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Study Material



       18 वीं शताब्दी के पूर्व बाद में मुगलों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नियंत्रण वाले प्रांतों में स्वतंत्रता की आकांक्षा स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही थी । इस काल में उदित होने वाले राज्यों को स्थूल रूप से तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-

  • मुगल साम्राज्य से अपने को पृथक कर बने स्वतंत्र राज्य
  • मुगलों के खिलाफ विद्रोहियों द्वारा स्थापित नए राज्य तथा 
  • स्वतंत्र राज्य

उत्तराधिकारी राज्य

अवध,बंगाल और हैदराबाद उत्तराधिकारी राज्य की श्रेणी में आते हैं । ये  तीनों प्रांत प्रत्यक्ष रुप से मुगल प्रशासन के नियंत्रण में थे । इन राज्यों ने मुगल सम्राट की प्रभुसत्ता को चुनौती नहीं दी पर इनके गवर्नर ने व्यावहारिक तौर पर स्वतंत्र वंशानुगत सत्ता की स्थापना की उस क्षेत्र के सभी पद और अधिकारी उसके नियंत्रण में रहे यह सब इन राज्यों में स्वास्थ्य नैतिक शक्तियों के उदय की ही अभिव्यक्ति थे ।

बंगाल

  • मुगल साम्राज्य के विघटन और स्थिरता की स्थिति का लाभ उठाकर बंगाल के सूबेदार मुर्शिद कुली खां ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की
  • 1701 ई. में  में औरंगजेब ने उसे बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था जबकि औरंगजेब के शासन में ही उसने स्वतंत्र शासक के रूप में आचरण करना शुरू कर दिया था तथापि उसने अपनी पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा फर्रुखशियर के शासनकाल में की ।  मुर्शिद कुली खां के शासनकाल में बिहार और उसके  उत्तराधिकारी  शुजाउद्दीन के शासनकाल में उड़ीसा बंगाल में सम्मिलित कर दिया गया।
  • 1726 ई. तक मुर्शिद कुली खां ने बंगाल पर शासन किया और उसके बाद शुजाउद्दीन ने 1727 ई.  से लेकर 1738 ई. तक शासन किया ।  शुजाउद्दीन का पुत्र अयोग्य था जिसके कारण 1740 ई. में अलीवर्दी खां ने बंगाल का शासन अपने हाथों में ले लिया 1756 ई. में अपनी मृत्यु के पूर्व तक वह बंगाल का शासक बना रहा |

 हैदराबाद

  • 1724 ई. में चिनकिलिच खाँ (निजामउलमुल्क आसफजाह) ने हैदराबाद में स्वतंत्र आसफजाही वंश की स्थापना की
  • चिनकिलिच खाँ को मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह द्वरा दक्कन के सूबेदार के रूप में नियुक्त किया गया था ।
  • मुगल बादशाह मुहम्मद शाह ने 1722 चिनकिलिच खाँ को दक्कन के 6 सूबों की सूबेदारी सौपीं थी जिसका मुख्यालय औरंगाबाद में था
  • चिनकिलिच खाँ द्वारा 1724 में स्वतंत्र हैदराबाद राज्य की स्थापना के बाद मुग़ल सम्राट मुह्म्मद शाह ने उसे ‘आसफजाह’ की उपाधि से नवाजा
  • चिनकिलिच खाँ ने ‘शूकरखेड़ा के युद्ध' में मुग़ल सूबेदार मुबरिज खां को पराजित किया
  • 1748 में चिनकिलिच खाँ की मृत्यु हो गयी तत्पश्चात हैदराबाद भारतीय राज्यों में ऐसा प्रथम राज्य था जिसने वेलेजली की सहायक संधि के तहत एक आश्रित सेना रखने की शर्त को स्वीकार किया

अवध

  • पश्चिम के कन्नौज से लेकर पूर्व में कर्मनाशा नदी तक फैला अवध का सूबा एक विस्तृत और समृद्धशाली  क्षेत्र था ।
  • 1722 ई. में सआदत खां बुरहान मुल्क ने अवध स्वतंत्रता की घोषणा की ईरानी शिया गुट के इस सदस्य को मुगल सम्राट मोहम्मद शाह ने अवध का सूबेदार नियुक्त किया था ।
  • सआदत खां ने नादिरशाह के आक्रमण के समय महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था अपने नाम और सम्मान की रक्षा के लिए ही शायद सआदत खां ने 1739 में आत्महत्या कर ली थी ।
  • सआदत खां के बाद उसका भतीजा तथा दामाद सफदरजंग जिसका  पूरा नाम अबुल मन्सूर मिर्ज़ा मुहम्मद मुक़िम अली खान सफ़दरजंग के नाम से भी जाना जाता था अवध का नवाब बना ।
  • 1742 में सफदरजंग ने कुछ समय के लिए पटना पर अधिकार कर लिया 1744 में मोहम्मद शाह ने इसे अपना वजीर नियुक्त कर दिया ।
  • 1748 ई. में अहमद शाह अब्दाली और मुगलों के बीच लड़े गए मणिपुर के युद्ध में मुगलों का साथ दिया तथा सम्राट अहमद शाह से वजीर का पद प्राप्त कर लिया ।
  • सफदरजंग ने फर्रुखाबाद के बंगश नवाबों और जाटों के विरुद्ध अभियान किए अंततः जयप्पा सिंधिया और मल्हार राव के साथ नवाब ने एक मैत्री संधि की ।
  • सफदरजंग के बाद उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र शुजाउद्दौला बना। इसने 1759 ई. में अली गौहर को लखनऊ में शरण प्रदान किया ।
  • 1761 ई. में लड़े गए पानीपत के तृतीय युद्ध में शुजाउद्दौला ने अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया ।
  • अंग्रेजों और बंगाल के अपदस्थ नवाब मीर कासिम के बीच 1764 ई.में लड़े गए बक्सर के युद्ध में उसने बंगाल के नवाब का साथ दिया था।
  • अवध का अगला नवाब सआदत खां हुआ जिसने अंग्रेजो से सहायक संधि कर ली अंग्रेजों ने अवध को तब तक एक मध्यवर्ती राज्य या बफर स्टेट के रूप में प्रयोग किया जब तक कि उनका मराठों पर पूर्ण नियंत्रण नहीं हो गया ।
  • अवध का अंतिम नवाब वाजिद अली शाह था जिस के शासनकाल में अवध पर कुशासन का आरोप लगाकर 1856 ई. में ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया ।

नये राज्य 

क्षेत्रीय राज्यों की दूसरी श्रेणी में ऐसे नए राज्य शामिल हैं जिन्होंने मुगल सत्ता का विरोध कर अपने को स्थापित किया । वे राज्य निम्नलिखित हैं-

 मराठा

  • मराठों का उदय एक ओर  मुगल केंद्रीयकरण की वृद्धि, क्षेत्रीय प्रतिक्रिया का परिणाम था तो दूसरी ओर यह विशेष वर्ग और जातियों की उच्च वर्गों में अनेक उच्च बढ़ोतरी की इच्छा का परिणाम था ।
  • मराठों के केंद्रीय क्षेत्र पर कभी भी मुगलों का  पूर्ण नियंत्रण स्थापित नहीं हो सका ।
  • पेशवा बालाजी विश्वनाथ के समय पेशवा का पद बहुत शक्तिशाली हो गया और मराठा राज्य को प्रमुख विस्तार वादी राज्य का दर्जा प्राप्त हो गया । बालाजी विश्वनाथ से लेकर बालाजी बाजीराव के शासन काल तक मराठा शक्ति अपने उत्कर्ष पर पहुंच गई और  मध्य भारत के चारों ओर फैल गए ।
  • पानीपत के तृतीय युद्ध 1761 ई. में अफगानों ने मराठों को पराजित किया इससे मराठा शक्ति को गहरा धक्का पहुंचा और उनका विजय अभियान रुक गया ।

पंजाब

  • गुरु गोविंद सिंह के समय में  सिख भारत की एक प्रमुख सैनिक एवं राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे किंतु औरंगजेब ने सिखों को दबाए रखा ।
  • नादिर शाह के 40 के दशक के आक्रमण एवं अहमद शाह अब्दाली के साथ 1761 ई. में हुई पानीपत की लड़ाई के कारण पंजाब में एक राजनीतिक शून्यता की स्थिति उत्पन्न हो गई । इस राजनीतिक शून्यता को विभिन्न समूहों ने  भर दिया जो मिस्ल कहलाते हैं ।
  • सिख-शक्ति एक संगठित शक्ति के रूप में भारतीय मानचित्र पर  रणजीत सिंह के नेतृत्व में उभरी  रणजीत सिंह सुकरचकिया मिस्ल के थे । रणजीत सिंह ने न  केवल स्थानीय क्षेत्रों को जीतने की चेष्टा की अपितु डोगरों, नेपालियों एवं अफगानों  के साथ भी संबंध स्थापित किए ।
  • 1799 ई में अफगानिस्तान के शासक जमानशाह ने रणजीत  सिंह को लाहौर के प्रांतीय सहायक का पद प्रदान किया | 
  • रणजीत  सिंह ने  जम्मू कश्मीर पर भी अधिकार कर लिया पंजाब की राजनीतिक राजधानी लाहौर और धार्मिक राजधानी अमृतसर दोनों पर रणजीत  सिंह का अधिकार था  ।
  • उधर नेपोलियन की बढती शक्ति एवं फ्रांस तथा रूस की मित्रता के कारण अंग्रेज उत्तर पश्चिमी सीमा को असुरक्षित पा रहे थे । इसलिए उन्होंने 25 अप्रैल 1809 को  रणजीत  सिंह के साथ अमृतसर की संधि कर ली जिसका सर्वप्रमुख उपबंध था कि सतलज नदी दोनों राज्यों के बीच की सीमा मान ली गयी
  • 1823  ई. तक रणजीत सिंह और अंग्रेज दोनों अलग-अलग क्षेत्रों में राज्य विस्तार करते रहे अब तक रणजीत सिंह ने कांगड़ा 1811ई., अटक 1813 ई., मुल्तान 1811 ई., कश्मीर 1819 ई.,और पेशावर 1830 ई. ,पर अधिकार कर लिया था । रणजीत सिंह सिंध पर भी अधिकार करना चाहता था पर अंग्रेजों ने कूटनीति से उसे रोक रखा था।
  • अफगानिस्तान के शासक ने रणजीत सिंह को  कोहिनूर हीरा भेट किया था । रणजीत सिंह की सैनिक शक्ति किसी भी अन्य समकालीन भारतीय शक्ति से अधिक थी । पर वह अंग्रेजों की क्षमता से भी परिचित था इसलिए उसने कभी भी अंग्रेजों से युद्ध की स्थिति नहीं पैदा की और अंग्रेज ने भी उसके जीवित रहते  पंजाब पर आक्रमण नहीं किया । 1839 ई. में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई और अगले 10 वर्षों में ही पंजाब का शक्तिशाली राज्य बिखर गया और कंपनी के राज्य का हिस्सा हो गया।

जाट राज्य

  • जाट कृषक जाति के थे और दिल्ली तथा आगरा क्षेत्र के निवासी थे। 17वीं  शताब्दी के उत्तरार्ध में मुगल साम्राज्य को कई कृषि आधारित वर्गों के विद्रोह का सामना करना पड़ा जिनमें जाटों का आंदोलन महत्वपूर्ण था ।
  • समकालीन परिस्थितियों का अनुगमन करते हुए जाटों ने भी अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया ।
  • चुरामन और बदन सिंह ने इसकी पहल की और सूरजमल ने 1756 और 1763 के बीच भरतपुर में जाट राज की स्थापना कर इसे सुदृढ़ किया
  • इसका विस्तार पूर्व में गंगा, दक्षिण में चंबल, उत्तर में दिल्ली और पश्चिम में आगरा तक था । राज्य की प्रकृति सामन्ती थी और प्रशासनिक तथा राजस्व मामलों पर जमीदारों का पूर्ण नियंत्रण था । सूरजमल की मृत्यु के उपरांत यह राज्य अधिक दिन तक टिक नहीं सका ।

स्वतंत्र राज्य

राज्यों की इस कोटि के अंतर्गत ऐसे राज्यों का स्थान आता है जिनका उदय केंद्रीय सत्ता के कमजोर होने और राज्यों पर इनकी पकड़ ढीली होने के कारण हुआ था ।

मैसूर

  • विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद मैसूर राज्य की उत्पत्ति हुई ।  शुरुआत में यहां हिंदुओं का शासन स्थापित था वोडेयार वंश की सत्ता 1766 तक स्थापित रही । जिसका अंतिम शासक कृष्णराज कोटयार द्वितीय था, इसकी शासनकाल में संपूर्ण सत्ता दो भाइयों नंदराज तथा देवराज के हाथों में आ गई ।  नंदराज ने 1749 ई. में हैदर अली को सेना का अधिकारी बनाया और 1761 ई.में संपूर्ण सत्ता हैदर अली के हाथों में आ गई ।
  • हैदर अली का जन्म बुदिकोट में 1721 ई. में हुआ था।1728 ई. में हैदर अली के पिता फतेह मोहम्मद का निधन हो गया 1749 ई. में सेना के अधिकारी नियुक्त होने के बाद 1750 ई. में कर्नाटक के युद्ध के समय हैदर अली को अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिला।
  • 1750 ई. में ही हैदराबाद के निजाम नासिर जंग की हत्या कर दी गई तथा उसकी जगह पर मुजफ्फर जंग को निजाम बनाया गया । हैदर अली को 1755 ई. में डिंडीगुल का फौजदार नियुक्त  किया गया।  डिंडीगुल में उसने फ्रांसीसी अधिकारियों की देखरेख में एक तोपखाना स्थापित किया।
  • हैदर अली ने 1760 ई. में नंदराज  से सारी शक्ति छीन ली । शक्ति संपन्न बनने के बाद हैदर अली ने राज्य विस्तार का कार्य शुरू किया 1763  ई. में बेद्नूर के राजा की मृत्यु हो गई इसके बाद वहां उसके दो पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध शुरू हो गया। हैदर अली ने अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए दोनों भाइयों को बंदी बनाकर उनकी हत्या कर दी ।उसने बेद्नूर का नाम बदलकर हैदरनगर कर दिया और वहां अपना अधिकारी नियुक्त कर दिया । इसके बाद हैदर अली ने कोचीन,पालघाट,कालीकट तथा कन्नड़ पर विजय प्राप्त कर ली ।
  • उसने मालाबार  के नायकों, दक्षिण भारत के पोलीगरों आदि को अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया और सुंडा, सीधी तथा गुटी को मैसूर में मिला लिया ।  राज्य का विस्तार करने के बाद हैदर अली राजधानी श्रीरंगपट्टनम लौट आया परंतु इसके बाद उसे अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ।
  • हैदर अली की बढती शक्ति को रोकने के लिए सबसे पहले मराठों ने पहल की । 1764 ई. में पेशवा माधवराव ने मैसूर के विरुद्ध आक्रमण कर दिया।
  • साबनूर के दक्षिण में वल्हिली के युद्ध में मराठों ने हैदर अली को पराजित किया और 1765 ई. में उसके साथ संधि कर गुटीकथा वानूर के जिले के साथ-साथ 32 लाख रुपए नगद भी प्राप्त किए । बाद में अंग्रेजों और हैदर अली के हित आपस में टकराने लगे और दोनों के बीच में लगातार चार युद्ध हुए जिन्हें आंग्ल-मैसूर युद्ध के नाम से जाना जाता है । प्रथम दो युद्धों में हैदर अली ने भाग लिया और द्वितीय युद्ध के अंतिम वर्षों में उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने भाग लिया । चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध के दौरान टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद मैसूर राज्य का अंत हो गया ।
  • प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध-  1767 से 1769 ई., हैदर अली और अंग्रेजों के बीच हुआ जिसमें हैदर अली ने अंग्रेजों की सेना को पराजित किया। अंग्रेजों की ओर से वारेन हेस्टिंग ने नेत्रित्व किया । यह युद्ध मद्रास की संधि से समाप्त हुआ ।
  • द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध- 1780 से 1784 ई., हैदर अली और अंग्रेजों के बीच हुआ, 1784 ई.तक टीपू ने द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध को जारी रखा । अंततः दोनों पक्षों में मंगलौर की संधि संपन्न हुई जिसके तहत दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेशों को वापस कर दिया।अंग्रेजों की ओर से वारेन हेस्टिंग ने नेतृत्व किया ।
  • तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध- 1782 से 1799 ई., तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध टीपू सुल्तान और अंग्रेजों के मध्य हुआ इसमें टीपू सुल्तान पराजित हुआ ।  अंग्रेजों और टीपू  के बीच मार्च 1792 में श्रीरंगपट्टनम की संधि संपन्न हुई संधि की शर्तों के अनुसार टीपू को अपने राज्य का आधा हिस्सा अंग्रेजों और उसके सहयोगियों को देना था, साथ ही युद्ध के हर्जाने के रूप में तीन करोड रुपए अंग्रेजों को देना था। अंग्रेजों की ओर से कार्नवालिस ने नेतृत्व किया ।
  • चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध- 1799 ई., आंग्ल मैसूर युद्ध के समय अंग्रेजी सेना को वेलेजली हैरिस और स्टुवर्ट ने अपना नेतृत्व प्रदान किया । 4 मई 1799 ई. को टीपू ने संयुक्त अंग्रेजी सेना से बहादुरी के साथ युद्ध किया था तथा वह युद्ध में मारा गया । इस तरह मैसूर की स्वतंत्रता का इतिहास व उसके द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष के गौरवशाली अध्याय का समापन हो गया ।
  • अंग्रेजों ने मैसूर की गद्दी पर फिर से अडयार वंश के एक बालक  कृष्णराय को बिठा दिया तथा कनारा, कोयंबटूर और श्रीरंगपट्टनम को अपने राज्य में मिला लिया ।
  • मैसूर को जीतने की खुशी में आयरलैंड के लार्ड समाज में वेलेजली को मार्क्विंस की उपाधि प्रदान की गई ।

टीपू सुल्तान

  •  टीपू सुल्तान ने नए कैलेंडर को लागू किया तथा सिक्का ढलाई की नई प्रणाली को लागू किया।
  • उसने फ्रांसीसी क्रांति में गहरी दिलचस्पी ली। श्रीरंगपट्टम में उसने ‘स्वतंत्रता-वृक्ष’ (फ्रांस-मैसूर मैत्री का प्रतीक) लगाया तथा एक जैकोबिन क्लब का सदस्य बन गया।
  • वह पैदावार का एक-तिहाई भाग भू-राजस्व के रूप में लेता था।
  • 1796 ई. में उसने एक नौसेना खड़ी की तथा नौकाघाट बनवाए।
  • नौकाघाट का निर्माण मंगलौर, मोलीदाबाद तथा दाजिदाबाद में किया गया।
  • टीपू ने विदेश व्यापार के विकास के लिए फ्रांस, तुर्की, ईरान और पेगू में दूत भेजे। चीन के साथ भी उसने व्यापार किया।
  • देशी तथा अन्तर्देशी व्यापार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अपने गुमाश्तों की नियुक्ति व्यापारिक केन्द्र मस्कट, ओर्भुज, जद्दाह तथा अदन में किया।
  • टीपू ने श्रृंगेरी के जगद्गुरु शंकराचार्य के सम्मान में मंदिरों के पुनर्निर्माण हेतु धन दान किया । उसके सिक्कों पर हिन्दू देवी देवताओं के चित्र तथा हिन्दू संवत् की आकृतियाँ अंकित थी।
  • 4 मई, 1799 को श्रीरंगपट्टनम में अंग्रेजों से लड़ता हुआ मारा गया।

राजपूत राज्य

  • मुगलों की कमजोरी का फायदा उठाकर प्रमुख राजपूत राज्यों ने अपने को केन्द्रीय सत्ता से स्वतंत्र कर लिया।
  • फर्रुखसियर और मुहम्मदशाह के काल में आमेर और मारवाड़ के शासकों को आगरा, गुजरात और मालवा जैसे महत्वपूर्ण प्रान्तों का सूबेदार बनाया गया।
  • अधिकतर बड़े राज्य निरंतर छोटे झगड़ों और गृह युद्धों में फंसे रहे।

 

सवाई जयसिंह (1681-1743)

    • 18वीं सदी का सबसे श्रेष्ठ राजपूत शासक आमेर का सवाई जयसिंह (1681-1743) था।
    • वह एक विख्यात, राजनेता, कानून-निर्माता और सुधारक था।इन सबसे अधिक वह विज्ञान-प्रेमी के रूप में प्रसिद्ध है।
    • उसने जाटों से लिए गए इलाके में जयपुर शहर की स्थापना की और उसे विज्ञान और कला का महान् केन्द्र बना दिया। इस शहर का निमाण एक नियमित योजना के तहत किया गया।
    • जयसिंह एक महान् खगोलशास्त्री भी था। उसने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन तथा मथुरा में बिल्कुल सही और आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित पर्यवेक्षणशालाएँ बनाई.
    • उसने जिजमुहम्मदशाही तैयार किया। जिजमुहम्मदशाही सारणियों का एक सेट था, जिससे लोगों को खगोल शास्त्र संबंधी पर्यवेक्षण करने में सहायता मिलती थी
    • उसने युक्लिड की ‘रेखागणित के तत्व‘ का संस्कृत में अनुवाद कराया।
    • नेपियर की रचना का भी संस्कृत में अनुवाद कराया, जिससे त्रिकोणमिति की बहुत सारी कृतियों और लघुगणकों को बनाने तथा उसके इस्तेमाल में सहायता मिली।
    • उसने एक कानून लागू करने की कोशिश की, जिससे लड़की की शादी में किसी राजपूत को अधिक खर्च करने के लिए मजबूर न होना पड़े। वह एक महान समाज सुधारक था। औरंगजेब को धार्मिक कट्टरता और अत्याचारों से तंग आकर राजपूत मुगल साम्राज्य के शत्रु बन गए।
  • मुगल शासकों की दुर्बलता का लाभ उठाकर राजपूतों ने अपनी पुरानी सत्ता पुनः स्थापित कर थी।
  • बहादुरशाह के शासन काल में मारवाड़ (जोधपुर) और बीकानेर के राठौर तथा आंबेर (जयपुर) के कछवाहा राजपूतों ने मुगल बादशाह के सम्मुख प्रमुख चुनौती पेश की।
  • मुगल सम्राट बहादुरशाह ने इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए 1708 ई. में जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में राजपूतों को पराजय का सामना करना पड़ा।
  • बहादुरशाह की मृत्यु के बाद फैली अराजकता का लाभ उठाकर राजपूत राजा अजीत सिंह ने शाही अफसरों को जोधपुर से बाहर निकाल दिया और अपनी शक्ति में वृद्धि करने लगा।
  • 1714 ई. में अजीत सिंह की शक्ति को कुचलने के लिए मुगल सेनापति हुसैन अली ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण का अजीत सिंह सामना न कर सका और उसे अपनी पुत्री का विवाह मुगल सम्राट फर्रुखसियर से करके शांति-संधि पर हस्ताक्षर करने पड़े।
  • दिल्ली में हुए फर्रुखसियर-सैयद बंधु विवाद में जोधपुर और जयपुर के राजपूत राजाओं ने अपने हितों को ध्यान में रखते हुए तटस्थता की नीति अपनाई.
  • फर्रुखसियर गुट ने जयपुर के राजपूत राजा जयसिंह द्वितीय को 1721 ई. में आगरा का सूबेदार नियुक्त कर दिया। आगरा के सूबेदार के रूप में उसने अपनी शक्ति और प्रभाव का उपयोग अपनी खानदानी रियासत का विस्तार करने और उसे शक्तिशाली बनाने के लिए किया।
  • सैय्यद बंधुओं ने जोधपुर के राजपूत राजा अजीत सिंह को अपनी ओर मिलाने के लिए उसे अजमेर तथा गुजरात की सूबेदारी प्रदान की
  • इस प्रकार एक समय ऐसा था जब दिल्ली के पश्चिम में 100 मील से लेकर भारत के पश्चिमी तट पर स्थित सूरत तक का समस्त क्षेत्र राजपूतों के अधीन था। परन्तु ये राजपूत शासक अपने आन्तरिक मतभेदों और परस्पर फूट के कारण अपनी सत्ता को अधिक समय तक कायम न रख सके तथा मराठों के हस्तक्षेप का शिकार बन गए।

 

केरल

  • 18वीं सदी के आरंभ में केरल के चार प्रमुख राज्य थे- कालीकट, चिरक्कल, कोचिन तथा त्रावणकोर। इनमें से त्रावणकोर को 1799 ई. में राजा मातंड वर्मा के नेतृत्व में प्रमुखता मिली।
  • मार्तंड वर्मा में विलक्षण दूरदर्शिता, दृढ़ संकल्प, साहस तथा निर्भिकता का सामंजस्य था। उसके क्विनोन तथा इलायादाम को जीत लिया और डच लोगों को हराकर केरल में उनकी राजनीतिक सत्ता खत्म कर दी। उसने सिंचाई एवं संचार की व्यवस्था की तथा विदेशी व्यापार को सक्रिय प्रोत्साहन दिया।
  • इस सदी के राजाओं ने मलयालम साहित्य को भरपूर संरक्षण दिया। 18वीं शती के उत्तरार्द्ध में त्रावणकोर की राजधानी त्रिवेंद्रम, संस्कृत विद्या का एक प्रसिद्ध केन्द्र बन गया।
  • मार्तण्ड वर्मा का उत्तराधिकारी रामवर्मा एक उत्कृष्ट कवि, विज्ञान, संगीतज्ञ, अभिनेता तथा सुसंस्कृत व्यक्ति था। उसने यूरोपीय मामलों में गहरी दिलचस्पी ली। वह लंदन, कलकत्ता तथा मद्रास से निकलने वाले अखबारों और पत्रिकाओं को नियमित रूप से पढ़ता था। वह अंग्रेजी में धाराप्रवाह बातचीत करता था।

फर्रुखाबाद

  • एक अन्य अफगान शूरवीर मुहम्मद खाँ बंगश ने मुगल सम्राट फर्रुखसियर और मुहम्मदशाह के शासन काल में (1713 ई. से लेकर 1748 ई. तक) अलीगढ़ और कानपुर के मध्य स्थित फर्रुखाबाद की जागीर को एक स्वतन्त्र राज्य में बदल दिया।
  • आगे चलकर इस अफगान शूरवीर ने बुन्देलखण्ड और इलाहाबाद के प्रदेशों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
  • 1743 ई. में मुहम्मद खाँ बंगश की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कायम खाँ उसका उत्तराधिकारी बना

 रुहेलखण्ड

  • 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उत्तर भारत में अफगानों का प्रभाव बढ़ने लगा। मुख्यतः पश्चिम में दिल्ली और आगरा के मध्य तथा पूर्व में अवध और इलाहाबाद  के मध्य के क्षेत्रों में इन अफगानियों के सुदृढ़ गढ़ स्थापित हो गए।
  • इस क्षेत्र में मुख्य रूप से रुहेले रहते थे। इन रुहेलों को एक अफगान वीर दाउद का प्रभावशाली नेतृत्व प्राप्त हुआ।
  • 1721 ई. में दाउद की मृत्यु के बाद उसके दत्तक पुत्र अली मुहम्मद खाँ को उसका उत्तराधिकार प्राप्त हुआ। इसके बाद अली मुहम्मद खाँ ने दाउद द्वारा स्थापित रुहेलखण्ड राज्य की सीमा विस्तार का कार्यभार अपने ऊपर लिया। 1737 ई. में उसने मुगल बादशाह से नवाब का खिताब प्राप्त किया।
  • नादिरशाह के आक्रमणों के दौरान मुगल सम्राट की कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर अली मोहम्मद खाँ ने अपनी सत्ता सम्पूर्ण बरेली और मुरादाबाद तथा हरदोई और बदायूं के कुछ क्षेत्रों तक विस्तृत कर ली। आगे चलकर पीलीभीत, बिजनौर तथा कुमायूं पर भी उसका कब्जा हो गया।
  • 1745 ई. में मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ने अली मुहम्म्द खाँ के निरंतर बढ़ते प्रभुत्व को कुचलने के लिए अपने वजीर सफदरजंग के नेतृत्व में सेना भेजी। किन्तु शीघ्र ही मुगल सेना को अपनी सीमाओं का एहसास हो गया और बहुत कठिन परिश्रम के बाद बादशाह को अली मोहम्मद खाँ से समझौता करने पर राजी कर लिया गया। इस समझौते के अनुसार अली अहमद खाँ बनगढ़ की किलेबंदियों को तोड़ने तथा अपनी जागीरों को मुगल बादशाह को सौंपने के लिए राजी हो गया। इसके बदले में बादशाह ने उसे 4,000 का मनसबदार बना दिया और सरहिन्द का मुगल फौजदार बनाकर वहां भेज दिया।
  • 1748 ई. में अहमदशाह अब्दाली की आक्रामक योजनाओं की सूचना पाते ही उसने शीघ्र ही सरहिंद का अपना पद त्याग कर अफगानों की अपनी पूरी टुकड़ी के साथ वापस रुहेलखण्ड की ओर कूच किया। अप्रैल 1748 ई. तक उसने पुनः रुहेलखण्ड में मुगल शासन का अंत कर अपनी सत्ता स्थापित की।
  • 15 सितम्बर, 1748 ई. को अली मुहम्मद खाँ की मृत्यु के बाद हाफिज रहमत खाँ उसके मुख्य उत्तराधिकारी के रूप में सामने आया।
  • मुगल वजीर सफदरजंग ने रुहेलों को कुचलने की एक नवीन योजना के तहत् बंगश प्रमुख कायम खाँ को रुहेलखण्ड का फौजदार नियुक्त किया। किन्तु कायम खाँ की सेना अफगानों का सामना न कर सकी। इसके विपरीत गंगा के पूर्वी और पश्चिमी तट पर बंगश प्रमुख कायम खाँ के सभी क्षेत्रों पर हाफिज रहमत का अधिकार हो गया।
  • अप्रैल, 1751 में मुगल वजीर सफदरजंग केवल मराठों और जाटों से मित्रता करने में सफल रहा, बल्कि अपने नवीन मित्रों की सहायता से उसने रुहेलों पर भी एक महत्वपूर्ण सफलता प्रात की।
  • पानीपत के तृतीय युद्ध (1761) में रुहेलों ने अहमदशाह अब्दाली का साथ दिया।इस युद्ध के बाद रुहेल आजाद हो गए। कुछ समय के लिए उनका दिल्ली पर भी कब्जा रहा।
  • वारेन हेस्टिंग्स के काल में अवध के नवाबों ने रुहेलखण्ड को अवध प्रान्त में मिला लिया। इसकी राजधानी पहले बरेली में आंवला में थी, बाद में रामपुर चली गई |

जाट

  • दिल्ली, आगरा तथा मथुरा के समीपवर्ती क्षेत्रों में जाट लोग रहते थे। ये लोग मुख्यतः कृषक थे। ये अपनी वीरता, लड़ाकू भावना और धैर्य के लिए प्रसिद्ध थे। इनमें जातीय भवना बहुत तीव्र थी।
  • इन्होंने औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध 1699 ई. में तिल्पत के जमींदार गोकुल के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह असफल रहा। आगे चलकर राजाराम, रामचेहरा और चूड़ामन आदि जाट नेताओं ने जाटों को संगठित किया।
  • जाट नेता चूड़ामन ने ‘थीम’ नामक स्थान पर एक सुदृढ़ दुर्ग बनाया और मुगलों की शक्ति को चुनौती दी। आगरा के सूबेदार जयसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना ने थीम दुर्ग पर कब्जा कर लिया। चूड़ामन ने आत्महत्या कर ली।
  • चूड़ामन के बाद उसके भतीजे बदन सिंह ने जाटों का नेतृत्व संभाला। बदन सिंह ने अपनी स्थिति को काफी सुदृढ़ किया और दीग, कुम्बेर, वेद तथा भरतपुर में चार दुर्गों का निर्माण किया।
  • नादिरशाह के आक्रमण का लाभ उठाकर बदनसिंह ने आगरा और मथुरा पर कब्जा कर लिया। जाट नेता बदन सिंह ने ही भरतपुर राज्य की नींव डाली।
  • अहमदशाह अब्दाली ने बदन सिंह को “राजा’ की उपाधि प्रदान की और इसके साथ “महेन्द्र” शब्द को भी जोड़ा।
  • 1756 ई. में जाट नेता सूरजमल को इस राज्य का उत्तराधिकारी बनाया गया। 1763 ई. तक सूरजमल ने अपने राज्य को सुदृढ़ नेतृत्व प्रदान किया। 1763 ई. में ही उसकी मृत्यु के बाद जवाहर सिंह गद्दी पर बैठा। किन्तु 1768 ई. में जवाहर सिंह जयपुर के राजा माधो सिंह के हाथों पराजित हो गया।
  • जवाहर सिंह के समय से ही इस जाट राज्य का पतन प्रारंभ हो गया था। जवाहरसिंह के उत्तराधिकारियों में वृद्धि और चरित्र दोनों का अभाव था।
  • जवाहर सिंह के बाद रतन सिंह (1768-69 ई.) केसरी सिंह (1769-75 ई.) तथा रणजीत सिंह (1775-1805 ई.) गद्दी पर बैठे। अन्त में रणजीत सिंह (1775 से 1805 ई.) ने 1805 में ब्रिटिश अधीनता को स्वीकार कर लिया।
  • सूरजमल को जाटों का अफलातून (प्लेटो) कहा जाता है।

बुन्देलखण्ड

  • बुन्देलों ने मधुकर शाह के अधीन काफी शक्ति का अर्जन किया। इन्होंने ओरछा में अपनी राजधानी को स्थापित किया।
  • 1592 ई. में मधुकरशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र वीरसिंह बुन्देलखण्ड का मुखिया बना ।
  • जहाँगीर के शासनकाल में वीरसिंह को 3000 का मनसबदार बनाया गया।
  • वीरसिंह के अधीन बुन्देलों की शक्ति अपनी चरम सीमा तक पहुंच गई.
  • वीरसिंह ने मथुरा में 33 लाख रुपये की लागत से एक मन्दिर का निर्माण करवाया।
  • 1627 ई. में वीरसिंह की मृत्यु के बाद जुझारसिंह उसका उत्ताराधिकारी बना।
  • 1635 ई. में चंपतराय बुन्देलखण्ड का मुखिया बना ।
  • सामूगढ़ की लड़ाई में उसने औरंगजेब का साथ दिया
  • 1667 ई. के देवगढ़ अभियान के दौरान मुगलों का साथ दिया, किन्तु जब औरंगजेब ने हिन्दू मन्दिरों को नष्ट करके अपनी धार्मिक कट्टरता का परिचय दिया तो छत्रसाल ने बुन्देलों की हिन्दू जनता के नायक के रूप में अपने को प्रस्तुत किया।
  • 1710 ई. में पुनः छत्रसाल ने सिख नेता बन्दा बहादुर के विरुद्ध मुगलों के अभियान में अपना सक्रिय सहयोग दिया, किन्तु 1720 ई. में बुन्देलों ने पुनः मुगलों के विरुद्ध बगावत कर दी और काफी शक्ति का अर्जन कर लिया।
  • 1723 ई. में मुगल सम्राट ने मुहम्मद खाँ से छत्रसाल के नेतृत्व में बढ़ती हुई बुन्देलखण्ड की शक्ति को कुचलने के लिए कहा।
  • छत्रसाल ने मराठों की सहायता से मुहम्मद खाँ का सफलता पूर्वक सामना किया।
  • किन्तु मराठा कैम्प में महामारी फैलने के कारण मराठा सेना वापस दक्षिण में चली गई.
  • 1729 ई. में छत्रसाल ने मुहम्मद खाँ से समझौता कर लिया।
  • मुहम्मद खाँ ने पुनः बुन्देलखण्ड पर हमला न करने का वचन दिया।
  • 1731 ई. में छत्रसाल का निधन हो गया और उसकी रियासत को उसके पुत्रों ने आपस में बांट लिया।

सिख

  • औरंगजेब ने अपनी धार्मिक कट्टरता का परिचय देते हुए सिखों के दसवें गुरु, गुरु तेग बहादुर का वध करवा दिया
  • इस महत्वपूर्ण घटना से सिख मुगलों के गंभीर शत्रु बन गए।
  • गुरु गोविन्द सिंह (1664-1708 ई.) ने अपने सुदृढ़ नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना का गठन किया और आनंदपुर साहब में अपने मुख्य कार्यालय की स्थापना की।
  • 1699 ई. में उन्होंने “खालसा पंथ“ की स्थापना की।
  • गुरु गोविन्द सिंह ने अपने आस-पास की समस्त पहाड़ी रियासतों पर कब्जा करना प्रारंभ कर दिया।
  • औरंगजेब ने सिखों की बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने के लिए लाहौर के गवर्नर तथा सरहिन्द के फौजदार को पहाड़ी राजाओं की सहायता के लिए भेजा।
  • प्रारंभ में सिख नेता ने वीरतापूर्वक मुगल सेना का सामना किए, किन्तु अचानक भुखमरी फैलने से सब अस्त-व्यस्त हो गया और मजबूरी वश गुरु गोविन्द सिंह को किले के दरवाजे खोलने पड़े।
  • मुगल सेनापति वजीर खाँ ने अचानक उन पर हमला कर उनके दो पुत्रों को पकड़ लिया और बाद में उनका वध कर दिया गया।
  • एक अन्य लड़ाई में गुरु गोविन्द सिंह ने अपने शेष दोनों बेटे भी खो दिए।
  • 1708 ई. में सिखों का नेतृत्व बंदा बहादुर के सुयोग्य हाथों में आ गया।
  • सरहिन्द के फौजदार वजीर खाँ से बदला लेने के लिए बंदा बहादुर ने सरहिन्द पर आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया और वजीर खाँ की हत्या कर दी।
  • बंदा बहादुर ने अनेक कल्याणकारी कार्य भी किए।
  • इन कार्यों में प्रमुख कार्य, जमींदारों का भूस्वामित्व समाप्त कर भूमि को जोतने वालों को उसका स्थायी स्वामी बनाना था।
  • बंदा बहादुर ने 1716 ई. तक सिख राज्य को काफी शक्तिशाली बनाया।
  • किन्तु एक युद्ध में अपने सहयोगियों द्वारा विश्वासघात किए जाने के कारण बंदा बहादुर बन्दी बना लिए गए।
  • 1716 ई. में उनका वध कर दिया गया।
  • बंदा बहादुर की मृत्यु के बाद सिखों में फुट पड़ गई और सिख ‘बन्दई’ तथा “तत खालसा’ नामक दो गुटों में विभाजित हो गए।
  • 1721 ई. में भाई मणि सिंह और गुरु गोविन्द सिंह की विधवा माता सुन्दरी ने सिख एकता हेतु प्रयास किये।
  • 1739 ई. में नादिरशाह के आक्रमण के बाद फैली अव्यवस्था और अराजकता की स्थिति ने सिखों को पुनः शक्ति संचयन का अवसर प्रदान किया।
  • इलेवाल नामक स्थान पर सिखों ने स्वयं को संगठित किया और एक किले का निर्माण किया।
  • 1748 से 1767 ई. के मध्य मुहम्मदशाह अब्दाली द्वारा किए गए विभिन्न आक्रमणों ने सिख शक्ति के उदय पर निर्णायक प्रभाव डाला।
  • 1752 ई. में पंजाब मुगल साम्राज्य का भाग न रहा।1760 ई. के आते-आते सिखों का पंजाब पर पूर्ण प्रभुत्व स्थापित हो गया।
  • 1764 ई. में सिखों ने लाहौर पर अधिकार कर लिया।अब उनका प्रभाव सहारनपुर से अवध (अटक) तक तथा मुल्तान से कांगड़ा तथा जम्मू तक फैल गया।
  • आगे चलकर सिखों का नेतृत्व महाराजा रणजीत सिंह के हाथों में आया।
  • 1839 ई. में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सिखों में फूट पड़ गई ।
  • 1849 ई. में पंजाब पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया।

जम्मू-कश्मीर

  • जम्मू लम्बे समय से एक हिन्दू राजपूत वंश के अधीन था।
  • मुगल बादशाह इस पहाड़ी रियासत पर नियंत्रण रखने के लिए एक मुस्लिम फौजदार की नियुक्ति करता था।
  • मुगल साम्राज्य की पतोंन्मुख स्थिति का लाभ उठाकर जम्मू के राजा ने मुगल बादशाह को कर देना बन्द कर दिया तथा अपनी स्वतंत्रता हेतु प्रयत्न करने लगा।
  • 1750 ई. 1781 ई. तक जम्मू राजा रणजीत देव के अधीन था। इस राजा के शासनकाल में जम्मू शहर काफी समृद्ध हुआ और व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र बन गया।
  • 1781 ई. में रणजीत देव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बृजराज देव उसका उत्तराधिकारी बना।बृजदेव के काल में जम्मू पूरी तरह सिखों के नियंत्रण में रहा।
  • 1752 ई. में अहमदशाह अब्दाली ने कश्मीर पर अधिकार कर लिया।इसके बाद 1819 ई. तक यहां अफगानों का शासन रहा।
  • 1819 ई. में कश्मीर पर महाराजा रणजीत सिंह ने अधिकार कर लिया।

मराठा 

  • छत्रपति शिवाजी (1627-16803 ई.) ने मराठा साम्राज्य की नींव रखी ।
  • इससे पूर्व उन्हें बीजापुर और गोलकुण्डा की मुस्लिम रियासतों से कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। 1680 ई. में शिवाजी की मृत्यु हो गई 1707 से 1749 ई. तक छत्रपति शिवाजी के पोते साहू ने मराठा साम्राज्य का नेतृत्व किया, किन्तु साहूजी एक शान्तिप्रिय और आलसी व्यक्ति था।
  • उसके शासनकाल में विशेषतः 1714 से 1720 ई. के दौरान वास्तविक मराठा शक्ति का प्रयोग पेशवा बालाजी विश्वनाथ ने किया और मराठा शक्ति को सुदृढ़ किया।
  • 1720 से 1740 ई. तक पेशवा बाजीराव प्रथम ने मराठा शक्ति का विस्तार किया। पेशवा बाजीराव प्रथम ने सम्पूर्ण भारत में हिन्दू राज्य स्थापित करने की अपनी नीति का अनुसरण करते हुए मालवा और गुजरात पर अधिकार किया।
  • जनवरी, 1738 ई. में उसने दक्षिण के मुगल सूबेदार आसफजाह निजाम-उल-मुल्क को प्रसिद्ध दुरई सराय की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया। इस संधि के बाद चम्बल तथा नर्मदा नदी के बीच का सारा प्रदेश मराठों के अधिकार में आ गया।
  • 1738 ई. में ही बाजीराव ने भारत के पश्चिमी तट पर पुर्तगालियों का दमन किया।1750 ई. तक ऐसा लगने लगा कि मराठे ही आने वाले वर्षों में मुगल साम्राज्य के अधिकारी बनेंगे, किन्तु पानीपत के तृतीय युद्ध (1761 ई.) में मराठों को अहमदशाह अब्दाली ने परास्त कर दिया।
  • आगे चलकर मराठों ने अंग्रेजों को भी गंभीर चुनौती दी, किन्तु कुछ समय बाद अंग्रेजों ने मराठों की शक्ति को कुचल दिया।

गुजरात

  • मुगलों के आंतरिक झगड़ों ने गुजरात पर कब्जा करने के लिए मराठों को उपयुक्त अवसर प्रदान किया।
  • 1724 ई. में मुगल बादशाह ने हमीद खाँ को नजरंदाज करते हुए सरबुलन्द खाँ को गुजरात का गवर्नर नियुक्त किया । हमीद खाँ गुजरात का शासक बनना चाहता था।
  • मुगल बादशाह के उक्त कृत्य से रुष्ट होकर उसने बादशाह के विरुद्ध मराठों का समर्थन पाने के लिए मराठों को गुजरात से चौथ तथा सरदेशमुखी एकत्र करने का अधिकार दे दिया।
  • हमीद खाँ के इस कृत्य से रुष्ट होकर सम्राट ने सरबुलन्द खाँ को गुजरात पर आक्रमण करने का आदेश दिया।
  • सरबुलन्द खाँ,हमीद खाँ की योजनाओं को तो निष्फल करने में सफल रहा। किन्तु वह मराठों को गुजरात से नहीं निकाल पाया।
  • 1727 ई. में वह भी मराठों को गुजरात से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने देने पर सहमत हो गया। लेकिन सरबुलंद खाँ के इस कृत्य से सम्राट सहमत न था।
  • सरबुलन्द खाँ को वापस बुला लिया गया और उसके स्थान पर राजा अभय सिंह को गुजरात का गवर्नर बनाया गया। आगे चलकर मुगल सम्राट द्वारा गुजरात में पुनः मुगल प्रभुत्व स्थापित करने के सारे प्रयास नाकाम रहे और अन्ततः 1737 ई. में गुजरात मुगल साम्राज्य से पृथक हो गया।

मालवा

  • मालवा प्रान्त दक्कन तथा शेष हिन्दुस्तान को जोड़ने वाली कड़ी था। इस प्रकार की केन्द्रीय स्थिति होने के कारण इस प्रान्त का सामारिक महत्व बहुत अधिक था।
  • व्यापार के मुख्यमार्ग तथा दक्कन और गुजरात को जाने वाले सैनिक रास्ते इस प्रान्त से होकर गुजरते थे।
  • औरंगजेब को धार्मिक कट्टरता एवं अत्याचार से तंग आकर इस प्रान्त के राजपूत सामंत, जमींदार तथा उनकी हिन्दू प्रजा मुगल साम्राज्य के विरुद्ध हो गई, इन्होंने समय आने पर मुगलों के विरुद्ध मराठा आक्रमणकारियों का स्वागत किया।
  • इस क्षेत्र पर मराठों का पहला आक्रमण 1699 ई. में हुआ। धीरे-धीरे इस क्षेत्र पर मराठों का प्रभुत्व स्थापित होता चला गया। 1723-24 ई. में पेशवा बाजीराव ने मालवा पर आक्रमण किया। इस आक्रमण ने इस क्षेत्र में मुगलों की स्थिति को और अधिक दुर्बल कर दिया।
  • 1738 ई. में मुगल सूबेदार निजाम-उल-मुल्क ने भोपाल में अपनी पराजय के बाद सम्पूर्ण मालवा तथा नर्मदा और चम्बल के बीच के क्षेत्र पर मराठों के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया।
  • आगे चलकर 1741 ई. में पेशवा बालाजी बाजीराव के मालवा में बढ़ते हुए प्रभाव को देखते हुए मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने पेशवा को मालवा के डिप्टी गवर्नर का पद प्रदान किया। मुगल बादशाह का यह कृत्य अपनी लाज बचाने का एक उपाय मात्र था, क्योंकि इस उपाय के अभाव में मालवा दिल्ली के साम्राज्य (मुगल साम्राज्य) का एक भाग नहीं रह जाता।

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