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मृदा

सामान्य परिचय:

          मृदा शैल चूर्ण और जैविक पदार्थों का वह मिश्रण है, जिसमें पौधों को उगाने की क्षमता होती है। मृदा को शैलों के अपक्षय से उत्पन्न पदार्थ के रूप में भी जाना जाता है। अतः मृदा के निर्माण की प्रक्रिया अत्यधिक धीमी होती है। एक पूर्णतया विकसित मृदा एक लम्बे समय के बाद विकसित होती है। विकसित मृदाओं में एक के ऊपर एक कई क्षैतिज परतें होती हैं, जिन्हें मृदा संस्तर कहा जाता है। इनमें से सबसे ऊपरी संस्तर को A संस्तर कहते हैं, तथा सबसे निम्न संस्तर आधार शैलों से निर्मित होता है। अधिकांश मृदा में तीन संस्तर A, B और C पाए जाते हैं। मृदा संस्तरों के सामूहिक स्वरूप को मृदा परिच्छेदिका कहा जाता है।

          अपक्षय की क्रिया मृदा निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसका संचालन जलवायु के कारकों द्वारा होता है। किसी निश्चित पर्यावरण में विभिन्न कारकों द्वारा मृदा की निर्माण एवं विकास प्रक्रिया को मृदा निर्माण प्रक्रम कहा जाता है। एक मृदा निर्माण प्रक्रम के अन्तर्गत एक विशिष्ट प्रकार के जलवायु क्षेत्र में सम्पन्न होने वाली सभी संबद्ध क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। वास्तव में एक मृदा निर्माण प्रक्रम अनेक क्रियाओं का संयोजन होता है। विभिन्न क्षेत्रों में इन प्रक्रमों की भिन्नता विभिन्न प्रकार की मृदाओं को जन्म देती है।

मृदा निर्माण के कारक

1. आधारभूत चट्टान या जनक पदार्थ

2. जलवायु

3. स्थलाकृति उच्चावच

4. जैविक प्रभाव (वनस्पतियां, जीव-जन्तु व मानवीय प्रभाव)

 

 

इन सभी कारकों में प्रथम दो कारक सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। जलवायु और जैविक कारक को क्रियाशील कारक कहा जाता हैं जबकि जनक पदार्थ, स्थलाकृतिक उच्चावन एवं मृदा के विकास की अवधि को निष्क्रिय कारक कहते हैं।

मिट्टियों का वर्गीकरण

  • वैश्विक मृदा के वितरण को आधार बनाकर विभिन्न देशों के विद्वानों द्वारा तथा अनेक वैश्विक संस्थाओं द्वारा मृदा के वर्गीकरण का प्रयास किया गया। इस क्रम में सर्वप्रथम रूसी विद्वान, ‘वी.वी. डोकुचायेव’ द्वारा मृदा के वर्गीकरण का प्रयास किया गया।
  • आगे चलकर सन् 1938 में संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग द्वारा वैश्विक मृदा वर्गीकरण किया गया, जिसे 'USDA System' नाम दिया गया। इस वर्गीकरण के आधार पर मृदा को मंडलीय मृदा, अंतः क्षेत्रीय अथवा अंतः प्रादेशिक मृदा, अमंडलीय या अप्रादेशिक मृदा में वर्गीकृत किया गया।
  • इसी क्रम में, 1975 में संयुक्त राज्य अमेरिका की ‘मृदा संरक्षण सेवा’ के मृदा सर्वेक्षण विभाग द्वारा ‘वृहद मृदा वर्गीकरण योजना’ प्रस्तुत किया गया। इसके द्वारा वैश्विक मृदा को उनके परिच्छेदिका के विभिन्न लक्षणों के आधार पर 12 वर्गों में विभाजित किया गया है-

 

मृदा का वैश्विक वितरण

मृदा

विश्व का भू-क्षेत्र

(लगभग प्रतिशत में)

  • एरिडीसाल्स

12

  • इनसेप्टीसाल्स

17

  • अल्फीसाल्स

10

  • एंटीसाल्स

16

  • आक्सीसाल्स

8.0

  • मोलीसाल्स

7.0

  • अल्टी-साल्स

8.0

  • स्पोडोसाल्स

4.0

  • वर्टीसाल्स

2.0

  • एंडीसाल्स

1.0

  • हिस्टोसाल्स

1.0

  • जेलीसाल्स

9.0

 

 

मृदा

   

क्षेत्रीय अथवा मंडलीय मृदा

इस प्रकार की मृदा उचित जल निकास वाले मूलस्थान पर विकसित एवं वातावरण के साथ साम्यावस्था में होती है।

 

 

अंतः क्षेत्रीय अथवा अंतः प्रादेशिक मृदा

इस प्रकार की मृदा विभिन्न प्रदेशों में बिखरी हुई होती है। इस मृदा में जलप्रवाह की व्यवस्था नहीं होती है, जिस कारण से जलाक्रांति की स्थिति बनी रहती है।

 

 

अक्षेत्रीय मृदा

इस प्रकार की मृदा का संबंध स्थानीयता से नहीं होता बल्कि अपरदन के कारकों द्वारा परिवहित कर लाई जाती है। इसमें मृदा संस्तरों का पूर्ण विकास नहीं होता है।

मृदा का सामान्य वर्गीकरण  

          मृदा के सामान्य वर्गीकरण में पेडोकल व पेडल्फर को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। इसमें पेडल्फर मृदा के अन्तर्गत अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों की मृदा को तथा पेडोकल मृदा के अन्तर्गत शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों की मृदा को वर्गीकृत किया गया है, जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण मृदाओं का उल्लेख निम्नवत् किया गया है

पेडल्फर वर्ग की मृदा

  • ये मृदाएं उच्च अक्षांशीय कोणधारी वनों से लेकर मध्य अक्षांशीय पतझड़ वाले वनों से होते हुए निचले अक्षांशों में स्थित उष्णकटिबंधीय वनों और घास के मैदानों वाले आर्द्र जलवायु प्रदेशों में पाई जाती हैं, जहां वार्षिक वर्षा 63.5 सेमी. से अधिक होती है।
  • निम्न अक्षांशों में उच्च तापमान एवं आर्द्र मौसमी दशा वाले क्षेत्रों में ‘लाल’ और ‘पीले’ रंग की पेडल्फर मृदाएं मिलती हैं।
  • जैविक पदार्थों की अधिकता होने पर भी जीवाणुओं की अधिक क्रियाशीलता के कारण जीवाणुओं द्वारा ह्यूमस का उपभोग कर लिया जाता है, जिसके कारण ह्यूमस की बहुत कम मात्रा बच पाती है। फलतः उर्वरकों के अभाव में यह जल्द ही अनुपजाऊ हो जाती है।
  • पेडल्फर वर्ग में विभिन्न प्रकार की मृदाओं को शामिल किया जाता है, जैसे-टुंड्रा, मृदा, पोडजोल मृदा, लैटेराइट मृदा आदि।

लैटेराइट मृदा

  • उष्ण कटिबंधीय आर्द्र जलवायु प्रदेशों में जहां सदाबहार वन मिलते हैं, वहां मृदा विकास लेटेराइजेशन (पाश्र्वीकरण) के द्वारा होता है। इस प्रक्रिया में तापमान अधिक होने के कारण सिलिकेट खनिज तत्व विघटित होकर सिलिका में परिवर्तित हो जाते हैं, जिससे निक्षालन के समय जल के साथ सिलिका बहकर नीचे की परतों में चली जाती हैं।
  • क्षारीय तत्व और ह्यूमस भी जल के साथ घुलकर नीचे की परतों में चले जाते हैं, इसलिये इस मृदा के ऊपर की परतों में सिलिका, क्षारीय तत्व और ह्यूमस का अभाव रहता है।
  • इस मृदा में एल्युमीनियम तथा आयरन के आक्साइड की अधिकता होती है, इसीलिये इस मृदा का रंग लाल होता है।
  • इस मृदा में बाक्साइट, लिमोनाइट तथा मैग्नेटाइट आदि खनिज पाये जाते हैं। यह मृदा कृषि के लिए अपेक्षाकृत उपयुक्त् नहीं होती है।
  • इस मृदा में कठोर लकड़ी के वृक्ष तथा कांटेदार झाड़ियां उगती हैं, जैसे-जायरे (कांगो) बेसिन, अमेजन बेसिन इत्यादि। भारत में लैटेराइट मृदा मुख्यतः तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, ओडिशा व असम के पहाड़ी क्षेत्र और केरल में पाई जाती है।

 

पोडजोल मृदा

  • शीत-आर्द्र जलवायु प्रदेश में जहां शंकुधारी वन मिलते हैं, वहां मृदा का विकास पोडजोलाईजेशन के द्वारा होता है, इसलिये इस मृदा को ‘पेाडजोल मृदा’ कहते हैं।
  • पोडजोलाइजेशन प्रक्रिया के तहत शीत-आर्द्र जलवायु प्रदेश में अत्यंत कम तापमान होने के कारण सिलिकेट खनिज तत्वों का विघटन नहीं हो पाता है, जिस कारण इस मृदा के ऊपर की परतों में ‘सिलिका’ की अधिकता होती है, जबकि कार्बनिक पदार्थों का विघटन नहीं होने के कारण ‘ह्यूमस’ का अभाव होता है। अम्ल की मात्रा अधिक होने के कारण इस मृदा में जीवाणुओं की अनुपस्थिति पाई जाती है।

टुंड्रा मृदा

  • टुंड्रा जलवायु प्रदेश में टुंड्रा मृदा का विकास ‘ग्लेइकरण’ के द्वारा होता है। इस प्रक्रिया में अत्यंत कम तापमान होने के साथ हिमगलन के कारण जल का भराव हो जाता है, जिससे सूक्ष्म जीवों की गतिविधियां भी कम हो जाती हैं और आक्सीजन का स्तर भी निम्न होता है।
  • कार्बनिक पदार्थों के विघटन की दर नगण्य होने के कारण मृदा में अविघटित कार्बनिक पदार्थ उपस्थित होते हैं।
  • चट्टानी संरचना में भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन की दर भी नगण्य होती है, जिससे मृदा का विकास पूर्णतः नहीं हो पाता है।
  • यहां की मुख्य वनस्पति ‘काई’ तथा ‘मॉस’ है।

पेडोकल वर्ग की मृदा

  • इस मृदा का विकास अर्द्ध-शुष्क एवं शुष्क जलवायु प्रदेश में ‘कैल्सीकरण’ के द्वारा होता है।
  • कैल्सीकरण प्रक्रिया के अन्तर्गत ‘केशिकत्व क्रिया’ के द्वारा जल के साथ घुले हुए क्षारीय तत्व, मृदा के नीचे की परतों से ऊपर की परतों मे आ जाते हैं, जिसके कारण मृदा की क्षारीयता में वृद्धि हो जाती है।
  • शुष्कता में वृद्धि के साथ वनस्पति की सघनता में कमी आती है, इसलिये ‘ह्यूमस’ की मात्रा में भी कमी आती है।
  • पेडोकल वर्ग में प्रेयरी मृदा, चरनोजम मृदा, चेस्टनट मृदा, काली मृदा आदि को शामिल किया जाता है।

चरनोजम मृदा

  • स्टेपी तुल्य जलवायु प्रदेश में सवाना तुल्य जलवायु की अपेक्षा कम वर्षा एंव अधिक वाष्पीकरण के कारण वृक्ष रहित घास के मैदान पाये जाते हैं। इस जलवायवीय प्रदेश में निर्मित मृदा को ‘चरनोजम मृदा’ कहते हैं।
  • चरनोजम मृदा में कैल्सीफिकेशन और निक्षालन में संतुलन बना रहता है। इस मृदा में कैल्शियम तत्वों की प्रचुर मात्रा होती है।
  • स्टेपी तुल्य जलवायु प्रदेश में घास के मैदान पाये जाने के कारण कार्बनिक पदार्थों के विघटन की दर भी अधिक होती है। चरनोजम मृदा में ह्यूमस की मात्रा अधिक पाई जाती है, इसलिये इसे ‘ब्लैक अर्थ सॉयल’ भी कहते हैं।
  • अत्यधिक उपजाऊ होने के साथ-साथ चरनोजम मृदा भुरभुरी होती है जो भारत में ‘रेगुर या काली कपासी मृदा’ कहलाती है। काली मृदा में केशिका (कैपिलरी) क्रिया सबसे अधिक प्रभावशाली होती है।
  • चरनोजम मृदा में आर्द्रता ग्रहण करने की क्षमता अत्यधिक होती है, फलतः सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है।
  • यह मृदा गेहूँ की कृषि के लिए विशेष रूप से अनुकूल होती है। यूक्रेन, संयुक्त राज्य अमेरिका का मध्य क्षेत्र, मध्य अफ्रीका, मध्य भारत तथा भारत के यह दक्षिणी पठारी क्षेत्र इत्यादि में पाई जाती है।

प्रेयरी मृदा

  • इसे भी पेडोकल मृदा के ही अन्तर्गत रखा जाता है। इसमें चरनोजम की अपेक्षा चूने की मात्रा कम पाई जाती है।
  • इसकी संरचना भुरभुरी होने के कारण मक्के की कृषि हेतु अधिक उपजाऊ मानी जाती है।
  • इस मृदा का विकास मुख्यतः संयुक्त राज्य अमेरिका व पूर्वी यूरोप के कुछ क्षेत्रों में हुआ है।

चेस्टनट मृदा

  • चरनोजम प्रकृति की इस मृदा में ह्यूमस की अल्पता पाई जाती है।
  • इस पर निर्मित घास के मैदान पशुओं के चारागाह हेतु उपयुक्त माने जाते हैं।
  • इस प्रकार की मृदा का विकास एशिया के अर्द्धशुष्क क्षेत्रों व उत्तरी अमेरिका में हुआ है।

मरूस्थलीय मृदा

  • इस प्रकार की मृदा का निर्माण कम वर्षा, उच्च तापमान तथा उच्च वाष्पीकरण वाले जलवायु प्रदेशों में हुआ है।
  • मरूस्थलीय मृदा समशीतोष्ण क्षेत्रों में धूसर रंग की तथा उष्ण क्षेत्रों में लाल रंग की होती है।
  • जलाभाव के कारण खनिज तत्वों का नीचे की परतों में रिसाव न होने से मरूस्थलीय मृदा क्षारीय होती है तथा वनस्पतियों की अल्पता के कारण ह्यूमस का भी अभाव पाया जाता है।
  • इस मृदा में संस्तर पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाते और इसका संघटन सूक्ष्म होता है।

मृदा अपरदन निम्नीकरण

          मृदा अपरदन एक ऐसी प्रकिया है, जिसके द्वारा मृदा के उपजाऊ तत्व अपरदित होकर अन्यत्र चले जाते हैं, जिसके फलस्वरूप मृदा की गुणवत्ता में कमी आती है तथा बंजर भूमि की समस्या भी उत्पन्न होती है। इसके अलावा अन्य कारणों से मृदा की गुणवत्ता में हृास होने से भी मृदा निम्नीकरण होता है।

 

मृदा क्षरण एवं अपरदन के कारण

मृदा क्षरण एवं अपरदन के कारकों को दो वर्गों में रखते हैं-

1. प्राकृतिक एवं भौगोलिक कारक

2. मानवीय कारक

1. प्राकृतिक एवं भौगोलिक कारक

      मृदा अपरदन के लिए प्राकृतिक कारकों के अन्तर्गत निम्न प्रक्रियाएं उत्तरदायी हैं-

(i) जलीय अपरदन

(ii) वायु अपरदन

(iii) हिमानी अपरदन

(iv) समुद्री तरंगों द्वारा अपरदन

2. मानवीय कारक

          मानवीय कारकों से मृदा क्षरण एवं अपरदन की प्रक्रिया में तीव्रता आती है। प्राकृतिक कारकों से मृदा अपरदन को त्वरित करने का कार्य मानवीय क्रियाओं द्वारा होता है। मृदा अपरदन को मानवीय कारक दो तरीकों से प्रभावित करते हैं-

प्रत्यक्ष कारक

          इनमें निम्न क्रियाएं आती हैं, जो मृदा अपरदन व मृदा निम्नीकरण के लिए प्रत्यक्षतः उत्तरदायी हैं-

(i) वनों की कटाई तथा वन विनाश।

(ii) चारागाह के रूप में भूमि का अत्यधिक उपयोग अर्थात अति पशुचारण।

(iii) अवैज्ञानिक कृषि, जैसे अतिकृषि, अल्पकृषि, फसल चक्र का प्रयोग नहीं किया जाना, अवैज्ञानिक सिंचाई पद्धतियां, झूम कृषि, ढाल कृषि।

(iv) रासायनिक उर्वरक, कीटनाशकों का प्रयोग

अप्रत्यक्ष कारक

          इनमें निम्न क्रियाएं आती हैं, जो अप्रत्यक्ष मृदा अपरदन के लिए उत्तरदायी हैं।

(i) सिंचाई, बांधों का निर्माण, बहुउद्देशीय परियोजनाएं

(ii) जल प्रवाह की समस्या

(iii) हरित क्रान्ति के चरण

(iv) नगरीकरण, औद्योगीकरण, सड़क निर्माण, खनन कार्य

 

मृदा अपरदन के प्रभाव

  • मृदा की ऊपरी उपजाऊ सतह का हृास, जिससे धीरे-धीरे मृदा की उर्वरता और कृषि उत्पादकता में कमी आती है।
  • इस प्रकार कृषि योग्य भूमि कम होती जाती है।
  • निक्षालन एवं जल-जमाव द्वारा मृदा के पोषक तत्वों का हृास।
  • वनस्पतियों का सूखना एवं शुष्क भूमि के क्षेत्र में विस्तार।
  • सूखे व बाढ़ के प्रकोप का बढ़ना।
  • नदियों और नहरों के तल में रेतों का जमाव बढ़ जाना।
  • भू-स्खलन के खतरे का बढ़ना।
  • वनस्पति आवरण नष्ट होने से इमारती लकड़ी एवं घरेलू ईंधन हेतु जलावन की लकड़ियों की कमी होने लगती है तथा वन्य जीवन भी दुष्प्रभावित होता है।

मृदा संरक्षरण के उपाय

  • बाढ़ एवं मृदा अपरदन पर नियंत्रण के उद्देश्य से बड़ी नदियों और सहायक नदियों पर उनके ऊपरी भागों में छोटे-छोटे बांधों का निर्माण।
  • नहरों से होने वाले जल रिसाव को रोकने के लिए नहरों का अस्तरण, ताकि निम्न भागों में जलमग्नता को रोका जा सके।
  • सतही और उर्ध्वाधर  अपवाह तंत्र में सुधार कर जलमग्नता की समस्या का निदान करना।
  • जैविक उर्वरकों एवं वानस्पतिक खाद के उपयोग में वृद्धि करना।
  • मानव अवशेषों एवं शहरी कचरों को खाद में परिवर्तित करना।
  • वैज्ञानिक फसल चक्रण पर ध्यान देना।
  • तंगघाटियों या अवनालिकाओं का समतलीकरण एवं ढालों पर वेदिकाओं का निर्माण करना तथा वृक्षारोपण व घासरोपण करना।
  • सतत् कृषि की तकनीक को अपनाना।
  • धान एवं गन्ना जैसे लवणतारोधी फसलों को लगाना।

अन्तर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष: 2015

          संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2015 को अन्तर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष घोषित किया है। 5 दिसम्बर, 2015 को अन्तर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय मृदा के महत्व की दिशा में वैश्विक ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से किया गया था।

 

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