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गुप्तोत्तर कालीन सामाजिक एवं आर्थिक दशा

  • गुप्तोत्तर काल में महत्वपूर्ण सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। एक महत्वपूर्ण आर्थिक परिवर्तन जिसने जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को प्रभावित किया, भूमिदान तथा उससे उत्पन्न सामंतीय व्यवस्था का विस्तृत रूप से अपनाया जाना था।
  • भट्भुवनदेव कृत अपराजितपृच्छा में महामण्डलेश्वर, मांडलिक, महासामन्त एवं लघु सामान्त सहित सामन्तों की नौ श्रेणियों के लिए भिन्न-भिन्न आकार प्रकार के घरों का उल्लेख है
  • भूमि के दान एवं विभाजन के फलस्वरूप एक नवीन शिक्षित वर्ग (कायस्थ) का उदय हुआ।
  • इस युग का सर्वाधिक विस्मयकारी परिवर्तन जातियों का प्रगुणन था, जिसने ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्यों और शूद्रों सभी को प्रभावित किया।

सामाजिक स्थिति

  • समाज में ब्राम्हणों का स्थान सर्वश्रेष्ठ था। वे शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट आधार का पालन करते थे, वेद-वेदांग तथा अन्य शास्त्रों में पारंगत होते थे। उन्हें श्रोत्रिय आचार्य तथा उपाध्याय कहा जाता था।
  • गुप्तोत्तर काल में बाह्य आक्रमणों से उत्पन्न राजनीतिक उथल पुथल तथा आर्थिक विषमताओं ने ब्राम्हणों को अन्य व्यवसाय अपनाने के लिए बाध्य किया।
  • मेधातिथि के अनुसार विदेशी आक्रमण से यदि खतरा हो और सामाजिक व्यवस्था का भय उत्पन्न हो जाय तो ब्राम्हण शस्त्र ग्रहण कर सकता है।
  • मनु पर टीका करते हुए मेधातिथि ने वेदज्ञ ब्राम्हण को सेनापति तथा राजपद ग्रहण करने की अनुमति दी है।
  • इस युग में स्मृतिकार पराशर ने ब्राम्हण के लिए कृषि एक सामान्य व्यवस्था बताया है, बशर्ते वे स्वयं खेती न करें।
  • चालुक्य नरेश कुमारपाल के एक लेख में ब्राम्हण खेतिहरों के नाम तथा प्रतिहारों के पेहोवा अभिलेख में एक ब्राम्हण का घोड़े के व्यापारी के रूप में उललेख मिलता है।
  • इस काल में स्मृतियों में ब्राम्हणों को आपात काल में व्यापार से भी आजीविका चलाने की अनुमति है।
  • इस युग की महत्वपूर्ण घटना राजपूतों का अभ्युदय है जिन्होंने प्राचीन क्षत्रियों का स्थान ले लिया।
  • इस काल में राजपूत शब्द लड़ाकू जातियों तथा सामन्त वर्ग के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा।
  • 12वीं शताब्दी तक राजपूतों की 36 जातियां प्रसिद्ध हो गई थी जिसमें प्रमख है चालुक्य, चौहान, प्रतिहार, परमार, गुहिल, चन्देल, कछवाहा, मेद आदि। सातवीं-आठवीं शताब्दी में इनका उदय हुआ था।
  • जो ब्राम्हण अपने मूल कर्म एवं जाति स्तर को छोड़कर क्षत्रियों के कार्य को अपना लिया था ऐसे ब्राम्हण ब्रम्ह-क्षत्रिय के नाम से जाने गये।
  • शूद्र-ब्राम्हण वह है जो लाख, नमक, दूध, शहद, मांस आदि का विक्रय करता है।
  • क्षत्रियों से उच्चतम स्तर का दावा करने वाले सत्-क्षत्रिय के नाम से जाने गये।
  • ह्वेनसांग ने मनिपुर और सिन्धु देश के राजा को शूद्र कहा है।
  • मनु के टीकाकार मेधातिथि ने लिखा है कि राजा शब्द अक्षत्रिय के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है बशर्ते की वह राज्य का स्वामी हो।
  • अल्बरूनी के वृत्तान्त से पता चलता है कि राजपूत क्षत्रिय ब्राम्हणों के समान समझे जाते थे किन्तु खेतिहर क्षत्रिय और वैश्य बराबर थे और शूद्रों से बहुत ऊँचे नहीं थे क्योंकि इन्हें वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था और उनके धार्मिक कृत्य पुराणोवत मंत्रों द्वारा होते थे, वैदिक मंत्रों द्वारा नहीं।
  • धर्मशास्त्रों में वैश्यों के लिए कृषि, पशुपालन और व्यापार जैसे व्यवसाय निर्दिष्ट किये गये है। पराशर ने कुसीदवृत्ति (सूद पर रूपया उधार देना) वैश्य का व्यवसाय बताया है।
  • इस काल में वैश्यों की स्थिति में गिरावट आयी। मनु और बौधायन धर्मसूत्र में वैश्यों को सर्वप्रथम शूद्रों के समकक्ष माना गया।
  • अल्बरूनी ने वैश्यों एवं शूद्रों में कोई अन्तर नहीं पाया है उसके अनुसार इन दोनों को वेदों के अध्ययन या श्रवण की अनुमति नहीं थी।
  • अल्बरूनी ने यह भी कहा है कि ‘‘यदि इनमें (वैश्य एवं शूद्र) से किसी भी जाति के लोग वेदों का पाठ करते तो राजा उनकी जीभ कटवा देता था।’’ प्रायः ये दोनों एक ही गांव और नगर में रहते थे।
  • उदयन, तेजपाल इत्यादि धनी व्यापारी मंत्री पद पर नियुक्त थे। जयसिंह सिद्ध राज के राज्यकाल में कई व्यापारियों को सामन्त की पदवी दी गई थी।
  • प्राचीन काल में वैश्यों ने बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान दिया उसी प्रकार पूर्व मध्यकाल में वैष्णव और जैन धर्म उनका महत्वपूर्ण स्थान है।
  • समाज में शूद्रों की संख्या सर्वाधिक थी। उनकी आर्थिक स्थिति में पर्याप्त उन्नति हुई किन्तु सामाजिक स्थिति में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं दिखाई देता है।
  • शूद्रों में कुछ वर्ण संकर जातियां भी थी इन जातियों का जन्म उच्च जाति के पुरूषों का निम्न जाति की स्त्रियों के साथ या प्रतिलोम विवाह से हुआ।
  • इस काल में स्मृतियों एवं निबंधों में भी सेवावृत्ति के अतिरिक्त शूद्र के लिए अनेक व्यवसाय निर्धारित किये गये हैं।
  • अति, देवल एवं पराशर ने शूद्र के लिए सेवा के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन, वाणिज्य तथा शिल्प उपयुक्त व्यवसाय बताए हैं।
  • आर्थिक दृष्टि से इस युग की महत्वपूर्ण विशेषता है कृषि कार्य का आमतौर पर शूद्रों का व्यवसाय होना।
  • ह्वेनसांग तथा इब्नखुर्दाद्ब ने कृषि को शूद्रों का व्यवसाय बताया है।
  • व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
  • इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्व थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार असहाय ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
  • हर्षचरित में आदिवासी कृषकों का उल्लेख है। गुप्तकाल के अभिलेखों में शिल्पी (बढ़ई) के खेत का उल्लेख है।
  • मेधातिथि उच्च वर्णों पर शूद्रों की निर्भरता के सिद्धांत की पुनरावृत्ति करता है। उसने शूद्रों को संन्यास आश्रम से वंचित करते हुए कहा है कि वे गृहस्थ जीवन में ही रहकर संतानोत्पत्ति तथा द्विजों की सेवा द्वारा पुण्य कमा सकते हैं।
  • अल्बरूनी ने भी शूद्रों के प्रति ही नहीं अपितु वैश्यों के प्रति भी ऐसे उपर्युक्त दृष्टिकोण का उल्लेख किया है।
  • शूद्रों के बंधुआ होने के संकेत एक धार्मिक विचार धारा में मिलते हैं जो पूर्व मध्यकाल में अत्यंत प्रभाव हो गई थी।
  • लेख पद्धति में ‘भूमि संस्था’ के लिए एक आदर्श दस्तावेज महत्वपूर्ण है। यह एक प्रकार का अध्यादेश (गुण पत्र) है जो राजा द्वारा क्षेत्र के निवासियों को दिया गया था।
  • शूद्र को दो वर्गां में विभक्त किया गया-सत् एवं असत् शत् शूद्रो को पौराणिक विधि से संस्कार, पंचमयज्ञ इत्यादि धार्मिक कृत्य करने का अधिकार दे दिया गया।
  • मूर्त धर्म-समाज हित के लिए कार्य जैसे-तालाब खुदवाना वृक्ष लगवाना आदि।
  • तांत्रिक मंत्रों में मातृदेवी को प्रधानता दी गई। तांत्रिक पूजा के लिए स्त्री और शूद्र सभी दीक्षित हो सकते थे।
  • कायस्थ-एक वर्ग के रूप में कायस्थों का सर्वप्रथम उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में जबकि एक जाति के रूप में सर्वप्रथम उल्लेख ओशनस स्मृति में मिलता है।
  • कायस्थों को भूमि-सीमा निर्धारण संबंधी दस्तावेज रखने पड़ते थे अर्थात् भूमि तथा राजस्व संबंधों इन सभी कार्यां का हिसाब-किताब रखना पड़ता था।
  • न्यायाधिकरण में न्याय-निर्णय लिखने का काम करणिक करते थे।
  • कायस्थों की उत्पत्ति के संबंध में उनका द्वयर्थक रूख रहा। कुछ ने उनकी उत्पत्ति द्विजाति से बताई है किन्तु अनेक ब्राम्हण ग्रंथों में शूद्र कहा गया है।
  • अश्पृश्यता-इस काल में अस्पृश्य जातियों की संख्या तथा अश्पृश्यता की भावना में वृद्धि हुई।
  • वृहद्धर्म और स्कंद पुराण में जिन अंत्यज जातियों का उल्लेख किया गया है उसकी संख्या अठारह थी।
  • प्रारम्भिक स्मृतियों के रचनाकाल में अछूतों को अंत्यज कहा जाता था।
  • अल्बरूनी ने अंत्यजों को चारों वर्णां या जातिक्रम से बाहर का माना है।
  • वर्ण संकर जातियां-याज्ञवल्क्य द्वारा वर्णित मीमांसा उच्च जाति के पुरूषों का निम्न जाति की स्त्रियों से अनुमोदित रीति से (अनुलोम) विवाह और इसके विपरीत (प्रतिलोम) विवाहों के साथ-साथ अन्य विविध प्रकार के निषिद्ध विवाहों के परिणाम स्वरूप उत्पन्न वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति हुई।
  • वर्णसंकर जातियों की सबसे लम्बी सूची वैजयन्ती ने दी है जिसमें चौसठ वर्ण संकर जातियों का उल्लेख है
  • इन वर्ण संकर जातियों की उत्पत्ति चारों वर्णा के पुत्रों, बारह अनुलोम और प्रतिलोम पुत्रों और उसके अड़तालीस प्रशाखाओं से हुई थी।
  • अनुलोम जातियां द्विज मानी जाती थी इसलिए उन्हें यज्ञोपवीत संस्कार का अधिकार था।
  • वृहद धर्म पुराण में छत्तीस वर्ण संकर जातियों का उल्लेख है इन्हें शूद्र का स्तर प्रदान किया गया है।
  • इस काल में जन्मी वर्ण संकर जातियों में कायस्थ सर्वाधिक उल्लेखनीय थे।
  • सबसे निम्न जाति अंत्यज थीं जिनमें सर्वाधिक निम्न चाण्डाल थे
  • अंत्यजों का सामाजिक स्तर शूद्रों से बहुत नीचे था उन्हें प्रायः उच्च जाति के लोगों की बस्तियों से दूर रहना पड़ता था।
  • दास-पूर्व मध्यकाल में दास प्रथा में वृद्धि हुई। इन्हें किसी सामाजिक वर्ग के रूप में नहीं माना गया था। दासों की सामाजिक स्थिति अंत्यजों तथा तिरस्कृत जातियों से अच्छी थी।
  • विज्ञानेश्वर ने मिताक्षरा में नारद द्वारा कथित पन्द्रह प्रकार  के दासों का उल्लेख किया है।
  • लेख पद्धति के अनुसार वस्तुओं के विनिमय में दासों का निर्यात समुद्री मार्ग से पश्चिम देशों को होता था
  • दास-दासियों को दान में देने की प्रथा इस काल में बहुत प्रचलित हो गई थी। बौद्ध मठों और मंदिरों को दास दान के  रूप में दिये जाते थे।
  • विज्ञानेश्वर के अनुसार ऋण न चुका सकने के कारण ऋणी स्वयं को ऋणदाता का दास बना लेता था। दास प्रायः घरेलू कामों में ही लगाए जाते थे।
  • पूर्वकाल की अपेक्षा इस काल में दासों की स्थिति में गिरावट आई।
  • विवाह-सामान्यतः अन्तर्जातीय विवाह से संबंधित स्मृति नियम प्रचलित थे।
  • अनुलोम अन्तर्जातीय विवाह से उत्पन्न संतान की जाति माता पर आधारित होगी। इस नियम की पुष्टि पूर्वमध्यकालीन अभिलेखों तथा अल्बरूनी के विवरण से होती है।
  • विज्ञानेश्वर एवं अपरार्क ने तीन उच्च वर्गां द्वारा असवर्ग विवाहों (शूद्रों के साथ विवाह) का अनुमोदन किया है।
  • आदर्श विवाह आठ वर्ष का माना जाता था। आठ वर्ष की लकड़ी को गौरी तथा दस वर्ष की लडत्रकी को कन्या कहा जाता था।
  • शासक वर्ग में बहु-विवाह प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित थी। वैजयन्ती में सच्चरित्र महिला को परिवृक्ति, युद्ध में जीती गई स्त्री को कालकलि, उपपत्नी को अवरोध वधू, चंचल स्त्रियों को विलासिनी विभिन्न कलाओं में दक्ष अविवाहित स्त्रियों को गणिकाएं कहा गया है।
  • अल्बरूनी के अनुसार ब्राम्हण अनुलोम अन्तर्जातीय विवाह कर सकते थे।

स्त्रियों की दशा

  • मध्यकाल में स्मृतिचन्द्रिका में एक पत्नी का परित्याग करके दूसरी पत्नी से विवाह करने का उल्लेख है यह उल्लेख प्राचीन स्मृतियों में भी है।
  • स्मृतिचन्द्रिका में महिलाओं द्वारा अपने पुरूष संबंधियों की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनने के अधिकार के पालन पर बल दिया है।
  • कल्याणी के चालुक्यों की राजकुमारियां प्रदेशों की शासिका थी
  • काकतीय रानी रूद्राम्मा ने काकतीय राजवंश पर 40 वर्ष शासन किया। उसके शासन के उत्कृष्ट सफलता के लिए वेनिस यात्री मार्कोपोलो ने उसकी प्रशंसा की है।
  • गुप्तोत्तर काल में सती प्रथा का अत्यधिक विकास हुआ। अंगिरा, हारीत आदि पूर्व मध्यकालीन स्मृतियों तथा अपरार्क विज्ञानेश्वर आदि निबंधकारों ने सती प्रथा की प्रशंसा की है।
  • नारद स्मृति के टीकाकार असहाय के अनुसार स्त्रियों की अभिभावकता इसलिए आवश्यक है कि शास्त्राध्ययन के अभाव में  उनकी  बुद्धि विकसित नहीं होती।
  • स्त्रियों की स्थिति में पहले की तुलना में गिरावट आ गयी थी।

शूद्रों की स्थिति

  • समाज में शूद्रों की संख्या सर्वाधिक थी। इस काल में अस्पृश्य जातियों की संख्या तथा अस्पृश्यता की भावना में वृद्धि हुई। इस काल की महत्वपूर्ण विशेषता है-कृषि कार्य का आमतौर पर शूद्रों के द्वारा किया जाना। शूद्रों में कुछ वर्णसंकर जातियां भी थीं।
  • याज्ञवल्क्य द्वारा वर्णित मीमांसा के अनुसार, अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों के परिणामस्वरूप अनेक वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति हुई। अनुलोम जातियां द्विज जातियां थीं, इसलिए उन्हें यज्ञोपवीत संस्कार का अधिकार था।
  • इस काल में जन्मी वर्णसंकर जातियों में कायस्थ सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। सबसे निम्न जाति अंत्यज थी, जिनमें सर्वाधिक निम्न चंडाल थे।

कन्नौज के लिए त्रिकोणात्मक संघर्ष

  • हर्ष के पश्चात कन्नौज विभिन्न शक्तियों के आकर्षण का केन्द्र बन गया इसे वही स्थान प्राप्त हुआ जो गुप्त काल तक मगध का रहा। उत्तरी भारत का चक्रवर्ती शासक बनने के लिए कन्नौज पर अधिकार करना आवश्यक समझा जाने लगा।
  • आठवीं शताब्दी में कन्नौज पर अधिकार करने के लिए तीन बड़ी शक्तियों-पाल, गुर्जर, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट के बीच संघर्ष आरम्भ हो गया। जो आठवीं, नवीं शताब्दी के उत्तरी भारत के इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है। उस समय कन्नौज पर शक्तिहीन आयुध शासकों का शासन था।
  • इस काल में कन्नौज के आसपास के उत्तर भारत के क्षेत्र को मध्यदेश कहा जाता था।
  • वास्तव में आठवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में आरम्भ होने वाला यह त्रिपक्षीय संघर्ष लगभग 200 वर्षों तक चला।
  • इस त्रिपक्षीय संघर्ष का प्रारंभ प्रतिहार नरेश वत्सराज ने किया
  • प्रथम चरण-प्रथम चरण में वत्सराज, ध्रुव और धर्मपाल का सामना हुआ।
  • वत्सराज ने कन्नौज के आयुध शासक इन्द्रायुध को युद्ध में पराजित करके उत्तर भारत में अपनी सत्ता का विस्तार प्रारंभ किया।
  • प्रतिहार गंगा-यमुना के संगम तक पहुंच गये थे और पालों (बंगाल के शासक) का प्रभाव प्रयाग तक बढ़ गया था। परिणामस्वरूप युद्ध अवश्यम्भावी हो गया।
  • प्रतिहार नरेश वस्तराज एवं पाल नरेश धर्मपाल के बीच उत्तर भारत पर शक्ति विस्तार के लिए संघर्ष आरंभ हो गया। राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव ने इस संघर्ष में हस्तक्षेप किया व सर्वप्रथम वत्सराज को पराजित किया।
  • त्रिपक्षीय संघर्ष में राष्ट्रकूट ही दक्षिण भारत की ऐसी पहली शक्ति बनी जिसने उत्तर भारत की राजनीति में हस्तक्षेप किया तथा दक्षिण से उत्तर भारत पर आक्रमण किया।
  • तदुपरान्त ध्रुव में गंगा एवं यमुना के मध्य कहीं धर्मपाल को हराया इन विजयों के बाद वह दक्षिण वापस लौट गया।
  • त्रिपक्षीय संघर्ष का प्रथम चरण राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव की अल्पकालीन सफलता का चरण रहा
  • दूसरा चरण- ध्रुव के उत्तर भारत के राजनीतिक दृश्य सो ओझल होने के बाद पालों तथा गुर्जर-प्रतिहारों में पुनः संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस बार पालों का पलङा भारी था। भागलपुर अभिलेख से पता चलता है, कि धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण किया तथा वहाँ इंद्रायुद्ध को हटाकर अपनी ओर से चक्रायुध को राजा बनाया।

धर्मपाल एक बङे भूभाग का शासक बन बैठा। परंतु उसकी विजयें स्थायी नहीं हुई। गुर्जर-प्रतिहार वंश की सत्ता वत्सराज के पराक्रमी पुत्र नागभट्ट द्वितीय (805-833ईस्वी) के हाथों में आई। उसने सिंध, आंध्र, विदर्भ तथा कलिंग को जीता तथा कन्नौज पर आक्रमण कर चक्रायुध को वहाँ से निकाल दिया।

  • नागभट्ट कन्नौज को जीतने मात्र से ही खुश नहीं हुआ, अपितु उसने धर्मपाल के विरुद्ध भी अभियान कर दिया था। मुंगेर में नागभट्ट तथा धर्मपाल की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ, जिसमें पालनरेश की पराजय हुई। ग्वालियर लेख के अनुसार युद्ध में धर्मपाल की पराजय हुई। भयभीत पालनरेश ने राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय(793-814ईस्वी) से सहायता माँगी। फलस्वरूप गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट पर आक्रमण किया ।
  • संजन ताम्रपत्र से पता चलता है, कि उसने नागभट्ट द्वितीय को पराजित किया तथा मालवा पर अधिकार कर लिया। धर्मपाल तथा चक्रायुद्ध ने स्वतः उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। गोविन्द आगे बढता हुआ हिमालय तक जा पहुँचा, परंतु वह उत्तर में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सका। उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर दक्षिण के राजाओं ने उसके विरुद्ध एक संघ बनाया, जिसके फलस्वरूप उसे शीघ्र ही अपने गृह-राज्य वापस आना पङा।
  • तीसरा चरण- गोविन्द तृतीय के वापस लौटने के बाद पालों तथा गुर्जर-प्रतिहारों में पुनः संघर्ष छिङ गया। इस समय पालवंश का शासन धर्मपाल के पुत्र देवपाल (810-850 ईस्वी) के हाथों में था। वह एक शक्तिशाली शासक था। उसने 40 वर्षों तक राज्य किया तथा उसका साम्राज्य विशाल था।
  • देवपाल के बाद विग्रहपाल (850-854ईस्वी) तथा फिर फिर नारायणपाल (854-908 ईस्वी) शासक हुये। इनके समय में पालों की शक्ति निर्बल पङ गयी। इसी समय गुर्जर -प्रतिहार वंश के के शासन की बागडोर एक अत्यंंत पराक्रमी शासक मिहिरभोज प्रथम (836-885ईस्वी) के हाथों में आई। वह इतिहास में भोज के नाम से प्रसिद्ध था। उसने अपने वंश की प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित करने की कोशिश की। सर्वप्रथम भोज ने कन्नौज तथा कालिंजर को जीतकर अपने राज्य में मिलाया। किन्तु वह पालशासक देवपाल तथा राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय (878-914 ईस्वी) द्वारा पराजित किया गया।
  • भोज प्रथम के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम शासक हुआ, जिसने 910 ईस्वी तक शासन किया। बिहार तथा उत्तरी बंगाल के कई स्थानों से उसके लेख मिलते हैं, जिनमें उसे परमभट्टारकपरमेश्वरमहाराजाधिराजमहेन्द्रपाल कहा गया है। इनसे स्पष्ट है, कि मगध तथा उत्तरी बंगाल के प्रदेश भी पालों से गुर्जर – प्रतिहारों ने जीत लिया। इन प्रदेशों के मिल जाने से प्रतिहार -साम्राज्य अपने उत्कर्ष की पारकाष्ठा पर पहुंच गया।

इस प्रकार साम्राज्य के लिये 9वीं शता. की तीन प्रमुख शक्तियाँ- गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकूट, पाल में जो त्रिकोणात्मक संघर्ष प्रारंभ हुआ था, उसकी समाप्ति प्रतिहारों को ही सफलता प्राप्त हुई तथा कन्नौज के ऊपर उनका आधिपत्य स्थापित हो गया। देवपाल की मृत्यु के बाद पाल उत्तरी भारत की राजनीति से ओझल हो गये तथा प्रबल शक्ति के रूप में उसकी गणना न रही। अब प्रतिहारों की गणना उत्तर भारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में होने लगी।

 

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