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सूर्यातप तथा तापमान

सूर्य पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है, जो पृथ्वी से औसत 15 करोड़  (14 करोड़ 96 लाख) किमी. की दूरी पर स्थित है।

सूर्य की किरणें इस दूरी को 3 लाख किमी. प्रति सेकंड (1,86,000 मील प्रति सेकंड) की गति से पूरा करती है।

सूर्य के क्रोड में हाइड्रोजन के परमाणु निरंतर नाभिकीय संलयन के द्वारा हीलियम के परमाणु में परिवर्तित रहते हैं, जिससे अपार ऊर्जा मुक्त होती है।

सूर्य की बाहरी सतह (फोटोस्फेयर) पर 6000 डिग्री सेल्सियस तापमान होता है। सूर्य लगातार अंतरिक्ष में अपनी ऊष्मा का विकिरण करता रहता है, जिसे सौर विकिरण कहते हैं। ये विकिरण लघु तरंगों के रूप में पृथ्वी तक पहुंचती हैं।

पृथ्वी सौर विकिरण का मात्र दो अरबवाँ भाग (0.0005 प्रतिशत) ही रोक पाती है। पृथ्वी पर पहुंचने वाली सौर विकिरण को सूर्यातप कहते हैं। पृथ्वी का धरातल इस विकिरित ऊर्जा को 1.94 कैलोरी प्रति वर्ग सेमी. प्रति मिनट या 1.94 लैंजली (Langley)(2 Calcm2/min.) की दर से प्राप्त करता है। इसे सौर-स्थिरांक भी कहते हैं।

वायुमण्डल के बाह्य संस्तर तक पहुंचने वाली कुल और विकिरण का मात्र 51 प्रतिशत ही पृथ्वी के धरातल तक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पहुंच पाता है। यही विकिरण हमारी पृथ्वी पर औसत 15 डिग्री सेल्सियस बनाए रखती है एवं हमारे जीवमण्डल के विकास का आधार तैयार करती है। पृथ्वी पर सूर्यातप की मात्रा और प्रति इकाई क्षेत्रफल पर उसकी प्राप्ति मुख्यतः तीन कारकों द्वारा निर्धारित होती है-

1. धरातल पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों का झुकाव

2. दिन की अवधि

3. वायुमण्डल की पारगम्यता      

सूर्य की किरणों का आपतन कोण 

पृथ्वी के गोलाकार होने के कारण सूर्य की किरणें इसके तल के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग कोण बनाती है। पृथ्वी के किसी बिन्दु पर सूर्य की किरण और पृथ्वी के वृत्त की स्पर्श रेखा के साथ बनने वाले कोण को आपतन-कोण कहते हैं। आपतन कोण सूर्याताप को दो प्रकार से प्रभावित करता है। पहला, जब सूर्य की स्थिति ठीक सिर के ऊपर होती है, उस समय सूर्य की किरणें लम्बवत् पड़ती हैं। आपतन कोण बड़ा होने के कारण सूर्य की किरणें छोटे से क्षेत्र पर संघनित हो जाती हैं, जिससे वहाँ अधिक ऊष्मा (सूर्यातप) प्राप्त होती है। यदि सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं तो आपतन कोण छोटा होता है। इससे सूर्य की किरणें बड़े क्षेत्र पर फैल जाती हैं और उनसे वहाँ कम ऊष्मा (सूर्यातप) प्राप्त होती है। दूसरे, तिरछी किरणों को सीधी किरणों (लम्बवत्-किरणों) की अपेक्षा वायुमंडल में अधिक दूरी पार करके धरातल पर आना पड़ता है। सूर्य की किरणें जितना अधिक लम्बा मार्ग पार करेंगी उतनी ही अधिक उनकी ऊष्मा वायुमंडल द्वारा सोख ली जाएगी या परावर्तित कर दी जायेगी। इसी कारण एक स्थान पर तिरछी किरणों से लम्बवत् किरणों की अपेक्षा कम सूर्यातप प्राप्त होता है।

दिन की अवधि स्थान

स्थान और ऋतुओं के अनुसार बदलती रहती है। पृथ्वी की सतह पर मिलने वाली सूर्यातप की मात्रा का दिन की अवधि से सीधा संबंध है। दिन की अवधि जितनी लम्बी होगी सूर्यातप की मात्रा उतनी ही अधिक मिलेगी। इसके विपरीत दिन की अवधि छोटी होने पर सूर्यातप कम मिलेगा।

वायुमंडल की पारदर्शकता 

वायुमंडल की पारदर्शकता भी धरातल को मिलने वाली सूर्यातप की मात्रा को प्रभावित करती है। वायुमंडल की पारदर्शकता बादलों की उपस्थिति, उनकी गहनता, धूलकण तथा जलवाष्प पर निर्भर करती है; क्योंकि वे सूर्यातप को परावर्तित, अवशोषित तथा स्थानान्तरित करते हैं। घने बादल सूर्यातप को धरातल पर पहुँचने में बाधा डालते हैं; जबकि बादलों रहित साफ आकाश धरातल पर सूर्यातप पहुँचने में बाधा नहीं डालता। इसी कारण साफ आकाश की अपेक्षा बादलों से घिरे आकाश के समय सूर्यातप कम मिलता है। जलवाष्प भी सूर्यातप को अवशोषित कर धरातल पर उसकी प्राप्ति की मात्रा कम कर देती है।

        पृथ्वी पर तापमान के वितरण में बहुत अधिक विषमता पायी जाती है। उदाहरण के लिए लीबिया का अल-अजीजिया विश्व का सबसे गर्म प्रदेश है जहां पर अधिकतम तापमान 58 डिग्री सेल्सियस पाया जाता है तो सबसे अधिक ठंड अंटार्कटिका के वोस्टाक में पड़ती है जहां तापमान -87.5 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है। अधिकतम औसत वार्षिक तापमान इथियोपिया के डलोप (35 डिग्री सेल्सियस) में है जबकि न्यूनतम औसत वार्षिक तापमान अंटार्कटिका के पोल आफ कोल्ड (-58 डिग्री सेल्सियस) में मिलता है

तापमान के वितरण को प्रभावित वाले कारक

 1. अक्षांशीय वितरण: उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में सूर्यातप की वार्षिक मात्रा सबसे अधिक होती है एवं ध्रुवों की ओर क्रमशः इसकी मात्रा में कमी आती है। 45 डिग्री अक्षांशों पर यह मात्रा विषुवत रेखा की तुलना में 75 प्रतिशत रह जाती है; आर्कटिक और अंटार्कटिक रेखाओं पर यह 50 प्रतिशत और ध्रुवों पर 40 प्रतिशत है।

2. ऊँचाई: ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान में गिरावट आती है। क्षोभमण्डल में प्रति 165 मी. की ऊँचाई पर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान घटता है। प्रति किमी. की ऊँचाई पर औसतन 6.5 डिग्री सेल्सियस की गिरावट आती है। उदाहरण के लिए किलिमंजारो पर्वत विषुवत रेखा पर है परन्तु अधिक ऊँचाई पर स्थित होने के कारण यह हिमाच्छादित प्रदेश है। इसी प्रकार गुआंगझाऊ (चीन) व कोलकाता दोनों एक ही अक्षांश पर स्थित है, परन्तु दोनों के तापमान में अंतर ऊँचाई की भिन्नता के कारण है।

3. स्थल व जल का प्रभाव-स्थल की एक इकाई की तुलना में जल की एक इकाई का तापमान बढ़ाने के लिए ढाई गुणा ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। जल देर से गर्म होता है एवं देर से ठंडा होता है जबकि स्थल पर यह प्रक्रिया तेज होती है। इसलिए महासागरों की अपेक्षा स्थलखण्डों पर तापांतर अधिक पाया जाता है।

4. समुद्री धाराएं-इन धाराओं का निकटवर्ती स्थलीय भागों के तापमान पर प्रभाव पड़ता है। गर्म धाराएं समुद्र तटीय भागों के तापमान को बढ़ा देती हैं जबकि ठंडी धाराओं के प्रभाव के फलस्वरूप तापमान में गिरावट आती है। उदाहरण के लिए गर्म समुद्री धारा गल्फस्ट्रीम का विस्तार उत्तरी अटलांटिक प्रवाह समस्त पश्चिमी यूरोपीय भाग को शीतकाल में भी अपेक्षित तापमान प्रदान करता है जिससे उनके बंदरगाह वर्ष भर खुले रहते हैं तथा मौसम सुहावना हो जाता है। इसी प्रकार दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट पर बहने वाली ठंडी बेंगुएला धारा तटीय भाग के तापमान में कमी लाती है।

5. प्रचलित वायु-ठंडी पवनें तापमान में तीव्र गिरावट लाती हैं जबकि गर्म पवनें तापमान में वृद्धि करती हैं। उदाहरणतः मिस्ट्रल पवन फ्रांस के तापमान को हिमांक तक गिरा देती है जबकि चिनूक पवन यू.एस.ए. के तापमान को बढ़ाती है, जिससे बर्फ पिघल जाती है।

 

 

वायुमण्डल का शीतलन और उष्मन

          सूर्य से ताप पृथ्वी तक आता है और पार्थिव ऊर्जा में बदल जाता है, फिर यही पार्थिव ऊर्जा वायुमण्डल के ताप का निर्धारण करती है। जब यह पार्थिव ऊर्जा ज्यादा होती है, तो वायुमण्डल गर्म हो जाता है और इसके कम होने पर वायुमण्डल ठंडा हो जाता है। वायुमण्डल के तापमान परिवर्तन अथवा उसके शीतल और गर्म होने की प्रक्रिया में निम्नलिखित चार तत्वों का योग होता है-

1. सूर्यातप

2. चालन

3. विकिरण

4. संवहन

1. सूर्यातप या सूर्य से प्राप्त प्रत्यक्ष ताप- सूर्य से वायुमण्डल को प्रत्यक्ष ताप बहुत कम मिल पाता हैं, इसलिए वायुमण्डल के ताप परिवर्तन में इसका महत्व बहुत कम होता है।

2. चालन- जिस प्रकार लोहे की छड़ को एक छोर से गर्म किया जाता है तो धीरे-धीरे दूसरा छोर भी गर्म हो जाता है, लेकिन यह दूसरा छोर अपेक्षाकृत कम गर्म हो पाता है। ठीक यही प्रक्रिया वायुमण्डल में होती है। जब धरातल का ताप घटने लगता है तो धरातलीय वायुमण्डल का ताप भी घटने लगता है। इसी क्रिया को संचालन कहते हैं, इसमें एक अणु स्पर्श द्वारा दूसरे अणु को गर्म कर देता है। दिन में जैसे-जैसे पृथ्वी का धरातल सूर्यातप से गर्म होता जाता है, वैसे-वैसे धरातल के सम्पर्क में आने वाला वायुमण्डल भी गर्म होता रहता है।

3. विकिरण- गर्म पानी या दूध को थोड़ी देर के लिए खुला रख दिया जाए, तो उसमें से तरंगें निकलती हैं और कुछ देर बाद वह ठंडा हो जाता है, यही क्रिया विकिरण कहलाती है। गर्म पृथ्वी से ताप विकिरण द्वारा वायुमण्डल में चला जाता है। वायुमण्डल में यदि बादल, धूलकण आदि होते हैं तो यह ताप निचली सतह में ही रह जाता है, अन्यथा यह धरातल से बहुत ऊँचा चला जाता है। गर्म मरूस्थलों में आकाश स्वच्छ रहता है, इसलिए विकिरण से प्राप्त ताप बहुत ऊपर चला जाता है और रातें ठंडी प्रतीत होती हैं जबकि अन्य क्षेत्रों में बादल आदि रहते हैं जिससे ताप निचली सतह में ही रहता है और गर्मी का अनुभव होता है।

4. संवहन- जब संचालन और विकिरण क्रिया द्वारा किसी स्थान की वायु गर्म हो जाती है, तो वह हल्की होकर ऊपर उठती है और रिक्त जगह को भरने के लिए आस-पास से भारी एवं ठंडी हवा नीचे आ जाती है। ठंडी और गर्म हवा के इस प्रकार ऊपर नीचे होने की क्रिया को ही संवहन कहते हैं। इस प्रक्रिया के द्वारा वायुमण्डलीय तापमान में परिवर्तन होता रहता है।

दैनिक तापान्तर

          दिन के उच्चतम एवं रात्रि के न्यूनतम तापमान के अन्तर को दैनिक तापान्तर कहते हैं। उदाहरण के लिए, दिन का अधिकतम तापमान 36 डिग्री सेल्सियस है, और रात का न्यूनतम 30 डिग्री सेल्सियस तो दैनिक तापान्तर 6 प्रतिशत (36 डिग्री - 30 डिग्री = 6 डिग्री सेल्सियस) हुआ।

          सूर्योदय के साथ तापमान बढ़ने लगता है और सूर्यास्त के साथ घटने लगता है। दोपहर में 12 बजे सूर्य की किरणें सीधी चमकती है, इसलिए इसी समय सर्वाधिक गर्मी पड़नी चाहिए, लेकिन उच्चतम तापमान 2 से 4 बजे तक रहता है। इसका कारण यह है कि धरातल पर जाने वाले सौर ताप को पार्थिव ऊर्जा में बदलने में समय लगता है। दूसरे शब्दों में 12 बजे अधिकतम सूर्यातप प्राप्त होता है लेकिन उसके विकिरण में 2-4 घंटे लग जाते हैं, जिसके बाद ही उच्चतम ताप अंकित होता है, जबकि न्यूनतम तापमान सुबह के 4-5 बजे के बीच में होता है। 

         भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में सूर्य की किरणें वर्ष भर सीधी पड़ती हैं, इसलिए दैनिक तापांतर अधिक होता है। जैसे-जैसे ध्रुवों की ओर जाते हैं, सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने लगती हैं। इससे दैनिक तापांतर भी घटता जाता है। दैनिक तापान्तर की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

1. समुद्र के किनारे के भागों पर दैनिक तापान्तर कम होता है।

2. समुद्र से जैसे-जैसे दूर जाते हैं, तापान्तर बढ़ता जाता है।

3. मैदानी भागों की अपेक्षा पहाड़ी भागों में तापान्तर अधिक होता है।

4. गर्म एवं शुष्क मरूस्थलों एवं बर्फ से ढके क्षेत्रों में तापान्तर अधिक होता है।

5. मेघाच्छादित समयावधि में भी तापान्तर कम होता है।

वार्षिक तापांतर

          एक वर्ष से अधिकतम और न्यूनतम ताप के अन्तर को वार्षिक तापान्तर कहते हैं। उदाहरण के लिए कर्क रेखा पर जनवरी में न्यूनतम तापमान और मई-जून में अधिकतम तापमान होता है। जनवरी और मई के अधिकतम तापमान के अन्तर को वार्षिक तापान्तर कहेंगे।

          पृथ्वी अपने अक्ष पर 23½ डिग्री सूर्य की ओर झुकी है। इसीलिए सूर्य पृथ्वी पर 6 माह उत्तरी गोलार्द्ध में (उत्तरायण) और 6 माह दक्षिणी गोलार्द्ध (दक्षिणायण) में सीधा चमकता है, परिणामस्वरूप ऋतु परिवर्तन होता है। सूर्य की सीधी किरणें जून में कर्क रेखा पर और दिसम्बर में मकर रेखा पर पड़ती है। इससे मई-जून में कर्क रेखा पर ग्रीष्म ऋतु और दिसम्बर-जनवरी में शीत ऋतु होती है। इसके विपरीत मकर रेखा पर दिसम्बर-जनवरी में ग्रीष्म ऋतु और जून में शीत ऋतु होती है। वार्षिक तापान्तर की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

1.       भूमध्य रेखीय क्षेत्रों में वर्ष भर तापमान एक समान रहता है, इससे वार्षिक तापान्तर बहुत कम होता है।

2.       समुद्र तटीय क्षेत्रों में वर्ष भर एक समान तापमान रहने के कारण तापांतर कम रहता है।

3.       उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल भाग की अधिकता के कारण वार्षिक तापांतर अधिक है जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में जलीय भाग की अधिकता के कारण वार्षिक तापान्तर कम है।

तापमान का अक्षांशीय वितरण

          पृथ्वी पर तापमान के अक्षांशीय वितरण को समताप रेखाओं द्वारा दर्शाया जाता है। यह वह कल्पित रेखा है, जो समान तापमान वाले स्थानों को मिलाती है। समताप रेखाओं की परस्पर दूरी ताप प्रवणता को दर्शाती है, जिसका अर्थ है तापांतर दर की तीव्रता। समीप स्थित समताप रेखाएं तापांतर की ऊँची दर को दर्शाती है और यदि समताप रेखाएं दूर-दूर हो तो यह तापांतर की धीमी दर को दर्शाती है। उत्तरी गोलार्द्ध में स्थलखंडों के विस्तार के कारण समताप रेखाएं अनियमित और पास-पास होती हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में समताप रेखाएं अपेक्षाकृत अधिक नियमित और दूर-दूर होती हैं।

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ऊष्मा बजट

          सूर्यातप और पार्थिव विकिरण में संतुलन के कारण पृथ्वी पर औसत तापमान एक समान रहता हैं। इस संतुलन को ही पृथ्वी का ऊष्मा बजट कहते हैं। ऊष्मा की कुल 100 इकाईयों में 35 इकाइयाँ पृथ्वी के धरातल पर पहुंचने के पहले ही अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाती हैं। इनमें से 6 इकाइयाँ वायुमण्डल की ऊपरी परत से परावर्तन व प्रकीर्णन द्वारा, 27 इकाइयाँ बादलों के ऊपरी छोर से तथा 2 इकाइयाँ मुख्यतः पृथ्वी के हिमाच्छादित क्षेत्रों द्वारा परावर्तित होकर वापस लौट जाती हैं। सौर विकिरण के इस परावर्तित भाग को पृथ्वी का एल्बिडो कहते हैं। शेष 65 इकाइयाँ अवशोषित होती है। उनमें 14 इकाई वायुमण्डल में तथा 51 इकाई पृथ्वी के धरातल द्वारा अवशोषित की जाती है। पृथ्वी द्वारा अवशोषित 51 इकाइयाँ पुनः पार्थिव या भौमिक विकिरण द्वारा लौटा दी जाती है। इनमें से 17 इकाइयाँ सीधे अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाती हैं जबकि 34 इकाइयाँ वायुमण्डल में प्रत्यक्ष पार्थिव विकिरण, तापीय संवहन व ऊष्मा विक्षोभ, वाष्पीकरण व संघनन की गुप्त ऊष्मा के द्वारा अवशोषित कर ली जाती है। अंततः वायुमण्डल भी सौर विकिरण से प्राप्त  14 इकाइयों व पार्थिव विकिरण से प्राप्त 34 इकाइयों अर्थात कुल 48 इकाइयों से अंतरिक्ष में परावर्तित है। अतः पृथ्वी के धरातल व वायुमण्डल से लौटने वाली विकिरण की इकाइयाँ क्रमशः 17 और 48 यानि कुल 65 हैं। इस प्रकार सूर्य से प्राप्त होने वाली 65 इकाइयों का संतुलन हो जाता है। इसे ही पृथ्वी का ऊष्मा बजट या ऊष्मा संतुलन कहते हैं।

ऊष्मा बजट विसंगति

          पृथ्वी द्वारा लघु तरंग के रूप में सौर्य विकिरण से प्राप्त ऊर्जा और दीर्घ तरंग के रूप में निष्कासित ऊर्जा के बजट का संबंध ऊष्मा बजट से है। ऊष्मा बजट के संकल्पना के अनुसार पृथ्वी जिस अनुपात में सौर्य ऊर्जा को अवशोषित करती है। उसी अनुपात में बाह्य अन्तरिक्ष में निष्कासित कर देती हैं, जिससे पृथ्वी का औसत तापमान स्थित रहता है। यदि पृथ्वी के द्वारा 100 इकाई सौर ऊर्जा की प्राप्ति लघु तरंग विकिरण के रूप में होती है तो वायुमण्डल के द्वारा 31 इकाई तो पृथ्वी की सतह के द्वारा 4 इकाई का परावर्तन लघुतरंग सौर्य विकिरण के रूप में होता है, जिससे पृथ्वी के तापमान में कोई परिवर्तन नहीं होता है। शेष अवशोषित 65 इकाई विकिरण में से 18 इकाई का वायुमण्डल के द्वारा और 47 इकाई का पृथ्वी की सतह के द्वारा अवशोषण के बाद ऊष्मा बजट में परिवर्तन होता है,जिससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है। यह ऊष्मा बजट विसंगति कहलाती है। ऊष्मा बजट विसंगति, भूमण्डलीय ऊष्मन का एक महत्वपूर्ण कारक है।

क्षैतिज या अक्षांशीय ऊष्मा संतुलन

          पृथ्वी पर सौर विकिरण द्वारा ऊष्मा की प्राप्त मात्रा व पार्थिव विकिरण द्वारा ऊष्मा की क्षय की गई मात्रा प्रत्येक स्थान पर समान नहीं होती। इसमें अक्षांशीय भिन्नता मिलती है। सामान्यतः 37½0 N-37½0 S का क्षेत्र तापाधिक्य का क्षेत्र होता है, अर्थात यहां जितना सौर विकिरण प्राप्त होता है, उससे कम मात्रा में ऊष्मा का हृास पार्थिव विकिरण द्वारा होता है। इसके विपरीत 37½0 66½0 N-S अक्षांशों के क्षेत्रों में सौर विकिरण की जितनी प्राप्ति होती है। उससे अधिक मात्रा का पार्थिव विकिरण द्वारा ऊष्मा हृास होता है जिससे यह ताप न्यूवता का क्षेत्र बन जाता है। यदि यही प्रक्रिया चलती रहती तो ये क्षेत्र क्रमशः अधिक गर्म व अधिक ठंडे होते चले जाते हैं, परन्तु ऐसा नहीं होता है। वस्तुतः सनातनी पवनें व महासागरीय धाराएं विशाल ऊष्मा ईंधन का कार्य करती हैं, जो तापाधिक्य के क्षेत्र से ताप न्यूवता के क्षेत्र में ऊष्मा का स्थानांतरण करते रहते हैं। इस प्रकार अक्षांशीय ऊष्मा संतुलन बना रहता है।

तापमान का व्युत्क्रमण या प्रतिलोमन

          सामान्य रूप से ऊँचाई बढ़ने पर तापमान में कमी आती है। जब तापमान के ऊर्ध्वाधर वितरण का यह क्रम उलट जाता है तो इसे तापमान का व्युत्क्रमण या प्रतिलोमन कहते हैं। शीत ऋतु में लम्बी रातों में तीव्र पार्थिव विकिरण से धरातल के निकट की वायु थोड़े ऊपरी भाग की वायु की तुलना में ठंडी हो जाती  है। तापमान प्रतिलोमन की यह दशा स्वच्छ आकाश, शुष्क हवा व मंद समीर की स्थिति में अधिक प्रभावी हो जाती है। यह घने कुहरे के लिए उत्तरदायी हो जाती है। तापमान के व्युत्क्रमण से उत्पन्न होने वाला कुहरा यातायात व्यवस्था में प्रायः बाधा उत्पन्न करता है। यही कारण है कि शीत ऋतु में परिवहन में कुहरे के कारण दुर्घटना होने की अधिक आशंका रहती है एवं यातायात में विलम्ब होता है।

          अन्तरपर्वतीय घाटियों में तीव्र पार्थिव विकिरण के कारण प्रायः होता है। शीत ऋतु की रात्रि में पर्वतीय ढलानों के ऊपरी भाग पार्थिव विकिरण के कारण तेजी से ठंडे हो जाते हैं एवं उसके सम्पर्क में आने वाली वायु भी ठंडी हो जाती है। इसके विपरीत घाटी की तली में विकिरण से अपेक्षाकृत कम ऊष्मा  हृास होता है। इस कारण यहां तापमान अपेक्षाकृत उच्च रहता है एवं सम्पर्क क्षेत्र की वायु भी थोड़ी गर्म रह जाती है। पर्वतीय ढलान की ठंडी व भारी वायु गुरूत्वाकार्षण के प्रभाव से नीचे की ओर विस्थापित होकर घाटियों में भर जाती है। इन पर्वतीय हवाओं को केटाबेटिक पवन कहा जाता है। ये केटाबेटिक हवाएं घाटी की तली के तापमान को कम कर देती है। इसके विपरीत घाटी की तली की गर्म वायु हल्की होकर ऊपर उठती है तथा यह एनाबेटिक पवन कहलाती हैं। इस प्रकार ऊपरी भाग में गर्म एवं निचले भाग में ठंडी वायु होने के कारण तापीय विलोमता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे घाटी में कुहरा छाया रहता है एवं पाला पड़ने की आशंका भी रहती है। तापमान के व्युत्क्रमण के कारण ही अन्तरपर्वतीय घाटियों में बस्तियां व खेत ढालों के ऊपरी भागों पर होते हैं। उदाहरण के लिए जापान के सुवा बेसिन में शहतूत की बागवानी तथा भारत में सेब की बागवानी पर्वतीय ढालों के निचले भाग में नहीं की जाती। हिमालय क्षेत्र में पर्यटकों के लिए विश्रामस्थल और होटल, ढालों के ऊपरी भागों पर ही स्थित हैं। कभी-कभी तापमान प्रतिलोमन से उत्पन्न होने वाला कुहरा लाभदायक भी होता है। उदाहरणतः ब्राजील व यमन की पहाड़ियों में कुहरे के कारण कहवे की फसल का सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से बचाव हो पाता है।

तापमान विसंगति

          किसी अक्षांश के औसत तापमान एवं उसी अक्षांश पर अवस्थित किसी स्थान के औसत तापमान के अन्तर को तापमान विसंगति कहा जाता है। जब किसी स्थान का औसत तापमान उस अक्षांश के औसत तापमान से कम होता है तो तापमान विसंगति ऋणात्मक होती है। इसके विपरीत जब किसी स्थान का तापमान उस अक्षांश के औसत तापमान से अधिक रहता है तो तापमान विसंगति धनात्मक होती है। गर्मियों में महाद्वीपीय भागों में धनात्मक व महासागरीय भागों में ऋणात्मक तापमान विसंगति देखी जाती है। इसका मुख्य कारण स्थल भाग का अपेक्षाकृत अधिक गर्म होना है। उत्तरी गोलार्द्ध में जुलाई में तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में जनवरी में ऐसी स्थिति देखी जाती है। शीत ऋतु में महासागरीय भागों में धनात्मक व महाद्वीपीय भागों में ऋणात्मक विसंगति पायी जाती है। ऐसा उत्तरी गोलार्द्ध में जनवरी में तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में जुलाई में देखा जाता है। उत्तरी गोलार्द्ध में महाद्वीपों के विस्तार के कारण तापमान की अधिकतम विसंगति पायी जाती है, जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में यह न्यूनतम रहता है।

रूद्धोष्म अथवा एडियाबेटिक ताप परिवर्तन

          जब कोई वस्तु न तो बाहरी माध्यम को ऊष्मा दे और न ही उससे ऊष्मा ले परन्तु उसके आयतन में परिवर्तन के कारण ताप में परिवर्तन हो जाए तो इसे रूद्धोष्म ताप परिवर्तन कहते हैं। जब कोई वायु गर्म होकर ऊपर उठती है तो दबाव में कमी होने के कारण उसके आयतन में वृद्धि से उसके प्रति इकाई ऊष्मा में कमी आती है एवं इस प्रकार आरोही वायु क्रमशः फैलती है एवं ठंडी होती जाती है। यह दर 6.5 डिग्री सेल्सियस प्रति 1000 मीटर होती है। इस ताप हृास दर को रूद्धोष्म ताप हृास पर कहते हैं। इसी प्रकार जब कोई वायु नीचे उतरती है तो उसके आयतन में कमी आने से उसके प्रति इकाई ऊष्मा में वृद्धि होती है, जिसे रूद्धोष्म ताप परिवर्तन कहते हैं। रूद्धोष्म ताप परिवर्तन का एकमात्र कारण वायु दाब में वृद्धि है। इसमें आरोही या अवरोही वायु के तापमान में परिवर्तन के बावजूद उसकी ऊष्मा की कुल मात्रा में परिवर्तन नहीं होता।

शुष्क रूद्धोष्म ताप परिवर्तन: किसी शुष्क वायुराशि के ऊपर उठने अथवा नीचे उतरने पर उसके तापमान में एक निश्चित दर से परिवर्तन होता है। इसे ही शुष्क रूद्धोष्म परिवर्तन कहा जाता है। शुष्क रूद्धोष्म ताप परिवर्तन की दर 100C/1000 मी. या 5.50F/1000 फीट होती है। यह वायु के सामान्य ताप पतन दर 6-50C/1000 मी. से भिन्न है, क्योंकि वायु की सामान्य पतन दर वायुमण्डल की विभिन्न ऊँचाईयों पर तापमान का सामान्य अंतर है।

आर्द्र रूद्धोष्म ताप परिवर्तन: वायुमण्डल में ऊपर उठते समय संतृप्त वायुराशि जिस दर से ठंडी होती है। उसे आर्द्र रूद्धोष्म ताप हृास दर कहा जाता है। जब कोई आर्द्र वायुराशि ऊपर उठती है, तो उसमें संघनन क्रिया तब तक प्रारंभ नहीं होती जब तक कि वह संतृप्त न हो जाए अर्थात उसकी सापेक्षित आर्द्रता शत-प्रतिशत न हो जाए। संतृप्तावस्था के पूर्व वायुराशि शुष्क रूद्धोष्म ताप हृास दर से ठंडी होती है, परन्तु जैसे ही संघनन की क्रिया प्रारंभ होती है, उसकी ताप हृास दर में कमी आ जाती है। ताप हृास दर में इस कमी का कारण संघनन की गुप्त ऊष्मा है। संतृप्त वायु राशि के नवीन ताप हृास दर को आर्द्र रूद्धोष्म ताप हृास दर या मंदित रूद्धोष्म ताप हृास दर कहा जाता है। आर्द्र रूद्धोष्म ताप परिवर्तन की दर 60C/1000 मी. या 30F/1000 फीट होती है।

ऊष्मा द्वीप

          औद्योगिक नगरों व महानगरों का तापमान आस-पास के क्षेत्रों की तुलना में अधिक होता है। यहां पक्के मकानों, सड़कों आदि निर्मित क्षेत्रों की अधिकता एवं वनस्पतियों के अभाव के कारण पार्थिव विकिरण ज्यादा होता है जो नगरीय वायुमण्डल की ग्रीनहाउस गैसों द्वारा अवशोषित कर ली जाती है। इनसे नगर का तापमान बढ़ जाता है तथा इन अपेक्षाकृत उच्च तापवाले नगरों को ही ऊष्मा द्वीप कहा जाता है। नगरीय जलवायु की समस्या के समाधान के लिए द इंटरनेशनल एसोसिएशन फार अरबन क्लाइमेट का सातवां सम्मेलन 2009 में याकोहामा (जापान) में सम्पन्न हुआ जिसका मुख्य उद्देश्य नगरीय समस्याओं को दूर कर आने वाले दिनों में शहरी जीवन को और अधिक धारणीय एवं मानवानुकूल बनाना है।

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