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Study Material



गुलाम वंश (1206 0 से 1290 ई0)

वंश नामकरण

  • दिल्ली पर शासन करने वाले सुल्तान 3 अलग-अलग वंशों के थे। कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुतबी, इल्तुतमिश ने शम्सीबलबन ने बलबनी वंश की स्थापना की थी। आरंभ में इसे दास वंश का नाम दिया गया क्योंकि इस वंश का प्रथम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक दास था।
  • इल्तुतमिश और बलबन भी दास थे। किंतु इस शब्द को मान्यता नहीं मिली क्योंकि इस वंश के 11 शासकों में केवल 3 शासक ऐबक, इल्तुतमिश व बलबन ही दास थे तथा सत्ता ग्रहण करने से पूर्व दासता से मुक्त कर दिए गए थे।
  • कुछ इतिहासकारों ने इसे इल्बारी वंश नाम दिया है परन्तु यह शब्द भी उचित नहीं माना गया क्योंकि सभी शासक इल्बारी जाति से संबंधित नहीं थे। ऐबक इल्बारी तुर्क नहीं था। बलबन स्वयं को इल्बारी तुर्क कहता था किन्तु उसके दरबारी इतिहासकार मिनहाजुद्दीन सिराज के तथ्य से यह सिद्ध नहीं होता। प्रथम इल्बारी शासक इल्तुतमिश था। अजीज अहमद ने इन शासको के लिए दिल्ली के आरंभिक तुर्क शासकों का नाम दिया है क्योंकि उनके अनुसार इन शासकों के लिए वंश शब्द का प्रयोग अनुचित था।
  • कुछ इतिहासकारों ने इन्हें संक्षेप में आदि तुर्क भी कहा है। अंततः हबीबुल्लाह द्वारा प्रस्तावित नाम मामलूक शासक ही सर्वाधिक मान्य है
  • मामलूक अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ गुलामी के बंधन से मुक्त माता-पिताओं से उत्पन्न वंशों से है। इस प्रकार 1206 ई.-1290 ई. तक के भारत पर शासन करने वाले शासकों को मामलूक नाम से संबोधित किया जाता है। मामलूक वंश के कुल 11 शासकों ने 84 वर्षों तक शासन किया।

 

प्रमुख शासक

कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1210 ई0)

  • कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में तुर्की राज्य का संस्थापक माना जाता है। वह दिल्ली का प्रथम तुर्क शासक था
  • सिंहासन पर बैठने पर उसने सुल्तान  की उपाधि नहीं ग्रहण की बल्कि केवल ‘मलिक’ और ‘सिपहसालार’ की पदवियों से ही संतुष्ट रहा।
  • ऐबक ने न,अपनेनाम का खुतबा पढ़वाया और न ही अपने नाम के सिक्के चलाए। बाद में गोरी के उत्तराधिकारी गियासुद्दीन ने उसे सुल्तान स्वीकार किया उसे दासता से मुक्ति 1208 में मिली थी।
  • ऐबक 1206 से 1210 तक लगातार लाहौर से ही शासन संचालन किया। लाहौर ही उसकी राजधानी थी
  • मिनहाजुद्दीन सिराज ने कुतुबुद्दीन ऐबक को एक वीर एवं उदार हृदय सुल्तान बताया है। वह लाखों मे दान दिया करता था तथा अपनी असीम उदारता के लिए उसे ‘लाखबख्श’ कहा गया।
  • हसन निजामी और फक्र-ए-मुदब्विर को ऐबक का संरक्षण प्राप्त था।
  • उसने प्रसिद्ध सूफी संत ‘ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी’ के नाम पर दिल्ली में कुतुबमीनार की नींव रखी जिसे इल्तुतमिश ने पूरा किया।
  • तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद गोरी ने ऐबक को अपने मुख्य भारतीय प्रदेशों का सूबेदार नियुक्त किया।
  • 1210 ई0 में चैगान खेलते समय घोड़े से अचानक गिर जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई।
  • कुतुबुद्दीन का उत्तराधिकारी उसका अनुभवहीन व अयोग्य पुत्र आरामशाह था किन्तु इल्तुतमिश ने इसे अपदस्थ करके सिंहासन पर अधिकार कर लिया।
  • ऐबक ने साम्राज्य विस्तार से अधिक ध्यान राज्य के सुदृढ़ीकरण पर दिया।

 

आरामशाह (1210 ई0)

  • ऐबक की अकस्मात मृत्यु के कारण उसके उत्तराधिकारी के चुनाव की समस्या को तुर्की सरदारो ने स्वयं हल किया। कुछ तुर्की सरदारों ने आरामशाह को लाहौर में (1210 ई0) सुल्तान घोषित कर दिया।
  • आरामशाह एक अक्षम और आरामतलब व्यक्ति था। अनेक तुर्क सरदारों ने उसका विरोध किया। दिल्ली के तुर्क सरकारों ने बदायूं के गवर्नर इल्तुतमिश, जो ऐबक का विश्वासपात्र गुलाम एवं उसका दामाद भी था।
  • इसको दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा, इल्तुतमिश शीघ्र ही दिल्ली पहुंच गया। आरामशाह भी उसके दिल्ली-आगमन की सूचना पाकर दिल्ली तक आ पहुंचा, परंतु इल्तुतमिश ने उसे पराजित कर मार डाला और स्वयं सुल्तान बन बैठा।

 

शम्सुद्दीन इल्तुतमिश (1210-1236 ई0)

  • इल्तुतमिश का अर्थ साम्राज्य का स्वामी है। इल्तुतमिश या अल्तमश, इल्बरी तुर्क था। उसका पिता ईलाम खां इल्बरी जनजाति का सरदार था। इल्तुतमिश शम्शी वंश का था इसलिए नये वंश का नाम शम्शी वंश पड़ा।
  • दिल्ली में कुतुबुद्दीन ऐबक ने उसे अपने दास के रूप में खरीदा।
  • दिल्ली में इल्तुतमिश शीघ्र ही कुतुबुद्दीन ऐबक का विश्वासपात्र बन गया। उसे सरजानदार (शाही अंगरक्षको का सरदार) नियुक्त किया गया। इल्तुतमिश की प्रशासनिक क्षमता से प्रभावित होकर कुतुबुद्दीन ने उसे अन्य प्रशासनिक पद भी सौंपे। उसे अमीर-ए-शिकार का पद दिया गया।
  • 1205 ई0 में इल्तुतमिश को ऐबक ने दासता से मुक्त कर दिया। इसके बाद उसे बदायूं का प्रशासक नियुक्त किया गया। ऐबक ने अपनी एक पुत्री का विवाह भी उसके साथ कर दिया।
  • भारत में तुर्की राज्य का वास्तविक संस्थापक इल्तुतमिश ही था। भारत में मुस्लिम प्रभुसत्ता का वास्तविक शुभारंभ इल्तुतमिश से ही होता है।
  • इसने कुतुबमीनार को बनवाकर पूरा किया और राज्य को सुदृढ़ व स्थिर बनाया।
  • इल्तुतमिश ने इक्ता व्यवस्था शुरू की थी। इसके अन्तर्गत सभी सैनिकों व गैर-सैनिक अधिकारियों को नकद वेतन के बदले भूमि प्रदान की जाती थी। इक्ता एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ भूमि है।
  • यह भूमि ‘इक्ता’ तथा इसे लेने वाले ‘इक्तादार’ कहलाते थे।
  • इल्तुतमिश ने चांदी के ‘टका’ तथा तांबे के ‘जीतल’ का प्रचलन किया एवं दिल्ली में टकसाल स्थापित किये थे। टको पर टकसाल का नाम लिखने की परंपरा भारत में प्रचलित करने का श्रेय इल्तुतमिश को जाता है। सिक्कों पर शिव का नंदी व चैहान घुड़सवार अंकित होते थे।
  • वह दिल्ली का प्रथम शासक था जिसने सुल्तान उपाधि धारण कर स्वतंत्र सल्तनत (18 फरवरी, 1229 ई0), को स्थापित किया।
  • उसने बगदाद के खलीफा (अल मुंत सिर बिल्लाह) से मान्यता प्राप्त की और ऐसा करने वाला वह प्रथम मुस्लिम शासक बना।
  • उसने 40 योग्य तुर्क सरदारों के एक दल चालीसा (चहलगानी) का गठन किया जिसने इल्तुतमिश की सफलताओं में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
  • 1221 ई0 में चंगेज खाँ के नेतृत्व में मंगोल सेना, ख्वारिज्म के राजकुमार जलालुद्दीन मंगबारानी का पीछा करते हुए दिल्ली की सीमा तक आ पहुंची थी। लेकिन इल्तुतमिश ने मंगबारानी को शरण देने मना करके चतुराईपूर्वक दिल्ली को मंगोलों के आक्रमण से बचा लिया।
  • इल्तुतमिश को भारत में ‘गुम्बद निर्माण का पिता’ कहा जाता है। उसने सुल्तानगढ़ी मकबरा अपने पुत्र नासिरूद्दीन महमूद की कब्र पर निर्मित करवाया। यह भारत का प्रथम मकबरा था, इसको स्थापित करने का श्रेय इल्तुतमिश को जाता है। मुहम्मद गोरी के नाम पर मदरसा-ए-मुइज्जी  दिल्ली में बनवाया
  • उज्जैन का महाकाल मंदिर को ध्वस्त किया। दिल्ली को राजधानी बनाने वाला प्रथम सुल्तान इल्तुतमिश ही था। 30 अप्रैल, 1236 ई0 को इसकी मृत्यु हो गयी। इसके शासनकाल मे न्याय चाहने वाला व्यक्ति लाल वस्त्र धारण करता था

 

इल्तुतमिश के व्यक्तित्व एवं कार्यों का मूल्यांकन

सफल कूटनीतिज्ञ

इल्तुतमिश विजेता ही नहीं, वरन् सफल कूटनीतिज्ञ भी था। उसने अपने शत्रुओं को अपनी दूरदर्शिता तथा कूटनीति द्वारा पराजित किया।

योग्य प्रशासक

  • इल्तुतमिश का अधिकांश समय युद्धों में व्यतीत हुआ, फिर भी उसने प्रशासन की ओर समुचित ध्यान दिया।
  • डा. आर.पी. त्रिपाठी  का मत है कि ‘‘भारत मे मुस्लिम संप्रभुता का वास्तविक श्रीगणेश इल्तुतमिश से ही प्रारंभ होता है।
  • इल्तुतमिश के दरबार में प्रसिद्ध इतिहासकार मिनहाज-उस-सिराज रहते थे, जिन्होंने ‘तबकात-ए-नासिरी’ की रचना की थी, जिससे आरंभिक मध्यकालीन इतिहास का ज्ञान होता है।

इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी

  • इल्तुतमिश की मृत्यु 30 अप्रैल, 1236 ई0 में होने के बाद से 1265 ई0 के मध्य तक का (लगभग 30 वर्षों का) इतिहास संघर्ष और अधिकारियों की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं का रहा। इन वर्षों में इल्तुतमिश के वंश के पांच शासक सिंहासन पर बैठाये गए और बाद में पदच्युत करके मार डाले गए।
  • इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपनी योग्य पुत्री रजिया सुल्तान को उत्तराधिकारी नियुक्त किया था, परन्तु उसकी मृत्यु के अगले दिन ही अमीरों ने उसके एक अत्यंत विलासी और अयोग्य पुत्र रूक्नुद्दीन फिरोजशाह को सुल्तान बना दिया।
  • रूक्नुद्दीन फिरोजशाह के शासनकाल में उसकी माँ शाह तुर्कान, जो एक तुर्क दासी थी, का नियंत्रण था।
  • फिरोज की माँ एक क्रूर और अत्याचारी संरक्षिका थी। शाह तुर्कान ने इल्तुतमिश के परिवार के अन्य व्यक्तियों का दमन प्रारंभ करवा दिया, जिससे असंतोष फैला और विद्रोह प्रारंभ हो गए।
  • दिल्ली में सुल्तान की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर रजिया लाल वस्त्र पहनकर (न्याय की मांग का प्रतीक) नमाज के अवसर पर जनता के सम्मुख उपस्थित हुई। उसने शाहतुर्कन के अत्याचारों एवं, राज्य में फैली अव्यवस्था का वर्णन किया तथा आश्वासन दिया कि शासक बनकर वह शांति एवं सुव्यवस्था स्थापित करूंगी। रजिया से तुर्क अमीर और अन्य व्यक्ति प्रभावित हो उठे। क्रुद्ध जनता ने राजमहल पर आक्रमण कर शाहतुर्कन को गिरफ्तार कर दिया एवं रजिया को सुल्तान घोषित कर दिया। फिरोजशाह जब विद्रोहियों से भयभीत होकर दिल्ली पहुंचा तब उसे भी कैद कर लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई। नवंबर, 1236 ई0 में रजिया सुल्तान के पद पर प्रतिष्ठित हो गई।

 

रजिया सुल्तान (1236 ई0 से 1240 ई0)

  • रजिया दिल्ली की प्रथम व अन्तिम मुस्लिम महिला शासक थी।
  • रजिया ने सैनिक वेशभूषा धारण की, पर्दा प्रथा छोड़कर पुरूष वेशभूषा कुबा (कोट) व कुलाहा (टोपी) पहनकर दरबार में बैठती थी। और हाथी पर चढ़कर जनता के बीच जाना शुरू कर दिया।
  • रजिया घोड़े पर सवार होकर युद्ध के मैदान में जाती थी।
  • सिंहासन पर बैठते ही रजिया ने कूटनीति से काम लिया और अमीर वर्ग में फूट डाल दी थी।
  • रजिया ने अबीसिनिया निवासी एक गुलाम मलिक जलालुद्दीन याकूत को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया और उसे ‘अमीर-ए-आखूर’ अर्थात अश्वशाला प्रधान के पद पर नियुक्त कर दिया। इससे अमीर वर्ग (तुर्की अधिकारी)  नाराज हो गए थे।
  • भटिण्डा के सूबेदार अल्तूनिया ने विद्रोह कर याकूत की हत्या कर दी तथा रजिया को बन्दी बना लिया।
  • रजिया ने कूटनीतिक दृष्टिकोण से अल्तूनिया से शादी कर ली।
  • इसी बीच इल्तुतमिश के एक पुत्र बहरामशाह ने सत्ता हथिया ली तथा भटिण्डा से दिल्ली आते समय अल्तूनिया व रजिया  को हराकर उनका वध 13 अक्टूबर, 1240 को कर दिया।

 

रजिया सुल्तान का मूल्यांकन

  • रजिया ने लगभग 3 वर्ष 6 माह शासन किया। वह अत्यंत सफल शासिका थी, जिसने रूक्नुद्दीन फिरोजशाह के समय की बिगड़ी स्थिति को संभाला।
  • रजिया ने स्त्री होकर भी स्त्री होने की किसी दुर्बलता का परिचय नहीं दिया। वह योग्य, शिक्षित, दयालु, कर्तव्य-परायण, साहसी, कुशल सैनिक और योग्य सेनापति थी। वह कौशल युक्त और कूटनीतिज्ञ भी थी।
  • ऐसा माना जाता है कि रजिया के पतन में उसका स्त्री होना उत्तरदायी था। मिनहाज लिखता है-‘‘भाग्य ने उसे पुरूष नहीं बनाया, वरना उसके समस्त गुण उसके लिए लाभप्रद हो सकते थे। रजिया में वे सभी प्रशंसनीय गुण थे जो एक सुल्तान में होने चाहिये।’’
  • एलफिंस्टन के अनुसार, ‘‘यदि रजिया स्त्री न होती तो उसका नाम भारत के महान शासकों में लिया जाता।’’

 

मुइजुद्दीन बहराम शाह (1240 - 1242 ई0)

  • अपनी शासन सत्ता को सुरक्षित करने के लिए तुर्क अधिकारियों ने एक नवीन पद ‘नायब-ए-मुमलकत’ की स्थापना की जो सम्पूर्ण अधिकारों का स्वामी होगा। यह पद एक संरक्षक के समान था।
  • सर्वप्रथम यह पद (नायब) रजिया के विरूद्ध षडयन्त्र करने वाले एक नेता एतगीन को मिला। इस प्रकार वास्तविक शक्ति व सत्ता के अब तीन दावेदार थे-सुल्तान, नायब और वजीर।
  • उसके शासन काल में (1241 ई0) मंगोलों का आक्रमण हुआ था।

 

अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-1246 ई0)

  • इसके शासन काल में समस्त शक्ति चालीस सदस्यों के पास थी, सुल्तान नाम मात्र के लिए ही था।
  • बलबन अमीर-ए-हाजिब के पद पर नियुक्त हुआ तथा वह धीरे-धीरे अपनी शक्ति बढ़ानी शुरू कर दी।

 

नासिरूद्दीन महमूद (1246-1265 ई0)

  • यह मधुर एवं धार्मिक स्वभाव का व्यक्ति था तथा खाली समय में कुरान की नकल करना उसकी आदत थी।
  • मिनहाजुद्दीन सिराज ने अपनी तबकात-ए-नासिरी उसे ही समर्पित की। उसके शासनकाल में वह मुख्य काजी के पद पर था जो बाद में षड्यंत्र द्वारा उसी के शासनकाल में हटाया गया।
  • नासिरूद्दीन महमूद के शासनकाल में समस्त शक्ति बलबन के हाथों में थी। 1249 ई. में उसने बलबन को ‘उलुग खाँ’ की उपाधि प्रदान की और सेना पर पूर्ण नियंत्रण के साथ ‘नायबे मुमलकत’ का पद दिया।
  • इसके शासनकाल में भारतीय मुसलमानों का एक अलग दल बन गया था जो बलबन का विरोधी था। इनका नेता इमादुद्दीन रिहान था।
  • रिहान को एक धर्मच्युत (धर्म परिवर्तित करके मुसलमान बनाया गया था), शक्ति का अपहरणकर्ता, षड्यंत्रकारी आदि कहा गया है।
  • 1265 ई. में नासिरूद्दीन महमूद की मृत्यु होने पर बलबन ने स्वयं को सुल्तान घोषित किया तथा उसका उत्तराधिकारी बना।

 

गयासुद्दीन बलबन: (1266 - 1287 ई0)

  • यह गुलाम वंश का 9वां सुल्तान था। इसने 1266 से 1287 ई0 तक शासन किया।
  • बलबन, इल्तुतमिश का गुलाम था।
  • इसने अपनी पुत्री का विवाह नसीरूद्दीन से कर दिया था, जिसके कारण वह दिल्ली सल्तनत पर 1266 ई0 से शासन करने लगा।
  • सिंहासनारूढ़ होने के बाद उसने सुल्तान गयासुद्दीन की उपाधि धारण की।
  • इसके सुल्तान बनने पर दरबारी अमीरों ने जब विद्रोह किया तो बलबन ने उन्हें कुचल दिया। इसके बाद उसने एक निष्पक्ष न्याय-व्यवस्था की स्थापना की जिसमें सभी के लिए भेद-भाव रहित एक समान न्याय की व्यवस्था थी।

 

बलबन के राजत्व का सिद्धांत

  • ‘राजत्व’ से तात्पर्य उन सिद्धांतों, नीतियों तथा कार्यों से है, जिन्हें सुल्तान अपनी प्रभुसत्ता, अधिकार एवं शक्ति को स्पष्ट करने के लिए अपनाता  था। के.ए. निजामी के अनुसार, ‘‘बलबन दिल्ली सल्तनत का एकमात्र ऐसा सुल्तान है, जिसने राजत्व के विषय में विचार स्पष्ट रूप से रखे’’ जो निम्न हैं-
    • दैवीय सिद्धांत का समर्थन
    • बलबन ने राजा के दैवीय अधिकार का समर्थन किया।
    • बलबन ने जिल्ले इलाही (ईश्वर की छाया) की उपाधि धारण की
    • बलबन ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि सुल्तान की शक्ति का आधार जनता तथा अमीर नहीं है।
    • शाही वंशज होने का दावा
    • उसने स्वयं को फिरदौसी के शाहनामा में वर्णित अफराशियाब वंशज का बताया तथा कुलीनता पर विशेष बल दिया
    • बलबन का प्रसिद्ध कथन था-‘‘जब भी मैं किसी निम्न कुल के व्यक्ति को देखता हूं तो अत्यधिक क्रुद्ध होकर मेरा हाथ स्वयं तलवार पर चला जाता है।"
    • ईरानी आदर्शाें एवं परंपराओं का पालन।
  • सुल्तान बलबल ने दरबारी वैभव की स्थापना को समस्त कार्यों में महत्वपूर्ण समझा। उसने दरबार मे ईरानी आदर्शाें को स्थापित किया। ‘सिजदा’ और ‘पाबोस’ की प्रथा शुरू की। उसने ईरानी त्योहार ‘नौरोज’ को मनाना प्रारंभ किया
  • चालीसा दल का विघटन: बलबन के पूर्व चालीसा दल के रूप में अमीर वर्ग संगठित और शक्तिशाली थे, जिससे वह अपनी निरंकुशता को स्थापित करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा था। चालीसा दल को विघटित करने के लिए बलबन ने सर्वप्रथम निम्न कोटि के तुर्कों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया। बलबन ने चालीसा दल के सदस्यों को बारी-बारी से कुशासन के आधार पर या तो जनता के समक्ष कमजोर करने की कोशिश की और जहां इस नीति से काम न चल सका, वहां उसने हत्या का सहारा लिया, यहां तक कि उसने अपने चचेरे भाई शेर खां तक की हत्या करवा दी। बलबन ने निर्ममतापूर्वक चालीसा दल का पूर्ण रूप से दमन कर दिया।
  • गुप्तचर विभाग का संगठन: बलबन की शासन-व्यवस्था के सुचारू संचालन के लिए गुप्तचर विभाग का कार्य ही सर्वाधिक जिम्मेदार था। बलबन ने प्रत्येक सरकारी विभाग, प्रत्येक प्रांत तथा प्रत्येक जिले में गुप्तचर अधिकारियों की नियुक्ति की। गुप्तचरों की कार्यप्रणालियों पर भी निगरानी रखी जाती थी। गुप्तचरों को अच्छे वेतन दिए जाते थे तथा उन्हें गवर्नरों तथा सेनानायकों की अधीनता से मुक्त रखा जाता था।
  • सेना का पुनर्संगठन: बलबन ने सेना के गठन की ओर विशेष ध्यान दिया। उसने इमाद-उल-मुल्क को ‘दीवान-ए-आरिज’ के पद पर नियुक्त किया। सेना के प्रबंधन का पूरा भार उसी पर सौंपा गया। इमाद-उल-मुल्क ने सैनिकों की भर्ती, वेतन तथा साज-सज्जा की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया। उसने सैनिकों को अनुशासित किया तथा सेना को शक्तिशाली बना दिया। बलबन ने इस बात को अच्छी तरह समझा कि सल्तनत की वास्तविक शक्ति सैनिकों में ही निहित है। उसके समय अयोग्य एवं निर्बल सैनिकों को सेवा से मुक्त कर दिया गया तथा युवाओं को ही सेना में भर्ती मिली।

 

विद्रोहों का दमन

  • बलबन ने सर्वप्रथम विद्रोही मेवातियों के विरूद्ध प्रशिक्षित सेना भेजकर उनका कठोरता पूर्वक दमन किया।
  • सन् 1279 ई. में बंगाल में तुगरिल खां ने विद्रोह खड़ा कर दिया और अपने नाम के सिक्के जारी किये। बलबन ने उसका दमन करने के लिए लगातार दो बार सेनाएं भेजी, जिसमें असफलता मिली। इस असफलता के बाद, तुगरिल के विरूद्ध अभियान में बलबन को दो वर्ष लग गए, क्योंकि तुगरिल युद्ध करने से बच रहा था। तुगरिल इस उम्मीद में था कि बलबन थककर दिल्ली लौट जाएगा लेकिन कुछ बंजारों की सूचना पर बलबन की सेना ने तुगरिल को दबोज लिया और उसकी हत्या कर दी।

 

न्याय व्यवस्था

  • बलबन की न्याय व्यवस्था कठोर तथा गैर-पक्षपातपूर्ण थी। अपराधियों को वह बर्बरतापूर्वक दंड देता था।
  • सुल्तान प्रमुख अपराधों से संबंधित मामलों का न्याय स्वयं करता था।
  • उसकी शासन व्यवस्था का आधार ‘रक्त एवं लौह’ की नीति थी, जिसके अन्तर्गत विद्रोही व्यक्ति की हत्या कर उसकी स्त्री एवं बच्चों को दास बना लिया जाता था।

 

बलबन की मृत्यु

  • 1286 ई0 में बलबन की मृत्यु हो गई। ऐसा माना जाता है कि शहजादा मुहम्मद (बलबन का पुत्र) की मृत्यु का बलबन के स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ा।
  • बरनी के अनुसार, ‘‘बलबन की मृत्यु से दुःखी हुए मलिकों ने अपने वस्त्र फाड़ डाले और सुल्तान के शव को नंगे पांव कब्रिस्तान ले जाते समय अपने सिर पर धूल फेंके और 40 दिन का उपवास किया।’’
  • बलबन की मृत्यु के 3 वर्षों के अंदर ही बलबन द्वारा स्थापित व्यवस्थाएं और सुल्तान की पद-प्रतिष्ठा नष्ट हो गई।

 

बलबन के उत्तराधिकारी

  • बलबन दिल्ली सल्तनत के निर्माता शासकों में से एक था। उसने सल्तनत को स्थायित्व प्रदान किया तथा आंतरिक प्रशासन की व्यवस्था की, परन्तु अपने उत्तराधिकारियों के लिए वह कुछ न कर सका।
  • उसके जीवनकाल में ही युवराज शहजादा मुहम्मद की मंगोलों से युद्ध करते हुए मृत्यु और दूसरे पुत्र बुगरा खां की सुल्तान पद से उदासीनता के कारण अपनी मृत्यु के पूर्व उसने शहजादा मुहम्मद उदासीनता के कारण अपनी मृत्यु के पूर्व उसने शहजादा मुहम्मद के पुत्र कैखुसरों को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
  • बलबन की मृत्यु के बाद उसके विश्वस्तों ने ही उसके आदेश की अवहेलना करते हुए बुगरा खां के अल्पवयस्क विलासी पुत्र कैकुबाद को सुल्तान बना दिया।
  • अंततः पक्षाघात से त्रस्त कैकुबाद को एक सामान्य तुर्क मलिक फिरोज खिलजी (बाद में सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी) ने यमुना में फेंकवा दिया और तीन महीने तक उसके पुत्र शमसुद्दीन क्यूमर्स का संरक्षण और जून 1290 में उसकी हत्या कर मलिक फिरोज खिलजी दिल्ली सल्तनत का अगला सुल्तान बना।
  • इस सत्ता परिवर्तन के साथ ही मामलूक या गुलाम वंश का अंत हो गया और दिल्ली सल्तनत पर सामान्य कुल के खिलजियों का शासन स्थापित हो गया।

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