उच्च न्यायालय
भारतीय संविधान के अनुसार, उच्च न्यायालय राज्य न्यायपालिका का सर्वोच्च न्यायालय है । संविधान के अनुच्छेद 214 के अनुसार प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय की व्यवस्था की गयी है । यह आवश्यक नहीं की प्रत्येक राज्य के लिए एक पृथक उच्च न्यायालय हो। संविधान के अनुच्छेद 231 के अनुसार, संसद कानून द्वारा दो या दो से अधिक राज्यों या दो राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेशों के लिए संयुक्त उच्च न्यायालय की व्यवस्था कर सकती है । उच्च न्यायालय राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय है तथा राज्य के अन्य न्यायालय उसके अधीन होते है।
गठन
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या निश्चित की गयी है, परंतु राज्य उच्च न्यायालय के न्यायधीशों की संख्या निश्चित नहीं की गयी है । उनकी संख्या राष्ट्रपति पर निर्भर करती है । सभी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या समान होती है। संविधान के अनुच्छेद 216 के अनुसार प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और ऐसे अन्य न्यायाधीश होते है, जिनको राष्ट्रपति भिन्न भिन्न समय पर आवश्यकता के अनुसार नियुक्त करता है । साथ ही अनुच्छेद 224 में यह भी प्रावधान है कि नियमित न्यायाधीशों के अतिरिक्त कुछ अन्य अतिरिक्त न्यायाधीश भी दो वर्ष के लिए नियुक्त किये जा सकते है । इसके अतिरिक्त उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, राष्ट्रपति की स्वीकृति से उच्च न्यायालय के किसी सेवा-निवृत्त न्यायाधीश को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिए आग्रह कर सकता है ।
नियुक्ति
संविधान के अनुच्छेद 216 के अनुसार उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है अनुच्छेद 317 के अनुसार मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा संबंधित राज्य के राज्यपाल का परामर्श लेता है । अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा संबंधित राज्य के राज्यपाल के अतिरिक्त उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का परामर्श लेना राष्ट्रपति के लिए अनिवार्य है, परंतु संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति के लिए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श को मानना अनिवार्य है या नही 1993 के सर्वोच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण निर्णय ने यह निश्चित कर दिया है कि भारत में मुख्य न्यायाधीश की सहमति के बिना किसी उच्च न्यायालय में किसी न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं हो सकती है यदि उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश का स्थान किसी कारणवश अस्थायी रूप से रिक्त हो जाए जो राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है ।
योग्यताएं
संविधान के अनुच्छेद 217(2) के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निर्धारित की गयी है -
1. वह भारत का नागरिक हो।
2. भारत में कम से कम 10 वर्ष तक किसी न्यायिक पद पर आसीन रहा हो।
3. किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय में या एक से अधिक राज्य के उच्च न्यायालयों में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो ।
कार्यकाल
संविधान के अनुच्छेद 217 (1) के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर आसीन रह सकते है । उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का पद इस निश्चित आयु से पूर्व भी निम्नलिखित कारणों के आधार पर रिक्त हो सकता है-
1.यदि वह स्वयं त्यागपत्र दे दे।
2.यदि संसद के दोनों सदन पृथक पृथक अपनी सदस्य संख्या के बहुमत से उपस्थित एवं मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करके राष्ट्रपति को भेज दे तथा राष्ट्रपति संबंधित न्यायाधीश को अपदस्थ करने का आदेश जारी कर दे , एवं
3.यदि राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर दे या उसे किसी अन्य राज्य के उच्च न्यायालय में स्थानान्तरित कर दे।
वेतन तथा भत्ते
सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय (सेवा शर्ते) संशोधन अधिनियम 1998 के अनुसार उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2.50 लाख रूपये तथा न्यायाधीशों को 2.25 रूपये मासिक वेतन के रूप में मिलते है । इसके अतिरिक्त उन्हे कई प्रकार के भत्ते तथा सेवा निवृत्त के पश्चात पेंशन भी दी जाती है । उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते तथा नौकरी से संबंधित शर्ते संसद कानून द्वारा निश्चित करती है। न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते राज्य की संचित निधि में से दिये जाते है और उनके कार्यकाल में उसे कम नहीं किया जा सकता है।
शपथ ग्रहण
संविधान के अनुच्छेद 219 के अनुसार, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अपने पद पर आसीन होने से पूर्व राज्य के राज्यपाल या उसके द्वारा नियुक्त किये गये किसी अधिकारी के सम्मुख संविधान के प्रति निष्ठावान रहने तथा अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करकने की शपथ ग्रहण करनी पड़ती है।
स्थानांतरण
संविधान के अनुच्छेद 22 के अनुसार राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करने के पश्चात किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरण कर सकता है।
न्यायाधीशों की स्वतंत्रता
संविधान में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए कई प्रावधान किये गये है-
1.संविधान के अनुच्छेद 218 के अनुसार न्यायाधीश अपने पद का कार्यकाल निश्चित किया हुआ है । अर्थात उच्च न्यायालय में नियुक्त न्यायाधीश के कार्यकाल को संवैधानिक गारंटी दी गई है।
2.राज्य स्तर पर न्यायपालिका को वित्तीय मामलों में कुछ विशेष अधिकार प्राप्त है । इसका मूल उद्देश्य न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखना है । उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते, अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों के वेतन आदि तथा प्रशासनिक व्यय राज्य के संचित कोष से दिये जाते हैं।
उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार, शक्ति तथा कार्य
राज्य के उच्च न्यायालयों को कई प्रकार की शक्तियां प्रदान की गई है। संविधान को लागू होने के पूर्व ही उच्च न्यायालय अस्तित्व में थे । अतः उच्च न्यायालय अपने पहले के क्षेत्राधिकार बनाए हुए है। संविधान के अनुच्छेद 225 के अनुसार उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार एवं शक्तियां वही होंगी जो संविधान के प्रारंभ होने से पहले थीं ।
आरंभिक या मूल अधिकार क्षेत्र
संविधान में उच्च न्यायालय की शक्तियों का वर्णन विस्तारपूर्वक नहीं किया गया है बल्कि यह कहा गया है कि उच्च न्यायालय को वही अधिकार क्षेत्र प्राप्त होगा जो संविधान के लागू होने के पूर्व उच्च न्यायालय को प्राप्त था। इसका अभिप्राय यह हुआ कि उच्च न्यायालयों का मूल अधिकार क्षेत्र लगभग वही है जो वर्तमान संविधान लागू होने के पूर्व उन्हें प्राप्त था । निम्नलिखित अभियोगों में उच्च न्यायालय को आरंभिक क्षेत्र प्राप्त है-
1.संविधान के अनुच्छेद-226 के अनुसार मौलिक अधिकार से संबंधित कोई भी अभियोग सीधा उच्च न्यायालय में लाया जा सकता है। मौलिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए उच्च न्यायालय को निम्नलिखित पांच प्रकार के लेख जारी करने का अधिकार प्राप्त है।
1.बंदी प्रत्यक्षीकरण आदेश 2. परमादेश लेख 3. प्रतिषेध लेख 4.अधिकार पृच्छा आदेश 5. उत्प्रेषण लेख।
2.उच्च न्यायालय न केवल मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए उपर्युक्त लेख जारी कर सकते है बल्कि अन्य कार्यो के लिए भी उन्हे ऐसे लेख जारी करने का अधिकार प्राप्त है।
3.तलाक, वसीयत, जल सेना विभाग, न्यायालय का अपमान, कम्पनी कानून आदि से संबंधित अभियोग भी उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
4.मुंबई, कलकत्ता तथा चेन्नई के उच्च न्यायालयों को दो हजार रूपये या इससे अधिक राशि या इस मूल्य की सम्पत्ति से संबंधित अभियोग सुनने का मूल अधिकार क्षेत्र प्राप्त है । परंतु अन्य राज्यों के उच्च न्यायालय को आरम्भिक अधिकार क्षेत्र प्राप्त नहीं है।
अपीलीय अधिकार क्षेत्र
उच्च न्यायालयों को निम्नलिखित दीवानी तथा फौजदारी मुकदमों में अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय के विरूद्व अपीलें सुनने का अधिकार प्राप्त है।
1.उच्च न्यायालय निम्न न्यायालयों के निर्णय के विरूद्ध उन दीवानी मुकदमों की अपील सुन सकता है, जिसमें पांच हजार या इससे अधिक रकम या इतने मूल्य की सम्पत्ति का प्रश्न हो।
2.उच्च न्यायालय निम्न न्यायालयों के निर्णय के विरूद्ध ऐसे फौजदरी मुकदमों की अपील सुन सकते हैं, जिनमें निम्न न्यायालयों ने अपराधी को चार वर्ष अथवा इससे अधिक समय के लिए कैद की सजा दी हो।
3.जिले तथा सेशन जज हत्या के मुकदमों में दोषी को मृत्यु दण्ड दे सकते हैं परंतु जज द्वारा दिये गये मृत्युदण्ड की पुष्टि उच्च न्यायालयों की ओर से करवानी अनिवार्य है। उच्च न्यायालय की पुष्टि के बिना अपराधी को फांसी नहीं दी जा सकती है।
4.कोई ऐसा मुकदमा जिसमें संविधान की व्याख्या का प्रश्न हो, उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार
सर्वोच्च न्यायालय की तरह राज्य के उच्च न्यायालयों को भी कानून संबंधी न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार प्राप्त है। उच्च न्यायालय संसद तथा राज्य विधानमंडल द्वारा बनाये गये किसी ऐसे कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है, जो संविधान के किसी अनुच्छेद के विरूद्ध हों परंतु उच्च न्यायालय के ऐसे निर्णयों के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
प्रमाण-पत्र देने का अधिकार
उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। परंतु इसके लिए संबंधित उच्च न्यायालय की आज्ञा आवश्यक है। इसके बावजूद संविधान के अनुच्छेद 136 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों की आज्ञा के बिना उसके निर्णय के विरूद्ध स्वेच्छा से भी मुकदमें की अपील करने की आज्ञा दे सकता है।
निम्न न्यायालय से मुकदमें को स्थानांतरित करने का अधिकार
यदि उच्च न्यायालय के विचार में किसी निम्न न्यायालयों में चल रहे किसी मुकदमे में कानून की व्याख्या का कोई विशेष प्रश्न हो तो वह उस मुकदमे को अपने पास मंगवा सकता है । उच्च न्यायालय ऐसे मुकदमों का निर्णय स्वयं भी कर सकता है अथवा संबंधित कानून की व्याख्या करके निम्न न्यायालय को मुकदमा वापस भेज सकता है । यदि उच्च न्यायालय कानून की व्याख्या करके मुकदमा अधीनस्थ न्यायालय को वापस कर दे तो अधीनस्थ न्यायालय मुकदमें का निर्णय उच्च न्यायालय की व्याख्या के अनुसार ही करता है ।
प्रशासनिक शक्तियां
राज्यों के उच्च न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत स्थापित सभी न्यायालयों पर नियंत्रण रखने का अधिकार प्राप्त है। इसके संबंध में उच्च न्यायालय निम्नलिखित प्रशासनिक कार्य करते है-
1.अधीनस्थ न्यायालयों की कार्यवाही का विवरण मांग सकते हैं।
2.अपने अधीनस्थ न्यायालयों की कार्यवाही के संबंध में नियम बना सकते हैं।
3.अधीनस्थ न्यायालयों की कार्य प्रणाली रिकार्ड, रजिस्टर तथा हिसाब-किताब आदि रखने के सम्बंध में नियम निर्धरित कर सकते हैं।
4.उच्च न्यायालय, किसी मुकदमें को अपने किसी अधीनस्थ न्यायालय से किसी दूसरे अधीनस्थ न्यायालय में स्थानांतरित कर सकते हैं।
5.उच्च न्यायालय, अपने अधीनस्थ न्यायालयों के रिकार्ड, कागज-पत्र आदि निरीक्षण के लिए मंगवा सकते हैं।
6.उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों के कर्मचारियों के वेतन, भत्ते तथा सेवा आदि के नियम निर्धारित कर सकते हैं।
7.उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, न्यायालय के कर्मचारियों की नियुक्ति कर सकता है। इस संबंध में राज्यपाल उसे लोकसेवा आयोग का परामर्श लेने के लिए कह सकता है।
अधिकार क्षेत्र का विस्तार
संविधान के अनुच्छेद 230 के अनुसार संसद कानून द्वारा किसी राज्य के उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में न्यायिक कार्यो के लिए किसी केंद्र शासित प्रदेश को सम्मिलित कर सकती है या उसको अधिकार क्षेत्र से बाहर निकाल सकती है।
अभिलेख न्यायालय
संविधान के अनुच्छेद 215 के अनुसार प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायलय लेख न्यायालय में सभी निर्णय एवं कार्यवाहियों को प्रमाण के रूप में प्रकाशित किया जाता है और उसके निर्णय सम्बंधित राज्य के सभी न्यायालयों में भी माने जाते हैं। इसके निर्णय अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों में प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं परंतु अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों के लिए इस निर्णय को मानना अनिवार्य नहीं है। जब किसी न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्तर प्रदान किया जाता है तो वह न्यायालय किसी भी व्यक्ति को न्यायालय का अपमान करने के अपराध में दण्ड दे सकता है। राज्यों के उच्च न्यायालयों को न्यायालय का अपमान करने के दोष में दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।
अतः राज्यों के उच्च न्यायालय भारतीय न्यायपालिका के महत्वपूर्ण अंग है। राज्य का सबसे बडा न्यायालय होने के कारण राज्य के अन्य न्यायालय उसके अधीन कार्य करते हैं। राज्य की कार्यपालिका तथा विधायिका से सर्वोच्च न्यायालय की भांति राज्य के उच्च न्यायालयों को भी स्वतंत्रता प्रदान की गई है। राज्य के उच्च न्यायालयों के संबंध में वे सभी सिद्वांत अपनाये गये हैं जो स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए अनिवार्य हैं।
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