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ऋग्वैदिक काल 1500-1000 .पू.

  • इस काल का तिथि निर्धारण जितना विवादास्पद रहा है, उतना ही इस काल के लोगों के बारे में सटीक जानकारी प्राप्त करना। ऋग्वेद संहिता की रचना इस काल में हुई थी। अतः यह इस काल की जानकारी का एकमात्र साहित्यिक स्रोत है।
  • सिंधु सभ्यता के विपरीत वैदिक सभ्यता मूलतः ग्रामीण थी।
  • आर्यों काआरंभिक जीवन पशु चारण पर आधारित था। कृषि उनके लिये गौण कार्य था।
  • 1400 .पू. के बोगजकोई (एशिया माइनर) के अभिलेख में ऋग्वैदिक काल के देवताओं-इंद्र, वरूण, मित्र तथा नासत्य का उल्लेख मिलता है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि वैदिक आर्य ईरान से होकर भारत में आए होंगे।
  • ऋग्वेद की अनेक बातें ईरानी भाषा के प्राचीनतम ग्रंथ अवेस्ता  से मिलती हैं।

आर्यों के मूल निवास के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के विचार अलग-अलग हैं-

विद्वान

आर्यों का मूल निवास स्थल

प्रो. मैक्समूलर

मध्य एशिया (बैक्ट्रिया)

बाल गंगाधर तिलक

उत्तरी ध्रुव

डॉ. अविनाश चन्द्र दास

सप्त सैंधव प्रदेश

दयानंद सरस्वती

तिब्बत

नेहरिंग एवं प्रो. गार्डन चाइल्ड

दक्षिणी रूस

गंगानाथ झा

ब्रह्मर्षि देश

गाइल्स महोदय

हंगरी अथवा डेन्यूब नदी घाटी

प्रो. पेंका

जर्मनी के मैदानी भाग

 

नोट : अधिकांश विद्वान प्रो. मैक्समूलर के विचारों से सहमत हैं कि आर्य मूल रूप से मध्य एशिया के निवासी थे।

 

भौगोलिक विस्तार

  • आर्यों की आरंभिक इतिहास की जानकारी का मुख्य स्रोत ऋग्वेद है।
  • ऋग्वेद में आर्य-निवास स्थल के लिए सप्त सैंधव क्षेत्र का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है-सात नदियों का क्षेत्र। ये नदियां हैं-सिंधु, सरस्वती, शतुद्रि (सतलज), विपासा (व्यास), परुष्णी नदी (रावी), वितस्ता (झेलम) और अस्किनी (चिनाब)।
  • ऋग्वेद से प्राप्त जानकारी के अनुसार, आर्यों का विस्तार अफगानिस्तान, पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था। सतलज से यमुना तक का क्षेत्रब्रह्मवर्तकहलाता था। मनुस्मृति में सरस्वती और दृशद्वती नदियों के बीच के प्रदेश कोब्रह्मवर्त कहा गया है। इसे ऋग्वैदिक सभ्यता का केन्द्र माना जाता है।
  • गंगा यमुना के दोआब क्षेत्र एवं उसके सीमवर्ती क्षेत्रों पर भी आर्यों ने कब्जा कर लिया, जिसेब्रह्मर्षि देशकहा गया। कालांतर में सम्पूर्ण उत्तर भारत में आर्यों ने विस्तार कर लिया जिसे आर्यावर्तकहा जाता है।
  • वैदिक संहिताओं में 31 नदियों का उल्लेख मिलता है जिसमें से ऋग्वेद में 25 नदियों का उल्लेख किया गया है। किन्तु, ध्यान देने योग्य है कि ऋग्वेद के नदी सूक्त में केवल 21 नदियों का वर्णन किया गया है। इस काल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण नदी सिंधु को बताया गया है, जबकि सर्वाधिक पवित्र नदी सरस्वती को माना गया है, जिसे देवीतमा’, ‘मातेतमाएवंनदीतमाभी कहा गया है। ऋग्वेद में गंगा नदी का एक बार, जबकि यमुना नदी का तीन बार नाम लिया गया है।
  • ऋग्वेद में हिमालय पर्वत एवं इसकी एक चोटी मुजवंतका भी उल्लेख किया गया है।

ऋग्वैदिक कालीन नदियां

प्राचीन नाम

आधुनिक नाम

परूष्णी

रावी

शतुद्रि

सतलज

अस्किनी

चेनाब/चिनाब

वितस्ता

झेलम

विपासा

व्यास

गोमती

गोमल

कुंभ/कुंभा

काबुल

सदानीरा

गंडक

कुमु

कुर्रम

सिंधु

इण्डस

 

सामाजिक स्थिति

  • ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था। सामाजिक संगठन का आधार गोत्र या जन्ममूलक था। समाज की सबसे छोटी एवं आधारभूत इकाई परिवार या कुल थी, जिसका मुखिया पिता होता था, जिसे कुलप कहा जाता था। पितृसत्तात्मक समाज के होते हुए भी महिलाओं को यथोचित सम्मान प्राप्त था।
  • ऋग्वैदिक काल में संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी। दादा, नानी, नाती, पोते आदि के लिए एक ही शब्द नप्तृ का प्रयोग होता था।
  • ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था के चिन्ह दिखाई देते हैं। ऋग्वेदके 10वें मंडल में वर्णित पुरूषसूक्त में चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार विराट पुरूष के मुख से ब्राह्मण, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य जांघों से एवं शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए हैं।
  • इस काल में स्त्रियां अपने पति के साथ यज्ञ कार्य में भाग लेती थीं। बाल-विवाह, सती प्रथा एवं पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। पुत्रियों काउपनयन संस्कार किया जाता था। विधवा विवाह की प्रथा प्रचलन में थी।
  • सामान्यतः एक पत्नीत्व विवाह ही प्रचलित था। विवाह में दहेज जैसी कुप्रथा का प्रचलन नहीं था किन्तु वहतु शब्द कन्या को दिये जाने वाले उपहार के लिए प्रयुक्त होता था।
  • शिक्षा के द्वार स्त्रियों के लिए भी खुले थे। ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला, एवं विश्ववारा जैसी विदुषी स्त्रियों का वर्णन है।
  • आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्या अमाजू कहलाती थी।
  • पुत्र प्राप्ति के लिए नियोग की प्रथा स्वीकार की गयी थी। इसके अन्तर्गत महिला को अपने देवर से साह्चर्य स्थापित करना पड़ता था।
  • ऋग्वैदिक काल में दास प्रथा का प्रचलन था, किन्तु यह प्राचीन यूनान और रोम की भांति नहीं थी।
  • आर्य मांसाहारी शाकाहारी दोनों प्रकार का भोजन करते थे। ऋग्वैदिक काल में सोम और सुरा का प्रचलन था।
  • आर्यों के वस्त्र सूत, ऊन चर्म के बने होते थे।
  • आर्य समाज में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। समाज में दो प्रकार के विवाह प्रचलित थे-
    •  अनुलोम विवाह-उच्च वर्ण का पुरूष और निम्न वर्ण की स्त्री।
    •  प्रतिलोम विवाह-उच्च वर्ण की स्त्री और निम्न वर्ण का पुरूष।
  • नर्तकियों द्वारा विशिष्ट परिधानपेशसधारण करने का विवेचन मिलता है।
  • कान में कर्णशोभन एवं शीश पर कुम्ब नामक आभूषण के पहनने की प्रथा थी। इनके अतिरिक्त खादि, रूक्म, भुजबंद, केयूर, नूपुर, कंकण एवं मुद्रिका आदि आभूषण भी धारण किये जाते थे।
  • यक्ष्मा (तपेदिक) का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है।
  • मृतकों को प्रायः अग्नि में जलाया जाता था, लेकिन कभी-कभी दफनाया भी जाता था।
  • भिषजशब्द का प्रयोग ऋग्वेद में वैद्य के लिए होता था। भिषजअश्विन देवता को कहा जाता था।

 

राजनीतिक स्थिति

  • ऋग्वैदिक समाज कबीलाई व्यवस्था पर आधारित था। ऋग्वैदिक लोग जनों कबीलों में विभाजित थे। कबीले का एक राजा होता था, जिसे गोप कहा जाता था।
  • आर्यों को पंचजन भी कहा गया है, क्योंकि इनके पांच कबीले (कुल) थे-अनु, द्रुहु, पुरू, तुर्वस तथा यदु।
  • ऋग्वैदिक काल में राज्य का मूल आधार कुल (परिवार) था। परिवार का मुखिया कुलपअथवागृहपतिकहलाता था। कुलों के आधार परग्रामका निर्माण होता था, जिसका प्रमुखग्रामणीहोता था। अनेक ग्राम मिलकरविशबनाते थे, जिसका प्रधानविशपतिहोता था। विश सेजनबनता था जो कबीलाई संगठन था। इसका प्रधान प्रमुख जनपति होता था।
    • राजापुरोहितविशपतिग्रामणीकुलप

  • दशराज्ञ युद्ध  : दस राजाओं के साथ युद्ध, दशराज्ञ युद्ध परूष्णी (रावी) नदी के तट पर भरत वंश के राजा सुदास तथा दस जनों-पांच आर्य एवं पांच अनार्य के बीच हुआ था। अंत में इस युद्ध में भरत राजा सुदास की विजय हुई। इस युद्ध  का वर्णन ऋग्वेद में विस्तार से किया गया है।
  • इस प्रकार आर्यों  की प्रशासनिक इकाइयां पांच हिस्सों में बंटी थी-1. कुल, 2. ग्राम, 3. विश, 4. जन और 5. राष्ट्र
  • राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली मौजूद थी और साथ ही गणतंत्र भी।  राजा का प्रमुख कार्य/कर्तव्य कबीले की रक्षा करना था।
  • इस काल में अनेक जनतांत्रिक संस्थाओं का विकास हुआ जिनमें सभा, समिति तथा विदथ प्रमुख हैं। इन संस्थाओं में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक प्रश्नों पर चर्चाएं होती थीं। ऋग्वैदिक काल में महिलाएं भी राजनीति में भाग लेती थीं सभा एवं विदथ परिषदों  में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी थी।
  • सभा और समिति राजा को सलाह देने वाली संस्था थी। सभा श्रेष्ठ एवं संभ्रांत लोगों की संस्था थी जबकि समिति सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करती थी। समिति केन्द्रीय राजनीतिक संस्था भी कहलाती थी जो राजा की नियुक्ति, पदच्युत करने उस पर नियंत्रण रखती थी। विदथ आर्यों की प्राचीन संस्था थी। स्त्रियां सभा एवं समितियों में भाग ले सकती थीं।
  • राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था, जबकि भूमि का स्वामित्व जनता में निहित था।
  • बलिएक प्रकार कर था जो प्रजा द्वारा स्वेच्छा से राजा को दिया जाता था। राजा इसके बदले उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता था। राजा नियमित या स्थायी सेना नहीं रखता था, लेकिन युद्ध  के समय वह नागरिक सेना संगठित कर लेता था, जिसका कार्य संचालन व्रात, गण, ग्राम और सर्ध नाम से विविध टोलियां करती थीं।
  • ऋग्वेद में राजा कोगोप्ता जनस्यअर्थात् कबीले का संरक्षक तथापुराभेत्ताअर्थात् नगरों पर विजय पाने वाला कहा गया है।

आर्थिक स्थिति

  • ऋग्वैदिक काल में आर्यों की संस्कृति ग्रामीण एवं कबीलाई थी पशुपालन प्राथमिक पेशा था और कृषि द्वितीयक।
  • इस काल मेंगायको पवित्र पशु माना जाता था और यह विनिमय के साधन के रूप में थी। आर्यों की अधिकांश लड़ाइयां गायों को लेकर होती थीं। गाय कोअष्टकर्णीभी कहा गया है जो उसके ऊपर स्वामित्व का सूचक है। गविष्टि’-गाय की महत्ता बताने वाला शब्द है। गाय को अघन्या ( मारे जाने योग्य पशु) माना जाता था। गाय की हत्या करने वाले या उसे घायल करने वाले के लिए वेदों में मृत्युदंड अथवा देश निकाले जाने की व्यवस्था थी। पणि नामक व्यापारी पशुओं की चोरी के लिए कुख्यात थे।
  • पुत्री को दूहिताइसलिए कहा गया क्योंकि वही गाय का दूध दुहती थी।
  • घोड़ा आर्य समाज का अति उपयोगी पशु था। इसके अलावा-गाय, बैल, भैंस, बकरी, ऊँट आदि पशु भी थे।
  • ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल में कृषि संबंधी कार्य का वर्णन मिलता है एक ही अनाज यव (जौ) का उल्लेख है। कृषि के महत्व से संबंधित केवल तीन ही शब्द हैं-उर्दर, धान्य और सम्पत्ति( जहांउर्दरका अर्थ अन्न मापक बर्तन जबकिधान्यका अर्थ अनाज है।
  • व्यापार पर पणि लोगों का अधिकार था। व्यापार मुख्यतः वस्तु विनिमय द्वारा होता था परन्तु विनिमय माध्यम के रूप में गायों घोड़ों सहितनिष्क का भी उल्लेख मिलता है जो संभवतः स्वर्ण आभूषण या सोने का टुकड़ा होता था वेकनाट सूदखोर थे, जो बहुत अधिक ब्याज लेते थे।
  • ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पियों के उल्लेख मिलते हैं। सोना के लिए हिरण्य शब्द मिलता है। कपास का उल्लेख कहीं नहीं किया गया है
  • अष्टकर्णी नाम से यह विदित होता है कि ऋग्वैदिक आर्यों को संभवतः अंकों की जानकारी थी।
  • अयसशब्द का भी इस काल में प्रयोग हुआ है, जिसकी पहचान संभवतः तांबे या कांसे के रूप में की गई है। इस काल के लोग लोहे से परिचित नहीं थे।

प्राचीन नाम

आधुनिक नाम

उर्वरा

उपजाऊ भूमि

लांगल, सीर

हल

बृक

बैल

करीष, शकृत

गोबर की खाद

सीता

हल की बनी नालियां

अवल

कूप (कुआं)

कीवाश

हलवाहा

पर्जन्य

बादल

उर्दर

अनाज मापने वाला पात्र

तक्षण

बढ़ई

भिषज

वैद्य

कुसीद

ऋण लेने बलि देने की प्रथा

अनस

बैलगाड़ी

 

धार्मिक स्थिति

  • ऋग्वैदिक काल में धार्मिक कर्मकांड का उद्देश्य भौतिक सुखों (पुत्र एवं पशु) की प्राप्ति करना था। आर्य बहुदेववादी होते हुए भी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। ऋग्वेद अनेक देवताओं का अस्तित्व मानता है, परन्तु इसमें देवियों के अस्तित्व का अभाव मिलता है। सभी देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे। प्रकृति के प्रतिनिधि के रूप में आर्यों के देवताओं की तीन श्रेणियां थीं-
    • आकाश के देवता : सूर्य, धौस, वरूण, मित्र, पूषन, विष्णु, सविता, आदित्य, उषा, अश्विन आदि।
    • अंतरिक्ष के देवता : इंद्र, रूद्र, मरूत, वायु, पर्जन्य, यम, प्रजापति आदि
    • पृथ्वी के देवता : अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि।
  • ऋग्वेद में इंद्र कोपुरंदरभी कहा गया है, ऋग्वेद के 250 सूक्त इंद्र को समर्पित हैं। इंद्र को आर्यों का युद्ध  नेता तथा वर्षा, आंधी, तूफान का देवता माना गया है। इंद्र’ आर्यों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता थे।
  • दूसरे महत्वपूर्ण देवताअग्निथे, जिन्हें 200 सूक्त समर्पित हैं। अग्नि का कार्य मनुष्य एवं देवताओं के बीच मध्यस्थता स्थापित करने का था। तीसरे प्रमुख देवता वरूण थे, जिन्हें 30 सूक्त समर्पित हैं और जो जलनिधि का प्रतिनिधित्व करते हैं। वरूण कोऋतस्यगोपाकहा जाता है।
  • गायत्री मंत्रसविता (सवितृ) देवता को समर्पित है। इसका उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में है। इसके रचनाकार विश्वामित्र हैं।
  • सोमको पेय पदार्थ का देवता माना जाता है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद के ‘9वें मंडलमें है। धौस को ऋग्वैदिककालीन देवताओं में सबसे प्राचीन माना जाता है।
  • सरस्वती, नदी की देवी थीं जो बाद में विद्या की देवी हो गईं।
  • ऋग्वैदिक काल में मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं मिलता है। उपासना का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति था। उपासना की विधि प्रार्थना एवं यज्ञ थी। अरण्यानी ऋग्वैदिक काल में जंगल की देवी थी।
  • ऋग्वेद के प्रथम तथा दसवें मंडल की रचना संभवतः सबसे बाद में की गई।
  • पूषण ऋग्वैदिक काल में पशुओं के देवता थे जो उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता हो गए।
  • रूद्र अनैतिक आचरण से सम्बद्ध व चिकित्सा के संरक्षक थे। हॉलर ने इन्हें यूनानी देवता अपोलो के समान माना है। रूद्र को कभी-कभीशिवऔरकल्याणकरकहा जाता था।

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