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कल्याणी के चालुक्य

  • कल्याणी के चालुक्य वंश का उदय राष्ट्रकूटो के पतन के पश्चात हुआ। कल्याणी के चालुक्य वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाता तैलप द्वितीय था।
  • तैलप द्वितीय का परमार शासक मुंज से लम्बा संघर्ष हुआ इसका उल्लेख साहित्य तथा लेखों में मिलता है। मेरूतंग कृत प्रबन्ध चिन्तामणि से ज्ञात होता है कि तैलप द्वितीय ने मुंज के ऊपर छः बार आक्रमण किया किन्तु प्रत्येक बार पराजित हुआ।
  • सोमेश्वर प्रथम 1043 ई0 शासक बना। उसने अपनी राजधानी मान्यखेत से कल्याणी में स्थानान्तरित किया।
  • चोल नरेश राजराज ने सोमेश्वर प्रथम को बुरी तरह परास्त करके ‘विजयेन्द्र’ की उपाधि धारण की।
  • सोमेश्वर प्रथम ने परमारों की राजधानी धारा नगरी के ऊपर आक्रमण कर वहां के शासक भोज को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर किया। अन्य लेखों से पता चलता है कि चालुक्यों ने धारा नगरी को जला दिया तथा मांडव पर अधिकार कर लिया।
  • सोमेश्वर प्रथम कोप्पम तथा कुडलसंगमम् के युद्ध में चोलों से बुरी तरह पराजित हुआ। चोलों से निरंतर पराजय के पश्चात उसने तुंगभद्रा नदी में डूबकर आत्म हत्या कर ली
  • विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126 ई0) सोमेश्वर प्रथम का कनिष्ठ पुत्र था। 1076 ई0 में अपने राज्यारोहण के समय उसने एक सम्वत् का प्रवर्तन किया जिसे ‘चालुक्य-विक्रम-संवत्’ कहा जाता है।
  • विक्रमादित्य षष्ठ के राज्यारोहण के बाद चोल-चालुक्य संघर्ष कुछ काल तक रूका रहा। उसका शासन काल सामान्यतः शान्तिपूर्ण रहा।
  • एक कुशल योद्धा तथा साम्राज्य निर्माता होने के साथ-साथ विक्रमादित्य षष्ठ साहित्य एवं कला का महान उन्नायक था।
  • उसने विक्रमपुर नामक एक नया नगर बसाया तथा भगवान विष्णु का एक विशाल मंदिर एवं विशाल झील का भी निर्माण करवाया था।
  • उसकी राज्य सभा में ‘विक्रमांकदेवचरित’ के रचयिता विल्हण तथा ‘मिताक्षरा’ के लेखक विज्ञानेश्वर निवास करते थे। विल्हण उसके राजकवि थै।
  • विक्रमादित्य षष्ठ कल्याणी के चालुक्य वंश का महानतम् शासक था। उसकी मृत्यु के पश्चात कल्याणी के चालुक्य वंश की अवनति प्रारंभ हो गई।
  • विक्रमादित्य षष्ठ के पश्चात सोमेश्वर तृतीय (1126-1138 ई0) चालुक्य वंश का शासक बना। उसे भूलोकमल्ल तथा त्रिभुवनमल्ल जैसी उपाधियां ग्रहण की।
  • सोमेश्वर तृतीय की विजयों की अपेक्षा शान्ति के कार्याें में अधिक रूचि थी। वह स्वयं एक बड़ा  विद्वान था जिसने ‘मानसोल्लास’ नामक शिल्पशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की थी
  • इस वंश का अंतिम शासक तैल तृतीय का पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ था।
  • ऐहोल को ‘मंदिरों का  नगर’  कहा जाता है। चालुक्यों का पारिवारिक चिन्ह वाराह था।
  • चालुक्यों के शासन काल में ग्राम के अधिकारी को गामुंड कहा जाता था। इनकी नियुक्ति केन्द्र द्वारा होती थी।

चालुक्य वंश (वातापी)

  • जयसिंह ने वातापी के चालुक्य वंश की स्थापना की जिसकी राजधानी वातापी (बीजापुर के निकट) थी। इस वंश के प्रमुख शासक थे-पुलकेशिन प्रथम, कीर्तिवर्मन, पुलकेशिन द्वितीय, विक्रमादित्य, विनयादित्य एवं विजयादित्य। इनमें सबसे प्रतापी राजा पुलकेशिन द्वितीय था।
  • महाकूट स्तंभ लेख से प्रमाणित होता है कि पुलकेशिन द्वितीय बहु सुवर्ण एवं अग्निष्टोम यज्ञ सम्पन्न करवाया थाजिनेन्द्र का मेगुती मंदिर पुलकेशिन द्वितीय ने बनवाया था।
  • पुलकेशिन द्वितीय ने हर्षवर्द्धन को हराकर परमेश्वर की उपाधि धारण की थी। इसने ‘दक्षिणापथेश्वर’ की उपाधि भी धारण की थी।
  • पल्लववंशी शासक नरसिंह वर्मन प्रथम ने पुलकेशिन द्वितीय को लगभग 642 ई0 में परास्त किया और उसकी राजधानी बादामी पर अधिकार कर लिया। संभवतः इसी युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय मारा गया। इसी विजय के बाद नरसिंहवर्मन ने वातापिकोड की उपाधि धारण की।
  • एहोल अभिलेख का संबंध पुलकेशिन द्वितीय से है। (लेखक-रविकीर्ति)
  • अजन्ता के एक गुहाचित्र में फारसी दूत-मंडल को स्वागत करते हुए पुलकेशिन द्वितीय को दिखाया गया है।
  • वातापी का निर्माणकर्ता कीर्तिवर्मन को माना जाता है।
  • मालवा को जीतने के बाद विनयादित्य ने सकलोत्तरपथनाथ की उपाधि धारण की।
  • विक्रमादित्य द्वितीय के शासनकाल में ही दक्कन में अरबों ने आक्रमण किया। इस आक्रमण का मुकाबला विक्रमादित्य के भतीजे  पुलकेशी ने किया। इस अभियान की सफलता पर विक्रमादित्य द्वितीय ने इसे अवनिजनाश्रय की उपाधि प्रदान की।
  • विक्रमादित्य द्वितीय की प्रथम पत्नी लोकमहादेवी ने पट्दकल में विरूपाक्षमहादेव मंदिर तथा उसकी दूसरी पत्नी त्रैलोक्य देवी ने त्रैलोकेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया।
  • इस वंश का अंतिम राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय था। इसे इसके सामंत दन्तिदुर्ग ने परास्त कर एक नये वंश (राष्ट्रकूट वंश) की स्थापना की।
  • एहोल को मंदिरों का शहर कहा जाता है।

चालुक्य वंश (बेंगी)

  • बेंगी के चालुक्य वंश का संस्थापक विष्णुवर्धन था। इसकी राजधानी बेंगी (आन्ध्र प्रदेश) में थी।
  • इस वंश के प्रमुख शासक थे: जयसिंह प्रथम, इन्द्रवर्धन, विष्णुवर्धन द्वितीय, जयसिंह द्वितीय एवं विष्णुवर्धन तृतीय।
  • इस वंश के सबसे प्रतापी राजा विजयादित्य तृतीय था, जिसका सेनापति पंडरंग था।

 

वादामी के चालुक्य

  • ईसा की छठीं शताब्दी के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर चालुक्यवंश की जिस शाखा का आधिपत्य रहा उसका उत्कर्ष स्थल वादामी या वातापी होने के कारण उसे बादामी अथवा वातापी का चालुक्य कहा जाता है। इस शाखा को पूर्व कालीन पश्चिमी चालुक्य भी कहा गया है।
  • वादामी के चालुक्य वंश के इतिहास के प्रमाणिक साधन अभिलेख हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख है। यह लेख एक प्रशस्ति के रूप में है तथा इसकी भाषा संस्कृत है लिपि दक्षिणी ब्राह्मी है। इस लेख की रचना रवि कीर्ति ने की है।
  • वादामी के चालुक्य वंश का संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था। इसने बहुत से अश्वमेध यज्ञ किये
  • कीर्तिवर्मन प्रथम (566-597 ई0) ने बनवासी के कदम्ब, कोंकण के मौर्य तथा वल्लरी-कर्नूल क्षेत्र के नलवंशी शासकों को पराजित कर उनके राज्य को अपने राज्य में मिलाया।
  • कीर्तिवर्मन प्रथम ने सत्याश्रय, पृथ्वी वल्लभ आदि उपाधियां ग्रहण की तथा वैदिक यज्ञ किये। उसे ‘वातापी का प्रथम निर्माता’ भी कहा जाता है।
  • महाकूट स्तंभ लेख में कीर्तिवर्मन प्रथम को बहुसुवर्ण अग्निष्टोम यज्ञ करने वाला कहा गया है।
  • मंगलेश-वैष्णव धर्मानुयायी था उसे परम भागवत कहा गया है। उसने बादामी के गुहा मंदिरों का निर्माण पूरा कराया जिसका प्रारंभ कीर्तिवर्मन के समय हुआ था।
  • पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश के शासकों में सर्वाधिक योग्य तथा शक्तिशाली शासक था। उसने अपने चाचा मंगलेश तथा उनके समर्थकों की हत्या कर 609-10 ई0 में बादामी के चालुक्य वंश की गद्दी पर बैठा।

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