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गुप्तोत्तर काल

550 ई0 के लगभग शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य का पूर्णरूपेण अस्तित्व मिट गया। इससे भारतीय राजनीति में पुनः विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियां तेज हुईं। अनेक स्थानीय सामंतों एवं शासकों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। हर्ष के उदय से पूर्व उत्तर तथा पश्चिम भारत की राजनीति में निम्नलिखित स्थानीय शक्तियां सक्रिय थीं-

1. गया के मौखरी

2. कन्नौज के मौखरी

3. पंजाब के हूण

4. मालवा का यशोधर्मन

5. मगध तथा मालवा के उत्तरगुप्त

6. वल्लभी के मैत्रक

 

गया के मौखरी : मौखरीवंश का उदय गया के निकटवर्ती भू-भाग में ही हुआ था। यज्ञवर्मा गया की मौखरी शाखा का प्रथम नरेश था। उसके बाद शार्दूलवर्मा ने सत्ता धारण की। इसे ‘सामंत चूड़ामणि’ कहा जाता था। उसका पुत्र अनंत वर्मा ‘नृप’ विरूद से जाना जाता था।

कन्नौज के मौखरी : यशोधर्मन् की मृत्यु के पश्चात् मौखरियों का कन्नौज पर शासन हो गया। मौखरी राजवंश के इतिहास के लिए जो अभिलेख सहायक हैं, वे हैं-

1. हरहा का लेख : उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के हरहा नामक स्थान पर प्राप्त लेख, जो ईशानवर्मा के पुत्र सूर्यवर्मा द्वारा खुदवाया गया था। इससे इस वंश के प्रथम चार राजाओं-हरिवर्मा, आदित्यवर्मा, ईश्वरवर्मा, तथा ईशानवर्मा के बारे में पता चलता है।

2. जौनगढ़ का लेख : इससे भी उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है।

3. असीरगढ़ का लेख : यह सर्ववर्मा के समय का है।

4. बराबर तथा नागार्जुनी के लेख : इसमें यज्ञवर्मा, शार्दुलवर्मा तथा अनंतवर्मा के नाम हैं।

5. वड़वा-यूप अभिलेख : इससे राजस्थान की मौखरी शाखा का पता चलता है।

6. सोहनाग का लेख : मौखरियों की राजधानी कन्नौज में थी। ईशानवर्मा ने ही मौखरियों को सामंती से स्वतंत्र स्थिति में पहुंचाया। नालंदा मुद्रालेख तथा हर्षचरित के साक्ष्य से प्रकट होता है कि अवंतिवर्मा का एक अन्य पुत्र सुचंद्रवर्मा था। इसके बाद मौखरियों का स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व नहीं रह गया।

पंजाब के हूण : मध्य एशिया में निवास करने वाली एक खानाबदोश और बर्बर जाति को ‘हूण’ कहा जाता था। हूणों ने भारत पर पहला आक्रमण स्कंदगुप्त के राज्यकाल में किया, जिसमें वे बुरी तरह पराजित हुए। स्कंदगुप्त की मृत्यु के उपरांत हूणों ने पुनः गंगा-घाटी पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में हूणों का नेता ‘तोरमाण’ था। वह एक शक्तिशाली शासक था। बुद्धगुप्त की मृत्यु के बाद तोरमाण का इस क्षेत्र पर अधिकार हो गया। अभिलेखों एवं सिक्कों से पता चलता है कि तोरमाण ने अपने साम्राज्य का विस्तार पंजाब तक कर लिया था। तोरमाण ने मगध पर भी प्रभाव जमाया। तोरमाण के बाद मिहिरकुल हूण शासक बना। वह अत्यंत क्रूर शासक था। वह बौद्ध विरोधी था।

मालवा का यशोधर्मन :  530 ई. के आसपास मध्य भारत में एक पराक्रमी शासक यशोधर्मन् उत्पन्न हुआ, इसने भी गुप्त साम्राज्य के पतन में भूमिका निभायी। इसने हूण शासक मिहिरकुल को पराजित किया, जो बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। यशोधर्मन् का पतन 535 ई. में हो गया। यशोधर्मन ने 523 ई.में शासन कर रहे हरिषेण को पराजित कर मालवा को अपने अधीन कर लिया था।

मगध तथा मालवा के उत्तरगुप्त : गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद मगध और मालवा में एक नवीन गुप्तवंश का उदय हुआ, जिसने लगभग 200 वर्षां तक शासन किया। चक्रवर्ती गुप्त राजवंश से पृथक् करने के लिए इसे परवर्ती अथवा उत्तर गुप्तवंश कहते हैं। उत्तर गुप्तवंश का इतिहास जानने के दो प्रमुख साधन हैं-अफसढ़ का लेख तथा देवबर्नाक का लेख। अफसढ़ बिहार राज्य के गया जिले में अवस्थित एक क्षेत्र है, जहां से आदित्यसेन के समय का लेख प्राप्त हुआ है। इसमें उत्तर गुप्तवंश के प्रथम शासक कृष्णगुप्त से लेकर आदित्य सेन तक के इतिहास का वर्णन है। देवबर्नाक बिहार के आरा जिले में स्थित है, जहां से जीवितगुप्त द्वितीय का लेख प्राप्त हुआ है इसमें आदित्यसेन के बाद के तीन शासकों-देवगुप्त, विष्णुगुप्त तथा जीवितगुप्त द्वितीय का नामोल्लेख है।

उत्तर गुप्तवंश का संस्थापक राजा कृष्णगुप्त था। इसका शासनकाल 510 ई. से 525 ई. तक था। इसका उत्तराधिकारी हर्षगुप्त हुआ। हर्षगुप्त का पुत्र जीवितगुप्त तृतीय शासक था। कुमारगुप्त उत्तर गुप्तवंश का चौथा राजा बना, जो जीवित गुप्त का पुत्र था। वह एक शक्तिशाली राजा था। कुमारगुप्त  ने समय मौखरी नरेश ईशान वर्मा उसका प्रतिद्वंदी था। कुमारगुप्त ने उसे युद्ध  में पराजित कर दिया। इस युद्ध के बाद कुमारगुप्त का साम्राज्य प्रयाग तक विस्तृत हो गया।

कुमारगुप्त की मृत्यु के पश्चात दामोदर गुप्त राजा बना। इसके समय ईशानवर्मा का पुत्र सर्ववर्मा प्रतिद्वंदी था। इस युद्ध में दामोदरगुप्त  पराजित हो गया तथा मगध पर मौखरियों का अधिकार हो गया। दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना। महासेनगुप्त की एकमात्र उपलब्धि असम नरेश सुस्थितवर्मन् की पराजय थी। महासेनगुप्त के बाद देवगुप्त, माधवगुप्त तथा आदित्यसेन शासक बने। जीवितगुप्त के साथ ही उत्तरगुप्तों के मगध साम्राज्य का अंत हो गया।

वल्लभी के मैत्रक : मैत्रक वंश के आरंभिक शासक गुप्त सम्राटों के सामंत थे। मैत्रक वंश के प्रारंभिक दो राजा था-भट्टार्क तथा उसका पुत्र धरसेन। इस वंश का तीसरा शासक राजा द्रोणसिंह था। द्रोणसिंह का छोटा भाई ध्रुवसेन इसके बाद राजा बना। वह स्वयं को ‘परमभट्टारकपदानुध्या’ कहता था। इसके बाद गुहसेन राजा बना। गुहसेन के बाद उसका पुत्र ध्रुवसेन द्वितीय (571-590 ई.) राजा बना। इसके बाद उसका पुत्र विक्रमादित्य प्रथम धर्मादित्य (606-12 ई.) राजा बना। मैत्रकों का राज्य सम्पूर्ण गुजरात, कच्छ तथा पश्चिमी मालवा तक विस्तृत हो गया था। इसके बाद 623 ई. में ध्रुवसेन  तृतीय शासक बना। मैत्रक वंश का अंतिम ज्ञात शासक शिलादित्य सप्तम है, जो 766 ई. में शासक कर रहा था।

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