तीसरी शताब्दी ई0 से छठी शताब्दी ई0 तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश सर्वाधिक सम्मानित तथा सुसंस्कृत था।
इस राजवंश के शासक विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राम्हण थे तथा उनका मूल निवास स्थान बरार (विदर्भ) में था।
अजन्ता गुहालेख इस वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों का विवरण देता है।
वाकाटक राजवंश की स्थापना 255 ई0 के लगभग विन्ध्य शक्ति नामक व्यक्ति ने की थी। उसके पूर्वज सातवाहनों के अधीन बरार के स्थानीय शासक थे।
वाकाटक वंश में प्रवर सेन प्रथम ही एक मात्र शासक ने ‘सम्राट’ की उपाधि धारण की थी उसका ‘प्रवीर’ नाम से भी उल्लेख मिलता है।
पुराणों से ज्ञात होता है कि प्रवरसेन प्रथम ने चार अश्वमेध यज्ञ, एक वाजपेय यज्ञ तथा अन्य अनेक वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया था।
रूद्रसेन प्रथम को वाकाटक अभिलेखों में ‘महाभैरव’ का उपासक बताया गया है।
पृथ्वीसेन प्रथम का काल शान्ति एवं समृद्धि का काल था। वाकाटक लेखों में उसे अत्यन्त पवित्र तथा धर्मविजयी शासक कहा गया है जो आचरण में युधिष्ठिर के समान था।
प्रवर सेन द्वितीय एक साहित्यिक अभिरूचि का शासक था जिसने सेतुबन्ध नामक प्राकृत काव्य ग्रन्थ की रचना की।
प्रवरसेन द्वितीय ने अपनी पुरानी राजधानी नन्दिवर्धन से प्रवरपुर स्थानान्तरित कर दिया।
पृथ्वीसेन द्वितीय को उसके बालाघाट अभिलेख में ‘परमभागवत’ कहा गया है।
इस वंश के शासक विद्या-प्रेमी तथा कला और साहित्य के उदार संरक्षक थे। इस वंश के प्रवरसेन ने सेतुबन्ध तथा सर्वसेन ने हरविजय नामक प्राकृृत काव्य ग्रन्थ की रचना की।
संस्कृत के विदर्भी शैली का पूर्ण विकास वाकाटक नरेशों के दरबार में ही हुआ। कुछ विद्वानों का मत है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय के राजकवि कालिदास ने कुछ समय तक प्रवरसेन द्वितीय की राजसभा में निवास किया था।
वाकाटक नरेश ब्राम्हण धर्मावलम्बी थे। इस वंश के राजाओं ने अश्वमेध, वाजपेय आदि अनेक वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उनकी उपाधियां परममाहेश्वर तथा परम भागवत की थी।
अजन्ता के 16वां तथा 17वां विहार और उन्नीसवें गुहा चैत्य का निर्माण इसी युग में हुआ था।