• Have Any Questions
  • +91 6307281212
  • smartwayeducation.in@gmail.com

Study Material



दक्षिण का प्रायद्वीपीय पठार

यह गोंडवानालैंड का ही एक भाग है, प्री-कैम्ब्रियन काल के बाद से ही यह भाग कभी भी पूर्णत: समुद्र में नहीं डूबा। यह आर्कियन युग के आग्नेय चट्टानों से निर्मित है जो अब नीस व शिस्ट के रूप में अत्यधिक रूपांतरित हो चुकी हैं। प्रायद्वीपीय भारत की संरचना में चट्टानों के निम्न क्रम मिलते हैं-

 आर्कियन क्रम की चट्टाने

  • ये प्राचीनतम एवं प्राथमिक चट्टानें हैं जो नीस व शिस्ट के रूप में रूपांतरित हो चुकी हैं। बुंदेलखंड नीस व बेल्लारी नीस इनमें सबसे प्राचीन हैं।
  • बंगाल नीस व नीलगिरि नीस भी इन्हीं चट्टानों के उदाहरण हैं।
  • इनमे जीवाश्म नहीं पाये जाते हैं।

धारवाड़ क्रम की चट्टानें

  • ये आर्कियन क्रम की प्राथमिक चट्टानों के अपरदन व निक्षेपण से निर्मित परतदार चट्टानें हैं। ये अत्यधिक रूपांतरित हो चुकी हैं एवं इसमें जीवाश्म नहीं मिलते।
  • कर्नाटक के धारवाड़ एवं बेल्लारी जिला, अरावली श्रेणियाँ, बालाघाट, रीवा, छोटानागपुर आदि क्षेत्रों में ये चट्टानें मिलती हैं।
  • भारत के सर्वाधिक खनिज भंडार इसी क्रम के चट्टानों में मिलते। हैं।
  • लौह-अयस्क, तांबा और स्वर्ण इन चट्टानों में पाये जाने वाले महत्वपूर्ण खनिज हैं।

कुड़प्पा क्रम की चट्टानें

  • इनका निर्माण धारवाड़ क्रम की चट्टानों के अपरदन व निक्षेपण से हुआ है। इस प्रकार ये भी परतदार चट्टानें हैं, जो अपेक्षाकृत कम रूपांतरित हैं परन्तु इनमें भी जीवाश्मों का अभाव मिलता हैं।
  • कृष्णा घाटी, नल्लामलाई पहाड़ी क्षेत्र, पापाघानी व चेयार घाटी आदि में ये चट्टानें मिलती हैं

विंध्य क्रम की चट्टानें

  • कुड़प्पा क्रम की चट्टानों के बाद ये चट्टानें निर्मित हुई हैं।
  • इनका विस्तार राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से बिहार के सासाराम क्षेत्र तक है। विंध्य क्रम के परतदार चट्टानों में बलुआ पत्थर मिलते हैं।
  • इन चट्टानों का एक बड़ा भाग दक्कन ट्रैप से ढका है। 

गोंडवाना क्रम की चट्टानें

  • ऊपरी कार्बोनीफेरस युग से लेकर जुरैसिक युग तक इन चट्टानों का निर्माण अधिक हुआ है।
  • ये चट्टानें कोयले के लिए विशेष महत्वपूर्ण है।
  • भारत का 98%कोयला गोंडवाना क्रम की चट्टानों में मिलता है। ये परतदार चट्टानें हैं एवं इनमें मछलियों व रेंगनेवाले जीवों के अवशेष मिलते हैं।
  • दामोदर, महानदी, गोदावरी व उसकी सहायक नदियों में इन चट्टानों का सर्वोत्तम रूप मिलता है।

दक्कन ट्रैप

  • इसका निर्माण मेसोजोइक महाकल्प के क्रिटैशियस कल्प में हुआ था।
  • इस समय विदर्भ क्षेत्र में ज्वालामुखी के दरारी उद्भेदन से लावा का वृहद उद्गार हुआ एवं लगभग 5 लाख वर्ग किमी.का क्षेत्र इससे आच्छादित हो गया।
  • इस क्षेत्र में 600 से 1500 मी . एवं कहीं-कहीं तो 3000 मी . की मोटाई तक बैसाल्टिक लावा का जमाव मिलता है। यह प्रदेश दक्कन ट्रैप कहलाता है।
  • राजमहल ट्रैप का निर्माण इससे भी पहले जुरैसिक कल्प में हो गया था।

 

प्रायद्वीपीय पठार का महत्व

  • भौगोलिक तौर पर दक्कन का पठार लंबवत् संचलन के उदाहरण रहे हैं अतः यहाँ अनेक जलप्रपात मिलते हैं, जिनसे यहाँ जल विद्युत उत्पादन संभव है।
  • पठारी भागों पर अनेक प्राकृतिक खड्डों के मिलने के कारण यहाँ तालाबों की अधिकता है, जिनसे सिंचाई व्यवस्था संभव हो पाती है। दक्कन के लावा पठार के अपक्षय एवं अपरदन से उपजाऊ काली मिट्टी का निर्माण हुआ है, जो कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है।
  • पश्चिमी घाट के अधिक वर्षा वाले समतल उच्च भागों पर लैटेराइट मिट्टी पायी जाती है, जिस पर मसालों, चाय, कॉफी आदि की खेती की जाती है। प्रायद्वीपीय पठार के शेष भागों की लाल-मिट्टियों में मोटे अनाज, चावल, तंबाकू एवं सब्जियों की खेती की जाती है।
  • पश्चिमी घाट के अत्यधिक वर्षा वाले प्रदेशों में सागवान, देवदार, आबनूस, महोगनी, चंदन, बाँस आदि आर्थिक रूप से उपयोगी सदाहरित वन पाये जाते हैं।
  • इस पठार के आंतरिक भागों के कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उष्ण घास-भूमियाँ मिलती हैं, जिसके आधार पर पशुपालन संभव हो पाता है।
  • प्रायद्वीपीय पठार सोना, तांबा, लोहा, यूरेनियम, बॉक्साइट, कोयला, मैगनीज आदि खनिजों से सम्पन्न है
  • छोटानागपुर के पठार को भारत का रूर प्रदेश भी कहते हैं, क्योंकि यहाँ खनिज संसाधनों का विशाल भंडार है। इन्हीं खनिज संसाधनों के आधार पर यहाँ विभिन्न खनिज आधारित उद्योग-धंधों की स्थापना संभव हो सकी है।
  • पठारी भाग के तटीय भागों पर अनेक खाड़ियाँ और लैगून मिलते हैं जहाँ बंदरगाहों व पोताश्रय का निर्माण संभव हो सका है।

 

   उत्तर की विशाल पर्वतमाला

  • भारत के उत्तर में स्थित हिमालय पर्वत का निर्माण एक लम्बे भू-गर्भिक ऐतिहासिक काल से गुजरकर सम्पन्न हुआ है।
  • इसके निर्माण के संबंध में कोबर का भू-सन्नति सिद्धान्त एवं मोर्गन और आइजैक का प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत सर्वाधिक मान्य हैं।
  • कोबर ने भू-सन्नतियों को पर्वतों का पालना कहा है।
  • ये भूसन्नतियाँ लंबे, संकरे व छिछले जलीय भाग है। उनके अनुसार आज से 7 करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय के स्थान पर टेथिस भू-सन्नति थी जो उत्तर के अंगारालैंड को दक्षिण के गोंडवानालैंड से पृथक करती थी। इन दोनों भूमि के अवसाद टेथिस भू-सन्नति में क्रमिक रूप से जमा होते रहे एवं इन अवसादों का क्रमशः अवतलन होता रहा, जिसके परिणामस्वरूप दोनों संलग्न अग्रभूमियों में दबाव जनित भू-संचलन उत्पन्न हुआ जिससे क्युनलुन एवं हिमालय-काराकोरम श्रेणियों का निर्माण हुआ।
  • वलन से अप्रभावित या अल्प प्रभावित मध्यवर्ती क्षेत्र तिब्बत का पठार के नाम से जाना गया।
  • वर्तमान में मोर्गन और आइजैक के द्वारा प्रतिपादित प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत हिमालय की उत्पत्ति की उपयुक्त व्याख्या करता है। इसके अनुसार लगभग 7 करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय प्लेट उत्तर-पूर्वी दिशा में स्थित यूरेशियन प्लेट की ओर गतिशील हुई।
  • दो से तीन करोड़ वर्ष पूर्व ये भू-भाग अत्यधिक निकट आ गए, जिनसे टेथिस के अवसादों में वलन पड़ने लगा एवं हिमालय का उत्थान प्रारम्भ हो गया। सेनोजोइक महाकल्प के इयोसीन व ओलीगोसीन कल्प में वृहद हिमालय का निर्माण हुआ, मायोसीन कल्प में पोटवार क्षेत्र के अवसादों के वलन से लघु हिमालय बना।
  • शिवालिक का निर्माण इन दोनों श्रेणियों के द्वारा लाए गए अवसादों के बलन से प्लायोसीन कल्प में हुआ।
  • क्वार्टरनरी अर्थात् नियोजोइक महाकल्प के प्लीस्टोसीन व होलोसीन कल्प में भी इसका निर्माण होता रहा है।
  • हिमालय एक युवा पर्वत है, जिसका उत्थान अभी भी जारी है। हिमालय के क्षेत्र में आने वाले भूकम्प, हिमालयी नदियों के निरन्तर होते मार्ग परिवर्तन एवं पीरपंजाल श्रेणी में 1500 से 1850 मीटर की ऊँचाई पर मिलने वाले झील निक्षेप करेवा हिमालय के उत्थान के अभी भी जारी रहने की ओर संकेत करते हैं।

 

हिमालय का महत्व

  • भारतीय उपमहाद्वीप की प्राकृतिक एवं राजनीतिक सीमा बनाता है। इसकी भौगोलिक परिस्थिति के कारण ही, भारतीय उपमहाद्वीप शेष एशिया से अलग हुआ।
  • भारत की जलवायु को निर्धारित करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह जाड़ों में चलने वाली ध्रुवीय हवाओं को भारतीय भू-भाग पर आने से रोकता है, जिसके फलस्वरूप भारत इन ध्रुवीय हवाओं के प्रकोप से बच जाता है।
  • इसी प्रकार वर्षा काल में हिमालय, मानसूनी हवाओं को रोककर भारतीय भू-भाग में पर्याप्त वर्षा कराता है, जिस पर हमारी कृषि निर्भर है। 
  • हिमालय, नदियों को सततवाहिनी भी बनाये रखता है, क्योंकि हिमालय के हिम के पिघलने से नदियों में जल की आपूर्ति वर्षभर होती रहती है। इन नदियों के वर्षवाहिनी होने के कारण यहाँ विभिन्न सिंचाई परियोजनाएँ संपन्न हो पाती हैं।
  • सतलज, यमुना, गंगा आदि नदियों से निकाली गयी नहरें इसका महत्वपूर्ण उदाहरण है।
  • हिमालय की नदियाँ अपने साथ बड़ी मात्रा में अवसाद भी लाती हैं, जिनसे उत्तर भारत उपजाऊ जलोढ़ मैदानों का निर्माण होता है।
  • हिमालय विविध संसाधनों के विकास का संभावित प्रदेश भी हैं।
  • यहाँ कोबाल्ट, निकेल, जस्ता, तांबा, एंटीमनी, विस्मथ जैसे धात्विक खनिज संसाधन हैं, इसकी जटिल भू- गर्भिक संरचना के कारण धात्विक खनिजों का खनन अभी संभव नहीं हो पा रहा है। यहाँ कोयला, पेट्रोलियम/जैसे अधात्विक संसाधन भी उपलब्ध हैं।
  • वन संसाधनों के अंतर्गत, सागवान, शीशम, ओक, लारेल, देवदार, मैगनेलिया, बांस, आदि के वन आर्थिक दृष्टिकोण से अत्यधिक उपयोगी हैं।
  • इन वन क्षेत्र में दुर्लभ जड़ी बूटियाँ भी मिलती है, जिस पर हमारा आयुर्वेद उद्योग आधारित है।
  • हिमालय क्षेत्र में शीतोष्ण घास भूमियो पर यहाँ के पशु (भेड़-बकरी) निर्भर रहते हैं।
  • हिमालय विभिन्न प्रकार के जंगली जीव-जंतुओं का विशाल आश्रय स्थल भी है।
  • वास्तव में हिमालय-क्षेत्र को जैव-विविधता का विशाल भंडार भी कहा जा सकता है।

 

उत्तर भारत का विशाल मैदानी भाग

  • इनका निर्माण क्वार्टनरी या नियोजोइक महाकल्प के प्लीस्टोसीन एवं होलोसीन कल्प में हुआ है।
  • यह भारत की नवीनतम भूगर्भिक संरचना है।
  • टेथिस भू-सन्नति के निरन्तर संकरा व छिछला होने एवं हिमालयी व दक्षिणी भारतीय नदियों द्वारा लाए गए अवसादों के जमाव से यह मैदानी भाग निर्मित हुआ है।
  • इसके पुराने जलोढ़ बांगर एवं नए जलोढ़ खादर कहलाते हैं।
  • इस मैदानी भाग में प्राचीन वन प्रदेशों के दब जाने से कोयला और पेट्रोलियम के क्षेत्र मिलते हैं।

 

मैदानी भागों का महत्व

  • मैदानी भागों की उपजाऊ जलोढ़ मृदा में विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन किया जाता है, जिससे हमारी जनसंख्या व पशुओं को आहार व अनेक कृषि आधारित उद्योगों को कच्चा माल प्राप्त होता है।
  • नदियों का क्षेत्र होने के कारण इस प्रदेश में नहरें निकालकर सिंचाई व नहर परिवहन कार्य किए जा सकते हैं।
  • इन मैदानी भागों में भूमिगत जल का विशाल भंडार मौजूद है जिनसे लोगों की सिंचाई एवं पेयजल सम्बंधी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
  • इन मैदानी भागों में नदियों की अधिकता के कारण इन क्षेत्रों में मत्स्य पालन का विकास किया जा सकता है।
  • अवसादी भूगर्भिक संरचना के कारण ये पेट्रोलियम पदार्थों के संभावित भंडार हैं।
  • भूमि के प्रायः समतल होने के कारण इन क्षेत्रों में सड़क व रेल परिवहन का विकास अपेक्षाकृत आसानी से किया जा सकता है।

 

 

 

Videos Related To Subject Topic

Coming Soon....