महासागरीय नितल उच्चावच
महासागर नितल में स्थल से भी अधिक उच्चावच संबंधी विविधता है। ध्वनि गंभीरता मापी यंत्र की मदद से समुद्री गहराइयों का परोक्ष रूप से मापन कर इसका मानचित्रण संभव हुआ है। उच्चामिति वक्र के विकास की दिशा में सर्वप्रथम प्रयास कोसीना ने किया था।
सामान्यतः महासागरीय नितल को चार मुख्य वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। महाद्वीपीय निमग्न तट, महाद्वीपीय ढाल, महाद्वीपीय उत्थान एवं महासागरीय गहरे नितल मैदान। इनके अलावा अन्य प्रमुख जलमग्न लक्षण हैं-कटक, पहाड़ी, समुद्री पर्वत, गुयाट (समतल शीर्ष वाले समुद्री पर्वत), खाइयाँ, कैनियन, गर्त विभंग क्षेत्र। अनेकों द्वीप, प्रवाल, वलय, प्रवाल भित्ति, जलमग्न ज्वालामुखी पर्वत इत्यादि जलमग्न लक्षणों की विविधता को और बढ़ाते हैं। विवर्तनिक, ज्वालामुखी अपरदानकारी और निक्षेपणकारी प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप ये सभी विविधताएं उत्पन्न हुई है। अधिक गहराई वाले भागों में विवर्तनिक व ज्वालामुखी प्रक्रियाएं अधिक महत्वपूर्ण हैं।
महाद्वीपीय निमग्न तट
तट के समीपवर्ती उथले भाग को महाद्वीपीय निमग्न तट कहा जाता है। इसमें मुख्यतः स्थलीय निक्षेप जमा होते हैं। इसका ढाल 1 डिग्री से 3 डिग्री तक व गहराई 150 से 200 मी. तक होती है। इसकी औसत चौड़ाई 70 किमी. है परन्तु यह भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग चौड़ाई रखता है। उदाहरण के लिए, भारत के पूर्वी तट पर इसकी चैड़ाई 50 किमी. है, जो पश्चिमी तट की चौड़ाई का एक-तिहाई ही है। सामान्यतः पर्वतीय कटकों से युक्त तटवर्ती क्षेत्र अथवा सागरीय गर्तों के निकट इनकी चौड़ाई कम मिलती है। महाद्वीपीय निमग्न तट के उथले सागर मत्स्य ग्रहण के प्रमुख क्षेत्र हैं। डॉगर बैंक, जॉर्जेज बैंक आदि प्रमुख मत्स्यन क्षेत्र इसी के अन्तर्गत आते हैं। विश्व का एक-चौथाई पेट्रोलियम व गैस यहीं से प्राप्त होता है। बालू व बजरी के भी ये विशाल भंडार है। सागरीय भाग के कुल 8.6 प्रतिशत क्षेत्रफल पर यह विस्तृत है।
महाद्वीपीय ढाल
महाद्वीपीय ढाल वास्तव में महाद्वीपों की जलमग्न अंतिम सीमा है। इसका ढाल खड़ा है। (2 डिग्री से 5 डिग्री तक) जो महाद्वीपीय निमग्नतट और महासागरीय मैदान को जोड़ता है। महाद्वीपीय ढाल की गहराई 200 से 2,000 मी. तक होती है परन्तु कई बार यह 3,600 मी. से भी अधिक गहराई तक चली जाती है। यह समस्त सागरीय क्षेत्रफल के 8.5 प्रतिशत भाग पर विस्तृत है। इन पर सागरीय निक्षेपों का अभाव मिलता है।
महाद्वीपीय उत्थान
जहां महाद्वीपीय ढाल का अन्त होता है, वहीं मंद ढाल वाले उत्थान की शुरूआत होती है। इनका ढाल 0.5 डिग्री से 1 डिग्री तक होता है व सामान्य उच्चावच काफी कम होता है। गहराई बढ़ने के साथ यह लगभग समतल होकर महासागरीय नितल मैदान में विलीन हो जाता है।
महासागरीय नितल मैदान
महाद्वीपीय उत्थान के बाद मैदान के समान महासागरीय गहरे तल को नितल मैदान कहते हैं। इसकी गहराई 3,000 से 6,000 मी. तक होती है। ये महासागरीय क्षेत्र में लगभग 75.9 प्रतिशत क्षेत्रों में विस्तृत हैं। प्रशांत महासागरीय क्षेत्र की तुलना में अटलांटिक महासागर में इसका विस्तार कम है, जिसका प्रमुख कारण अटलांटिक महासागर में महाद्वीपीय निमग्न तट का अधिक विस्तृत होना है। ये मैदान लगभग समतल हैं एवं इनकी ढाल प्रवणता 1:100 से भी कम है। इन पर स्थलजनित अवसाद व समुद्री जीवों के अस्थि-पंजर दोनों मिलते हैं। सामान्यतः नितल मैदान उन क्षेत्रों में अधिक पाए जाते हैं, जहां स्थलजनित अवसादों की आपूर्ति अधिक होती है। इन समुद्री मैदानों में कटक, ज्वालामुखी पर्वत, गुयाट, गर्त, खाई विभंग क्षेत्र जैसी आकृतियां पायी जाती हैं।
जलमग्न कटक
महासागरीय नितल पर कुछ सौ किमी. चौड़ी तथा सैकड़ों या हजारों किमी. लम्बी पर्वत श्रेणियां होती हैं तथा ये पृथ्वी पर सबसे लम्बे पर्वत-तंत्र का निर्माण करते हैं। जलमग्न पर्वत तंत्रों की कुल लम्बाई 75,000 किमी. से भी अधिक है जो महासागरों के मध्य भाग में सबसे अधिक पाये जाते हैं। ये कटक मंद ढाल वाले पठार तथा तीव्र ढाल वाले पर्वत दोनों स्वरूपों में होते हैं। कहीं-कहीं ये समुद्री जलस्तर से ऊपर उठकर द्वीप बन जाते हैं, जैसे-एजोर्स द्वीप। इन विश्वव्यापी महासागरीय कटकों की व्याख्या प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत द्वारा की जा सकती है। दो प्लेटों के अपसरण के कारण एस्थेनोस्फेयर से मैग्मा निकलने से इन समुद्री कटकों का निर्माण हुआ है। अटलांटिक व हिन्द महासागर में इन कटकों का अधिक विस्तार मिलता है। अधिकांशतः कटकों की लम्बाई अधिक होती है तथा लम्बी पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण होता है। उदाहरणतः मध्य अटलांटिक कटक की लम्बाई लगभग 14,000 किमी. है।
नितल पहाड़ियां
महासागरीय नितल पर हजारों एकाकी नितल पहाड़ियां समुद्री पर्वत व गुयाट हैं। वह जलमग्न पर्वत जिसका शिखर नितल से 1,000 मी. से अधिक ऊपर हो समुद्री पर्वत कहा जाता है। सपाट शीर्ष वाले पर्वतों को गुयाट कहते हैं। ये सभी आकृतियां ज्वालामुखी क्रिया द्वारा उत्पन्न होती हैं तथा इनका संबंध प्लेट विवर्तनिकी से है। प्रशांत महासागर में समुद्री पर्वत और गुयाट अधिक पाए जाते हैं। यहां इनकी संख्या लगभग 10,000 है।
जलमग्न खाइयां तथा गर्त
ये गर्त महासागरों के सबसे गहरे भाग होते हैं। सामान्यतः ये 5,500 मी. से भी अधिक गहरे हैं और महासागरों के नितल के छोर पर स्थित होते हैं। इनकी उत्पत्ति भी विवर्तनिका है एवं ये प्रायः वलित पर्वतों या द्वीपीय श्रृंखलाओं के समानान्तर विनाशात्मक प्लेट किनारों पर मिलते हैं। ये प्रशांत महासागरा में सबसे अधिक पाए जाते हैं।
कुछ महत्वपूर्ण महासागरीय गर्त अपसारी |
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क्र. सं. |
गर्त |
गहराई (मी. में) |
स्थिति |
1. |
मैरियाना |
11,022 |
प्रशांत महासागर |
2. |
टोंगा |
10,882 |
प्रशांत महासागर |
3. |
मिंडनाओ |
10,500 |
प्रशांत महासागर |
4. |
प्यूर्टोरिको |
8,380 |
अटलांटिक महासागर (प. द्वीप समूह) |
5. |
अटाकामा |
8,065 |
प्रशांत महासागर |
6. |
रोमशे |
7,758 |
दक्षिणी अटलांटिक महासागर |
7. |
सुण्डा |
7,450 |
दक्षिण हिन्द महासागर |
प्रशांत महासागर के पूर्वी व पश्चिमी छोरों पर खाइयों की एक लगभग श्रृंखला सी पाई जाती है। इनमें अल्युशियन ट्रेंच, क्युराइल ट्रेंच, जापान ट्रेंच, मिंडनाओ ट्रेंच, मैरियाना ट्रेंच, पश्चिमी छोर पर एवं अटाकामा व टोंगा ट्रेंच पूर्वी छोर पर स्थित है। सबसे गहरा गर्त मैरियाना ट्रेंच है, जिसकी गहराई 11,022 मी. है। यह फिलीपींस में स्थित है। दक्षिण पश्चिमी आस्ट्रेलिया के निकट डायमेंटीना व इंडोनेशिया के जावा द्वीप के निकट सुण्डा (हिन्द महासागर का सबसे गहरा गर्त) हिन्द महासागर में स्थित गर्त है।
जलमग्न कैनियन
महासागरीय नितल पर स्थित गहरे गार्ज को जलमग्न कैनियन कहते हैं। ये मुख्यतः महाद्वीपीय निमग्न तट, ढाल एवं उत्थान तक ही सीमित है। अंतः सागरीय कैनियन प्रायः तट के लम्बवत बड़ी-बड़ी नदियों के मुहाने के सामने पाए जाते हैं। ये कंदराएं नदी द्वारा निर्मित युवावस्था की घाटियों के समान होती हैं। परन्तु इनकी गहराई अधिक होती है, जो कंदराएं नदियों के मुहाने पर स्थित होती हैं, वे अधिक लम्बी होती है परन्तु उनका ढाल अपेक्षाकृत कम होता है, जैसे कांगो कैनियन, हडसन कैनियन। अलास्का के पश्चिम में बेरिंग सागर में विश्व के सबसे लम्बे कैनियन पाए जाते हैं, ये हैं-बेरिंग, प्रिबिलाफ, जेमचुग। यहां सागरीय कैनियनों की गहराई 1,000 मी. से 3,000 मीटर तक भी मिलती है। हिन्द महासागर में गंगा और सिंधु के मुहाने के पास भी कंदराएं मिलती हैं। यहां की सागरीय कंदराओं का निर्माण सेनोजोइक व क्वार्टनरी युग में हुआ है। भू-संचलन के कारण क्वार्टरनरी युग की नदियों की घाटी के अवतलन तथा जलमग्न होने के कारण या प्लीस्टोसीन हिम युग में अपरदित घाटियों के निर्गमन व निमज्जन के फलस्वरूप इन कैनियनों का निर्माण हुआ माना जाता है।
तल, शोल, भित्ति
ये क्रमशः अपरदन, निक्षेपण और जैविक प्रक्रियाओं से निर्मित होती है। तट-समतल शीर्ष वाले उत्थान होते हैं और महाद्वीपों के किनारे स्थित होते हैं। ये प्रमुख मत्स्यन क्षेत्र हैं उदाहरणतः ग्रैंड बैंक, डाॅगर बैंक। शोल जलमग्न उत्थान का विलग भाग है। यहां जल की गहराई छिछली हाती है इसीलिए ये नौसंचालन के लिए खतरनाक होते हैं। भित्ति का निर्माण जैविक निक्षेपों से जुड़ा हुआ है । प्रवाल भित्तियां मुख्यतः प्रशांत महासागर की विशेषता है। आस्ट्रेलिया की क्वींसलैंड के समीप विश्व की सबसे बड़ी प्रवाल भित्ति पाई जाती है। ये ग्रेट बेरियर रीफ के नाम से प्रसिद्ध है। अधिकतर भित्तियां नौसंचालन के लिए खतरनाक है, क्योंकि ये समुद्री जलस्तर तक या उसके ऊपर भी उठ जाती है।
प्रशांत महासागर का महासागरीय तल उच्चावच
इसकी आकृति त्रिभुजाकार है। यह अन्य सभी महासागरों से अधिक गहरा है। अधिकांश भागों की गहराई लगभग 7,300 मी. तक है। इसके चारों ओर की सीमाओं पर अनेक तटीय सागर और खाड़ियां हैं। इस विशाल महासागर में 20,000 से भी अधिक द्वीप है, परन्तु इनका क्षेत्रफल काफी कम है। ये मुख्य स्थलखण्ड से पृथक हुए भाग हैं। महासागरों के मध्य स्थिति द्वीप प्रवाल तथा ज्वालामुखी प्रक्रियाओं से निर्मित है। प्रशांत महासागर का उत्तरी भाग सबसे अधिक गहरा है। इस भाग में अधिक संख्या में खाइयां व द्वीप पायी जाती हैं, जिनकी उत्पत्ति का संबंध प्लेट विवर्तनिकी से है। अल्युशियन, क्युराइल, जापान, बेनिन, मेरियाना कुछ महत्वपूर्ण गर्तें हैं जिनकी गहराई 7,000 मी. से 10,000 मी. तक है। अधिकांश गर्त द्वीपीय क्षेत्रों के समीप मिलते हैं। मध्य भाग में अधिक संख्या में समुद्री पर्वत, गुयाॅट आदि मिलते हैं। प्रशांत के दक्षिण पश्चिम में विभिन्न प्रकार के द्वीप, तटीय सागर, महाद्वीपीय मग्नतट तथा जलमग्न गर्त हैं। दक्षिण-पूर्व प्रशांत में चौड़े जलमग्न कटक तथा पठार हैं। अटाकामा एवं टोंगा खाई भी यहीं स्थित हैं, जिसकी गहराई क्रमशः 8,000 मी. व 10,882 मी. है।
प्रशांत महासागर से सम्बद्ध प्रमुख तथ्य
द्वीप एवं द्वीप समूह: जापान (होन्शू, होकैडो, क्यूशू, शिकोकू, आदि) इण्डोनेशिया (सुमात्रा, जावा, कालीमंतन, (बोर्नियो) इरियन, सिलेबीज, मदुरा आदि), मेलानेशिया (सोलोमन, फिजी, न्यू-कैलिडोनिया, न्यू गिनी, हैब्राइड्स आदि), माइक्रोनेशिया (मार्शल, एलिस, गिल्बर्ट, कैरोलाइंस आदि), पोलिनेशिया (कुक, सोसाइटी, लाइन, हवाई, ताहती, समोआ, टोंगा आदि), ताइवान, हैनान, मकाओ, हांगकांग, न्यूजीलैंड आदि।
अटलांटिक महासागर का तल उच्चावच
इसकी आकृति अंग्रेजी के एस (S) अक्षर से मिलता है। इसके चारों ओर विभिन्न चौड़ाइयों वाला महाद्वीपीय मग्नतट स्थित है। अफ्रीका के तट के समीप इसकी चौड़ाई 80 से 160 किमी. तक है किन्तु उत्तर-पूर्व अमेरिका और उत्तर-पश्चिमी यूरोप के तटों के समीप इसकी चौड़ाई 250 से 400 किमी. तक है। अटलांटिक महासागर के दोनों किनारों पर विशेषकर उत्तरी भाग में अनेक तटीय सागर है जो मग्न तटों पर स्थित है, उदाहरणतः हडसन की खाड़ी, बाल्टिक सागर, उत्तरी सागर आदि।
अटलांटिक महासागर का मुख्य आकर्षक लक्षण मध्य अटलांटिक कटक है। यह एस (S) अक्षर की आकृति बनाते हुए उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत है तथा अटलांटिक को अपने दोनों ओर दो गहरे बेसिनों में विभाजित करता है। यह कटक 14,000 किमी. लम्बा तथा लगभग 4,000 मी. ऊँचा है। इसकी उत्पत्ति का संबंध भी प्लेट विवर्तनिकी की रचनात्मक प्रक्रिया से जोड़ा जाता है।
कटक के दोनों ओर की ढालें बहुत ही मंद है। यद्यपि यह जलमग्न कटक है परन्तु इसकी अनेक चोटियां महासागरीय जल-स्तर से ऊपर निकली हुई है। वास्तव में ये चोटियां ही मध्य अटलांटिक के द्वीप है। एजोर्स का पाइको द्वीप तथा केप वर्डे द्वीप इसके उदाहरण हैं। इसके अलावा बरमुडा जैसे कुछ प्रवाल द्वीप तथा असेंसन, त्रिस्ता-दि-कुन्हा, सेंट हेलेना और गुआ सरीखे अनेक ज्वालामुखी द्वीप भी है। गर्त और द्रोणियां जो कि विनाशात्मक प्लेट होने के कारण प्रशांत महासागर की प्रमुख विशेषताएं हैं। अटलांटिक महासागर में बहुत कम पायी जाती हैं। यहां उत्तरी केमन तथा पोर्टोरिको नामक दो द्रोणियां एवं रोमांश और दक्षिणी सैंडविच नामक दो गर्तें हैं।
अटलांटिक महासागर से सम्बद्ध प्रमुख तथ्य
हिन्द महासागर का तल-उच्चावच
इसे अर्द्धमहासागर भी कहा जाता है। इसका उत्तरी किनारा बहुत ही कटा-फटा है। औसत गहराई अपेक्षाकृत कम लगभग 4,000 मी. है। नितल पर असमानताएं भी कम है। गर्त सामान्यतः नहीं मिलते, सुंडा गर्त व डायमेंटिना गर्त इसके अपवाद हैं। जावा द्वीप के दक्षिण व उसके समानांतर स्थित सुंडा गर्त है। डायमेंटिना गर्त दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलियन बेसिन में स्थित है तथा यह सुंडा गर्त से भी गहरा है। हिन्द महासागर के नितल पर अनेक चौड़े जलमग्न कटक है। अटलांटिक महासागर की तरह इसमें भी कन्याकुमारी से लेकर अंटार्कटिका तक लगातार एक जलमग्न कटक है, जो इस महासागर को लगभग दो बराबर बेसिनों में विभक्त करता है। यह अटलांटिक कटक से चौड़ा है परन्तु समुद्री जलस्तर के उतने निकट तक नहीं पहुंचता।
विभिन्न कटक हिन्द महासागर को अनेक बेसिनों में बांटते हैं। हिन्द महासागर में स्थित अधिकांश द्वीप महाद्वीपीय खंडों से टूटकर अलग हुए भाग हैं, उदाहरणतः अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, श्रीलंका, मेडागास्कर व जंजीबार आदि। भारत के दक्षिण पश्चिम तट के समीप लक्षद्वीप व मालदीव प्रवाल द्वीपों के उदाहरण हैं। मॉरीशस व रीयूनियन द्वीप ज्वालामुखी प्रक्रिया के उदाहरण हैं। हिन्द महासागर के पूर्वी भाग में अपेक्षाकृत काफी कम द्वीप हैं।
हिन्द महासागर से सम्बद्ध प्रमुख तथ्य
महासागरीय धाराएं
एक निश्चित दिशा में महासागरीय जल के प्रवाहित होने की गति को धारा कहते हैं। कारिआलिस बल के प्रभाव से उत्तरी गोलार्द्ध की धाराएं अपनी दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध की धाराएं अपनी बायीं ओर प्रवाहित होती है। महासागरीय धाराओं के संचरण की इस सामान्य व्यवस्था का एकमात्र प्रसिद्ध अपवाद हिन्द महासागर के उत्तरी भाग में पाया जाता है, जहां इनकी दिशा मानसूनी हवाओं की दिशा में परिवर्तन के साथ बदल जाती है।
महासागरीय धाराओं का वर्गीकरण
धारा को दिशा, गति एवं आकार के आधार पर कई प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है-
1. प्रवाह: जब सागरीय सतह का जल पवन वेग से प्रेरित होकर आगे की ओर अग्रसर होता है, तो उसे प्रवाह कहते हैं। इसकी गति एवं सीमा निश्चित नहीं होती। इसके सर्वोच्च उदाहरण दक्षिणी अटलांटिक प्रवाह तथा उत्तरी अटलांटिक प्रवाह हैं।
2. धारा: जब सागर का जल एक निश्चित सीमा के अन्तर्गत निश्चित दिशा की ओर तीव्र गति से अग्रसर होता है तो उसे धारा कहते हैं। इसकी गति प्रवाह से अधिक होती है।
3. विशाल धारा: जब सागर का अत्यधिक जल धरातलीय नदियों के समान एक निश्चित दिशा में गतिशील होता है, तो उसे विशाल धारा कहते हैं। इसकी गति सर्वाधिक होती है। गल्फ-स्ट्रीम इसका प्रमुख उदाहरण है।
तापमान के आधार पर महासागरीय धाराओं को दो वर्गों में बांटा जा सकता है-गर्म धाराएं एवं ठंडी धाराएं। विषुवतरेखा से ध्रुवों की ओर प्रवाहित होने वाली धाराएं गर्म और ध्रुवों से विषुवतरेखा की ओर बहने वाली धारा ठंडी होती है।
सागरीय जलधाराओं की उत्पत्ति
धाराओं की उत्पत्ति एवं उनकी गति को प्रभावित करने के लिए निम्नलिखित कारकों को उत्तरदायी माना गया है:-
1. पृथ्वी का परिभ्रमण एवं गुरूत्वाकर्षण
2. महासागरीय कारक: तापक्रम, लवणता, घनत्व एवं बर्फ का पिघलना।
3. वाह्य सागरीय कारक: वायुमण्डलीय दाब, पवन, वृष्टि, वाष्पीकरण एवं सूर्यातप।
4. धाराओं में परिवर्तन या सुधार लाने वाले कारक: तट की दिशा व आकार, मौसम में परिवर्तन एंव नितल की स्थलाकृति।
महासागरों में जलधाराओं की उत्पत्ति मुख्यतः तेज गति से चलने वाली पवनों के कारण होती है। इसके अलावा पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति एवं परिभ्रमण गति, तापमान में अन्तर, घनत्व में अन्तर, लवणता में अन्तर, वायुदाब, वर्षण आदि के सम्मिलित प्रभाव से धाराएं उत्पन्न होती हैं। इन तत्वों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं-
1. पृथ्वी की परिभ्रमण गति: पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है। महासागरों का जल तरल होने के कारण ठोस पृथ्वी का साथ नहीं दे पाता तथा पीछे छूट जाता है। इससे जल में विपरीत गति उत्पन्न होती है तथा वह पूर्व से पश्चिम की ओर धारा के रूप में प्रवाहित होने लगता है। भूमध्यरेखीय धारा इसी कारण उत्पन्न होती है। पृथ्वी की परिभ्रमण गति का प्रभाव सागरीय धाराओं की दिशा पर भी पड़ता है। उत्तरी गोलार्द्ध में धाराएं दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं। इसमें विक्षेपक बल की स्पष्ट भूमिका है।
2. वायुदाब: जहां वायुदाब अधिक होता है, वहां जल-तल नीचा रहता है जबकि कम वायुदाब वाले क्षेत्रों में जल-तल ऊँचा रहता है। इससे ऊँचे जल-तल से नीचे जल-तल की ओर धाराएं चलने लगती हैं। समुद्र तल पर प्रति वर्ग इंच क्षेत्र पर प्रायः वायु का लगभग 15 पौण्ड दबाव पड़ता है। इसके कारण जलधाराएं उत्पन्न होती हैं।
3. पवन: सागरों के ऊपर चलने वाली पवन अपने साथ जल को बहाकर ले जाते हैं। वास्तव में विश्व की अधिकांश जलधाराएं स्थायी पवनें का अनुसरण करती हैं। उदाहरण के लिए, व्यापारिक हवाओं (पूर्व से पश्चिम) के कारण भूमध्यरेखीय धाराएं पूर्व से पश्चिम की ओर चलती हैं। गल्फ स्ट्रीम एवं उत्तरी अटलांटिक ड्रिफ्ट पछुआ हवा के प्रभाव से पश्चिम से पूर्व की ओर चलती हैं।
4. वाष्पीकरण एवं वर्षा: जिन सागरों में वाष्पीकरण अधिक होता है उनका तल नीचे रहता है, जबकि अधिक वर्षा वाले सागरों का तल अपेक्षाकृत ऊँचा रहता है एवं ऊँचे जल-तल से नीचे जल-तल की ओर धाराएं चलने लगती हैं। भूमध्यरेखीय जलधाराएं अधिक वर्षा के कारण ही उत्पन्न होती है। इसी प्रकार ध्रुवीय भागों में वाष्पीकरण कम होता है तथा हिम पिघलने से जल की मात्रा बढ़ जाती है। इसलिए ध्रुवीय भागों से जलधाराएं चलने लगती हैं। विश्व की अनेक धाराएं इसी के कारण प्रवाहित हैं जैसे-लैब्राडोर
5. घनत्व प्रवणता: जिन सागरों में लवणता कम होती है उनका घनत्व कम होता है तथा जिन सागरों का घनत्व अधिक होता है, वहां सागरीय तल नीचा होता है। इस प्रकार निम्न घनत्व वाले क्षेत्रों से अधिक घनत्व वाले क्षेत्रों की ओर सागरीय धाराएं चलने लगती है। भूमध्यरेखा और ध्रुवों से चलने वाली जलधाराएं इसका अच्छा उदाहरण है। ध्रुवों पर बर्फ पिघलने और भूमध्यरेखा पर अत्यधिक वर्षा होने के कारण लवणता और घनत्व कम रहता है, इसलिए जल-तल ऊँचा रहता है।
6. तापमान में अन्तर: अधिक ताप के कारण जल गर्म होकर फैलता है तथा फैलकर आगे बढ़ने लगता है जबकि कम ताप में जल ठंडा होकर सिकुड़ता है। इस कारण भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर जलधाराएं चलने लगती हैं।
7. महाद्वीपीय तटीय बाधा: जब जलधाराओं के मार्ग में नुकीले स्थलीय किनारे आ जाते हैं तो जलधाराएं दो भागों में बंट जाती हैं। उदाहरण के लिए दक्षिण अटलांटिक विषुवत रेखीय ब्राजील के सनरॉक के पास टकराकर दो भागों में बंट जाती है। उसकी एक शाखा दक्षिण में ब्राजील धारा की उत्पत्ति का कारण तटीय भाग ही हैं। पुनः कैरीबियाई द्वीपों के निकट भी इस प्रकार कई जलधाराओं का जन्म होता है।
धाराओं का प्रभाव एवं महत्व
1. धाराओं का निरंतर प्रवाह पृथ्वी के क्षैतिज ऊष्मा संतुलन को स्थापित करने की दिशा में प्रकृति का प्रयास है। गर्म धाराएं जहां तट के तापमान को बढ़ा देती हैं, वहीं ठंडी धाराएं अपने प्रवाह मार्ग-क्षेत्र के तापमान में कमी लाती हैं, जिससे वहां का मौसम शुष्क व ठण्डा हो जाता है। उदाहरण-आटाकामा मरूस्थल पेरू धारा के प्रभाव में निर्मित एक ऊष्ण कटिबंधीय मरूस्थल है।
2. गर्म धाराएं अपने साथ लाने वाली आर्द्र पवनों से वर्षा कराती हैं। उदाहरण के लिए उत्तर अटलांटिक प्रवाह पश्चिमी यूरोपीय भागों में वर्षा का कारण बनती है, जिनसे वहां पश्चिमी यूरोपीय तुल्य जलवायु प्रदेश का निर्माण हुआ है जहां वर्ष भर वर्षा प्राप्त होती है जकि ठण्डी धाराएं तटीय उच्च वायुदाब का निर्माण करती है। अतः शुष्क हवाओं के कारण वहां मरूस्थलों का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए बेंगुएला धारा के कारण कालाहारी एवं फ़ॉकलैंड धारा के कारण पैटागोनिया मरूस्थल का निर्माण हुआ है।
3. ठंडी धाराएं अपने साथ प्लावी हिमशैल लाती हैं, जो ताजे पानी का विशाल भण्डार है। परन्तु ये हिमशैल जलयानों के लिए खतरा भी उत्पन्न करते हैं। उदाहरण के लिए लेब्राडोर धारा द्वारा लाए गए प्लावी हिमशैल से टकराकर टाइटेनिक जहाज ध्वस्त होकर डूब गया था।
4. ये धाराएं अपने साथ प्लवकों को भी लाती है, जो मछलियों का मुख्य आहार है। जहां ठंडी व गर्म समुद्री धाराएं मिलती हैं, वहां प्लवकों के उत्पन्न होने की अनुकूल दशाएं निर्मित होती हैं। उदाहरण के लिए न्यूफाउंडलैंड के समीप ठंडी लेब्रोडोर धारा एवं गर्म गल्फस्ट्रीम के मिलने से इस क्षेत्र में ग्रांड बैंक व जॉर्जेज बैंक जैसे मत्स्यन बैंकों का विकास हुआ है। पेरू के तट पर एंकोवीज मछलियों का वितरण भी पेरू या हम्बोल्ट ठंडी धारा से संबंध रखता है, क्योंकि ये उनके एिल प्लैंक्टन लाती है। जब एलनिनो गर्म जलधारा यहां प्रभावी होती है तो ठंडी पेरू धारा यहां सतह के ऊपर नहीं आ पाती तथा यहां मत्स्य उद्योग पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
5. जब गर्म एवं ठंडी धाराएं आपस में मिलती हैं तो तापमान के व्युत्क्रमण की दशाएं बन जाने से घने कुहरे की स्थिति बन जाती है, जिससे जलयानों के यातायात में बाधा पहुंचती है।
6. सागरीय धाराएं समुद्र में विशाल महामार्ग की भांति है, जिसका समुद्री जलयान सामान्यतः अनुसरण करते हैं।
7. गर्म जलधाराओं के कारण ही ध्रुवीय क्षेत्र के बंदरगाह पर हिम नहीं जम पाते एवं वे वर्ष भर खुले रहते हैं। उदाहरण के लिए उत्तरी अटलांटिक प्रवाह एवं उनकी शाखाओं के प्रभाव से पश्चिमी यूरोप के अधिकतर बंदरगाह वर्ष भर खुले रहते हैं। नॉर्वे इस धारा से सर्वाधिक लाभ की स्थिति में रहता है। रूस का मुर्मुंस्क बंदरगाह ध्रुवीय प्रदेश में होने के बावजूद, इस धारा के प्रभाव के कारण वर्ष भर खुला रहता है।
नाम |
प्रकृति |
नाम |
प्रकृति |
||
1. |
उत्तरी विषुवतीय जलधारा |
उष्ण अथवा गर्म |
8. |
दक्षिणी विषुवत रेखीय जलधारा |
गर्म |
2. |
क्यूरोशिवो जलधारा (जापान की कालीधारा) |
गर्म |
9. |
पूर्वी आस्ट्रेलिया धारा (न्यू साउथवेल्स धारा) |
गर्म |
3. |
उत्तरी प्रशांत प्रवाह |
गर्म |
10. |
हम्बोल्ट अथवा पेरूवियन धारा |
ठंडी |
4. |
अलास्का की धारा |
गर्म |
11. |
अंटार्कटिका प्रवाह |
ठंडी |
5. |
सुशिमा धारा |
गर्म |
12. |
प्रति विषुवतरेखीय जलधारा |
गर्म |
6. |
क्युराइल जलधारा (आयोशिवो धारा) |
ठंडी |
13. |
एलनिनो धारा |
गर्म |
7. |
कैलीफोर्निया धारा |
ठंडी |
14. |
ओखोटस्क धारा |
ठंडी |
नाम |
प्रकृति |
नाम |
प्रकृति |
||
1. |
उत्तरी विषुवतीय जलधारा |
उष्ण अथवा गर्म |
9. |
कनारी धारा |
ठंडी |
2. |
दक्षिणी विषुवत रेखीय जलधारा |
उष्ण |
10. |
ब्राजील की धारा |
उष्ण |
3. |
फ्लोरिडा की धारा |
उष्ण |
11. |
बेंगुएला धारा |
ठंडी |
4. |
गल्फस्ट्रीम या खाड़ी की धारा |
उष्ण |
12. |
अंटार्कटिका प्रवाह (द. अटलांटिक) |
ठंडी |
5. |
नॉर्वे की धारा |
उष्ण |
13. |
प्रति विषुवतरेखीय जलधारा |
उष्ण |
6. |
लैब्राडोर की धारा |
ठंडी |
14. |
रेनेल धारा |
ठंडी |
7. |
पूर्वी ग्रीनलैंड धारा |
ठंडी |
15. |
फ़ॉकलैंड धारा |
ठंडी |
8. |
इरमिंगर धारा |
गर्म |
16. |
अंटाइल्स या एंटीलीज धारा |
गर्म |
नाम |
प्रकृति |
नाम |
प्रकृति |
||
1. |
दक्षिणी विषुवत रेखीय जलधारा |
गर्म एवं स्थायी |
5. |
ग्रीष्मकालीन मानसून प्रवाह |
गर्म एवं परिवर्तनशील |
2. |
मोजाम्बिक धारा |
गर्म एवं स्थायी |
6. |
शीतकालीन मानसून प्रवाह |
ठंडी एवं परिवर्तनशील |
3. |
अगुल्हास धारा |
गर्म एवं स्थायी |
7. |
सोमाली धारा |
ठंडी |
4. |
पश्चिमी आस्ट्रेलिया धारा |
ठंडी एवं स्थायी |
8. |
दक्षिणी हिन्द महासागरीय धारा |
ठंडी |
महासागरीय जल की लवणता
लवण के प्रकार |
कुल मात्रा प्रति हजार ग्राम में (%०) |
कुल लवणता का % |
सोडियम क्लोराइड |
27.213 |
77.8 |
मैग्नीशियम क्लोराइड |
3.807 |
10.9 |
मैग्नीशियम सल्फेट |
1.658 |
4.7 |
कैल्शियम सल्फेट |
1,260 |
3.6 |
पोटेशियम सल्फेट |
0.863 |
2.5 |
कैल्शियम कार्बोनेट |
0.123 |
0.3 |
मैग्नीशियम ब्रोमाइड |
0.076 |
0.2 |
योग |
35.000 |
100.0 |
लवणता का महत्त्व
लवणता को प्रभावित करने वाले कारक
सागरीय लवणता का वितरण
लवणता का क्षैतिज वितरण
खुले सागरों की लवणता
आंशिक रूप से घिरे समुद्रों की लवणता
अंतः समुदों तथा झीलों की लवणता
महासागरीय लवणता का लंबवत् वितरण
ज्वार-भाटा
सूर्य तथा चन्द्रमा की आकर्षण शक्तियों के कारण सागरीय जल के ऊपर उठने तथा गिरने को ज्वार-भाटा कहते हैं। इससे उत्पन्न तरंगों को ‘ज्वारीय तरंग’ कहते हैं। इसके दो भाग हैं-प्रथम-ज्वार तथा दूसरा-भाटा
सागरीय जल के ऊपर उठकर आगे (तट की ओर) बढ़ने को ‘ज्वार’ तथा उस समय निर्मित उच्च जलतल को उच्च ज्वार तथा सागरीय जल के नीचे गिरकर (सागर की ओर) पीछे लौटने को भाटा तथा उससे निर्मित निम्न जल को निम्न ज्वार कहते हैं।
महासागरीय जल में सूर्य तथा चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति के फलस्वरूप ही ज्वार की उत्पत्ति होती है। चन्द्रमा के ठीक सामने का पृथ्वी का धरातल चन्द्रमा से सबसे नजदीक होता है, जबकि चन्द्रमा के धरातल से पृथ्वी का केन्द्र एवं उसका पृष्ठ भाग कहीं अधिक दूर होते हैं। गुरूत्वाकर्षण के प्रभाव की गणना में यह दूरी विशेष महत्वपूर्ण है। अतः पृथ्वी का वह भाग जो चन्द्रमा के सामने पड़ता है, चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति से सर्वाधिक प्रभावित होता है तथा इसके ठीक पीछे वाला भाग सबसे कम प्रभावित होता है। सामने पड़ने वाले भाग का जल आकर्षित होकर ऊपर की ओर उठता है, जिससे सागर में ज्वार आता है। यही स्थिति पृथ्वी के इस भाग के बिल्कुल पीछे वाले भाग में भी होती है। पीछे के भाग में जल के पीछे रहने एवं केन्द्र प्रसारी बल के सम्मिलित प्रभाव से ज्वार आता है। इस प्रकार एक ही समय में पृथ्वी पर दो ज्वार उत्पन्न होते हैं, एक तो चन्द्रमा के सामने व दूसरा उससे ठीक पीछे के भाग में। चन्द्रमा के सामने व उसके विपरीत भागों के बीच पर दो स्थान ऐसे भी होते हैं जहां से जल खिंचकर ज्वार वाले स्थान पर आ जाता है। अतः इन स्थानों पर जल सतह से नीचा रहता है। इसे भाटा कहते हैं। पृथ्वी के परिभ्रमण के कारण प्रत्येक स्थान पर चैबीस घंटे में दो बार ज्वार एवं भाटा आता है।
ज्वार-भाटा का समय-ज्ञातव्य है कि ज्वार प्रत्येक स्थान पर प्रायः दो बार आता है, लेकिन ज्वार के आने का समय नियमित रूप से एक ही नहीं रहता है। इसका मुख्य कारण यह है कि पृथ्वी 24 घंटे में अपनी कक्षा पर एक चक्कर पूरा करती है। पृथ्वी अपना यह चक्कर पश्चिम से पूर्व की ओर लगाती है। चन्द्रमा भी अपनी धुरी पर घूमते हुए पृथ्वी का चक्कर लगाता है। अतः चन्द्रमा अगले एक दिन में अपने निश्चित ज्वार केन्द्र से कुछ आगे बढ़ जाता है। इस कारण ज्वार केन्द्र को चन्द्रमा के इस नवीन केन्द्र के ठीक नीचे तक या चन्द्रमा के सामने पहुंचने में 52 मिनट का समय अधिक लगता है। इस प्रकार प्रति अगले दिन ज्वार केन्द्र को चन्द्रमा के सामने आने में कुल 24 घंटे 52 मिनट लगते हैं। इसी कारण अगला ज्वार ठीक 12 घंटे बाद न आकर 12 घंटे 26 मिनट बाद दोनों ओर आता है।
चित्र में च एवं छ चन्द्रमा की दो स्थितियां बतायी गयी हैं। यदि ज स्थान पर पहले ज्वार शाम के चार बजे आता है तो दूसरी बार ज्वार प्रातः काल 4 बजकर 26 मिनट पर आएगा। चित्र में पहली बार ज्वार के समय चन्द्रमा की स्थिति च स्थान पर है। इस च के नीचे ज स्थान पर शाम को 4 बजे ज्वार आएगा। च स्थान पर ज्वार 24 घंटे में एक पूरा चक्कर लगाकर जब अपनी प्रथम स्थिति पर पहुंचता है तब तक चन्द्रमा अपनी गति अनुसार इस ज्वार की प्रथम स्थिति से आगे बढ़कर छ स्थान पर पहुंच जाता है। अब ज स्थान के ज्वार को स स्थान तक पहुंचने में अर्थात च छ की अतिरिक्त दूरी तय करने में पृथ्वी को 52 मिनट का समय और लग जाता है। इस प्रकार एक चन्द्र ज्वार और दूसरे चन्द्र ज्वार में 24 घंटे और 52 मिनट का समय लगता है।
ज्वार-भाटा मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
(1) वृहत् अथवा दीर्घ ज्वार: ज्वार उत्पन्न करने में चन्द्रमा की भूमिका महत्वपूर्ण है, परन्तु सूर्य का प्रभाव भी ज्वार उत्पन्न करने में सहायक है। जब सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा तीनों एक सीध में होते हैं तो सूर्य और चन्द्रमा की संयुक्त आकर्षण शक्ति से वृहत् अथवा दीर्घ ज्वार उत्पन्न होता है। यहां सूर्य का प्रभाव कम दिखाई देती है, क्योंकि सूर्य पृथ्वी से औसतन 14 करोड़ 96 लाख किलोमीटर दूर है जबकि चन्द्रमा केवल 384000 किलोमीटर दूर है। चन्द्रमा की निकटता का प्रभाव ज्वार में स्पष्ट दिखायी देता है। सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी एक सीधी रेखा में प्रत्येक पूर्णमासी तथा अमावस्या को होते हैं। इस स्थिति को ‘सिजिगी’ कहते हैं। इन दिनों में वृहत् ज्वार की ऊँचाई सामान्य दिवसों की अपेक्षा 20 प्रतिशत अधिक होती है।
(2) लघु ज्वार: पूर्णमासी तथा अमावस्या के मध्य कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की सप्तमी अथवा अष्टमी की तिथियों में सूर्य और चन्द्रमा पृथ्वी के साथ समकोण बनाते हैं। समकोणीय स्थिति के द्वारा सूर्य और चन्द्रमा, महासागरीय जल को अपनी-अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इस कारण महासागरों में इस दिन पानी का उतार व चढ़ाव सबसे कम रहता है। अतः इसे लघु ज्वार कहते हैं। यहां भी चन्द्रमा के नीचे जल-तल सापेक्षतः ऊँचा रहता है।
(3) दैनिक ज्वार भाटा: एक ही स्थान पर जब एक ज्वार और एक भाटा आता है, तब इसे दैनिक ज्वार-भाटा कहते हैं। इन ज्वारों में 24 घंटे 52 मिनट का अन्तर होता है।
(4) अर्द्ध दैनिक ज्वार-भाटा: एक ही स्थान पर दो बार ज्वार आते हैं तब एक ज्वार और दूसरे ज्वार में 12 घंटे 26 मिनट का अन्तर रहता है। अर्द्ध-दैनिक ज्वार तथा भाटा में ऊँचाई तथा निचाई क्रमशः समान रहती है।
(5) मिश्रित ज्वार-भाटा: अर्द्ध-दैनिक ज्वार में असमानता को प्रकट करने की स्थिति को मिश्रित ज्वार-भाटा कहते हैं। मिश्रित ज्वार-भाटा में दोनों ज्वार और दोनों भाटों के बीच में और अन्तर पाया जाता है। जैसे इंग्लैण्ड के दक्षिण-पूर्वी तट पर चार बार ज्वार व चार बार भाटा आता है।
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