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हर्षवर्द्धन एवं उसका राज्यकाल

भारतीय इतिहास के प्राचीन काल में जिन कुछ प्रमुख शासकों द्वारा व्यापक स्तर पर राजनीतिक एकीकरण का प्रयास किया गया, उनमें चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और समुद्रगुप्त के बाद हर्षवर्द्धन का ही स्थान आता है। हर्षवर्द्धन पुष्यभूति वंश का शासक था। उसने 606 ई. से 647 ई. तक शासन किया। हर्षवर्द्धन को भारत का अंतिम हिंदूशाही शासक माना जाता है।

जानकारी के स्रोत

हर्षवर्द्धन एवं वर्द्धन वंश के अन्य शासकों के संबंध में मुख्य रूप से तीन स्रोतों से जानकारी मिलती है-साहित्यिक स्रोत, विदेशी विवरण एवं पुरातात्विक स्रोत। अशोक के बाद पुरातात्विक एवं साहित्यिक स्रोतों की उपलब्धता के जिए अध्याय की शुरूआत हुई थी, हर्षवर्द्धन के युग में आकर पर्याप्त विकास कर लिया उसने। हर्षवर्द्धन साहित्य का संरक्षक था और खुद भी साहित्यकार था, इसलिए उसके संबंध में साहित्य से पर्याप्त जानकारी मिलती है।

साहित्यिक स्रोत

हर्षवर्द्धन का काल साहित्यिक दृष्टि से बहुत ही समृद्ध था और इस काल की रचनाओं में हर्ष का वर्णन मिलता है। जिन रचनाओं में हर्ष और उसके पूर्वजों का वर्णन मिलता है, उनसे हर्षचरित, कादम्बरी, आर्यमंजु-श्रीमूलकल्प और हर्ष के ग्रंथ प्रमुख हैं। उनका विवरण इस प्रकार है-

1. हर्षचरित : यह बाणभट्ट की रचना है। इसमें आठ उच्छ्वास हैं। प्रथम तीन में बाण ने अपनी आत्मकथा लिखी है तथा शेष पांच में सम्राट हर्षवर्द्धन का जीवन-चरित लिखा गया है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि यह संस्कृत भाषा में गद्यरूप में लिखी गई है। इसमें हर्ष के पूर्वजों का भी वर्णन मिलता है। हर्ष राजवंश के स्रोतों की जानकारी के लिए यह एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।

2. कादम्बरी : यह भी बाणभट्ट की ही रचना है। यह संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है। इसमें हर्षकालीन सामाजिक तथा धार्मिक जीवन का स्वरूप वर्णित है।

3. आर्यमंजुश्रीमूलकल्प : यह महायान बौद्ध ग्रंथ है। इसे गणपति शास्त्री ने 1925 ई. में प्रकाशित किया था। इसमें 1000 श्लोक हैं। इस ग्रंथ में ईसापूर्व सातवीं शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी ईस्वी तक के प्राचीन भारतीय इतिहास का वर्णन मिलता है। इसमें हर्षकालीन इतिहास की कुछ घटनाओं का वर्णन मिलता है, जिसमें हर्ष को ‘ह’ से संबोधित किया गया है।

विदेशी स्रोत

1. ह्वेनसांग  तथा उसका विवरण : ह्वेनसांग चीनी यात्री था। वह हर्ष के समय भारत की यात्रा पर आया था। अपने सोलह वर्षां की यात्रा के दौरान उसने जो अनुभव प्राप्त किए, उनका विवरण अपने यात्रा वृत्तांत ‘सी-यू-की’ नाम के ग्रंथ में दिया। इस पुस्तक में हर्षकालीन संस्कृति तथा राजनीति का वर्णन प्राप्त होता है।

2. ह्वेनसांग की जीवनी : इसकी रचना ह्नी-ली ने की थी, जो ह्वेनसांग का मित्र था। इसका अंग्रेजी अनुवाद बील द्वारा किया गया था। इस जीवनी में भी हर्षकालीन इतिहास से संबंधित कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं।

3. इत्सिंग का विवरण : इत्सिंग एक चीनी यात्री था। इसके द्वारा किए गए हर्षकालीन इतिहास के वर्णन भी अत्यंत उपयोगी हैं। इसके विवरण का अंग्रेजी अनुवाद जापानी बौद्ध भिक्षु तक्कुसु ने किया, जिसे ‘ए रिकोर्ड ऑफ द बुद्धिष्ट रेलिजन’ नाम दिया गया।

पुरातात्विक स्रोत

पुरातात्विक स्रोतों के अन्तर्गत अभिलेखों एवं मुहरों से हर्ष के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है।

अभिलेख : विभिन्न अभिलेखों में तीन महत्वपूर्ण हैं-

बंसखेड़ा का लेख : बंसखेड़ा उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में स्थित एक स्थान है, जहां से हर्ष संवत् 22 अर्थात् 628 ईस्वी अंकित एक लेख 1894 ईस्वी में प्राप्त हुआ। इस अभिलेख से कई जानकारियां प्राप्त होती हैं। इस लेख से पता चलता है कि राजा हर्ष ने मर्कटसागर नामक गांव को बालचंद्र तथा भट्टस्वामी नामक दो ब्राम्हणों को दान में दे दिया था। राज्यवर्द्धन द्वारा मालवा के शासक देवगुप्त पर विजय तथा अंततः शशांक द्वारा देवगुप्त की हत्या का वर्णन भी इस लेख में मिलता है।

मधुबन का लेख : यहां से हर्ष संवत् 25 अर्थात् 631 ईस्वी का लेख प्राप्त हुआ है। यह उत्तर प्रदेश के मऊ (आजमगढ़) जिले की घोसी तहसील में स्थित है। इसमें हर्ष द्वारा सोमकुण्डा नामक ग्राम के दान किए जाने का वर्णन है।

ऐहोल का लेख : यह लेख चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का है। इसकी तिथि 633-34 ईस्वी है। इस लेख में हर्ष तथा पुलकेशिन के बीच होने वाले युद्ध का वर्णन मिलता है। इस लेख की रचना पुलकेशिन के दरबारी कवि रविकीर्ति ने की थी।

मुहरें : हर्ष की दो मुहरें नालंदा (बिहार) तथा सोनपत से प्राप्त होती हैं। पहली मुहर मिट्टी की तथा दूसरी तांबे की है। इन मुहरों पर महाराज राज्यवर्द्धन प्रथम से हर्षवर्द्धन तक की वंशावली खुदी हुई है। सोनपत मुहर में ही हर्ष के पूरे नाम ‘हर्षवर्द्धन’ का पता चलता है।

 

हर्षवर्धन (606-647 ई.)

  • हर्षवर्धन का जन्म 591 ई. के लगभग हुआ।
  • राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद 606 ई. में 16 वर्ष की अवस्था में हर्षवर्धन थानेश्वर की गद्दी पर बैठा। ह्वेनसांग हर्ष को ‘शिलादित्य’ के नाम से संबोधित करता है।
  • हर्ष का साम्राज्य सामंती संगठन पर आधारित था, जो हर्ष की उपाधियों-परमभट्टारक, महाराजाधिराज, सकलोत्तरापथेश्वर, चक्रवर्ती, सार्वभौम, परमेश्वर, परममाहेश्वर आदि से स्पष्ट हो जाता है।
  • गुप्तों के विघटन के बाद उत्तर भारत में जिस राजनीतिक विकेंद्रीकरण के युग का प्रारंभ हुआ, हर्षवर्धन  के राज्यारोहण के साथ ही उसकी समाप्ति हुई। वर्धन वंश के इस यशस्वी सम्राट ने अपने यश के द्वारा उत्तर भारत के विशाल भू-भाग को अपने साम्राज्य के अन्तर्गत संगठित किया।

हर्ष की शासन व्यवस्था

  • हर्ष एक कुशल प्रशासक था। इसके समय में भी शासन-व्यवस्था का स्वरूप राजतंत्रात्मक ही था।
  • राजा को महाराजाधिराज, परमभट्टारक, चक्रवर्ती तथा परमेश्वर जैसी महान उपाधियां दी जाती थीं।
  • सम्राट शासन व्यवस्था तथा प्रशासन का सर्वाच्च अधिकारी होता था।
  • सम्राट कार्यपालिका का प्रधान अध्यक्ष, न्याय का प्रधान न्यायाधीश तथा सेना का सबसे बड़ा सेनापति हुआ करता था।
  • सम्राट का कार्य प्रजारक्षण तथा पालन था। हर्ष ने इन सभी कार्यां को सफलतापूर्वक निभाया।
  • हर्ष के शासनकाल में अधीनस्थ शासकों को ‘महाराज’ तथा ‘महासामंत’ कहा जाता था।
  • हर्षकालीन साहित्यों में विभिन्न प्रकार के सामंतों का उल्लेख मिलता है, जैसे-सामंत, महासामंत, आप्तसामंत, शत्रु सामंत, प्रतिसामंत तथा प्रधान सामंत।
  • बंसखेड़ा तथा मधुबन के लेखों से पता चलता है कि हर्ष ने स्कंदगुप्त और ईश्वरगुप्त को करदीकृत महासामंत बनाया था।
  • मत्रिपरिषद का गठन सम्राट को सहायता देने के लिए किया जाता था। मंत्री को सचिव या अमात्य कहा जाता था। हर्ष के समय में उसका ममेरा भाई भण्डि प्रधान सचिव था।
  • हर्ष का विदेश सचिव अवंती था। विदेश सचिव को महासंधिविग्रहक कहा जाता था।
  • हर्षवर्धन का प्रधान सेनापति सिंहनाद था।
  • वायसराय अथवा गवर्नर को राजस्थानीय कहा जाता था।
  • अश्वारोही सेना का प्रमुख कुंतल तथा गजसेना का प्रधान स्कंदगुप्त था।

प्रशासनिक विभाग के पदाधिकारी

  • हर्षकालीन शासन-व्यवस्था में साम्राज्य  कई प्रान्तों में विभक्त था। प्रान्तीय शासकों को ‘लोकपाल’ कहा जाता था। प्रान्त को भुक्ति कहा जाता था। प्रत्येक भुक्ति के शासन को राजस्थानीय अथवा उपरिक अथवा राष्ट्रीय कहा जाता था।
  • मधुबन  के लेख में साम्राज्य के उत्तरी तथा पश्चिमी भाग में स्थित भुक्तियों का नाम श्रावस्ती तथा अहिच्छत्र उल्लिखित है।
  • भुक्ति का विभाजन जिलों में हुआ था। जिले को विषय कहा जाता था। जिले के प्रधान को विषयपति कहा जाता था।
  • तहसीलों को ‘पाठक’ कहा जाता था। तहसीलों में कई ग्राम होते थे।
  • ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी। इसके प्रधान को ‘ग्रामाक्षपटलिक’ कहा जाता था। उसकी सहायता के लिए अनेक करणिक होते थे।
  • हर्षकालीन शासन व्यवस्था में कुछ अन्य पदाधिकारियों के नामों का भी पता चलता है, लेकिन उनका वास्तविक पदाभिज्ञान नहीं है जैसे-महत्तर, दौस्साधसाधनिक, प्रभातार, भोगिक आदि।

हर्ष और बौद्ध धर्म

  • हर्ष के पूर्वज भगवान शिव और सूर्य के अनन्य उपासक थे। शुरू में हर्ष भी अपने कुलदेवता शिव का  परम भक्त था। परन्तु चीनी यात्री ह्वेनसांग से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राजाश्रय दिया तथा वह पूर्णतः बौद्ध बन गया।
  • हर्ष के समय में नालंदा महाविहार महायान बौद्ध धर्म की शिक्षा का मुख्य केन्द्र था।
  • हर्ष ने कन्नौज तथा प्रयाग में दो विशाल धार्मिक सभाओं का आयोजन किया था।
  • कुंभ मेले को प्रारंभ करने का श्रेय हर्षवर्धन को ही दिया जाता है

 

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