जनजातीय विद्रोह
खोंड एवं सवार विद्रोह
खोंड जनजाति के लोग उड़ीसा से लेकर बंगाल और मध्य भारत तक फैले थे। इन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध विद्रोह किया।
खोंड लोगों के विद्रोह का मुख्य कारण था- सरकार द्वारा नये करों को लगाने का भय, उनके क्षेत्रों में जमींदारों और साहूकारों का प्रवेश, खोंडो में प्रचलित नर बलि प्रथा (मोरिया) पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाना आदि।
खोंड विद्रोह का नेतृव चक्र बिसोई ने किया 1855 में चक्र बिसोई लापता हो गया, जिसके बाद 1856 में राधाकृष्ण दंडसेना के नेतृत्व में सवार आंदोलन शुरू हुआ।
1857 में दंडसेना को फाँसी पर लटका दिये जाने से आंदोलन समाप्त हो गया।
कोल विद्रोह (1831-32)
कोल विद्रोह का एक क्षेत्र छोटा नागपुर पठार था। इस आंदोलन के प्रमुख नेता बुद्धो भगत थे।
इस विद्रोह का स्वरूप आर्थिक व राजनैतिक था। विद्रोह के पनपने का सर्वप्रमुख कारण उस इलाके के जमींदार व ठेकेदारों द्वारा भूमि कर को अत्यधिक बढ़ाना था। साथ ही अंग्रेजों द्वारा लागू भू-राजस्व व्यवस्था और छोटा नागपुर के राजा द्वारा स्थानीय आदिवासियों को भूमि न देकर दिकुओं (बाहरी लोग)को उच्च लगान पर भूमि देने के कारण कबीले के सरदार व अन्य आदिवासी अपनी सत्ता और भूमि से वंचित हो गए और उन्होंने विद्रेह का रूख अपनाया।
छोटा नागपुर क्षेत्र में मुंडा, ओराव, हो, महाली आदि जनजातियाँ निवास करती हैं। इन्हें मैदानी लोग कोल कहते हैं। लूट-मार और तबाही इसके विरोध के प्रमुख ढंग थे।
यह विद्रोह सिंहभूम, पलामू, हजारीबाग, मानभूम आदि क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैला।
1831 में बुद्धो भगत सहित हजारों विद्रोही मारे गए । इसके बाद गंगा नारायण ने 1832 में इसका नेतृत्व किया । यह विद्रोह रूक-रूककर 1848 तक चलता रहा, बाद में इसे कुचल दिया गया।
हूल/संथाल विद्रोह (1855-56)
इस विद्रोह के मुख्य नेता सिद्वो और कान्हू थे तथा इस विद्रोह का प्रमुख क्षेत्र दामन-एकोह/संथाल परगना (भागतपुर से राजमहल की पहाड़ियों का क्षेत्र) था। संथाल पूर्वी भारत के विभिन्न जिलों, जैसे- बीभूम, बाँकुड़ा पलामू, छोटा नागपुर इत्यादि में फैले थे।
संथाल विद्रोह का कारण अंग्रेजी उपनिवेशवाद, महाजनों द्वारा अत्यधिक ब्याज वसूली, पुलिस के भ्रष्टाचार, संथालों की गरीबी, अंग्रेजी अदालतों से न्याय न मिलना या देरी से मिलता और अपनी जमीनों से बेदखल किया जाना आदि रहे।
इस विद्रोह का प्रसार इतनी तेजी से हुआ कि भागलपुर और राजमहल के क्षेत्र में कंपनी का शासन लगभग समाप्त हो गया ।
इस विद्रोह का प्रसार इतनी जेजी से हुआ कि भागलपुर और राजमहल के क्षेत्र में कंपनी का शासन लगभग समाप्त हो गया।
इस विद्रोह में बाहरी निचली जातियों के किसान भी संथालों का समर्थन और सहायता कर रहे थे।
विद्रोह का स्वरूप इतना भयानक था कि विद्रोहियों ने डाक घर, रेलवे स्टेशन और पुलिस स्टेशन को लूटकर आग लगा दी।
अगस्त 1855 में सिद्धो और फरवरी में 1856 में कान्हु पकड़ा गया।
ब्रिटिश सरकार ने एक बड़ी सैनिक कार्यवाही करके 1856 में भागलपुर के कमिश्नर ग्राउन और मेजर जनरल लायड के नेतृत्व में संथाल विद्रोह को क्रूरता पूर्वक दबा दिया ।
संथाल विद्रोह शान्त हो जाने के बाद नवंबर 1856 में विधिवत संथाल परगना जिला की स्थापना की गई और एशली एडेन को प्रथम जिलाधीश बनाया गया।
अंग्रेज सरकार ने भूमि का स्वामित्व जनजातियों के लिए निर्धारित करते हुए उनके संरक्षण हेतु भूमि कानून संथान परगना काश्तकारी अधिनियम बनाया जिसके तहत किसी संथाल का गैर-संथाल को भूमि अंतरण करना गैर-कानूनी हो गया।
मुंडा विद्रोह (1899- 1900)
बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ यह विद्रोह छोटा नागपुर (वर्तमान झांरखंड में स्थिति) के क्षेत्र में इस अवधि का सर्वाधिक चर्चित आदिवासी विद्रोह था।
मुंडाओं की पारंपरिक भूमि व्यवस्था खूँटकट्टी (एक तरह की सामूहिक खेती) का जमींदारी या व्यक्तिगत भू-स्वामित्व वाली भूमि व्यवस्था में परिवर्तन के विरूद्ध बिरसा मुंडा द्वारा विद्रोह की शुरूआत हुई, लेकिन कालांतर में बिरसा मुंडा ने इसे धार्मिक-राजनीतिक आंदोलन का रूप प्रदान किया।
बिरसा मुंडा विद्रोह को ’उल्गुलान विद्रोह’ (महान हलचल) के रूप में भी जाना जाता है।
सन् 1899 में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर बिरसा ने मुंडा जनजाति का शासन फिर से स्थापित करने के लिये ठेकेदारों, जागीरदारों, राजाओं, हाकिमों के विरूद्ध विद्रोह का आह्वान कर दिया। ब्रिटिश समर्थकों व मुंडा जनजाति के बीच भयंकर युद्ध हुआ।
इस विद्रोह में महिलाओं की भूमिका भी उल्लेखनीय रही।
फरवरी 1900 में बिरसा मुडा को सिंहभूमि में गिरफ्तार कर राँची जेल में डाल दिया गया। जून 1900 में जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई।
आन्दोलन का परिणाम यह रहा कि आदिवासियों ने कुछ रियासत मिली। खूँटकट्टी अधिकारों को मान्यता मिली और बैठ बेगारी (जबरन बेगारी) पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
चुआर विद्रोह (1768)
बढ़े भू-राजस्व, अकाल एवं अन्य संकटों के कारण मेदिनी पुर जिले (बंगाल) की आदिम जाति के चुआर लोंगो ने अंग्रेज प्रशासन के विरूद्ध 1768 में हथियार उठा लिया। इनका नेतृत्व दल भूमि कैलापाल, ढोल्का तथा बाराभूम के राजाओं ने मिलकर किया था।
ध्यातव्य है कि 1760 में संपूर्ण मेदिनीपुर जिले पर ब्रिटिश कंपनी का कब्जा हो गया और 1765 में आस-पास के क्षेत्रों और महाल पर भी कब्जा हो गया था। 1768 में दलभूम के शासक जगन्नाथ दल ने अपने क्षेत्र को उजाड़ कर वीरान कर दिया ताकि कंपनी को इस क्षेत्र पर अधिकार करने पर कुछ लाभ प्राप्त न हो । चुआरों को संगठित कर उसने कंपनी के विरूद्ध बगावत कर दिया, बगावत का बिगुल बजते ही ढोल्का, कैलापाल तथा बाराभूम के राजाओं ने जगन्नाथ दल का साथ दिया। नवाबगंज और झरिया के राजाआं ने कंपनी को राजस्व न देने की घोषणा कर दी। लगभग तीन दशक तक कम्पनी चुआर विद्रोह से अशान्त रही, किंतु धीरे-धीरे यह विद्रोह शान्त हो गया।
खासी विद्रोह (1827-33)
बंगाल के पूरब में जयंतिया और पश्चिम मे गारो पहाड़ियों (मेघालय) के बीच खासी लोग निवास करते थे।
1824 में ब्रम्हापुत्र नदी घाटी क्षेत्र पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। असम व सिलहट के बीच सैन्य मार्ग स्थापित करने हेतु एक सड़क योजना बनाई गई। खासी मुखिया तीरत सिंह ने इसका विरोध किया तथा अन्य लोगों की सहायता से विद्रोह कर दिया।
सन् 1833 में सैन्य कार्रवाई द्वारा इस विद्रोह को दबा दिया गया।
रमोसी विद्रोह (1822,1825-26,1839-41)
अंग्रेजों के सम्राज्यवादी आर्थिक शोषण (अकाल और भूख की समस्या) से क्षुब्ध होकर पश्चिमी घाट (महाराष्ट्र) में रहने वाली आदिम जनजाति रमोसी ने उनके विरूद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। इस संघर्ष का नेतृत्व चित्तर सिंह एवं नर सिंह दत्तात्रेय पेतकर ने प्रदान किया।
1822 में चित्तर सिंह के नेतृत्व में रमोसियों ने सतारा के आसपास का क्षेत्र लूट लिया तथा फिर से 1825-26 में पड़े भयानक अकाल से प्रभावित रमोसियों ने उमाजी के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह प्रारंभ कर दिया ।
कालांतर में सितंबर 1839 में सतारा के राजा प्रताप सिंह को पदच्युत कर देने एवं उनके देश निष्कासन से पर विद्रोह पुनः भड़क उठा। 1840-41 में बड़े दंगे हुए नरसिंह दत्तात्रेय पेतकर ने विद्रोह कर बादामी का दुर्ग जीतकर उस पर सतारा के राजा का ध्वज फहरा दिया। अंग्रेजी सेना ने बाद में विद्रोह को दबा दिया गया।
रंपा विद्रोह
यह विद्रोह आंध्र प्रदेश के गोदावरी नदी के उत्तरी क्षेत्र रंपा में हुआ। आदिवासियों का यह विद्रोह साहूकारों द्वारा शोषण, वन कानूनों का उलंघन, सूदखोरी, बेगारी के विरूद्ध था।
रंपा क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण विद्रोह 1822-24 के बीच अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में लड़ा गया, जो गैर आदिवासी नेता थे।
सीताराम राजू को गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रेरणा प्राप्त हुई, लेकिन वे आदिवासी कल्याण हेतु हिंसा को आवश्यक समझते थे।
विद्रोह में गुरिल्ला युद्ध की नीति का अनुसरण किया गया ।
मणिपुर/नागा विद्रोह
इस आंदोलन का प्रारंभ रोंगमई जदोनांग ने किया । इस आंदोलन का उदेश्य सामाजिक एकता लाना, पुराने रीति-रिवाजों को खत्म करना तथा प्राचीन धर्म को पुनर्जीवित करना आदि था।
अगस्त 1931 में ब्रिटिश सरकार द्वारा जदौनांकग को फाँसी दे देने के बाद इस आंदोलन को 17 वर्षीय नागा युवती गैडिनल्यु ने अपना नेतृत्व प्रदान किया ।
गैडिनल्यु ने अपने आदिवासी आंदोलन को गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन से जोड़ा और कष्टकारी करों और कानूनों की अवज्ञा करने का आदेश दिया।
अक्टूबर 1932 में गैडिनल्यु को गिरफ्तार कर लिया गया। भारत की स्वतंत्रता के बाद गैडिनल्यु की रिहाई हुई।
जवाहरलाल नेहरू तथा आजाद हिंद फौज ने गैडिनल्यु को रानी की उपाधि से सम्मानित किया। रानी के जदोनांग के धार्मिक विचारों के आधार पर ’होर्कापंथ’ की स्थापना की।
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