उत्तर वैदिक काल(1000-600 ई.पू.)
- यह युग आर्य संस्कृति के प्रसार और विकास, अभ्युदय और उत्कर्ष, मतभेद और ऊहापोह तथा विभिन्नीकरण का युग था। इस काल में धर्म, दर्शन, नीति, आचार-विचार, मत-विश्वास आदि की प्रधान रूपरेखा निश्चित और सुस्पष्ट हो गए।
- उत्तर वैदिक काल के अध्ययन के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्रोतों में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद एवं आरण्यक प्रमुख हैं।
- सामान्यतः लौह प्रौद्योगिकी युग की शुरूआत को उत्तर-वैदिक काल से जोड़ा जाता है, इसके पर्याप्त साक्ष्य भी उपलब्ध हैं।
- इस काल के अध्ययन के लिए चित्रित धूसर एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है।
- इस संस्कृति के लोगों का मुख्य केन्द्र मध्य देश था, जिसका प्रसार सरस्वती नदी से लेकर गंगा के दोआब तक था।
भौगोलिक विस्तार
- शतपथ ब्राह्मण के विदेह माधव की कथा में उत्तर वैदिक काल में आर्यों के सदानीरा(गंडक) के पूर्व की ओर प्रसार का वर्णन मिलता है।
- इस काल की सभ्यता का केन्द्र पंजाब से बढ़कर कुरूक्षेत्र(दिल्ली और गंगा-यमुना दोआब का उत्तरी भाग) तक आ गया था।
- 600 ई.पू. के आस पास(उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में) आर्य लोग कोशल, विदेह एवं अंग राज्य से परिचित थे।
- शतपथ ब्राह्मण में उत्तर वैदिककालीन रेवा(नर्मदा) और सदानीरा(गंडक) नदियों का उल्लेख मिलता है।
- उत्तर वैदिक साहित्य में त्रिककुद, क्रौंच, मैनाक आदि पर्वतों का उल्लेख है, जो पूर्वी हिमालय में पड़ते हैं।
सामाजिक स्थिति
- उत्तर वैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था ही था, लेकिन वर्ण व्यवस्था में कठोरता आने लगी थी। वर्णों का आधार कर्म पर आधारित न होकर जाति पर आधारित होने लगा था। समाज में अनेक धार्मिक श्रेणियों का उदय हुआ, जो कठोर होकर विभिन्न जातियों में बदलने लगीं। इस काल में व्यवसाय आनुवंशिक होने लगे।
- इस समय समाज में चार वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे। ब्राह्मण के लिए ‘ऐहि’(आइये), क्षत्रिय के लिए ‘आगहि’(आओ), वैश्य के लिए ‘आद्रव(जल्दी आओ) तथा शूद्र के लिए ‘आधाव’(दौड़कर आओ) शब्द प्रयुक्त होते थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य-इन तीनों को ‘द्विज’ कहा जाता था। ये उपनयन संस्कार के अधिकारी थे। चौथा वर्ण शूद्र था, जो उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं था, यहीं से शूद्रों को अपात्र या आधारहीन मानने की प्रक्रिया शुरू हुई।
- इस काल में यज्ञ का महत्व अत्यधिक बढ़ गया, जिससे ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में चारों वर्णां के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। इस काल में केवल वैश्य ही कर चुकाते थे, जबकि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों वैश्यों से वसूले गए राजस्व पर जीते थे। क्रम में सबसे निचला वर्ण शूद्र था जिसका कार्य अन्य तीनों वर्णां की सेवा करना था।
- इस काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आई। स्त्रियों के लिए उपनयन संस्कार प्रतिबंधित हो गया। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को ‘कृपण’ कहा गया है।
- शतपथ ब्राह्मण में कुछ विदुषी कन्याओं का उल्लेख मिलता है, ये हैं-गार्गी, गंधर्व, गृहीता, मैत्रेयी, देववती, काश्कृत्सनी आदि। स्त्रियों का पैतृक संपत्ति से अधिकार छिन गया तथा सभा में प्रवेश वर्जित हो गया।
- पारिवारिक जीवन ऋग्वेद के समान था। समाज पितृसत्तात्मक था, जिसका स्वामी पिता होता था। इस काल में स्त्रियों को पैतृक संबंधी कुछ अधिकार भी प्राप्त थे।
- उत्तर वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था स्थापित हुई। ‘गोत्र’ शब्द का अर्थ है-वह स्थान जहां समूचे कुल के गोधन को एक साथ रखा जाता था। परन्तु बाद में इस शब्द का अर्थ एक मूल पुरूष का वंशज हो गया।
- सर्वप्रथम जाबालोपनिषद में चारों आश्रमों(ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास) का विवरण मिलता है। इस काल में आर्यों को चावल, नमक, मछली, हाथी तथा बाघ आदि का ज्ञान हो गया था।
सोलह संस्कार
1. गर्भाधान 2. पुंसवन
3. सीमान्तोन्नयन 4. जातकर्म
5. नामकरण 6. निष्क्रमण
7. अन्नप्राशन 8. चूड़ाकर्म
9. कर्ण बेध 10. विद्यारंभ
11. उपनयन 12. वेदारंभ
13. केशांत या गोदान 14. समावर्तन
15. विवाह 16. अन्त्येष्टि
विवाह के आठ प्रकार
‘मनुस्मृति’ में विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जिसमें प्रथम चार विवाह प्रशंसनीय तथा शेष चार निंदनीय माने जाते हैं-
प्रशंसनीय विवाह
1.ब्रह्म : कन्या के वयस्क होने पर उसके माता-पिता द्वारा योग्य
वर खोजकर, उससे अपनी कन्या का विवाह करना।
2.दैव : यज्ञ करनेवाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह।
3.आर्ष : कन्या के पिता द्वारा यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गाय
के बदले में अपनी कन्या का विवाह करना।
4.प्रजापत्य : वर स्वयं कन्या के पिता से कन्या मांगकर विवाह
करता था।
निंदनीय विवाह
5.आसुर : कन्या के पिता द्वारा धन के बदले में कन्या का विक्रय।
6.गंधर्व : कन्या तथा पुरूष प्रेम अथवा कामुकता के वशीभुत होकर
करते थे।
7.पैशाच : सोई हुई अथवा विक्षिप्त कन्या के साथ सहवास कर
विवाह करना।
8.राक्षस : बलपूर्वक कन्या को छीनकर उससे विवाह करना।
राजनीतिक स्थिति
- इस काल में पहली बार क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ तथा कबीले पर शासन करने वाला राजा अब उस प्रदेश पर शासन करने लगा। राष्ट्र शब्द जो प्रदेश का सूचक है, पहली बार इस काल में प्रकट हुआ।
- राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है।
- उत्तर वैदिक काल में राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था और सशक्त हुई। इस काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया था।
- इस काल में राज्य का आकार बढ़ने से राजा का महत्व बढ़ा और उसके अधिकारों का विस्तार हुआ। अब राजा को ‘सम्राट’, ‘एकराट’ और ‘अधिराज’ आदि नामों से जाना जाने लगा।
- इस काल में सभा, समिति आदि प्रतिनिधि संस्थाओं का प्रभाव क्षीण हुआ। विदथ का नामोनिशान नहीं रहा, जबकि सभा और समिति अपनी जगह बनी रही, परन्तु उनका स्वरूप बदल गया। अब उनमें समाज के प्रभावशाली वर्ग का वर्चस्व हो गया। सभा नामक संस्था में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित हो गया।
- आरंभ में पांचाल एक कबीले का नाम था, परन्तु बाद में वह प्रदेश का नाम हो गया। इस काल में पांचाल सर्वाधिक विकसित राज्य था।
- राजा का राज्यभिषेक राजसूय यज्ञ के द्वारा सम्पन्न होता था, जिसका विस्तृत वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। यजुर्वेद में राज्य के उच्च पदाधिकारियों को ‘रत्नी’ कहा जाता था। ‘रत्नियों’ की सूची में राजा के संबंधी, मंत्री, विभागाध्यक्ष एवं दरबारी गण आते थे। शतपथ ब्राह्मण में 12 प्रकार के रत्नियों का विवरण मिलता है-
सेनानी सेनापति
सूत राजा का सारथी
ग्रामणी गांव का मुखिया
भागदुध कर संग्रहकर्ता
संग्रहीता कोषाध्याक्ष
क्षता प्रतिहारी
गोविकर्तन जंगल विभाग का प्रधान
पालागल विदूषक
महिषी मुख्य रानी
पुरोहित धार्मिक कृत्य करने वाला
युवराज राजकुमार
अक्षावाप पासे के खेल में राजा के सहयोगी
- राजा न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था, ब्राह्मण को मृत्युदंड नहीं दिया जाता था, ‘बलि’ ऋग्वैदिक काल में राजा को दिया जाने वाला स्वेच्छाकारी कर था, जो उत्तर वैदिक काल तक आते-आते एक नियमित कर हो गया। इसकी मात्रा 1/16वां भाग होती थी।
- ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित शासन व्यवस्था-
क्षेत्र
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शासन
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उपाधि
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पूर्व
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साम्राज्य
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सम्राट
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पश्चिम
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स्वराज्य
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स्वराट
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उत्तर
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वैराज्य
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विराट
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दक्षिण
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भोज्य
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भोज
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मध्य देश
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राज्य
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राजा
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आर्थिक स्थिति
- इस काल में पशुपालन की जगह कृषि प्रथम पेशा बन गया। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में कृषि से संबंधित चारों क्रियाओं-जुताई, बुआई, कटाई तथा मड़ाई का उल्लेख किया गया है। इस ग्रंथ में ‘विदेह माधव’ की कथा का भी उल्लेख मिलता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि आर्य सम्पूर्ण गंगाघाटी में कृषि करने लगे थे।
- इस काल में लोहे से बने उपकरणों के प्रयोग से कृषि क्षेत्र में क्रांन्ति आ गई। यजुर्वेद में लोहे के लिए ‘श्याम अयस’ शब्द का प्रयोग हुआ है। लोहे से बने उपकरणों के प्रयोग से कृषि विस्तार के साथ-साथ फसलों की संख्या में भी वृद्धि हुई और धान प्रमुख फसल बन गई। अतरंजीखेड़ा में पहली बार कृषि से संबंधित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
- उत्तर वैदिक काल में कृषि में विस्तार, शिल्पों में कुशलता, व्यापार एवं वाणिज्य में विस्तार के परिणामस्वरूप जनसंख्या में वृद्धि हुई।
- इस काल के लोग चार प्रकार के बर्तनों(मृद्भांडों) से परिचित थे-काले व लाल रंग मिश्रित मृद्भांड, काले रंग के मृद्भांड, चित्रित धूसर मृद्भांड और लाल मृद्भांड।
- ब्राह्मण ग्रंथों में ‘श्रेष्ठिन’ का भी उल्लेख मिलता है। ‘श्रेष्ठिन’ श्रेणी का प्रधान व्यापारी होता था।
- निष्क, शतमान, पाद, कृष्णल, रत्तिका तथा गुंजा आदि माप की भिन्न-भिन्न इकाइयां थीं। निष्क जो ऋग्वैदिक काल में स्वर्ण आभूषण था, अब एक मुद्रा माना जाने लगा।
- व्यापार पण द्वारा संम्पन्न होता था, अतः उत्तर वैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन हो चुका था परन्तु सामान्य लेन-देन में वस्तु विनिमय का प्रयोग किया जाता था। निष्क, शतमान, कृष्णल और पाद मुद्रा के प्रकार थे।
- उत्तर वैदिक आर्यों को समुद्र का ज्ञान हो गया था। इस काल के साहित्य में पश्चिमी और पूर्वी दोनों प्रकार के समुद्रों का वर्णन है। वैदिक ग्रंथों में समुद्र यात्रा की भी चर्चा है, जिससे वाणिज्य एवं व्यापार का संकेत मिलता है।
- स्वर्ण एवं लोहे के अतिरिक्त इस युग के आर्य टिन, तांबा, चांदी और सीसा से भी परिचित हो चुके थे।
- धातु शिल्प उद्योग बन चुका था। इस युग में धातु गलाने का उद्योग बड़े पैमाने पर होता था। संभवतः तांबे को गलाकर विभिन्न प्रकार के उपकरण एवं वस्तुएं बनाई जाती थीं।
- उत्तर वैदिक काल में वस्त्र निर्माण उद्योग एक प्रमुख उद्योग था। कपास का उल्लेख नहीं मिलता है। उर्ण(ऊन), शज(सन) का उल्लेख इस काल में मिलता है।
- सिक्के का अभी नियमित प्रचलन आरंभ नहीं हुआ था।
- ऋण-इनकी संख्या तीन थीं-(1) पितृ ऋण,(2) ऋषि ऋण,(3) देव ऋण।
- पितृ ऋण : संतान उत्पन्न कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
- ऋषि ऋण : अपने पुत्र को शिक्षित कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
- देव ऋण : धार्मिक अनुष्ठान एवं यज्ञ आदि कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
प्रत्येक व्यक्ति को तीन ऋणों से छुटकारा पाना होता था। इन ऋणों से छुटकारा पाने पर ही व्यक्ति का जीवन सफल माना जाता था।
धार्मिक स्थिति
- उत्तर वैदिक काल में भी कर्मकाण्डों का उद्देश्य मूलतः भौतिक सुखों की प्राप्ति करना था। उत्तर वैदिक काल में गंगा-यमुना दोआब आर्य संस्कृति का केन्द्रस्थल बन गया। ऐसा अनुमान है कि सारा उत्तर वैदिक साहित्य कुरू-पांचालों के दूसरे प्रदेशों में विकसित हुआ। यज्ञ इस संस्कृति का मूल था। यज्ञ के साथ-साथ् अनेकानेक अनुष्ठान व मंत्रविधियां भी प्रचलित हुईं।
- ऋग्वैदिक काल के दो सबसे बड़े देवता इंद्र एवं अग्नि अब उतने प्रमुख नहीं रहे। इंद्र के स्थान पर प्रजापति(सृजन के देवता) को सर्वाच्च स्थान मिला। इस काल के दो अन्य प्रमुख देवता रूद्र(पशुओं के देवता) व विष्णु(लोगों के पालक) माने जाते हैं। इस काल में वर्ण व्यवस्था कठोर रूप धारण कर चुकी थी। अतः कुछ वर्णां के अपने अलग से देवता हो गए। पूषन जो पहले पशुओं के देवता थे अब शूद्रों के देवता हो गए।
- सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में पुनर्जन्म के सिद्धांत का उल्लेख है। आरण्यकों में वैदिक कर्मकाण्डों की निंदा की गई है। इसमें यज्ञ एवं बलि की अपेक्षा तप पर बल दिया गया है।
- इस काल में दो महाकाव्य थे-महाभारत, जिसका पुराना नाम जयसंहिता था। यह विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है तथा दूसरा महाकाव्य रामायण है।
- वैदिक आर्यों और सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों की संस्कृति के बीच अन्तर-
- वैदिक आर्यों की सभ्यता ग्रामीण थी जबकि सैंधव सभ्यता नगरीय थी।
- वैदिक आर्य स्वर्ण, चांदी, ताम्र और लोहे से परिचित थे जबकि सैंधव सभ्यता के लोग पाषाण एवं कांसे से परिचित थे, लेकिन अभी लोहे से परिचित नहीं थे।
- वैदिक आर्य बहुदेववाद के समर्थक थे। वैदिक आर्य यज्ञ करते थे। वे लिंग पूजा एवं मूर्ति पूजा के विरोधी थे। जबकि सैंधव सभ्यता में धर्म का स्वरूप इहलौकिक था। सैंधव सभ्यता के लोग लिंग पूजा एवं मूर्ति पूजा के समर्थक थे।
- ऋग्वैदिक आर्यों का पालतू पशु घोड़ा था। ऋग्वैदिक आर्य हाथी और व्याघ्र से परिचित नहीं थे जबकि सैंधव सभ्यता के लोग घोड़े से अपरिचित थे। ये हाथी और व्याघ्र से परिचित थे।
- वैदिक आर्य, युद्ध आदि में अपनी सुरक्षा हेतु कवच और सिर पर शिरस्त्रणा(हेलमेट) का उपयोग करते थे जबकिसिंधु घाटी सभ्यता में इनके उपयोग का कोई भी साक्ष्य नहीं मिला है।
- वैदिक आर्यों की शिक्षा प्रणाली मौखिक थी जबकि सैंधव सभ्यता के लोगों की अपनी एक चित्रात्मक लिपि थी।
- वैदिक आर्यों का समाज परिवार आधारित था। परिवार पितृ-सत्तात्मक होता था जबकि सैंधव सभ्यता का समाज भी परिवार आधारित था। हालाँकि यहां परिवार मातृ-सत्तात्मक था।
- इस काल में मूर्ति पूजा के आरंभ होने का आभास मिलता है। इस काल में प्रत्येक वेद के अपने पुरोहित हो गए-
वेद
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पुरोहित
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ऋग्वेद
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होतृ
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सामवेद
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उद्गाता
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यजुर्वेद
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अध्वर्यु
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अथर्ववेद
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ब्रह्म
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- उत्तर वैदिक काल में ही बहुदेववाद, वासुदेव संप्रदाय एवं षड्दर्शनों(सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत) का बीजारोपण हुआ। मीमांसा को ‘पूर्व मीमांसा’ एवं वेदांत को ‘उत्तर मीमांसा’ के नाम से जाना जाता है।
- प्रमुख दर्शन एवं उनके प्रवर्तक-
दर्शन
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प्रवर्तक
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चार्वाक
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चार्वाक /बृहस्पति
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योग
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पतंजति(योगसूत्र)
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सांख्य
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कपिल
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न्याय
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गौतम
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पूर्व मीमांसा
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जैमिनी
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उत्तर मीमांसा
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बादरायण
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वैशेषिक
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कणाद या उलूक
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- मृत्यु की चर्चा सर्वप्रथम ‘शतपथ ब्राह्मण’ तथा मोक्ष की चर्चा सर्वप्रथम उपनिषद में मिलती है। परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहा गया। पुनर्जन्म की अवधारणा बृहदाण्यक उपनिषद में मिलती है। शतपथ ब्राह्मण में ही सर्वप्रथम स्त्रियों को अर्द्धांगिनी कहा गया है।
- उपनिषदों में स्पष्टतः यज्ञों तथा कर्मकाण्डों की निंदा की गई है तथा ब्रह्म की एक मात्र सत्ता स्वीकार की गई है। छांदोग्य उपनिषद में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख मिलता है-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ। परन्तु बाद में जाबालोपनिषद में सर्वप्रथम चारों आश्रमों(ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) का उल्लेख मिलता है।
प्रमुख यज्ञ
अश्वमेध यज्ञ - सर्वाधिक महत्वपूर्ण यज्ञ, राजा द्वारा साम्राज्य की सीमा में वृद्धि के लिए, घोड़े को स्वतंत्र छोड़ दिया जाता था।
राजसूय यज्ञ - राजा के राज्याभिषेक से संबंधित।
वाजपेय यज्ञ - राजा द्वारा अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिये रथदौड़ का आयोजन।
अग्निष्टोम यज्ञ - पापों के क्षय और स्वर्ग की ओर ले जाने वाली नाव के रूप में वर्णित।
सौत्रामणि यज्ञ - यज्ञ में पशु एवं सुरा की आहुति।
पुरूषमेध यज्ञ - राजनैतिक वर्चस्व के लिए स्वस्थ्य तथा विद्वान पुरूष की बलि का प्रावधान।