लै, मरूडम, नेथल तथा पालै। मरूडम मैदानी भाग को कहते थे।
भूमि के प्रकार
कुरिंचि पर्वतीय भूमि
मुल्लै चारागाह भूमि
मरूडम मैदानी भूमि
नेथल समुद्रवर्ती भूमि
संगम काल में मुख्य रूप से धान, गन्ना, रागी, बाजरा, तिल, कपास, सुपारी, नारियल, लहसुन, केसर, कटहल, काली मिर्च, हल्दी, अदरक, कंदमूल आदि का उत्पादन होता था।
पशुपालन
- संगम काल में कृषि के साथ-साथ पशुपालन भी प्रचलित था।
- वे मुख्य रूप से गाय, बैल, भैंस, हाथी तथा मुर्गी पालते थे। बैल तथा गाय से खेतों की जुताई की जाती थी।भैंसों का उपयोग फसलों को ढोने में किया जाता था। बैलगाड़ी का उपयोग यातायात में किया जाता था।
- हाथी दांत से अनेक प्रकार के उपकरण बनाए जाते थे।
वाणिज्य-व्यवस्था
- संगम काल में अनेक प्रकार के वाणिज्य-व्यवसाय प्रचलित थे। इस काल में वस्त्रोद्योग, चरमोद्योग, स्वर्ण उद्योग, लौह उद्योग, मृदभाण्ड, मद्य उद्योग, तेल उद्योग आदि विकसित अवस्था में थे। इस युग मे प्रायः सभी लोग अपने-अपने धंधे में लगे थे, किन्तु किसी प्रकार की पृथक् जाति का उल्लेख नहीं मिलता था। किसी भी वर्ग के लोग कोई भी व्यवसाय कर सकते थे।
- तमिलों की अर्थव्यवस्था में व्यापार एवं वाणिज्य का महत्वपूर्ण योगदान था।
- संगम काल में आंतरिक व्यापार और विदेशी व्यापार-दोनों विकसित अवस्था में थे।
- रेशमी वस्त्र, मूंगे, चंदन, सुरा, आभूषण आदि आंतरिक व्यापार की प्रमुख वस्तुएं थीं। यदि सूक्ष्मतापूर्वक देखा जाए, तो ज्ञात होताहै कि संगम काल में आन्तरिक व्यापार की अपेक्षा विदेशी व्यापार अधिक विकसित था।
- दक्षिण भार का प्राचीन मिस्र, बेबीलोन, अरब तथा पेलेस्टाइन से 1000ई .पू .में ही सांस्कृतिक सम्पर्क स्थापित हो गया था। बाद में इसी सम्पर्क के आधार पर इन देशों के साथ व्यापारिक सम्पर्क स्थापित हो गये।
- संगम काल में दक्षिण भारतीय राज्यों से विदेशों में काली मिर्च, मोती, हाथी दांत, रेशमी कपड़े, जटामासी, तेजपत्र, पारदर्शी पत्थर, हीरा, नीलम तथा कछुए की खोपड़ी का निर्यात किया जाता था तथा विदेशों से आयात की जाने वाली प्रमुख वस्तुएं थीं-सिक्के, पुखराज, मूंगे, शीशा, महीन कपड़े, शराब, संगरफ, संखिया आदि।
धार्मिक स्थिति
- इस काल में कबीलाई मतों की प्रधानता थी। लेकिन इसके साथ-साथ धर्मों जैसे-ब्राम्हण धर्म, बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का भी प्रचार प्रसार था। संगम युगीन संस्कृति मूलतः आर्य एवं द्रविड़ संस्कृतियों का संगम थी।
- संगमयुग के सर्वप्रमुख देवता के रूप में ‘मुरूगन’ या ‘सुब्रह्मण्य’ प्रतिष्ठित थे। लेकिन जाति विशेष तथा क्षेत्राविशेष के अलग-अलग देवता थे।
- इस युग के धार्मिक जीवन में यज्ञों, पिण्डदान, श्राद्ध आदि का भी विशेष महत्व था। लोगों का भूत-प्रेत, पिशाच एवं जादू-टोने में भी विश्वास था।
- जाति तथा क्षेत्र के अतिरिक्त संगम युग में दिशाओं के भी देवता थे जैसे-पूर्व के ‘इंद्र’, पश्चिम के ‘वरूण’, उत्तर के ‘सोम’ एवं दक्षिण के‘यम’। ‘इंद्र’ की पूजा विशेष रूप से किसानों द्वारा की जाती थी तथा तटीय प्रदेश के लोगों द्वारा ‘वरूण’ की आराधना की जाती थी।
- ‘मुरूगन’ की विशेष पूजा के लिए ‘बच्चनलियन’ और ‘इंद्र’ के लिए ‘विलाकलकोल’ उत्सव आयोजित होता था। अन्य देवताओं में ‘कृष्ण’, ‘बलराम’ तथा ‘रिमल’ प्रमुख थे। ‘कन्नगी’, ‘उमइ’, ‘तिरूमल’, ‘कलईमगल’, ‘अयलरानी’ आदि संगम युग की प्रमुख देवियां थीं। ‘कोईवई’ विजय की देवी थी।