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आंग्ल-भारतीयों के लिए उपबंध

अनुसूचित जाति, जनजाति व अन्य पिछड़ी जातियों की भांति संविधान ने उन व्यक्तियों को भी परिभाषित किया है जो आंग्ल-भारतीय समुदाय के हैं। इसके अनुसार, आंग्ल-भारतीय व्यक्ति वह है जिसके पिता अथवा अन्य कोई पूर्वज पुरूष, यूरोपीय समुदाय का हो परंतु भारत क्षेत्र का निवासी हो और उस क्षेत्र में पैदा हुआ हो जहां उसके माता-पिता निवास करते हों तथा उस क्षेत्र से उनका संबंध अस्थायी न हो।

संविधान  में आंग्ल-भारतीयों की हितों के सुरक्षा के संबंध में उपबंध हैं। ये उपबंध अस्थायी हैं तथा निश्चित कार्यकाल के लिए लागू होते हैं। वे हैं-

1.यदि आंग्ल-भारतीय समुदाय का उचित प्रतिनिधित्व नहीं हो तो राष्ट्रपति, लोकसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय के दो सदस्यों को नामित कर सकता है। इसी प्रकार राज्यों में राज्यपाल राज्य विधान सभा में एक आंग्ल-भारतीय सदस्य को नामित कर सकता है।  यदि उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व न हो। प्रारंभ  में यह प्रतिनिधित्व दस वर्षो के लिए था (1960 तक) परंतु यह कार्यकाल तब से हर बार दस वर्षो के लिए बढ़ा दिया जाता है। अब, 79वें संविधान संशोधन अधिनियम 1999 के अंतर्गत यह विशेष प्रतिनिधित्व 2010 तक लागू है।

इस विशेष प्रतिनिधित्व (आंग्ल-भारतीयों का ) के कारण हैं- आंग्ल-भारतीय  एक धार्मिक, सामाजिक और भाषायी अल्पसंख्यक समुदाय का निर्माण करता है ये उपबंध संख्या बल के आधार पर अति सूक्ष्म समुदाय के लिये आवश्यक थे, जो कि पूरे देश में इधर-उधर फैले हैं, वे किसी निर्वाचन द्वारा निर्वाचित होने की स्थिति में नहीं होते है।

2.स्वतंत्रता के पूर्व रेलवे, सीमा शुल्क विभाग, डाक विभाग और टेलीग्राम सेवाओं में आग्ल-भारतीयों के लिए कुछ पद आरक्षित होते थे। इसी प्रकार आग्ल-भारतीय शिक्षण संस्थाओं को राज्य व केंद्र द्वारा विशेष सहायता दी जाती थी। इन सुविधाओं को एक प्रगतिशील धारा के साथ संविधान के अंतर्गत जारी रखा गया जो अन्त में 1960 में समाप्त हो गई।

3.अनुसूचित जाति व जनजाति आयोग का भी आंग्ल-भारतीयों के संबंध में वे ही कर्तव्य है जो अनुसूचित जाति व जनजातियों  लिए हैं। अन्य शब्दों आंग्ल-भारतीयों के संवैधानिक व विधिक उपायों से संबंधित सभी मामलों की जांच, आयोग करेगा तथा राष्ट्रपति को इसका प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा।

 

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