वायुमंडलीय आर्द्रता
हालाँकि वायुमण्डल में जलवाष्प (आर्द्रता) का अनुपात कम ही (शून्य से लेकर 4 प्रतिशत तक) है फिर भी किसी भी स्थान के मौसम और जलवायु पर इसका प्रभाव पड़ता ही है। जल वायुमण्डल में तीनों रूपों में उपस्थित रह सकता है । यह जल वाष्प के रूप में गैसीय अवस्था में रह सकता है । जल की बूंदों के रूप में तरल अवस्था में रह सकता है तथा हिमकणों के रूप में ठोस अवस्था में रह सकता है ।
ये तीनों ही रूप आपस में मिलकर किसी स्थान के वायुमण्डल की आर्द्रता का निर्धारण करते हैं । इस प्रकार हम वायुमण्डल में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा को आर्द्रता कहते हैं ।यह जलवाष्प ही है, जो मुख्यतः अपनी स्थिति में परिवर्तन करके ओस, पाला, मेघ, कुहरा और हिम वृष्टि के रूप में परिवर्तित होती है ।
आर्द्रता के रूप (Types of Humidity) : वायुमडलीय आर्द्रता को निनलिखित रूप में व्यक्त किया जाता है -
निरपेक्ष आर्द्रता (Alsolute Humidity) -
वायुमंडल के किसी भाग में स्थित जलवाष्य की मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता कहते हैं।
उदहारण के लिए एक घनफुट वायु का ताप 70° F है और उसमें 8 ग्रेन जलवाष्प स्थित है, तो यह वायु की निरपेक्ष आर्द्रता है। दूसरे शब्दों में वायु के निश्चित ताप एवं आयतन पर उपस्थित जलवाष्म की मात्रा निरपेक्ष आर्द्रता है। यह आर्द्रता की वास्तविक मात्रा को प्रकट करती है। वायु की निरपेक्ष आर्द्रता में वाष्पीकरण द्वारा वृद्धि तथा वर्षा द्वारा कमी होती है। निरपेक्ष आर्द्रता पर तापमान में वृद्धि या कमी का कोई प्रभाव नहीं होता है, लेकिन वायु के आयतन में परिवर्तन से आर्द्रता घट-बढ़ सकती है। भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर निरपेक्ष आर्द्रता में कमी आती हैं।
सागरों पर निरपेक्ष आर्द्रता अधिक तथा महाद्वीपों पर कम होती है। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु में निरपेक्ष आर्द्रता अधिक और शीत ऋतु में कम होती है।
सापेक्षिक आर्द्रता (Relative Humidity) -
किसी निश्चत ताप एवं आयतन वाली वायु की आर्द्रता सामर्थ्य तथा उसमें उपस्थित आर्द्रता की वास्तविक मात्रा के अनुपात को सापेक्षिक आर्द्रता कहते हैं। उदहारण के लिए एक घनफुट वायु 70° F पर 8.0 ग्रेन तक जलवाष्प धारण कर सकती है, किन्तु यदि उसमें केवल 4 ग्रेन जलवाष्प है तो उसकी आर्द्रता धारण करने की क्षमता को आधा भाग (50 प्रतिशत) ही उस वायु में उपलब्ध है। यही सापेक्षिक आर्द्रता है।
सापेक्षिक आर्द्रता = निरपेक्ष आर्द्रता/आर्द्रता सामर्थ X 100
= 4/8 x 100 = 50%
विषुवतरेखा के समीप सापेक्षिक आर्द्रता अधिक जबकि विषुवत रेखा से 30° अक्षांश तक सापेक्षिक आर्द्रता की मात्रा कम होती है। वहीं 30° अक्षांश के बाद उच्च अक्षांशों में सापेक्षिक आर्द्रता की मात्रा में वृद्धि होती है। ध्रुवों पर ताप निम्न होने के कारण सापेक्षिक आर्द्रता की मात्रा कम होती है। सापेक्षिक आर्द्रता तथा वर्षा में प्रत्यक्ष संबध है अर्थात् वायु में सापेक्षिक आर्द्रता में वृद्धि से वर्षा की संभावना बढ़ जाती है। वाष्पीकरण तथा सापेक्षिक आर्द्रता में विपरीत संबंध होता है।
यदि वायु में सापेक्षिक आर्द्रता अधिक है तो वाष्पीकरण कम तथा सापेक्षिक आर्द्रता कम होने की स्थिति में वाष्पीकरण अधिक एवं सर्वाधिक आर्द्रता स्वास्थ्य से सीधे संबंधित है। सापेक्षिक आर्द्रता अधिक या कम होने की स्थिति स्वास्थ्य के लिए होती है। यही कारण है कि अधिक सापेक्षिक आर्द्रता वाला विषुवतीय प्रदेश तथा न्यून सापेक्षिक आर्द्रता वाले उष्णकटिबंधीय मरुस्थलों में जनसंख्या का बसाव कम है। सापेक्षिक आर्द्रता वस्तुओं के स्थायित्व, विद्युतयंत्रों, रेडियो आदि पर भी प्रभाव डालती है।
विशिष्ट आर्द्रता (Specific Humidity) -
वायु के प्रति इकाई भार में जलवाष्प के भार को विशिष्ट आर्द्रता कहते हैं। इसे , ग्राम प्रति किलोग्राम में प्रदर्शित करते है चूँकि इसे भार की इकाइयों के रूप में मापा जाता है अतः इस पर वायुदाब एवं तापमान में परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। आर्द्रता को व्यक्त करने का यह उपयोगी तरीका है।
जलवाष्प के स्रोत -
महासागरों के धरातल जलवाष्प का सबसे बड़ा स्रोत हैं ।
पृथ्वी पर मौजूद जलीय वनस्पतियाँ तथा दलदली भूमि भी थोड़ी मात्रा में वायुमण्डल को जल वाष्प प्रदान करते हैं।
जल चक्र -
धरातल से वायुमण्डल में और फिर वायुमण्डल से धरातल में आर्द्रता के लेन-देन का एक निरन्तर चक्र चलता रहता है । जलाशय के विभिन्न स्रोतों से वाष्पीकरण के द्वारा जल वाष्प वायुमण्डल में पहुँचता रहता है । अनुकुल परिस्थितियाँ पाकर यह जल वाष्प संघनित होकर बादल बनते हैं और बादलों से वर्षा के द्वारा यह जल वाष्प फिर से जलाशयों में पहुँच पाता है । यह चक्र निरन्तर जारी रहता है ।
जिस स्थान पर तापमान जितना अधिक होगा, वहाँ की वायु में आर्द्रता ग्रहण करने की शक्ति उतनी ही अधिक होगी । जबकि ठीक इसके विपरीत तापमान कम होने पर हवा की नमी सोखने की शक्ति कम हो जाती है । इसलिए विषुवत रेखीय हवाओं में आर्द्रता ग्रहण करने की शक्ति उच्च अक्षांशों वाली हवाओं से अधिक होती है ।
जल की परिवर्तन की प्रक्रियाएँ - जल के स्वरूप में परिवर्तन निम्न तीन प्रक्रियाओं द्वारा होता है-
(1) वाष्पीकरण - जब कोई द्रव पदार्थ किसी तापमान पर गैस में परिवर्तन होने लगता है, तो इस प्रक्रिया को वाष्पीकरण कहते हैं ।
(2) संगलन - (Fusion) यह ठोस पदार्थ के द्रव में बदलने की स्थिति है । इस प्रक्रिया में पदार्थ के तापमान में कोई बदलाव नहीं आता । उदाहरण के लिए बर्फ का पिघलकर पानी बन जाना ।
एक निश्चित तापमान पर एक ग्राम बर्फ को एक ग्राम जल में बदलने के लिए 80 ग्राम कैलोरी ऊष्मा की जरूरत होती है । इसे संगलन की ‘गुप्त ऊष्मा’ कहते हैं ।
वायु एक निश्चित ताप पर जलवाष्प की जो अधिकतम मात्रा ग्रहण कर सकता है, उसे वायु की ‘‘आर्द्र क्षमता’’ कहते हैं ।
वायु में अगर उसकी आर्द्र क्षमता के बराबर जलवाष्प मौजूद है, तो वह और अधिक जलवाष्प ग्रहण नहीं कर सकती, तो उस वायु को ‘संतृप्त वायु’ (सेचुरेटेड विंड) कहते हैं।
जिस तापमान पर वायु संतृप्त हो जाती है उसे उसका ‘ओशांक विन्दु (Dew Point) कहते हैं । स्पष्ट है कि यदि तापमान ओशांक विन्दु से भी कम हो गया है तो इस संतृप्त वायु का संघनन होने लगेगा ।
(3) संघनन - संघनन का संबंध वायु की संतृप्त अवस्था से है । जब वायु की सापेक्ष आर्द्रता 100 प्रतिशत हो जाती है अर्थात् वह संतृप्त हो जाती है, तो संघनन शुरु हो जाता है । यह एक प्रकार से जलवाष्प के तरल में बदलने की प्रक्रिया है ।
संघनन दो कारकों पर निर्भर करता है-
संघनन के रुप -
(1) ओस - जमीन के निकट की हवा में जलवाष्प की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है । जब यह जलवाष्प संघनन की प्रक्रिया के द्वारा बूंदों में बदल जाती है तो ओस बनता है । ओस मुख्यतः रात में विकिरण के द्वारा धरातल से सटी हुई वायु की परत के ठण्डे होने से बनती है। बूँदों में परिणित होने के बाद इसका वजन थोड़ा बढ़ जाता है, जिसे हवा संभाल नहीं पाती। इसके फलस्वरूप ये कण पौधों और घास पर गिर जाते हैं ।
ओस के बनने के लिए निम्न परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं -
(2) तुषार/पाला(Frost) - जब धरातल का तापमान हिमांक (शून्य अंश डिग्री सेल्सियस) से भी नीचे आ जाता है, जब वायुमण्डल में मौजूद जलवाष्प जल बूँदों में बदलने के स्थान पर हिम कणों के रूप में बदल जाती हैं । इसे ही तुषार या पाला कहते हैं । यह फसलों के लिए बहुत नुकसानदेह होती है ।
तुषार बनने के लिए भी उन्हीं परिस्थितियों की आवश्यकता होती है, जो ओस के बनने के लिए । फर्क केवल इतना है कि तुषार के लिए तापक्रम का हिमांक विन्दु से नीचे होना आवश्यक है ।
(3) कुहरा (Fog) - इसके निर्माण में भी जलवाष्प की ही भूमिका होती है । यह एक प्रकार का बादल ही होता है, जो जमीन के बहुत निकट होता है । धरातल से सटी हुई जलवाष्पयुक्त हवा जब काफी मात्रा में शीतल हो जाती है, तब वायु में लदे हुए जल कणों के कारण वायुमण्डल की दृश्यता प्रभावित होने लगती है । इसे ही कुहरा कहते हैं ।
कुहरा और बादल में मुख्य अन्तर यह होता है कि कुहरे का निर्माण करने वाले जल कणों का व्यास 100 माइक्रान से कम होता है । जबकि वर्षा के बूँदों का व्यास 400 से 1000 माइक्रान होता है । कहने का अर्थ यह कि कुहरे की बूँदें वर्षा के बूँदों से काफी छोटी होती हैं।
(4) धुआंसा् (Smog) - यह धुंआ (Smoke) तथा कुहासा (Fog) से मिलकर बना हुआ शब्द है। इस प्रकार इसे हम धुँए का कुहरा कह सकते हैं । यह अक्सर या तो ज्वालामुखी उद्गार के बाद वहाँ के वातावरण में छा जाता है, या फिर उन शहरों में छाया रहता है, जहाँ ऐसे कारखाने बहुत अधिक है, जिनसे दिन-रात धुँआ निकलता रहता है । धुँए के कण वायुमण्डल में छाकर जलवाष्प को एकत्रित होने के लिए आधार प्रदान कर देते हैं । ठंड के दिनों में इन कणों के चारों ओर संघनन की शुरूआत हो जाती है, जिससे वातावरण में धुआँसा फैल जाता है। यह भी एक प्रकार का कुहरा ही है, लेकिन धुएं से भरा हुआ । यदि सफेद धुआँसे में कपड़ा रात भर के लिए बाहर सुखा दिया जाए, तो सुबह तक उसका रंग थोड़ा-थोड़ा काला पड़ जायेगा जबकि कुहरे के साथ ऐसा नहीं होगा ।
(5) कुहाँसा (Mist) -वस्तुतः कुहासा और कुहरा एक ही हैं । अन्तर केवल इतना है कि कुहरे में जहाँ दृश्यता बहुत अधिक प्रभावित होती है, वहीं कुहासे में दृश्यता उससे कम प्रभावित होती है ।
(6) धुंध (Haze) - धुंध शब्द का प्रयोग उन सभी के लिए किया जाता है, जिनसे दृश्यता प्रभावित होती है । इसका निर्माण धुँए, धूल तथा लवण आदि कणों के आसपास जल के कणों के इकट्टा हो जाने के कारण होता है । मौसम विज्ञान की भाषा में धुंध को वायुमण्डल के नीचले भाग की दृश्यता को प्रभावित करने वाला माना गया है ।
(7) बादल - वायुमण्डल में संघनन की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है । जब जलवाष्प के संघनन से निर्मित हिम कण या जल से भरी हुई वायु राशि धरातल के विभिन्न ऊँचाइयों पर फैल जाती है, तो उसे बादल कहा जाता है । ये बादल कुहरे की तुलना में अधिक ऊँचाई पर पाए जाते हैं ।
जब इन जल कणों का आकार बहुत छोटा होता है तब तक वे वायुमण्डल में तैरते रहते हैं । पर जब उनका आकार इतना बड़ा हो जाता है कि वायुमण्डल की तरंगें उन्हें रोक नहीं पाती, तब वे पृथ्वी पर गिर पड़ती हैं, जिसे वर्षा कहतें हैं ।
सामान्य तौर पर भूमध्य रेखा पर बादल अधिक ऊँचाई पर स्थित होते हैं । और जैसे-जैसे हम ध्रुवों की ओर बढ़ते जाते हैं, बादलों की ऊँचाइयाँ कम होती जाती हैं।
बादलों के प्रकार -
बादलों के प्रकारों का वर्गीकरण उनकी ऊँचाई, उनके आकार, उनके रंग तथा प्रकाश को परावर्तित करने की उनकी क्षमता के आधार पर किया गया है । ऊँचाई के आधार पर बादलों के दस प्रकार माने गये हैं, और इन्हें तीन मुख्य वर्गों में रखा गया है । ये वर्ग हैं -
(1) उच्च मेघ (5 से 14 किलोमीटर)
(2) मध्य मेघ (2 से 7 किलोमीटर) तथा
(3) निम्न मेघ (2 किलोमीटर से नीचे)
(1) उच्च मेघ - धरातल से इनकी ऊँचाई 5 से 14 किलोमीटर के बीच होती है । ये तीन प्रकार के होते हैं -
(i) पक्षाम मेघ ( Cirrus Clouds) - चूँकि इसकी रचना हिम कणों से होती है, इसलिए ये पंखनुमा होते हैं । पृथ्वी पर से ये बहुत कोमल और सफेद रेशम की तरह दिखाई देते हैं । ऐसा लगता है मानों कि इनका निर्माण पंखों के रेशों से हुआ हो । जब ये आकाश में अव्यवस्थित तरीके से फैले होते हैं, तब इन्हें साफ मौसम का प्रतीक माना जाता है । इसके ठीक विपरीत यदि ये व्यवस्थित तरीके से फैले हों, और इनका रंग भी साफ न हो, तो मौसम में गड़बड़ी होने की संभावना बढ़ जाती है ।
(ii) पक्षाभ-स्तरी मेघ (Sirro stratus clouds) - ये मेघ देखने में सफेद पतले-पतले जैसे दिखाई देते हैं । इसके कारण आकाश का रंग दुधिया हो जाता है । इन मेघों के फैलने से सूर्य और चन्द्रमा के चारों ओर प्रभा-मण्डल बन जाता है । सामान्यतया ये आने वाले तूफान की सूचना देते हैं ।
(iii) पक्षाभ-कपासी मेघ - ये बादल छोटे-छोटे पत्रकों अथवा छोटे गोलाकार ढेरों के रूप में पाये जाते हैं । इनकी कोई छाया पृथ्वी पर नहीं पड़ती । इन बादलों को ‘मैकेरल स्काइर्’ भी कहा जाता है ।
(2) मध्य मेघ - इनकी ऊँचाई 2 किलोमीटर से 7 किलोमीटर तक होती है । ये दो प्रकार के होते हैं -
(i) मध्य स्तरीय मेघ - ये आकाश में भूरे तथा नीले रंग के होते हैं, जो मोटी परतों के रूप में फैले रहते हैं । जब ये बहुत घने हो जाते हैं, तब सूर्य और चन्द्रमा तक स्पष्ट दिखाई नहीं देते । साधारणतया इनसे दूर-दूर तक और लगातार बारिश होती है ।
(ii) मध्य कपासी मेघ - इनका रंग भूरा और श्वेत होता है । ये पंक्तिबद्ध या लहरों के रूप में पाए जाते हैं । अक्सर इनकी छाया पृथ्वी पर दिखाई देती है |
(3) निम्न मेघ - धरातल से 2 किलोमीटर की औसत ऊँचाई पर पाए जाने वाले मेघ निम्न मेघ कहलाते हैं । ये तीन प्रकार के होते हैं -
(i) स्तरीय कपासी मेघ
(ii) स्तरीय मेघ तथा
(iii) वर्षा स्तरीय मेघ ।
इनमें से वर्षा स्तरीय मेघों से लगातार जल वृष्टि या हिम वृष्टि होती है । ये बहुत सघन और काले रंग के होते है, जिनसे धरती पर अंधेरा तक छा जाता है ।
(4) उर्ध्वाधर विकास वाले मेघ -
14 किलोमीटर से अधिक की ऊँचाई पर कुछ मेघ फैले होते हैं, जिनकी ऊँचाई लगभग 18 किलोमीटर या इससे अधिक होती है । इस श्रेणी के अन्तर्गत दो प्रकार के मेघों की चर्चा की जाती है -
(i) कपासी मेघ (cumulus cloud) - ये बहुत अधिक घने और विस्तृत होते हैं । ये देखने में धुनी हुई रुई के ढेर जैसी दिखाई देते हैं । ये गुम्बदाकार या फूल गोभी जैसे आकार के होते हैं । इनका आधार काले रंग का होता है ।
(ii) कपासी वर्षा मेघ (Cumulo Nimbus clouds) - ये सबसे अधिक लम्बवत विकास वाले बादल होते हैं । इनसे तेज़ बौछार के रूप में वर्षा होती है । साथ ही ओले और तूफान भी आते हैं ।
नोट -
आर्द्रता तथा वर्षण
आर्द्रता
वायुमण्डल में विद्यमान जलवाष्प की मात्रा को आर्द्रता कहते हैं। यद्यपि वायुमण्डल में प्रति इकाई आयतन में इसकी मात्रा 4 प्रतिशत तक ही होती है, फिर भी मौसम व जलवायु के निर्धारण में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। जलवाष्प की यह मात्रा स्थान व समय के अनुसार परिवर्तनशील है। स्थल की अपेक्षा सागरों पर वाष्पीकरण अधिक होता है। परन्तु 10 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों के मध्य महाद्वीपों पर सर्वाधिक वाष्पीकरण होता है जबकि महासागरों पर सर्वाधिक वाष्पीकरण दोनों गोलोर्धों में 10 डिग्री से 20 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों के मध्य देखे जाते हैं।
आर्द्रता सामर्थ्य
एक निश्चित तापमान पर एक घन मीटर वायु जितने ग्राम जलवाष्प अवशोषित कर सकती है, उसे वायु की आर्द्रता सामथ्र्य कहते हैं। जब किसी वायु में उसकी क्षमता के बराबर जलवाष्प आ जाए तो उसे संतृप्त वायु कहते हैं। वायु की आर्द्रता सामर्थ्य तापमान में वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती जाती है। जिस न्यूनतम तापमान पर कोई वायु संतृप्त हो जाए, उसे ओसांक बिन्दु कहा जाता है। आर्द्रता को तीन रूपों में प्रकट किया जाता है। ये निम्न हैं-
1. निरपेक्ष आर्द्रता: वायु के प्रति इकाई आयतन में विद्यमान जलवाष्प की मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता कहते हैं। इसे ग्राम प्रति घन मीटर में व्यक्त किया जाता है।
2. विशिष्ट आर्द्रता: वायु के प्रति इकाई भार में जलवाष्प् की मात्रा को विशिष्ट आर्द्रता कहते हैं। इसे ग्राम प्रति किलोग्राम में व्यक्त किया जाता है।
विशिष्ट आर्द्रता एवं जलवाष्प
चूँकि विशिष्ट आर्द्रता का जलवाष्प की मात्रा से सीधा संबंध होता है। अतः यह आर्द्रता के मापन की सबसे उपयुक्त विधि है।
सापेक्षित आर्द्रता: किसी भी तापमान पर वायु में उपस्थित जलवाष्प तथा उसी तापमान पर उसी वायु की आर्द्रता सामर्थ्य के अनुपात को सापेक्षिक आर्द्रता कहते हैं। इसे प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है। जब आर्द्रता 100 प्रतिशत हो जाती है अर्थात वायु संतृत्प अवस्था में आ जाती है, तो संघनन शुरू हो जाता है और सापेक्षित के कारण वर्षा शुरू हो जाती है।
वाष्पीकरण
जल के द्रव अवस्था से गैसीय अवस्था में परिवर्तन की प्रक्रिया को वाष्पीकरण कहते हैं। एक ग्राम जल को जलवाष्प में बदलने में लगभग 600 कैलोरी ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। वाष्पीकरण की दर कई कारकों पर निर्भर करती है। ये कारक हैं-
1. तापमान
2. हवा में मौजूद जलवाष्प की मात्रा या हवा की आर्द्रता तथा
3. हवा की गति।
संघनन के रूप
जल के गैसीय अवस्था से तरल या ठोस अवस्था में परिवर्तित होने की क्रिया को संघनन कहते हैं। संघनन दो कारकों पर निर्भर करता है। ये हैं-तापमान में कमी तथा वायु की सापेक्षिक आर्द्रता। वायु में उपस्थित धूल कणों के इर्द-गिर्द तापमान में कमी के कारण संघनन शुरू हो जाता है। इन सूक्ष्म कणों को संघनन केन्द्र कहते हैं। धूल, धुआँ और समुद्री नमक के कण अच्छे संघनन केन्द्र माने जाते हैं। संघनन की प्रक्रिया से ओस, कुहरा, कुहासा तथा बादल बनते हैं, जिसे संघनन के रूप में कहा जाता है। जब ओसांक हिमांक के नीचे होता है तो तुषार, हिम, पक्षाभ मेघ आदि का निर्माण होता है किन्तु जब यह हिमांक से ऊपर होता है तब ओस, कुहरा, कुहासा एवं बादल बनते हैं।
1. ओस: जब वायु का तापमान ओसांक से नीचे गिर जाता है तो वायु में उपस्थित जलवाष्प का संघनन हो जाता है तथा वह छोटी-छोटी बूंदों के रूप में धरातल पर स्थित पौधों की पत्तियों पर जमा हो जाता है। इसे ओस कहते हैं।
2. तुषार या पाला: जब संघनन एक ऐसे ओसांक पर होता है जो हिमांक से नीचे हो, तो अतिरिक्त जलवाष्प द्रव में परिवर्तित हुए बिना ही ठोस हिम-कणों के रूप में जमा हो जाता है। इस प्रकार जमे हुए ओस को ही पाला कहते हैं।
3. कुहरा: वायुमण्डल की निचली परतों में एकत्रित धूलकणों या धुएँ के रजों पर संघनित सूक्ष्म जल पिंडों को कुहरा कहते हैं।
4. कुहासा या धुंध: कुहासा भी एक प्रकार का कुहरा ही है। इसमें दृश्यता एक किलोमीटर से अधिक तथा दो किलोमीटर से कम होती है, जबकि कुहरा के समय 200 मीटर से अधिक दूर की वस्तुओं को देख पाना कठिन होता है।
बादल
पृथ्वी की सतह से काफी ऊँचाई पर वायुमण्डल में जलवाष्प के संघनन के फलस्वरूप निर्मित जलकणों या हिमकणों के समूहन को बादल कहते हैं। बादल मुख्यतः हवा के रूद्धोष्म प्रक्रिया द्वारा ठंडे होने एवं उसके तापमान के ओसांक बिन्दु से नीचे गिरने से बनते हैं। गर्म व आर्द्र हवा के ऊपर उठने एवं ठंडे होने की इस प्रक्रिया में तापमान ओसांक तक पहुंच जाता है तथा जलवाष्प के संघनन से बादल का निर्माण हो जाता है। वर्षा के विभिन्न रूपों के लिए यही उत्तरदायी है। पृथ्वी पर ऊष्मा बजट बनाए रखने में भी इनकी महती भूमिका होती है।
बादलों का वर्गीकरण
बादलों के वर्गीकरण के क्रम में इनके रूप, सामान्य आकृति, संरचना, उर्ध्वाधर विस्तार एवं उनकी ऊँचाई को प्रमुख आधार बनाया जाता है। औसत ऊँचाई के आधार पर बादलों को तीन मुख्य वर्गों में बांटा जा सकता है-
ऊँचे-मेघ (ऊँचाई 6,000 से 12,000 मीटर)
1. पक्षाभ मेघ: ये आसमान में सबसे अधिक ऊँचाई पर सफेद रेशम की भांति कोमल व बिखरे मेघ होते हैं। ये हिमकणों से बने होते हैं। इसलिए इनसे वर्षा नहीं होती। चक्रवात के आगमन के क्रम में सबसे पहले यही मेघ दिखाई पड़ते हैं। इसलिए ये मेघ चक्रवात के आगमन का सूचक होते हैं।
2. पक्षाभ-स्तरी मेघ: ये वृहद् क्षेत्र में दूधिया चादर की भांति फैले होते हैं। इनके कारण सूर्य और चन्द्रमा के चारों ओर प्रभामंडल का निर्माण होता है। चक्रवात के आगमन के क्रम में पक्षाभ मेघों के तत्काल बाद यही मेघ दिखाई पड़ते हैं तथा इस प्रकार ये भी निकट भविष्य में चक्रवात के आगमन की सूचना देते हैं।
3. पक्षाभ-कपासी मेघ: ये सफेद रंग के छोटे-छोटे गोलों की भांति दिखाई पड़ते हैं तथा प्रायः समूह में या लहरदार रूप में दिखाई पड़ते हैं।
मध्य-मेघ (ऊँचाई 2,000 से 6,000 मीटर)
1. उच्च-स्तरी मेघ: ये भूरे अथवा नीले रंग के लगातार चादर की भांति फैले छोटे स्तरों वाले बादल होते हैं। इनके छाये रहने से सूर्य का प्रकाश धुंधला व अस्पष्ट दिखाई देता है। इनसे विस्तृत क्षेत्रों पर लगातार वर्षा होती है।
2. उच्च-कपासी मेघ: ये सफेद एवं भूरे रंग के पतले गोलाकार धब्बों की तरह दिखाई देते हैं। सम्पूर्ण आकाश में ये महीन चार के रूप में बिखरे दिखाई देते हैं।
निचले-मेघ (ऊँचाई 2,000 मीटर तक)
1. स्तरी मेघ: ये धरातल के निकट कुहरे के समान बादल है। इनमें कई परतें पाई जाती है। सामान्यतः ये आकाश में पूरी तरह छाए रहते हैं। शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में शीत ऋतु में दो विपरीत स्वभाव वाली वायुराशियों के मिलने से इनका निर्माण प्रायः हो जाता है।
2. स्तरी-कपासी: ये हल्के भूरे या सफेद रंग के गोलाकार धब्बों के रूप में मिलते हैं तथा ये जाड़े के मौसम में प्रायः सम्पूर्ण आसमान को आवृत्त कर लेते हैं। ये सामान्यतः साफ मौसम संकेतक हैं।
3. कपासी मेघ: इनका आकार गुम्बदाकार गोभी की भांति होता है जिनका आधार क्षेत्र समतल पाया जाता है। ये प्रायः साफ मौसम की सूचना देते हैं।
4. कपासी-वर्षी मेघ: ये अत्यधिक गहरे, काले एवं सघन बादल हैं। ये नीचे से ऊपर की ओर विशाल मीनार की भांति उठे रहते हैं तथा इनका विस्तार काफी बड़े क्षेत्र पर होता है। कभी-कभी ये धरातल से काफी अधिक ऊँचाई (7,500 मीटर) तक विस्तृत रहते हैं। इन बादलों से भारी वर्षा, ओला, तड़ित झंझा आदि उत्पन्न होते हैं। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में शीत वाताग्रों के सहारे मुख्यतः इन्हीं बादलों से वर्षा होती है।
5. वर्षा-स्तरी बादल: ये धरातल से कम ऊँचाई पर स्थित घने, काले व विस्तृत बादल है। इनके छाने पर अंधकार सा छाया रहता है, क्योंकि इनकी अधिक सघनता के कारण सूर्य का प्रकाश धरती तक नहीं पहुंच पाता। ये बादल वायुमण्डल में आर्द्रता को बढ़ा देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप शीघ्र वर्षा होने लगती है। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में उष्ण वाताग्रों के सहारे इन्हीं बादलों से वर्षा प्राप्त होती है।
वर्षण
जब जलवाष्प युक्त वायु ऊपर को उठती है तो तापमान में कमी आने के कारण उसका संघनन होने लगता है। परिणामस्वरूप मेघों का निर्माण होता है। कुछ समय बाद मेघों में जलवाष्प की मात्रा अधिक हो जाती है तथा वायु उसे संभाल नहीं पाता है फलस्वरूप, ये वर्षा के विभिन्न रूपों का कारण बन जाती हैं। उत्पतित के आधार पर वर्षा को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है-
1. संवहनीय वर्षा: इसकी उत्पत्ति गर्म एवं आर्द्र पवनों के ऊपर उठने से होती है। जब भूतल बहुत गर्म हो जाता है तथा उसके सम्पर्क में रहने वाली पवनें गर्म होकर उठती हैं तो संवहनीय धाराओं का निर्माण होता है। अधिक ऊँचाई पर पहुंचने के पश्चात ऐसी संवहनीय धाराएं पूर्णतः संतृप्त हो जाती है, जिसके पश्चात संघनन होने से काले कपासी वर्षी मेघ बनते हैं तथा घनघोर वर्षा होती है। इस प्रकार की वर्षा को संवहनीय वर्षा कहते हैं। विषुवतीय प्रदेश अथवा शान्त पेटी (डोलड्रम) में यही वर्षा होती हैं। उच्च तापमान एवं आर्द्रता के कारण इन क्षेत्रों में दोपहर 2 से 3 बजे के बीच घनघोर बादल छा जाते हैं। कुछ क्षणों की मूसलाधार वर्षा क बाद 4 बजे सायं तक वर्षा रूक जाती है।
2. पर्वतीय वर्षा: जब जलवाष्प से लदी हुई गर्म वायु को किसी पर्वत या पठार की ढलान के साथ ऊपर चढ़ती है तो यह वायु रूद्धोष्म ताप पतन दर से ठंडी होने लगती है तथा धीरे-धीरे संतृप्त हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप संघनन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। संघनन के पश्चात होने वाली इस प्रकार की वर्षा को पर्वतीय वर्षा कहते हैं। यह वर्षा उन क्षेत्रों में अधिक होती है, जहां पर्वत-श्रेणी समुद्र तट के निकट तथा उसके समानान्तर हो। विश्व की अधिकांश वर्षा इसी रूप में होती है। ऊँचाई बढ़ने के साथ - साथ वर्षा की मात्रा भी बढ़ती जाती है। इस प्रकार पर्वतीय क्षेत्र का जो ढाल पवन के सम्मुख होता है, वहाँ खूब वर्षा होती है। इसे पवनाभिमुख ढाल कहते हैं। परन्तु जैसे ही पवन पर्वत की दूसरी ढलान पर उतरने लगती है, रुद्धोष्म ताप वृद्धि के कारण गर्म और शुष्क होने लगती है। इस प्रकार उसकी सापेक्षिक आर्द्रता में कमी आ जाती है तथा इनसे कम वर्षा होती है। इसे पवनविमुख ढाल या वृष्टि-छाया प्रदेश कहते हैं। भारत में इसका सर्वोत्तम उदाहरण पश्चिमी घाट में स्थित महाबलेश्वर (वर्षा 600 सेमी.) और पुणे (वर्षा 70 सेमी.) है, जो एक दूसरे से मात्र कुछ किलोमीटर की दूरी पर हो स्थित है। पश्चिमी घाट महाबलेश्वर के पवनाभिमुखी ढाल पर अवस्थित है, जबकि पुणे पवनविमुखी ढाल पर। इसी कारण ऐसा होता है।
3. चक्रवाती या वाताग्री वर्षा: चक्रवातों के कारण होने वाली वर्षा को चक्रवाती वर्षा कहते हैं। इस प्रकार की वर्षा तथा हिमवृष्टि विशेषकर शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवाती क्षेत्रों में होती है। यहाँ गर्म एवं शीतल वायुराशियों के टकराने से भीषण तूफानी दशाएँ उत्पन्न हो जाती है तथा गर्म वायुराशि के शीतल वायुराशि के ऊपर चढ़ जाने की प्रक्रिया में संघनित होकर वर्षा करती है। अयनवर्ती भागों में भी गर्मियों में चक्रवाती वर्षा होती है ।
वर्षण के सिद्धांत
1. हिमकण सिद्धांत: बर्जरान
2. मेघ - स्थिरता सिद्धांत : फिडिन्सन
3. संलयन सिद्धांत : ई.जी. बोवेन
कृत्रिम वर्षा
कृत्रिम वर्षा को मेघों का कृत्रिम बीजारोपण भी कहा जाता है। इसका तात्पर्य वस्तुत: उस प्रक्रिया से है, जिसमें एक विशेष प्रकार के मेघों को संतृप्त करके वर्षा कराई जाती है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1946 ई. में न्यूयार्क के अमेरिकी वैज्ञानिकों विंसेंट जे. शेफर एवं इरविंग लैंगम्यूर ने पश्चिमी मेसाचुसेट्स के ऊपर 4,300 मी. की ऊँचाई पर वायुयान के द्वारा तीन किलोग्राम ठोस कार्बन डाईऑक्साइड का छिड़काव कर अतिशीतलित मेघों के कृत्रिम बीजारोपण में सफलता प्राप्त की। परंतु यह आंशिक रूप से ही सफल रहा तथा इनसे बहुत सीमित क्षेत्रों में कृत्रिम वर्षा की प्राप्ति संभव हो सकी। चूंकि यह अत्यधिक खर्चीली विधि थी, अतः यह अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी।
1946 ई. में ही बी. वानगुट ने सिल्वर आयोडाइड प्रविधि द्वारा कृत्रिम वर्षा हेतु प्रयास किया। उन्होंने पाया कि बहुत ऊँचे तापमान पर गर्म करने पर सिल्वर आयोडाइड वाष्पीकृत हो जाता है तथा शीतल होने पर इनसे सिल्वर आयोडाइड के अत्यंत सूक्ष्म कणों (व्यास 0.01 से 0.1 माइक्रान) का निर्माण हो जाता है, जो धुएं के रूप में अति शीतलित जल कणों से निर्मित मेघों में जमा हो जाते हैं। ये -5 डिग्री सेल्सियस से निम्न तापमान पर अति सूक्ष्मों नाभिकों का कार्य करते हैं, जिन पर हिमकण का निर्माण होता है। इस प्रकार ये मेघों को हिमकणों से निर्मित मेघों में तत्काल परिवर्तित कर देते हैं तथा इनके सूक्ष्म कणों पर हिम क्रिस्टलों का विकास होने लगता है। इन सूक्ष्म नाभिकों व हिम क्रिस्टलों का विकास होने लगता है। इन सूक्ष्म नाभिकों व हिम कणों की संरचना में समानता होती है, अतः अतिशीतित कपासी-वर्षी मेघों में इनके कणों को छोड़े जाने पर गत्यात्मक प्रभाव दिखाई पड़ता है। सिल्वर आयोडाइड को इन मेघों में पहुंचाने के लिए पहले इसके घोल को एसीटोन नामक अत्यधिक ज्वलनशील तरल पदार्थ में गर्म किया जाता है, जिनसे सूक्ष्म क्रिस्टलों का निर्माण होता है। धरातल पर जेनरेटरों को थोड़ी-थोड़ी दूरी पर एक पंक्ति में रखकर यदि कई घंटे तक सिल्वर आयोडाइड को मेघों की ओर छोड़ा जाए तो मेघों के संतृप्त होने व संघनन की यह प्रक्रिया संभव हो पाती है। कृत्रिम वर्षा की यह विधि अपेक्षाकृत कम मंहगी होती है, क्योंकि इस प्रविधि में सिल्वर आयोडाइड की थोड़ी मात्रा की ही आवश्यकता पड़ती है।
उपर्युक्त रासायनिक द्रव्यों का प्रयोग केवल उन्हीं मेघों में प्रभावकारी हैं, जिनमें प्राकृतिक रूप से वृष्टि की संभावनाएं विद्यमान हो। मौसम विशेषज्ञों की राय है कि धरातल से 1 से 2 किमी. की ऊँचाई पर पाये जाने वाले गहरे भूरे वर्षी मेघों से ही कृत्रिम वर्षा संभव है। कृत्रिम मेघ बीजारोपण के लिए चुने गए मेघों की मोटाई 1,500 मीटर होनी चाहिए, साथ ही इन मेघों में सापेक्षिक आर्द्रता का कम से कम 50 प्रतिशत से 65 प्रतिशत तक होना आवश्यक है।
अन्य प्रविधियों के अन्तर्गत बादलों में विद्युत तरंगों व प्रघाती तरंगों के द्वारा विद्युत आवेशन उत्पन्न कर वृद्धि की संभावना पर विचार किया जाता है। सैद्धांतिक रूप से इसमें अपार संभावनाएं हैं, क्योंकि कपासी-वर्षी मेघों में बिजली की चमक के तत्काल बाद तीव्र वर्षा की प्राप्ति होती है, परन्तु इनकी व्यवहारिकता संदिग्ध है। इसी प्रकार एक अन्य प्रविधि वायुयानों द्वारा बादलों में जल के छिड़काव की प्रक्रिया द्वारा उसे संतृप्तावस्था में लाने से संबंधित है, ताकि संघनन की प्रक्रिया प्रारंभ कराई जा सके। परन्तु वर्तमान समय में ये प्रविधियां लोकप्रिय नहीं हो सकी हैं।
कृत्रिम वर्षा हेतु इजराइल व रूस में सफल प्रयोग हुए हैं एवं इनसे सिल्वर आयोडाइड प्रविधि द्वारा कृत्रिम वर्षा की संभावना को बल मिला है। भारत में भी गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में प्रोजेक्ट रेन ड्राप चलाए गए थे, परन्तु यह अधिक सफल नहीं रहा। वस्तुतः व्यवसायिक संस्थानों की कृत्रिम वर्षा संबंधी बड़े-बड़े दावों की व्यवहारिकता संदिग्ध रही है, क्योंकि कुछ विशेष प्रकार के मेघों से ही ऐसी वर्षा संभव है और वह भी एक थोड़े क्षेत्र में व सीमित मात्रा में, फिर भी इस दिशा में प्रयास सराहनीय रहे हैं।
तड़ित झंझा
तड़ित झंझा स्थानीय तूफान या झंझावत होते हैं, जिसमें तीव्र हवांए चलती हैं तथा कपासी वर्षा मेघों से गरज एवं बिजली की चमक के साथ तीव्र वर्षा होती है। तड़ित झंझा में वर्षा की तीव्रता के कारण ऐसा लगता है बादल ही फूट गए हैं, इसलिए इस वर्षा को बादलों का प्रस्फोट कहते है।
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