प्रमुख किसान विद्रोह और आंदोलन
भारतीय कृषक लगान की ऊँची दरों, अवैध करों, भेदभावपूर्ण बेदखली एवं जमींदारी क्षेत्रों में बेगार जैसी बुराइयों से त्रस्त थे। रैयतवाड़ी क्षेत्रों में सरकार ने स्वयं किसानों पर भारी कर आरोपित कर दिये। इन विभिन्न कठिनाइयों के बोझ से दबे किसान, अपनी जीविका के एकमात्र साधन को बचाने के लिए महाजनों से ऋण लेने हेतु विवश हो जाते थे। ये महाजन उन्हें अत्यंत ऊँची दरों पर ऋण देकर उन्हें ऋण के जाल में फांस लेते थे। अनेक अवसरों पर तो किसानों को अपनी भूमि एवं पशु भी गिरवी रखने पड़ते थे कभी-कभी ये सूदखोर या महाजन किसानों की गिरवी रखी गयी सम्पत्ति को भी जब्त कर लेते थे। इन सभी कारणों से कृषक धीरे-धीरे निर्धन लगानदाता तथा मजदूर बन कर रहे गये। बहुत से कृषकों ने कृषि कार्य छोड़ दिया, कृषि भूमि रिक्त पड़ी रहने लगी तथा कृषि उत्पादन कम होने लगा।
यदा-कदा किसानों ने अपने अत्याचारों का विरोध भी किया तथा शीघ्र ही वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उनका मुख्य शत्रु उपनिवेशवादी शासन है। कभी-कभी उत्पीड़न की पराकाष्ठा हो जाने पर किसानों ने आपराधिक कार्य भी किये। इन अपराधों में डकैती, लूट एवं हत्यायें जैसी घटनायें शामिल थीं।
नील विद्रोह (1859-60)
- नील आंदोलन के इतिहास में अपनी मांगों को लेकर किये गये आंदोलनों में सर्वाधिक व्यापक और जुझारू विद्रोह नील विद्रोह था बंगाल का नील विद्रोह शोषण के विरूद्ध किसानों की सीधी लड़ाई थी।
- बंगाल के वे काश्तकार जो अपने खेतों में चावल की खेती करना चाहते थे, उन्हें यूरोपीय नील बागान मालिक नील की खेती करने के लिए मजबूर किया करते थे।
- नील की खेती करने से इंकार करने वाले किसानों को नील बागान मालिकों के दमनचक्र का सामना करना पड़ता था।
- सितंबर, 1859 में उत्पीड़ित किसानों ने अपने खेतों में नील न उगाने का निर्णय लेकर बागान (नील) मालिकों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया।
- नील विद्रोह की पहली घटना बंगाल के नदिया जिला में स्थित गोविन्दपुर गांव में सितंबर, 1859 में हुई। स्थानीय नेता दिगम्बर विश्वास और विष्णु विश्वास के नेतृत्व में किसानों ने नील की खेती बंद कर दी।
- 1860 तक नील आंदोलन नदिया, पावना, खुलना, ढाका, मालदा, दीनाजपुर आदि क्षेत्रों में फैल गया। किसानों की एकजुटता के कारण बंगाल में 1860 तक सभी नील कारखाने बंद हो गये।
- नील विद्रोह को बंगाल के बुद्धिजीवियों, प्रचार माध्यमों, धर्म प्रचारकों और कहीं-कहीं छोटे जमींदारों और महाजनों का भी सहयोग प्राप्त हुआ।
- बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग ने अखबारों में अपने लेख द्वारा तथा जनसभाओं के माध्यम से विद्रोह के प्रति अपने समर्थन को व्यक्त किया। इसमें हिन्दू पैट्रियाट के संपादक हरिश्चंद्र मुखर्जी की विशेष भूमिका रही।
- नील बागान मालिकों के अत्याचार का खुला चित्रण दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक नील दर्पण में किया है।
- 1860 में नील आयोग के सुझाव पर जारी की गई सरकारी अधिसूचना जिसमें उल्लेख था कि ‘रैय्यतों को नील की खेती करने के लिए बाध्य नहीं किया जाये तथा यह सुनिश्चित किया जाये कि सभी प्रकार के विवादों का निपटारा कानूनी तरीके से किया जाय।’’ इसका आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिससे आंदोलनकारियों को एक बड़ी सफलता मिली।
- इस विद्रोह या आंदोलन के सफल होने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण था किसानों में अनुशासन, एकता, संगठन तथा सहयोग की भावना।
- नील विद्रोह भारतीय किसानों का पहला सफल विद्रोह था, कालांतर में भारत के स्वाधीनता संघर्ष में यह सफलता प्रेरणा बन गई।
पावना विद्रोह (1873-76)
- 1870 से 1880 के बीच का दशक बंगाल के लिए किसान आंदोलनों का दशक था।
- पावना आंदोलन के प्रमुख नेता ईशान चंद्र राय तथा शंभुपाल थे।
- पावना क्षेत्र जो पटसन की कृषि हेतु प्रसिद्ध है, के 50 प्रतिशत से अधिक किसानों को 1850 के (अधिनियम दस) के द्वारा जमीन पर कब्जे का अधिकार तथा कुछ सीमा तक लगान में वृद्धि के लिए संरक्षण प्राप्त था।
- पावना के किसानों को अधिनियम दस द्वारा मिली सुविधाओं के बावजूद भी जमींदारों को शोषण का शिकार होना पड़ता था। 1793 से 1882 के बीच लगान में करीब 7 गुना वृद्धि तथा भूमि की नाप-जोख हेतु छोटे मापों के प्रयोग जैसी ज्यादतियों का किसानों को सामना करना पड़ता था।
- जमींदारों के अत्याचार के विरूद्ध 1873 में पावना जिले के यूसुफशाही परगने में एक ‘एक किसान संघ’ की स्थापना हुई। इस संघ ने किसानों को संगठित करने, लगान न देने, जमींदारों के विरूद्ध मुकदमें के खर्च के लिए चंदा एकत्र करने जैसे कार्य किये।
- साहूकारों और महाजनों के चंगुल से बचने के लिए 1874 में सिरूर तालुका के करडाह गांव में विद्रोह प्रारम्भ हुआ, जो देखते-देखते छः तालुकों के 33 स्थानों तक फैल गया।
- आंदोलनकारियों का उद्देश्य था, साहूकार ऋणदाताओं के पस रखे हुए ऋण पत्रों, डिग्रियों आदि को छीन कर नष्ट करना, साहूकारों के साथ व्यक्तिगत हिंसा का प्रयोग केवल तभी हुआ जब वे दस्तावेजों को बचाना चाहे।
- 12 मई, 1875 को भीमरथी तालुका के ‘सूपा’ कस्बे में यह आंदोलन हिंसक हो गया, शेष स्थानों पर यह आंदोलन अहिंसक रहा।
- दक्कन विद्रोह के समय महाजनों का सामाजिक बहिष्कार किया गया जिसके अन्तर्गत उनकी दुकानों से सामान खरीदने उनके खेत को जोतने आदि पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
- बुलोटीदार जिसे गांव की परजा भी कहा जाता था में नाई, धोबी, बढ़ई, मोची तथा लुहार शामिल थे को जमींदारों के कार्य करने से रोका गया।
- दक्कन विद्रोह के समय सामाजिक बहिष्कार का आंदोलन पूना, अहमदाबाद, शोलापुर एवं सतारा जिले तक फैजा था।
- सरकार द्वारा इस विद्रोह के कारणों और प्रकृति को जांचने के लिए नियुक्त आयोग ने गरीबी और इसके परिणामस्वरूप किसानों की ऋणग्रस्तता को ही विद्रोह का एकमात्र कारण बताया।
- आयोग की सिफारिश पर सरकार द्वारा पारित कृषक राहत अधिनियम 1873 व्यवस्था की गई कि सिविल प्रोसीड्यर के क्रियान्वयन के अन्तर्गत किसानों की जमीनों को जब्त नहीं किया जायेगा।
- पावना के अलावा यह विद्रोह ढाका, मैमन सिंह, बिदुरा, बाकरगंज, फरीदपुर, बोगुरा और राजशाही में भी फैल गया।
- पावना विद्रोह की प्रमुख विशेषता थी, इसका कानून के दायरे में रहना। किसानों की यह लड़ाई केवल जमींदारों से थी।
- आंदोलनकारियों का नारा था कि ‘हमें महारानी सिर्फ महारानी की रैय्यत होना चाहते हैं।’
- सरकार ने भारतीय दंड संहिता के दायरे में ही इस आंदोलन को दबाने का प्रयास किया। अंग्रेज लेफ्टिनेंट गवर्नर कैंपबेल ने पावना विद्रोह का समर्थन किया।
- इस आंदोलन की एक विशेषता यह भी थी कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलनरत रहें, सांप्रदायिक सौहार्द का यह एक अनूठा उदाहरण था।
- बंगाल के बुद्धिजीवी बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय तथा आर.सी. दत्त ने पावना आंदोलन का समर्थन किया।
- इंडियन एसोसिएशन के सदस्य सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस, द्वारकानाथ गांगुली आदि ने किसानों की रक्षा हेतु अभियान चलाया।
दक्कन विद्रोह (1874-75)
- महाराष्ट्र के पुणे और अहमदनगर के (दक्कन) जिलों में किसानों ने साहूकारों के खिलाफ विद्रोह किया।
- 1867 में सरकार द्वारा लगान की दर में 50 प्रतिशत वृद्धि कर देने तथा कई वर्ष से लगातार फसल खराब होने के कारण किसानों को लगान की अदायगी हेतु साहूकारों पर निर्भर होना पड़ा।
- दक्कनी साहूकारों में अधिकांश बाहरी मारवाड़ी तथा गुजराती थे जिनसे लगान अदायगी के लिए किसानों को कर्ज लेना होता था, कर्ज देने के बदले साहूकार किसानों के घर और जमीन को रेहन रखते थे, इस तरह किसान बिल्कुल महाजनों के चंगुल में होता था।
मोपला विद्रोह
- मोपला लोग केरल के मालाबार क्षेत्र में रहने वाले इस्लाम धर्म में धर्मांतरित अरब एवं मलयाली मुसलमान थे।
- अधिकांश मोपला छोटे किसान या छोटे व्यापारी थे, जो अपनी गरीबी और अशिक्षा के कारण थंगल कहे जाने वाले काजियों और मौलवियों के प्रभाव में थे।
- मोपला किसान मालाबार के हिन्दू नम्बूदरी एवं नायर उच्च जाति, भूस्वामियों के बटाईदार या असामी काश्तकार थे।
- नम्बूदरी और नायर जैसे उच्च जाति के भूस्वामियों को शासन, पुलिस और न्यायालय से संरक्षण प्राप्त था।
- मोपला या मोप्पला विद्रोह इसलिए सांप्रदायिक हो गया क्योंकि अधिकांश जमींदार या भूस्वामी हिन्दू थे और काश्तकार (अधिकांश) मुसलमान थे।
- मोपला विद्रोह 19वीं शताब्दी में अत्यधिक आत्मघाती हो गया था क्योंकि इन मोपलाओं के मन में यह भावना घर कर गई थी कि जो मोपला लड़ते हुए मारा जायेगा वह ‘अहदियों’ की तरह सीधे स्वर्ग जायेगा।
- 19वीं सदी में 1836 से 54 के बीच मोपलाओं के 22 विद्रोह हुए जो मुख्यतः दक्षिणी मालाबार के इर्नाडु और वल्लनाडु तालुकों में हुआ।
- कुछ इतिहासकारों के अनुसार उन्नीसवीं सदी का मोपला विद्रोह ग्रामीण आतंकवाद का एक विशिष्ट उदाहरण था, जिसकी जड़े स्पष्टतः कृषि व्यवस्था में थी। यह मोपला विद्रोह का प्रथम चरण था।
- 1921 ई. में द्वितीय मोपला विद्रोह हुआ जिसके कारणों में कृषिजन्य असंतोष था, लेकिन कालांतर में असहयोग आंदोलन के स्थगित किये जाने पर इस आंदोलन ने साम्प्रदायिक, राजनीतिक स्वरूप धारण कर लिया।
- 1921 में केरल के मालाबार जिले में काश्तकारों ने जमींदारों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया, 1920 में मंजेरी में हुए मालाबार कांग्रेस सम्मेलन ने इस आंदोलन को उकसाया।
- खिलाफत आंदोलन के नेता शौकत अली, गांधी जी और मौलाना अबुल कलाम आजाद ने मोपला विद्रोहियों का समर्थन किया।
- 15 फरवरी, 1921 को सरकार ने इस क्षेत्र में निषेधाज्ञा लागू कर खिलाफत तथा कांग्रेस के नेता यू. गोपाल मेनन, पी. मोईनुद्दीन कोया, याकूब हसन तथा के. माधवन नायर को गिरफ्तार कर लिया।
- मुसलमानों के धार्मिक गुरू तथा स्थानीय नेता अली मुसलियार को गिरफ्तार करने के प्रयास में मस्जिदों पर छापे मारे गये, परिणाम स्वरूप पुलिस को विद्रोहियों के आक्रामक तेवर का सामना करना पड़ा, कई विद्रोही मारे गये।
- मोपला विद्रोह की उग्रता को देखते हुए सरकार ने सैनिक शासन की घोषणा कर दी, परिणामस्वरूप मोपला विद्रोह को कुचल दिया गया।
फड़के आंदोलन
- 1879 के करीब महाराष्ट्र में बासुदेव बलवंत फड़के का उदय हुआ जिन्होंने महाराष्ट्र में बुद्धिजीवियों के सचेत राष्ट्रवाद तथा जनसाधारण के जुझारू राष्ट्रीयता के बीच सामंजस्य स्थापित किया।
- फड़के को आंदोलन के लिए प्रेरित करने वाले कारण थे, महादेव गोविंद रानाडे का धन के बहिर्गमन पर दिया गया व्याख्यान तथा 1876-77 में पश्चिमी भारत में पड़ने वाले भयंकर अकाल। इन घटनाओं ने फड़के को भावनात्मक रूप से प्रभावित किया।
- फड़के ने रामोसी तथा महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले किसानों के सहयोग से एक संगठन बनाया, जिसके सहयोग से उसने डकैतियां डालकर धन एकत्र करना, संचार व्यवस्था को तहस-नहस करना, विद्रोह करना आदि को अपना लक्ष्य बनाया।
- फड़के ने ‘हिन्दू राज्य’ की स्थापना का नारा दिया, इनके आंदोलन से स्पष्ट क्रांतिकारी आतंकवाद का पूर्वाभास मिलता है।
- 1880 में फड़के को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया जहां तीन वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई।
- फड़के की मृत्यु के बाद रामोसियों का गिरोह 1887 तक दौलता रामोसी के नेतृत्व में सक्रिय रहा।