भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण
उपनिवेशवाद एक विस्तारवादी अवधारणा है जिसके तहत किसी देश का आर्थिक शोषण एवं उत्पीड़न होता है । इसके तहत एक राष्ट्र द्वारा किसी अन्य राष्ट्र की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना पर नियंत्रण किया जाता है । नियंत्रण करने वाला देश मातृ देश कहलाता है । इस तरह उपनिवेश के अंदर बनाई गई नीतियों का मुख्य लक्ष्य मातृ देश को लाभ पहुंचाना होता है इस दृष्टि से ब्रिटिश ने अपने भारतीय उपनिवेश से आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए समय-समय पर विभिन्न नीतियां बनाई । भारत में उपनिवेशवाद को तीन चरणों में बांटा जा सकता है-
- वाणिज्यिक चरण- 1757 से 1813 तक
- उद्योग मुक्त व्यापारिक चरण- 1813 से 1858 तक
- वित्तीय पूंजीवाद का चरण- 1860 के बाद
उपनिवेशवाद का प्रथम चरण
- उपनिवेशवाद के प्रथम चरण जिसकी शुरुआत प्लासी के युद्ध के बाद होती है । इसमें ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय व्यापार पर पूर्ण रूप से कब्जा कर लिया ।
- उपनिवेशवाद के प्रथम चरण में कंपनी, ब्रिटेन तथा यूरोप के अन्य देशों में कम कीमत पर तैयार भारतीय माल का निर्यात कर अच्छी कीमत वसूला करती थी ।
- उपनिवेशवाद के प्रथम चरण में ब्रिटिश कंपनी का पूरा ध्यान आर्थिक लूट पर ही केंद्रित रहा इसलिए इस चरण में व्यापारिक एकाधिकार के लिए इन्हें पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसी कंपनियों से कई युद्ध करने पड़े ।
इस चरण में ब्रिटिशों के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-
- भारत के व्यापार पर एकाधिकार करना
- राजनीतिक प्रभाव स्थापित कर राजस्व प्राप्त करना
- कम से कम मूल्यों पर वस्तुओं को खरीदकर यूरोप में उन्हें अधिक से अधिक मूल्य पर बेचकर अधिक से अधिक लाभ कमाना
- अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों को हर संभव तरीके से बाहर निकालना
- भारतीय प्रशासन, परंपरागत न्यायिक कानूनों, यातायात संचार तथा औद्योगिक व्यवस्था में विशेष मौलिक परिवर्तन किए बगैर पूंजी प्राप्त करना
- ब्रिटिश की आर्थिक नीति से उद्योग धंधों का ह्रास हुआ परिणामतः राष्ट्रीय धन का एकमात्र स्रोत कृषि रह गया और अधिकतर जनसंख्या कृषि पर निर्भर रहने लगी ।
- इस तरह उपनिवेशवाद का पहले चरण में कंपनी का एकमात्र उद्देश्य किसी तरह यहां से धन को लूटना था। 1765 से 1772 के काल को प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार के. एम. पणिक्कर ने डाकू राज्य कहा ।
उपनिवेशवाद का द्वितीय चरण
- उपनिवेशवाद का द्वितीय चरण औद्योगिक पूंजीवाद 1813 से 1858 तक माना जाता है ।
- 1813 में भारत के व्यापार से कंपनी का एकाधिकार समाप्त हो गया । इसके बाद औद्योगिक पूंजीवाद द्वारा भारत की शोषण का नया रूप सामने आया । इस चरण में इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति को ध्यान में रखकर नीतियां बनाई गई इंग्लैंड में बड़े पैमाने पर उद्योगों की स्थापना की गई ।
- ध्यातव्य है कि 1765 से 1785 के बीच अनेक वैज्ञानिक आविष्कार हुए, जैसे- कटाई की मशीन, स्टीम इंजन, पावर लूम, वाटर फ्रेम आदि । उद्योगों की स्थापना होने से जहां एक तरफ कच्चे माल एवं खाद्यान्न की आवश्यकता महसूस हुई वहीं दूसरी ओर कारखाना निर्मित उत्पादों की बिक्री के लिए एक बड़े बाजार की आवश्यकता भी पड़ी परिणाम स्वरूप इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ब्रिटिश ने भारत में नई नीतियां लागू कीं ।
- 1813 का चार्टर एक्ट पारित करके भारत के प्रति ब्रिटेन ने मुक्त व्यापार नीति अपनाई । चाय और चीन से व्यापार को छोड़कर कंपनी का भारतीय क्षेत्र से व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया और प्रत्येक ब्रिटिश व्यापारी के लिए भारत का दरवाजा खोल दिया गया । अब भारत कच्चे माल का निर्यातक एवं तैयार माल का आयातक बनकर रह गया।
- कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त हो जाने के बाद सस्ती लागत पर तैयार ब्रिटेन के कपड़ों को भारतीय बाजारों में बेचा जाने लगा । यह कपड़े मिलों में तैयार होते थे इसलिए हाथ से बने भारतीय कपड़ों से सस्ते होते थे परिणाम स्वरूप अंग्रेजी कपड़ों की सस्ती कीमतों के आगे भारतीय महंगे कपड़े टिक नहीं सके इसलिए भारतीय वस्त्र उद्योग का पतन हुआ ।
- देश में खाद्यान्न फसलों की जगह अब वाणिज्य फसलों को अधिक उपजाया जाने लगा । परिणाम स्वरूप देश में अनाज की कमी से खाद्यान्न के मूल्य में वृद्धि हुई ।
- इस चरण की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रेलवे का विकास था हालांकि रेलवे का विकास भारत की प्रगति की दृष्टि से नहीं बल्कि अंग्रेजों की सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं के कारण किया गया था । ऐसा इसलिए क्योंकि भारत से कच्चे माल के निर्यात और ब्रिटेन के कारखानों में उत्पादित माल के आयात तथा इसके आंतरिक विक्रय के लिए देश में परिवहन साधनों के विकास की आवश्यकता थी । इसके विकास का दूसरा कारण ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के लिए सेना को दूरदराज क्षेत्रों तक पहुंचाना था ताकि ब्रिटिश साम्राज्य केविरुद्ध होने वाले किसी भी बिद्रोह को बिना किसी देरी के दबाया जा सके।
उपनिवेशवाद का तृतीय चरण
- उपनिवेशवाद का तृतीय चरण वित्तीय पूंजीवाद 1858 से 1947 तक माना जाता है ।
- उपनिवेशवाद का यह चरण प्रथम दो चरणों की ही तार्किक परिणति था जिसके अंतर्गत उन चरणों की शोषण प्रक्रिया तो जारी रही लेकिन उसके रूप में परिवर्तन आया ।
- 1857 के विद्रोह, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में बदलाव,इंग्लैंड के बाहर अन्य यूरोपीय देशों में बढ़ते औद्योगीकरण से प्रतिस्पर्धा आदि कारणों ने भारत में उपनिवेशवाद के एक नवीन चरण को जन्म दिया, जिसे वित्तीय पूंजीवाद की संज्ञा दी जाती है ।
- वित्तीय पूंजीवाद के दुष्परिणामों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पहले से भी अधिक खोखला बना दिया । इस दौरान भारतीयों को सार्वजनिक ऋण पर ब्याज की अदायगी करनी पड़ती थी जिससे पूंजी निर्माण में निवेश की प्रक्रिया कमजोर होती चली गई ।