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Study Material



शिवाजी के उत्तराधिकारी

 1680 ई . में शिवाजी की मृत्यु के बाद क्रमशः शम्भाजी, राजाराम, शिवाजी द्वितीय तथा शाहू मराठा साम्राज्य के शासक बने।

शम्भाजी (1680-1689)

  • शिवाजी की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य में उत्तराधिकार का संघर्ष शुरू हुआ।
  • इस संघर्ष में ज्येष्ठ पुत्र शम्भाजी ने अनुज राजाराम को पराजित कर सत्ता प्राप्त की।
  • शम्भाजी में कर्मठता ओर दृढ़-संकल्प का अभाव था। वह कूटनीतिज्ञ भी नहीं था, क्योंकि उसने औरंगजेब के विद्रोही पुत्र अकबर द्वितीय को शरण प्रदान कर अपने लिए संकट उत्पन्न कर लिया।
  • 1689 ई . में बीजापुर और गोलकुण्डा जीतने के बाद औरंगजेब ने रत्नागिरि के समीप संगमेश्वर के दुर्ग में शम्भाजी को बंदी बना लिया और बाद में उसे मृत्युदण्ड दे दिया।
  • शम्भाजी का मंत्री कुलश भी इस समय पकड़ा गया। शम्भाजी ने 1680 ई . से 1689 ई . के बीच मात्र 9 वर्षों  तक शासन किया।

राजाराम (1689-1700)

  • शम्भाजी के साथ ही औरंगजेब ने उसके पुत्र शाहू को भी बंदी बना लिया, किन्तु राजाराम भाग निकलने में सफल रहा। बाद में उत्तराधिकारी के अभाव में मराठों ने राजाराम को अपना शासक मान लिया, जिसे 19 फरवरी 1689 को राजा बनाया गया।
  • राजाराम ने जिंजी को अपनी आरंभिक राजधानी बनाया और बाद में उसने राजधानी सतारा में स्थानांतरित कर दी। शिवाजी द्वारा स्थापित प्रशासननिक पदों के अतिरिक्त राजाराम ने ‘प्रतिनिधि’ नामक एक अन्य पद की स्थापना की।
  • उसने परशुराम ऋयम्बक को पहला प्रतिनिधि नियुक्त किया। मुगलों ने मराठों को दबाने का अपना अभियान जारी रखा, परन्तु राजाराम के समय कोई स्थायी निष्कर्ष सामने नहीं आ सका।
  • सतारा में 1700 ई . में अपनी मृत्यु के पूर्व 1689 ई . से लेकर 11वर्षों  तक राजाराम ने शासन किया।

शिवाजी द्वितीय (1700-1707)

  • 1700 ई . में जब राजाराम की मृत्यु हो गई, तब उसका पुत्र शिवाजी द्वितीय नाबालिक था।
  • उसे शासक बनाकर राजाराम की पत्नी ताराबाई ने संरक्षिका के रूप में शासन संभाला।
  • शिवाजी द्वितीय के संरक्षक के रूप में ताराबाई द्वारा शासन चलाए जाने के समय 1703 ई . में बरार पर तथा 1706 ई . में बड़ौदा और औरंगजेब पर आक्रमण किए गए।
  • 1707 ई . में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुअज्जम ने शिवाजी के पुत्र शाहू को कैद से मुक्त कर दिया
  • 1707 ई . से लेकर 1714 ई . तक एक बार फिर से उत्तराधिकार का संघर्ष हुआ।
  • इस संघर्ष में अंततः शाहू की जीत हुई और पराजित होने के बाद ताराबाई ने कोल्हापुर में अपनी सत्ता स्थापित कर ली।
  • कोल्हापुर में शिवाजी द्वितीय के बाद शम्भाजी द्वितीय शासक बना।

शाहू (1707-49)

  • औरंगजेब ने 1689 ई . में शम्भाजी के साथ शाहू को भी बंदी बना लिया।
  • 18 वर्षों  तक बंदी जीवन बिताने के बाद 1707 ई . में मुगल शासक मुअज्जम ने (औरंगजेब का उत्तराधिकारी) उसे मुक्त कर दिया।
  • 1707 ई . में ही शाहू ने स्वयं को मराठा राज्य का शासक घोषित कर दिया और उत्तराधिकार के युद्ध में चाची ताराबाई को पराजित किया।
  • अपनी शक्ति में वृद्धि  के लिए शाहू ने 1713 ई . में बालाजी विश्वनाथ को मराठा राज्य का पेशवा नियुक्त किया।
  • शासन की अस्थिरता का फायदा उठाकर बालाजी विश्वनाथ ने पेशवा की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि कर ली।
  • शाहू द्वारा बालाजी विश्वनाथ को ‘सेना कर्ते’ की उपाधि भी प्रदान की गयी। औरंगजेब ने शिवाजी को ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की थी, जबकि फर्रूखसियर ने शाहू को ‘स्वराज्य के शासक’ के रूपमें मान्यता प्रदान की। उसके द्वारा शाहू को छः मुगल क्षेत्रों में चौथ और सरदेशमुखी की वसूली का अधिकार मिला।
  • मराठा परिसंघ का निर्माण उसके शासनकाल में ही हुआ। उसने 1707 ई . से लेकर 1749 ई . के बीच 42 वर्षों  तक शासन किया।

मराठा शक्ति का विस्तार और प्रथम तीन पेशवा

मराठा परिसंघ

  •  शाहू के शासनकाल में पेशवाओं की शक्ति में वृद्धि हुई और मराठा परिसंघ का निर्माण हुआ।
  • शिवाजी ने शासन की सुचारू व्यवस्था के लिए अष्टप्रधानों की नियुक्ति की थी और पेशवा उनमें सर्वप्रमुख था।
  • शिवाजी के उत्तराधिकारी कमजोर थे और उनके समय में शासन का कार्य पेशवाओं द्वारा किया जाता था। इस स्थिति का फायदा उठाकर पेशवा ने अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली तथा धीरे-धीरे सम्पूर्ण सत्ता उसके हाथों में केन्द्रित हो गई।

बालाजी विश्वनाथ (1713-1720 ई .)

  • 17 नवम्बर, 1713 ई . को बालाजी विश्वनाथ का पेशवा बनाया गया।
  • उसका जन्म श्रीवर्द्धन गांव में चितपावन ब्राम्हण परिवार में हुआ था।
  • इसने अपना जीवन एक छोटे राजस्व अधिकारी के रूप में प्रारम्भ किया था।
  • 1699 से 1708 तक बालाजी धनाजी जादव की सेवा में रहे। 1708 में उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र चन्द्रसेन जादव के ताराबाई के पक्ष में मिल जाने पर बालाजी विश्वनाथ को शाहू की सेवा में आने का अवसर प्राप्त हुआ।
  • शाहू ने उसे 1708 ई . में सेनाकर्ते (सेना के व्यवस्थापक) की पदवी दी तथा नई सेना के गठन व देश में शान्ति व सुव्यवस्था की स्थापना का कार्य सौंपा।
  • बालाजी की सेवाओं से प्रसन्न होकर 1713 ई . में शाहू ने उसे पेशवा या मुख्य प्रधान नियुक्त किया।
  • बालाजी विश्वनाथ की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि, मुगलों तथा मराठों के मध्य एक स्थायी समझौते की व्यवस्था थी जिसमें दोनों पक्षों के अधिकारों तथा प्रभाव क्षेत्र की विधिवत व्यवस्था की गई।
  • मराठों की मुगलों के प्रति नीति में 1716 के बाद से परिवर्तन आया। फरवरी 1719 ई . में बालाजी ने मुगल सूबेदार सैयद हुसैन से एक संधि की इस संधि की मुख्य शर्तों  के अनुसार शाहू को-
  • स्वराज्य क्षेत्र पर राजस्व अधिकार की मान्यता दी गई।
  • दक्कन के 6 मुगल सूबों तथा मैसूर, त्रिचनापल्ली व तंजौर में चैथ व सरदेश मुखी वसूल करने के अधिकार को मान्यता दी गई।
  • गोंडवाना, बरार, खानदेश, हैदराबाद व कर्नाटक में हाल ही में मराठों द्वारा जिन क्षेत्रों पर कब्जा किया गया था, उन पर मराठों के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई।
  • शाहू ने स्वराज्य की मान्यता के बदले में मुगलों की सहायता के लिए 15,000 सैनिकों की सेना रखने, चौथ एवं सरदश्मुखी की वसूली के बदले मुगलों के क्षेत्रों को लूटपाट से मुक्त रखने तथा 10 लाख रूपयें का सालाना नजराना पेश करने का वचन दिया।
  • 1719 में बालाजी विश्वनाथ एवं सैयद हुसैनअली के बीच हुई संधि का मुख्य कारण फर्रखसियर को गद्दी से हटाना था।
  • मराठा मुगल संधि (बालाजी विश्वनाथ तथा हुसैन अली के बीच) की शर्तों  को मान्यता रफीउदरजात ने दी थी।
  • 1719 ई . में बालाजी विश्वनाथ मराठों की एक सेना लेकर सैयद बन्धुओं की मदद के लिए दिल्ली पहुंचे जहां उन्होंने बादशाह फर्रखसियर को हटाने में सैयद बंधु की मदद की और मुगल साम्राज्य की कमजोरी को प्रत्यक्षतः देखा।

बाजीराव प्रथम (1720-1740 ई .)

  • बालाजी विश्वनाथ ने ‘पेशवा’ के पद को ‘वंशानुगत बना दिया, इसलिए उसके बाद उसका पुत्र बाजीराव प्रथम पेशवा बना।
  • 17 अप्रैल, 1720 ई . को शाहू ने बाजीराव प्रथम को पेशवा बनाया। पेशवा के पद पर नियुक्त होने के साथ ही बाजीराव प्रथम ने मराठा दिग्विजय और प्रसार की महत्वाकांक्षी नीति का अनुसरण किया। वह नर्मदा नदी के पार उत्तरी भारत में मराठा शक्ति के विस्तार का आग्रही था।
  • बाजीराव प्रथम ने अपने निम्न उद्देश्य निर्धारित किये थे-
  1. सैनिक विजयों के माध्यम से मुगल सम्राट को आतंकित करना।
  2. अधिक से अधिक आर्थिक एवं राजनीतिक लाभ प्राप्त करना।
  3. मुगल साम्राज्य के अवशेष पर मराठा साम्राज्य का आधिपत्य स्थापित करना।
  4. चैथ एवं सरदेशमुखी करों तथा लूटपाट के माध्यम से अधिकाधिक धन की प्राप्ति करना।
  5. आंतरिक एवं बाह्य स्तर पर विरोधियों का दमन करना।
  • मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोषणा करते हुए बाजीराव प्रथम ने कहा ‘‘हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर आक्रमण करना चाहिए, शाखाएं तो स्वयं ही गिर जायेगी।’’
  • निजामुल-मुल्क ने अपनी स्थिति मजबूत होने पर पुनः मराठों के खिलाफ कार्यवाही शुरू कर दी तथा चैथ देने से इन्कार कर दिया। परिणामस्वरूप 1728 ई . में बाजीराव ने निजामुल-मुल्क को पालखेड़ा के युद्ध में पराजित किया।
  • युद्ध में पराजित होने पर निजामुल मुल्क संधि के लिए बाध्य हुआ। 6 मार्च 1728 ई . में दोनों के बीच मुंगी शिवगांव की संधि हुई जिसमें निजाम ने मराठों को चैथ और सरदेशमुखी देना स्वीकार कर लिया। इस संधि से दक्कन में मराठों की सर्वोच्च ता स्थापित हो गई।
  • इस संधि से शाहू को मराठों के एकमात्र नेता के रूप में मान्यता देने आदि सभी शर्तें मंजूर की गई किन्तु उसने शम्भा जी को शाहू को सौंपने से इंकार कर दिया।
  • 1731 ई . डभोई के युद्ध में बाजीराव ने त्रियम्बकराव को पराजित कर सारे प्रतिद्वन्दियों का अन्त कर दिया।
  • 1731 ई . को वार्ना की संधि द्वारा शम्भाजी द्वितीय ने शाहू की अधीनता स्वीकार कर ली।
  • 1737 ई . में मुगल बादशाह ने निजाम को मराठों के विरूद्ध भेजा। परन्तु इस बार भी बाजीराव उससे अधिक योग्य सेनापति सिद्ध हुआ। उसने निजाम को भोपाल के पास युद्ध में पराजित किया।
  • भोपाल युद्ध के परिणामस्वरूप 1738 ई . में दुरई-सराय की संधि हुई। इस संधि की शर्तें पूर्णतः मराठों के अनुकूल थी। निजाम ने सम्पूर्ण मालवा का प्रदेश तथा नर्मदा से चम्बल के इलाके की पूरी सत्ता मराठों को सौंप दी।
  • 1739 ई . में बेसीन की विजय बाजीराव ने पुर्तगालियों से सालसीट तथा बेसीन छीन ली। यूूरोपीय शक्ति के विरूद्ध यह मराठों की महानतम विजय थी।

गुजरात के साथ संबंध

  •  बाजीराव प्रथम के समय 1727-29 ई . में मराठों के लगातार होने वाले आक्रमणों से आतंकित होकर गुजरात के तत्कालीन मुगल सूबेदार सरबुलंद खां ने मराठों को सूरत छोड़कर सम्पूर्ण गुजरात की चैथ व सरदेशमुखी तथा अहमदाबाद के राजस्व का 5 प्रतिशत देना स्वीकार कर दिया। मुगल बादशाह ने सरबुलंद खां को निलंबित कर 1730 ई . में मारवाड़ के शासक अभय सिंह के पास मित्रता का प्रस्ताव रखा, जिसे स्वीकार कर उसने फरवरी, 1731 ई . में बाजीराव के साथ संधि कर ली। इस संधि के तहत अभय सिंह ने 13 लाख रूपये वार्षिक देना स्वीकार कर लिया।

निजाम के साथ संघर्ष

  •  अपने कार्यकाल के प्रथम वर्ष में ही बाजीराव प्रथम ने 15 दिसम्बर, 1720 ई . को निजाम-उल-मुल्क को पराजित किया। बाद में उसने निजाम-उल-मुल्क के साथ संधि कर ली।
  • 1724 ई . में दिल्ली दरबार की गुटबंदी के कारण निजाम-उल-मुल्क तथा मुबारक-उल-मुल्क के बीच शंकरखेड़ा का युद्ध हुआ। मराठों द्वारा की गई सैनिक सहायता के कारण निजाम-उल-मुल्क इस युद्ध में विजयी हुआ।
  • कर्नाटक अभियान के समय निजाम-उल-मुल्क और बाजीराव प्रथम की मित्रता समाप्त हो गई तथा दोनों के बीच 15 फरवरी, 1728 ई . को पालेखेड़ा में युद्ध हुआ। इस युद्ध में निजाम बुरी तरह पराजित हुआ और दोनों पक्षों में मुंशी-शेगांव की संधि हुई।

सैन्य शक्ति का संगठन

  •  बाजीराव दूरदर्शी एवं कूटनीतिज्ञ था। इसलिए, उसने सैन्य शक्ति के संगठन पर सर्वाधिक बल दिया। उसे पता था कि सैन्य शक्ति के संगठन के बिना न तो साम्राज्य को सुदृढ़ता प्रदान की जा सकती है ओर न ही साम्राज्य का विस्तार किया जा सकता है। शिवाजी के बाद गुरिल्ला युद्ध (छापामार युद्ध) का सबसे बड़ा ज्ञाता बाजीराव प्रथम ही था। उसने कुशल पैदल एवं अश्वारोही सेना का संगठन किया।
  •  बाजीराव प्रथम ने हिंदूपद पादशाही के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था
  • उसने काफी हदतक अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में सफलता भी हासिल की।
  • दुर्भाग्यवश अपनी प्रेयसी मस्तानी के वियोग में 1740 ई . में उसकी मृत्यु हो गई ओर ‘हिंदू पद पादशाही’ का उसका सपना अधूरा रह गया। उसके उत्तराधिकारी पुत्र बालाजी बाजीराव ने उसके सभी अधूरे कार्यों  को तो पूरा किया, लेकिन उसके समय में हिंदूपद पादशाही के सिद्धांत का परित्याग कर दिया गया था। 

पानीपत का तृतीय युद्ध (14 जनवरी, 1761 ई .)

  • पानीपत का तृतीय युद्ध मुख्यतः दो कारणों का परिणाम रहा। प्रथम, नादिर शाह की भांति अहमदशाह अब्दाली भी भारत को लूटना चाहता था। दूसरा, मराठे हिन्दू पादशाही की भावना से प्रेरित होकर दिल्ली पर प्रभाव स्थापित करना चाहते थे।
  • पानीपत का तृतीय युद्ध भारतीय इतिहास को निर्णायक मोड़ देता है। इस युद्ध के बाद मराठा शक्ति का क्षरण होने लगा। इसने यह साबित कर दिया कि किसी भारतीय शक्ति द्वारा भारत में विशाल साम्राज्य की स्थापना मुमकिन नहीं है।
  • 1761 ई . में अफगान आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली और मराठों के बीच पानीपत में जो युद्ध लड़ा गया, उसे पानीपत के तृतीय युद्ध की संज्ञा दी जाती है।
  • ऐसा इसलिए कि इसके पूर्व 1526 ई . में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी और मुगल आक्रमणकारी बाबर के बीच पानीपत में प्रथम युद्ध हुआ था और 1556 ई . में मुगल बादशाह अकबर और अफगान शासक आदिलशाह सूर के सेनापति और मंत्री हेमू के बीच पानीपत में द्वितीय युद्ध लड़ा गया। पानीपत का तृतीय युद्ध अब्दाली के भारत पर पांचवें अभियान के समय लड़ा गया।

युद्ध के कारण

 पानीपत के तृतीय युद्ध के अनेक कारण थे, परन्तु उनमें जो प्रमुख थे वे हैं-

नादिरशाह का आक्रमण

  •  भारत पर आक्रमण करने वाले विदेशियों में नादिरशाह सर्वाधिक खतरनाक था
  • उसने भारत पर मात्र एक बार 1739 ई . में आक्रमण किया, परन्तु उसका आतंक लम्बे समय तक बना रहा। उसके भारत अभियान के समय उसका सेनापति अहमदशाह अब्दाली था।
  • उस समय अब्दाली ने यह अनुभव किया कि मुगल बादशाह काफी कमजोर स्थिति में है और भारत में आक्रमण करना मुश्किल नहीं है। इस स्थिति का लाभ उठाकर पहले चार अभियान तो उसने अन्य क्षेत्रों में किए, परन्तु पांचवां अभियान उस समय की सर्वाधिक शक्तिशाली मराठा शक्ति के विरूद्ध किया।

मराठा-मुगल संधि

  •  दिल्ली के मुगल बादशाह के वजीर सफदरजंग की सहायता से मराठों ने अपने राजनीतिक तथा आर्थिक लाभ के लिए 1752 ई . में मुगलों के साथ संधि कर ली।
  • इस संधि के तहत मुगल वजीर को मराठों पर सैन्य बल को बनाए रखने के लिए तथा मुगल साम्राज्य की सुरक्षा का दायित्व सौंपा गया। इस संधि ने मुगल दरबार के अमीरों, सूबेदारों तथा अब्दाली के प्रति मराठा दृष्टिकोण को अत्यधिक प्रभावित एवं परिवर्तित किया।
  • मराठों ने एक मुगल सम्राट को हटाकर दूसरे को राजसिंहासन सौंपने पर बल दिया। मराठों के बढ़ते हस्तक्षेप से मुगल अमीर उनके विरोधी हो गए और मौका पाकर उन्होंने अब्दाली को समर्थन कर मराठों से बदला लिया।

नजीम खां द्वारा अब्दाली को आमंत्रण

  •  1752 ई . में मराठों ने रूहेलखण्ड तथा दोआब क्षेत्र में भीषण लूटपाट की, जिसके कारण दोआब का शासक नजीम खां मराठों का विरोधी हो गया। उसने मराठों के उत्तर भारत में बढ़ते हस्तक्षेप को रोकने के लिए अहमदशाह अब्दाली को आक्रमण के लिए आमंत्रित किया तथा उसे सैनिक और आर्थिक सहायता भी दी।

मराठों की विस्तारवादी नीति

  •  पेशवा बालाजी बाजीराव बहुत ही महत्वाकांक्षी था।
  • उसने कर्नाटक में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था तथा मुगल साम्राज्य के संरक्षक के रूप में पंजाब तथा उत्तर-पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। वह इन क्षेत्रों में हिंदू प्रभाव को फिर से स्थापित करना चाहता था।
  • पंजाब में विस्तार के प्रयासों के दौरान ही मराठों का अब्दाली के साथ प्रत्यक्ष संघर्ष हो गया।

तात्कालिक कारण

  •  अहमदशाह अब्दाली ने नजीबुद्दौला को मुगल शासक के मीरबख्शी के पद पर नियुक्त किया था। अब्दाली के प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली में उसे सर्वोच्च  शक्ति प्रदान की गई थी।
  • परन्तु, मराठों ने इस बात की अनदेखी करते हुए दिल्ली पर आक्रमण कर दिया और अपनी शर्तों  के अनुरूप नजीबुद्दौला को समझौता करने के लिए बाध्य किया।
  • इसके अतिरिक्त पंजाब में भी मराठों ने अब्दाली के पुत्र तैमूरशाह और उसके सेनापति जहां खां को पराजित कर पंजाब से भगा दिया और लाहौर तथा सरहिंद पर अपना अधिकार कर लिया।
  • 1757 में दिल्ली व पंजाब में अब्दाली द्वारा स्थापित सत्ता को मराठों ने न केवल चुनौती दी, अपितु समाप्त ही कर दिया। इसी समय दिल्ली में शासक आलमगीर द्वितीय की हत्या कर दी गई और हत्यारों को मराठों ने समर्थन तो दिया ही नये बादशाह की नियुक्ति में सक्रिय भूमिका भी निभायी।
  • इन घटनाओं ने अहमदशाह अब्दाली को क्रोधित कर दिया और अब उसने मराठा शक्ति को नष्ट करने का निर्णय लिया। मराठे भी इन परिस्थितियों से अवगत थे, इसलिए दोनों के बीच युद्ध अवश्यम्भावी हो गया।

युद्ध का परिणाम

  • पानीपत का तृतीय युद्ध अल्प समय में ही समाप्त हो गया, किन्तु इसने भारतीय इतिहास पर बड़ा ही व्यापक प्रभाव छोड़ा।
  • मुगल बादशाह अपने पुराने शत्रु मराठों से मित्रता करने के बाद भी अपनी रक्षा नहीं कर सका। इस युद्ध में हार के बाद से पेशवा के प्रभाव में कमी आ गयी और वह मराठा सरदारों के ऊपर अपना नियंत्रण कायम करखने में अक्षम हो गया।
  • मराठा संघ की एकता भंग हो गयी और मुगल साम्राज्य के खण्डहर पर मराठा साम्राज्य की स्थापना का सपना कल्पनामात्र ही रह गया।
  • मराठा शक्ति के पतन, मुगल साम्राज्य के अपकर्ष आदि ने ब्रिटिश शक्ति के उदय का मार्ग प्रशस्त किया।

माधवराव (1761-1772 ई .)

  • पानीपत के तृतीय युद्ध में अपनी सेना की पराजय की खबर सुनकर बालाजी बाजीराव की स्थिति खराब हो गई। कुछ ही समय बाद उसकी मृत्यु हो गई।
  • उसकी मृत्यु के बाद माधवराव छोटी अवधि के लिए पेशवा बना।
  • उसके संरक्षक के रूप में रघुनाथ राव के हाथों में सत्ता आ गयी।
  • माधवराव ने रघुनाथराव के हस्तक्षेपों से बचने के लिए 1768 ई . में उसके साथ गृहयुद्ध किया। इस युद्ध में पराजित कर रघुनाथराव को बंदी बना लिया गया।
  • उसने निजाम अली को पराजित किया, परन्तु हैदरअली ने अपने प्रदेश में मराठों के प्रभुत्व का अंत कर दिया।
  • माधवराव ने नागपुर के भौंसले को भी पराजित किया।
  • दिल्ली में मुगल बादशाह की प्रतिष्ठा को फिर से कायम करने में भी माधवराव को सहायता मिली।
  • 1771-72 ई में उसने मालवा तथा बुंदेलखण्ड पर फिर से अधिकार स्थापित कर लिया। जाटों और रूहेलों को पराजित कर फिर से ‘चौथ’ देने के लिए बाध्य किया गया।
  • माधवराव 1761 ई . से 1772 ई . तक पेशवा रहा।

नारायण राव (1772-1774 ई .)

  • 1772 ई . में माधवराव की मृत्यु के बाद उसका भाई नारायण राव मराठों का पेशवा बना।
  • बालाजी बाजीराव के भाई रघुनाथ राव ने षड्यंत्र कर नारायण राव का वध करवा दिया।
  • इसके बाद थोड़े समय के लिए रघुनाथ राव पेशवा बना, परन्तु उसे मराठा सरदारों के असंतोष के कारण अपना पद छोड़ना पड़ा।

बाजीराव द्वितीय (1796-1818 ई .)

  • माधव नारायण की मृत्यु के पश्चात राघोबा का पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बना।
  • वह एक अकुशल शासक था जिसने अपनी स्थिति बचाए रखने के लिए एक अधिकारी का दूसरे अधिकारी से मतभेद प्रारम्भ कराया। इससे मराठा बन्धुत्व पर गहरा धक्का लगा।
  • 1802 ई . में बेसीन की संधि के तहत सहायक संधि स्वीकार का लेने से मराठा अधिकारियों में मतभेद प्रारम्भ हो गया। सिन्धिया तथा भोसले ने इस संधि का कड़ा विरोध किया।

आंग्ल मराठा संघर्ष

  •  उत्तरकालीन मुगल शासकों की कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर मराठों ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर दिल्ली पर पकड़ बनाने का प्रयास शुरू कर दिया था।
  • एक तरफ अंग्रेज भी शेष यूरोपीयों को पीछे छोड़ सर्वश्रेष्ठ शक्ति के रूप में उभर रहे थे। 18वीं शताब्दी के अन्तिम 25 वर्षों  में इन दोनों शक्तियों में टकराव की स्थितित आ गई। परिणामस्वरूप इनके बीच तीन युद्ध हुए।

प्रथम आंग्ल मराठा (1775-82 ई .)

  • अंग्रेजों को मराठां के मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर तब मिला जब मराठा संघ के प्रमुख पेशवा पद के लिए मराठों में मतभेद हुआ।
  • 1772 ई . में माधव राव की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र नारायण राव अपने चाचा रघुनाथ राव, जो पेशवा बनना चाहता था, के षड्यंतों का शिकार बन गया।
  • नारायण राव की मृत्यु के पश्चात रघुनाथ राव पेशवा बना किंतु नाना फड़नवीस के नेतृत्व में पेशवा पद के उसके अधिकार को चुनौती देते हुए नारायण राव के मरणोपरांत उसकी पत्नी गंगा बाई से उत्पन्न पुत्र को पेशवा के पद पर स्थापित कर दिया गया।
  • पेशवा पद प्राप्त करने में असफल सिद्ध होने पर रघुनाथ राव ने अंग्रेजों से सूरत की संधि (1775 ई .) कर ली ताकि वह अंग्रेजों की सहायता से पेशवा बन जाए।
  • दोनों पक्षों के बीच युद्ध 7 वर्षों  तक चलता रहा। अंततः सालबाई की संधि (1782 ई .) से युद्ध समाप्त हुआ। यह शक्ति परीक्षण अनिर्णायक सिद्ध हुआ।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-05 ई .)

  • प्रथम मराठा युद्ध के बाद 20 वर्षों  तक अंग्रेजों और मराठों के बीच शांति स्थापित रही। किन्तु पेशवा बाजीराव द्वितीय द्वारा 1802 ई . में सहायक संधि स्वीकार करने से द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध का बीजारोपण हो गया
  • इस संघर्ष का दूसरा दौर फ्रांसीसी भय से संलग्न था। 1800 ई . में पूना के मुख्यमंत्री नाना फडनवीस की मृत्यु हो गई, इसकी मृत्यु मराठों के लिए अभिशाप बनकर आई।
  • नाना फड़नवीस से मुक्त होने के बाद बाजीराव द्वितीय ने अपना घिनौना रूप दर्शाया। उन्होंने अपनी स्थिति को बनाए रखने के लिए मराठा सरदारों में झगड़े करवाये तथा षड्यंत्र रचे।
  • 1801 ई . में पेशवा ने जसवन्त राव होल्कर के भाई बिट्ठू जी की हत्या कर दी। होल्कर ने पूना पर आक्रमण कर सिन्धिया व पेशवा की सेना को पराजित कर, पूना पर अधिकार कर लिया। उसने अमृतराव के पुत्र बिनायकराव को पूना की गद्दी पर बैठा दिया।
  • बाजीराव द्वितीय ने भागकर बेसीन में शरण ली और 1802 ई . को अंग्रेजों से एक संधि (बसीन की संधि) की। संधि के अनुसार-
  • पेशवा ने अंगे्रजी संरक्षण स्वीकार कर भारतीय तथा अंग्रेज पदातियों की सेना को पूना में रखना स्वीकार किया।
  • पेशवा ने सूरत नगर कम्पनी को दे दिया।
  • पेशवा ने निजाम से चैथ प्राप्त करने का अधिकार छोड़ दिया और अपने विदेशी मामले कम्पनी के अधीन कर दिये।
  • मराठों के लिए यह संधि राष्ट्रीय अपमान के समान था अतः भोसले ने अंग्रेजों को चुनौती की। गायकवाड़ तथा होल्कर इस युद्ध से अलग रहे। वेलेजली तथा लाॅर्ड लेक ने मराठों को पराजित करके उसे संधि के लिए विवश किया।
  • सिन्धिया ने 1803 ई . में सुरजी-अर्जुन गांव की संधि से गंगा तथा यमुना के क्षेत्र कम्पनी को दे दिये।

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818 ई .)

  • इस युद्ध का तृतीय तथा अंतिम चरण लार्ड हेस्टिंग्स के आने पर प्रारंभ हुआ।
  • हेस्टिंग्स के पिण्डारियों के विरूद्ध अभियान से मराठों के प्रभुत्व को चुनौती मिली अतएव दोनों दल युद्ध में खिंच आये।
  • इस सुव्यवस्थित अभियान के कारण हेस्टिंग्स ने नागपुर के राजा को 27 मई, 1816 को, पेशवा को 13 जून, 1817 को तथा सिन्धिया को 5 नवम्बर, 1817 को अपमान जनक संधियां करने पर बाध्य किया।विवश होकर पेशवा ने दासत्व का बंधन तोड़ने का एक अन्य प्रयत्न किया किन्तु असफल रहा। बाजीराव का पूना प्रदेश अंग्रेजी राज्य में विलय कर लिया गया।

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