• Have Any Questions
  • +91 6307281212
  • smartwayeducation.in@gmail.com

Study Material



सल्तनकालीन प्रशासनिक व्यवस्था

            दिल्ली सल्तनत धर्मसापेक्ष राज्य था। सम्पूर्ण सल्तनत काल में ‘इस्लाम’ राजधर्म बना रहा। इस समय राजवंश तथा शासक-वर्ग इस्लाम धर्म से संबद्ध थे। दिल्ली सल्तनत में शासकों का आचरण भी कुरान के नियमों द्वारा नियंत्रित होता था। सुल्तान को न केवल अपने निजी जीवन में, अपितु शासन के संबंध में भी इस्लामिक कानूनों के अनुसार चलना पड़ता था। तत्कालीन प्रचलित प्रथा के अनुरूप दिल्ली सल्तनत के सुल्तान भी खुद को खलीफा का नायब कहते, उससे मान्यता प्राप्त करते और सिक्कों तथा खुतबों में उसका उल्लेख करते थे।

अलाउद्दीन खिलजी और उसके पुत्र मुबारकशाह खिलजी ने खलीफा की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया और मुबारकशाह ने तो खुद को ही खलीफा घोषित कर दिया।

 

सुल्तान

  • दिल्ली सल्तनत का प्रमुख सुल्तान कहलाता था।
  • सुल्तानों का चयन 2 प्रकार किया जाता था -
    • चुनाव प्रणाली और
    • वंशानुगत प्रणाली।
  • सैद्धांतिक दृष्टि से प्रत्येक सच्चे मुसलमान के लिए सुल्तान के पद का द्वार खुला था, किन्तु व्यावहारिक रूप से यह तुर्की मुसलमानों तक ही सीमित था।
  • सुल्तान, दिल्ली सल्तनत की प्रमुख कार्यपालिका का कार्य करता था। वह नियमों के कार्यान्वयन के साथ उनकी व्याख्या भी करता था। इसके अतिरिक्त सुल्तान सर्वाेच्च न्यायाधिकारी भी था। राज्य में न्याय का स्रोत सुल्तान था।
  • साम्राज्य का सर्वाेच्च सेनापति भी सुल्तान ही होता था। वास्तविक रूप से सुल्तान पूर्णरूपेण निरंकुश था और उसका सत्ता पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं था।
  • सुल्तान की शक्ति का आधार धार्मिक तथा सैनिक था। कुरान की आज्ञा का उल्लंघन करने पर भी सुल्तान को तब तक अपदस्थ नहीं किया जा सकता था, जब तक कि एक विशाल सेना उसके अधिकार में हो।
  • सामान्यतः इस्लामिक राज्यों का स्वरूप लोकतांत्रिक था, किन्तु तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप दिल्ली सल्तनत की शासन-व्यवस्था को एक केंद्रीकृत संगठन का रूप धारण करना पड़ा था।
  • शासन में सहयोग के लिए अनेक प्रकार के अधिकारियों की नियुक्ति सल्तनत काल में की जाती थी।

 

मंत्रिगण

  • प्रशासन में सुल्तान को सहायता देने के लिए सल्तनत काल में अनेक प्रकार के मंत्री होते थे।
  • गुलाम वंश या दासवंश के समय चार प्रकार के मंत्री थे-वजीर, आरिज-ए-मुमालिक, दीवान-ए-इंशा तथा दीवान-ए-रसालत
  • आवश्यकतानुसार मंत्रियों की संख्या समय-समय पर घटती-बढ़ती रहती थी।

 

वजीर

  • सल्तनतकाल में प्रधानमंत्री वजीर कहलाता था। उसकी स्थिति सुल्तान तथा प्रजा के बीच में थी।
  • वह सुल्तान के नाम से महत्वपूर्ण पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था तथा सभी पदाधिकारियों की शिकायत सुना करता था।
  • सामान्य शासन-व्यवस्था का अध्यक्ष होने के अतिरिक्त वह विशेष रूप में वित्त विभाग का प्रमुख था।
  • इस दृष्टि से लगान के बंदोबस्त के लिए नियम बनाना, अन्य करों की दर निश्चित करना तथा राज्य के व्यय का नियंत्रण रखना उसका मुख्य उत्तरदायित्व था।
  • इसके अतिरिक्त असैनिक पदाधिकारियों के कार्यों का निरीक्षण भी वही करता था।
  • वजीर का कार्यालय दीवान-ए-विजारत कहलाता था। उसकी सहायता के लिए एक नायब वजीर होता था। नायब-वजीर के नीचे मुश्रिफ-ए-मुमालिक (महालेखाकार) होता था और उसके बाद मुस्तौफी-ए-मुमालिक (महालेखा परीक्षक) मुश्रिफे मुमालिक प्रांतों तथा अन्य विभागों से होने वाली आय का लेखा रखता था। और मुस्तौफी-ए-मुमालिक उसकी जांच किया करता था।
  • सैनिक विभाग की सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी वजीर के द्वारा ही होती थी।

 

दीवान-ए-आरिज

  • सल्तनत काल में सैनिक विभाग के प्रमुख को दीवान-ए-आरिज कहा जाता था।
  • उसका मुख्य कार्य सैनिकों की भर्ती करना, सैनिकों और घोड़ों की हुलिया रखना तथा फौजों का निरीक्षण करना था।
  • सेना के अनुशासन तथा साज-सज्जा और युद्धक्षेत्र में उसके कार्यों का निरीक्षण करना भी उसका कार्य था।

 

दीवान-ए-इंशा

  • सल्तनत काल में शाही पत्र-व्यवहार का प्रधान दीवान-ए-इंशा कहलाता था
  • उसकी सहायता के लिए अनेक दबीर अथवा लेखक रहते थे, जो लेखन-शैली में दक्ष होने के कारण ख्याति प्राप्त कर चुके होते थे।
  • सुल्तान का अन्य राज्यों के शासकों, महत्वपूर्ण अधीनस्थ सामंतों तथा राज्य के पदाधिकारियों से जो पत्र-व्यवहार होता था और जिसका बहुत कुछ अंश गुप्त रखा जाता था, उसकी निगरानी दीवान-ए-इंशा ही करता था।
  • सुल्तान के महत्वपूर्ण आदेशों के प्रारूप इसी विभाग में तैयार किए जाते थे।

 

दीवान-ए-रसालत

  • सल्तनत काल में एक अन्य प्रमुख पदाधिकारी दीवान-ए-रसालत था।
  • इसके संबंध में ऐसा माना जाता है कि इसका संबध या तो धार्मिक मामलों से था या विदेश विभाग से।
  • वस्तुतः इसका संबंध विदेश विभाग से ही था। कूटनीतिक पत्र-व्यवहार तथा विदेशों को भेजे जाने वाले और वहां से आने वाले राजदूतों का भार उसी पर था।
  • सल्तनत काल में दीवान-ए-रसालत बहुत ही महत्वपूर्ण पदाधिकारी था, क्योंकि सुल्तान देशी राजाओं के अतिरिक्त मध्य एशियाई शक्तियों से भी कूटनीतिक संबंध कायम करने के इच्छुक रहते थे।

 

सद्र-उस-सुदूर

  • धार्मिक विभाग तथा न्यायिक विभाग का कार्य करने के लिए दो अधिकारी थे-‘सद्र-उस-सुदूर’ और ‘दीवान-ए-कजा’।
  • सद्र-उस-सुदूर का कार्य था-इस्लामी नियमों और उपनियमों को लागू करना तथा यह देखना कि मुसलमानों द्वारा दैनिक जीवन में इनका पालन किया जा रहा है अथवा नहीं।
  • मुसलमानों के लिए दिन में पांच बार नमाज पढ़ना तथा रोजा रखना आवश्यक था।
  • दान के रूप में धन वितरित करने और उलेमा तथा विद्वानों को जीवन-निर्वाह के लिए भत्ते मंजूर करना भी सद्र-उस-सुदूर का कार्य था।
  • दीवान-ए-काजी, न्यायिक विभाग का प्रधान था तथा राज्य में न्याय-व्यवस्था का निरीक्षण करना उसका मुख्य कार्य था।
  • इनके अतिरिक्त ‘बरीद-ए-मुमालिक’ डाक तथा गुप्तचर विभाग का अध्यक्ष था; ‘दीवान-ए-अमीर कोही’ कृषि विभाग का अध्यक्ष था; ‘दीवान-ए-मुस्तखराज’ लगान वसूली का अध्यक्ष था;-'दीवान-ए-इस्तिहकाक’ पेंशन विभाग का अध्यक्ष था; ‘सर-ए-जांदार’ शाही गृह प्रबंधक था और ‘दीवान-ए-बंदगान’ गुलामों का प्रबंधक था।

Videos Related To Subject Topic

Coming Soon....