कश्मीर के हिन्दू राज्य का इतिहास कल्हण की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है।
कल्हण जाति का ब्राम्हण था। राजतरंगिणी की रचना उसने जयसिंह (1127-1159 ई0) के शासन काल में पूरी की थी। इसकी रचना महाभारत की शैली के आधार पर की गई है।
कार्काेट वंश
सातवीं शताब्दी में दुर्लभवर्धन् नामक व्यक्ति ने कश्मीर में कार्काेट राजवंश की स्थापना की।
कश्मीर के शाासकों में ललितादित्य मुक्तापीड (724-760 ई0) सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। वह एक साम्राज्यवादी शासक था।
733 ई0 में उसने चीनी शासक के दरबार में एक दूत मण्डल भेजा था।
ललितादित्य ने तिब्बतियों, कम्बोजो, तुर्काे आदि को पराजित किया। उसकी विजय ने कश्मीर राज्य को गुप्तों के बाद भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बना दिया।
विजेता होने के साथ-साथ ललितादित्य एक महान निर्माता भी था जिसने अनेक मंदिरों विहारों तथा अन्य भवनों का निर्माण करवाया। सूर्य का प्रसिद्ध मार्तण्ड-मंदिर उसी के द्वारा बनवाया गया था।
ललितादित्य ने कश्मीर में परिहासपुर नगर बसाया था।
ललितादित्य की मृत्यु के बाद कार्काेट वंश की अवनति प्रारंभ हो गई। इस वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक जयापीड विनयादित्य (770-810 ई0) था।
विनयादित्य विद्वानों का बड़ा आदर करता था। उसकी सभा को क्षीर, भट्ट, उद्भट्ट दामोदरगुप्त आदि विद्वान लेखक सुशोभित करते थे। उसने अपने अपने राज्यकाल में साहित्य एवं कला को यथेष्ट प्रोत्साहन दिया।
उत्पल वंश
कार्काेट वंश के बाद कश्मीर में उत्पल वंश का शासन स्थापित हुआ। इस वंश की स्थापना अवन्ति वर्मन ने की थी।
अवन्ति वर्मन (855-883 ई0) एक लोकोपकारी शासक था जिसने कृषि की उन्नति के लिए नहरों का निर्माण करवाया। उसे अनेक नगरों की स्थापना का श्रेय भी प्राप्त है जिसमें अवन्तिपुर नगर प्रसिद्ध है।
उसने साहित्य एवं कला को भी काफी प्रोत्साहन दिया।
अवन्तिवर्मन अपने योग्य मंत्री सूर के साथ शासन किया।
अवन्ति वर्मन की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों के मध्य गृह युद्ध हुआ जिसमें अवन्ति वर्मन का वैध उत्तराधिकारी शंकर वर्मन विजयी रहा ।
शंकर वर्मन (885-902 ई0) को लगातार युद्ध करने के कारण धन की कमी का सामना करना पड़ा। इस समस्या को हल करने के लिए व कमी को पूरा करने के लिए उसने जनता (प्रजा) पर कई प्रकार के कर लगाये जिसके कारण जनता की आर्थिक स्थिति दुष्प्रभावित हुई।
युद्धों के कारण अपने रिक्त खजाने को भरने के लिए उसने मंदिरों की सम्पत्ति लूटी और राज्य द्वारा विद्या को प्रदान किये जाने वाले संरक्षण में भी कटौती कर दी।
इन करों ने उसे प्रजा में अत्यंत अलोकप्रिय बना दिया तथा उसे एक क्रूर तथा अत्याचारी शासक कहा जाने लगा।
क्षेमेन्द्रगुप्त 950 में गद्दी पर बैठा। इसका विवाह लोहार वंश की राजकुमारी दिद्दा से हुआ। क्षेमेन्द्रगुप्त के बाद कश्मीर की सत्ता व्यवहारिक रूप से रानी दिद्दा के हाथ में पचास वर्षाें तक रही। वह एक महत्वाकांक्षी शासिका थी।
दिद्दा की गणना कश्मीर एवं भारतीय इतिहास की प्रसिद्ध महिला शासकों में की जाती है। उसका नाम सिक्कों पर भी अभिलिखित किया गया है।
लोहार वंश
इस वंश का संस्थापक संग्राम राज (1003-1028 ई0) था। संग्राम राज ने अपने मंत्री तुंग को भटिण्डा के शाही शासक त्रिलोचन पाल की ओर से महमूद गजनवी से लड़ने के लिए भेजा।
लोहार वंश के राजाओं में हर्ष का नाम इस दृृष्टि से उल्लेखीय है कि वह स्वयं विद्वान, कवि एवं कई भाषाओं तथा विद्याओं का ज्ञाता था।कल्हण उसका आश्रित कवि था।
हर्ष में सद्गुणों एवं दुर्गुणों का विचित्र सम्मिश्रण था। अपनी विद्वता के कारण वह दूसरे राज्यों में भी प्रसिद्ध हुआ। परन्तु शासक के रूप में वह क्रूर एवं अत्याचारी था। कल्हण उसके अत्याचारों का वर्णन करता है।
हर्ष को ‘कश्मीर का नीरों’ भी कहा जाता था।
वह सामाजिक सुधारों एवं फैशन के नवीन मानदण्डों का संस्थापक था। फिजूलखर्ची तथा आन्तरिक विद्रोहों के कारण जब उसका खजाना खाली हो गया तो उसने राजकोष की पूर्ति के लिए मंदिरों को लूटा तथा अपनी प्रजा पर अनेक कर लगाए।
उसके समय में कश्मीर में भयंकर अकाल पड़ा फिर भी उसने दमनपूर्ण करों को वापस नहीं लिया।
उसके इस अत्याचारपूर्ण कार्याें से त्रस्त आकर उच्चल एवं सुस्सल नामक दो भाइयों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोहियों ने श्रीनगर में घुसकर राजमहल में आग लगा दी एवं हर्ष के पुत्र भोज की हत्या कर डाली। विद्रोहियों का मुकाबला करते हुए हर्ष भी 1101 ई0 में मारा गया।
जयसिंह (1128-1155 ई0) इसवंश का अंतिम शासक था। कल्हण की राजतरंगिणी का विवरण जयसिंह के शासन के साथ ही समाप्त हो जाता है।
इस काल में कश्मीर में धर्म, दर्शन, कला एवं साहित्य के क्षेत्रों में अत्यधिक प्रगति हुई। कश्मीर अपने विशिष्ट शैव धर्म एवं दर्शन के लिए प्रसिद्ध था।
ग्यारहवीं शताब्दी में क्षेमेन्द्र ने वृहदकथामंजरी और सोमदेव ने कथा सरित्सागर की रचना की। इसी शताब्दी के अन्त में कल्हण ने राजतरंगिणी की रचना की जिसका प्राचीन ऐतिहासिक साहिय में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।