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मराठा प्रशासन पेशवाओं के काल में

  •  छत्रपति शिवाजी ने मराठा साम्राज्य की स्थापना की थी और साम्राज्य को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए समुचित शासन व्यवस्था का भी प्रबंध किया था।
  • आधुनिक मंत्रिपरिषद के रूप में उसने अष्टप्रधान नामक एक प्रशासनिक संस्था का गठन किया था, जिसमें आठ प्रकार के विभिन्न विभागों और विभाग प्रमुखों की व्यवस्था की गई थी|
  •  शिवाजी के शासनकाल में अष्टप्रधानों में पेशवा का पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण था, लेकिन उस पर राजा का पूर्णरूप से नियंत्रण था।
  • शाहू के शासनकाल में मराठा परिसंघ की स्थापना हुई और परिसंघ का पहला तथा साम्राज्य का सातवां पेशवा बालाजी विश्वनाथ बना। उसने पेशवा के पद को वंशानुगत बना दिया तथा शासन का प्रमुख कार्यभार पेशवा के हाथों में केन्द्रित कर दिया ।
  • इसी समय से राजा या छत्रपति का पद गौण हो गया तथा पेशवा का पद प्रधान। पेशवाओं के शासनकाल में मराठा प्रशासन में कई मूलभूत परिवर्तन हुए, जिनका अध्ययन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

केन्द्रीय प्रशासनिक व्यवस्था

  • ‘‘हजूर दफ्तर’’ मराठा प्रशासन का पूना में स्थित सचिवालय था। इस दफ्तर में अनेक विभाग एवं उपविभाग थे।  यहां विभिन्न प्रकार के व्ययों को एक निश्चित वर्णानुक्रम में सारणी में संचित कर रखा जाता था तथा ऐसे सभी लेखों का विभाग ‘‘एलबेरीज’’ था।
  • चातले दफ्तर’ भी एक प्रमुख विभाग था, जिसमें वित्तीय आंकड़े उपलब्ध रहते थे। इसका कार्य फड़नवीस देखता था।
  • ‘हजूर दफ्ती’ कई वर्षों  तक सुगमतापूर्वक प्रयोग में लाया जाता रहा, लेकिन पेशवा बालाजी के समय यह दफ्तर पतनशील हो गया।

प्रान्तीय तथा जिला प्रशासन

  • सूबे को प्रान्त तथा तरफ एवं परगने को महल कहा जाता था। प्रत्येक प्रान्त एक सर सूबेदार के अधीन होता था।
  • कर्नाटक के सर सूबेदार को अधिक अधिकार प्राप्त था वह अपने मामलतदार स्वयं नियुक्त करता था। मामलतदार तथा कामविसदार, दोनों ही जिलों में पेशवा के प्रतिनिधि होते थे।
  • मामलतदार पर मण्डल, जिले, सरकार, सूबा इत्यादि का कार्यभार होता था। वे सभी प्रकार के कार्यों  की देखभाल करते थे। जैसे कि खेती अथवा उद्योग का विकास, दीवानी तथा फौजदारी न्याय, नागरिक सेना, पुलिस तथा सामाजिक और धार्मिक झगड़ों में विवेचना इत्यादि।
  • ग्रामों में कर निर्धारण मामलतदार, स्थानीय पटेलों के परामर्श से करता था।
  • मामलतदार तथा कामविसदार के वेतन तथा भत्ते भिन्न-भिन्न जिलों की महत्ता के अनुसार होते थे। शिवाजी के काल में ये अधिकार हस्तान्तरणीय होते थे परन्तु पेशवाओं के अधीन ये वंशानुगत हो गये।
  • देशमुख तथा देशपाण्डे अन्य जिलाधिकारी थे जो मामलतदार पर एक नियंत्रण के रूप में कार्य करते थे। ये जमींदारों के वंशज थे, जिन्हें शिवाजी ने उनके आनुवंशिक पद से हटा दिया था तथा उन्हें कर वसूल करने की छूट दे दी थी।
  • प्रशासन में भ्रष्टाचार रोकने का कार्य देशमुख तथा देशपाण्डे नामक अधिकारी करते थे।
  • प्रत्येक जिले में एक कारकून भी होता था जो विशेष घटनाओं की सूचना सीधे केन्द्र को देता था।
  • महल में मुख्य कार्यकर्ता हवलदार होता था तथा मजूमदार और फड़नवीस उसकी सहायता करते थे।

स्थानीय अथवा ग्राम शासन

  • पेशवाओं के प्रशासन काल में पुराने आत्म निर्भर और स्वावलम्बी ग्राम समुदाय का महत्व कम नहीं हुआ।
  • ग्राम का मुख्य अधिकारी (मुखिया) पाटिल (पटेल) होता था जो कर संबंधी न्यायिक तथा अन्य प्रशासनिक कार्य करता था। वह ग्राम तथा पेशवा के प्रशासन के बीच मध्यस्थ था। पाटिल का पद अनुवांशिक था।  पटेल को सरकार से वेतन नहीं मिलता था, वह एकत्रित कर का एक छोटा सा भाग अपने लिए रख लेता था।
  • पटेल के अधीन कुलकर्णी (ग्राम लिपिक) होता था जो ग्राम की भूमि का लेखा रखता था। कुलकर्णी के नीचे चैगुले होता था जो पटेल की सहायता करता था तथा कुलकर्णी के लेखे की देखभाल करता था।
  • सिक्कों के निर्धारित भार और धातु की शुद्धता की जांच का काम पोतदार करता था। गांव की औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति बारह कारीगरों (वलूतो) द्वारा की जाती थी।
  • मराठों का नागरिक प्रशासन मौर्य प्रशासन से मिलता-जुलता था। कोतवाल नगर का मुख्य शासक होता था। वह नगर का मुख्य दण्डाधिकारी तथा पुलिस का मुखिया होता था।

न्याय प्रणाली

  • प्राचीन हिन्दू स्मृतिकारों का सबसे अधिक प्रभाव मराठा न्याय प्रणाली में देखने को मिलती है। मराठा कानून प्राचीन संस्कृत, स्मृतिग्रंथों, दायभाग तथा मनुस्मृति आदि पर आधारित थे।
  • पाटिल गावं का, मामलतदार जिले का, सर सूबेदार सूबे (प्रान्त) का न्यायिक अधिकारी होता था। इनके ऊपर सतारा का राजा होता था।
  • दीवानी मुकदमों का फैसला पंचायते करती थी। उन्हें प्रायः पंचपरमेश्वर कहते थे। पंचायत से अपील मामलतदार के यहां होती थी।
  • ग्राम की पुलिस पाटिल के अधीन तथा जिले की पुलिस मामलतदार के अधीन होती थी।

आय के स्रोत

  • पेशवा के शासन काल के दौरान राज्य के राजस्व के मुख्य स्रोत थे-(1) भू-राजस्व, (2) विविध कर।
  • विविधकर-गृह कर, कूप सिंचित भूमि पर कर, सीमा शुल्क, माप और तौल के परीक्षण के लिए वार्षिक शुल्क आदि, विधवाओं के पुनर्विवाह पर कर आदि।
  • पेशवाओं ने विधवा के पुनर्विवाह पर ‘पतदाम’ नामक कर लगाया।
  • राज्य की आय के अन्य स्रोत चौथ  (25 प्रतिशत) तथा सरदेशमुखी (10 प्रतिशत) थी जो उन प्रदेशों को देनी पड़ती थी जो मराठों की अधीन आ जाते थे।
  • चौथ की आय का बंटवारा-बबती अर्थात 1/4 भाग राजा के लिए, सहोत्रा अथवा 6 प्रतिशत पन्त सचिव के लिए, नाडगुण्डा अथवा 3 प्र्रतिशत राजा की इच्छा पर निर्भर था तथा शेष मोकास अथवा 66 प्रतिशत मराठा सरदारों को घुड़सवार रखने के लिए दिया जाता था।
  • सरदेशमुखी भी चौथ की तरह था, लेकिन जब यह प्रदेश सीधा मराठा साम्राज्य में विलय कर लिया जाता था तो 66 प्रतिशत (मोकासा) जागीर के रूप में बांट दिया जाता था।
  • कर्जापट्टी अथवा जस्ती पट्टी जमींदारों पर लगने वाला असाधारण कर था।
  • भू-राजस्व-भूमि कर राज्य की आय का मुख्य साधन था। शिवाजी खेत की वास्तविक उपज का भाग लेना पसंद करते थे परन्तु पेशवाओं के काल में यह लम्बी अवधि के लिए निश्चित कर दिया जाता था।
  • कृषक को नई भूमि जोतने की प्रेरणा देने के लिए उस पर कर कम होता था। पेशवा माधवराव ने बंजर तथा पथरीली भूमि को जोतने पर आज्ञा दी कि ऐसी भूमि का आधा भाग ईनाम के रूप में किसान को दिया जायेगा
  • कर लगाने तथा एकत्रित करने की व्यवस्था समस्त देश में एक सी  नहीं थी।
  • इस प्रकार मराठा कर व्यवस्था में कर दाता को संरक्षण मिलता था। परन्तु बाजीराव द्वितीय के काल में यह व्यवस्था नष्ट हो गई तथा कर वसूली का अधिकार नीलामी (इजारा) कर दिया गया।
  • कामविसदार चौथ  वसूल करते थे तथा गुमाश्ता सरदेशमुखी की वसूली करते थे।
  • सरदेशमुखी पूर्णतः राजा के हिस्से में होती थी और इसकी उगाही सीधे काश्तकारों से ही की जाती थी।
  • राजस्थान में मराठों ने चौथ तथा सरदेशमुखी की वसूली की मांग नहीं की। यहां के रााओं पर खानदानी तथा मामलत (खराज) लगाया जाता था। केवल अजमेर ही सुरक्षात्मक उद्देश्य के कारण मराठों के प्रत्यक्ष नियंत्रण था।
  •  मीरासदार (जमीदार) वे काश्तकार थे जिनकी अपनी भूमि होती थी तथा उत्पादन के साधनों जैसे-हल, बैल आदि पर अधिकार होता था। मीरासदारों को संभवतः कर विमुक्त भूमि प्राप्त थी। शिवाजी के काल में मीरासदारों की स्थिति सामान्य किसानों के समकक्ष हो गई।
  • उपरिस बटाईदार थे, जिन्हें कभी भी बेदखल किया जा सकता था। वे पेशवा के जिलाधिकारियों की अनुमति से और उनकी देखरेख में कृषि करते थे।
  • राजाराम तथा शाहू के अन्तर्गत राज्य के प्रमुख अधिकारियों के पद व्यवहारतः वंशानुगत हो गये थे। अधिकारियों को जो भूमि पहले मोकामा (भूमि अनुदान) तथा सरन्जाम के तौर पर दी जाती थी वह पेशवा काल में वंशानुगत बन गई थी तथा उसे जागीर कहा जाने लगा था।
  • प्रारम्भ में जागीर तथा मोकासा वंशानुगत श्रेणी में नहीं थे किन्तु सत्रहवीं शताब्दी के बाद ये दोनों ही अनुदान वंशानुगत हो गये।
  • बरगीर सरदारों की सेना के निर्वाह का मुख्य साधन शत्रु इलाकों में लूटमार करना था। वतनदार वंशानुगत आधार पर तथा सरदार राज्य की ओर से भूमि व भू-राजस्व के नियंत्रण में समान रूप से भागी थे।

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